अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) की 30 अगस्त 2019 की रैली में हुए भाषणों से यह स्पष्ट लगता है कि 12 सितम्बर को होने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनाव में हाल का मूर्ति-विवाद प्रमुख मुद्दा रहेगा. चुनाव परिणाम के बाद भी यह विवाद बना रहने की संभावना है. 20-21 अगस्त 2019 की देर रात एबीवीपी के डूसू अध्यक्ष ने दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर में कला संकाय के प्रमुख द्वार पर विनायक दामोदर सावरकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और शहीद भगत सिंह की 'त्रिमूर्ती' स्थापित कर दी. यह कार्य रात के अंधेरे में धोखे से किया गया. इस घटना पर अन्य छात्र संगठनों की ओर से तीखा विरोध और विवाद हुआ. नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ़ इंडिया (एनएसयूआई) के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष ने रात के अंधेरे में ही सावरकर की मूर्ति को विरूपित कर दिया.
कुछ विद्वानों और पत्रकारों ने भी इस घटना का नोटिस लेते हुए लिखा कि सावरकर के साथ सुभाष बोस और भगत सिंह को नत्थी करना उन दोनों स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान है. विवाद बढ़ता देख एबीवीपी ने बतौर संगठन अपने को मूर्ति-स्थापन की घटना से यह कहते हुए अलग कर लिया कि विश्वविद्यालय परिसर में कोई भी मूर्ति विश्वविद्यालय प्रशासन और अन्य सम्बद्ध निकाय की अनुमति के बिना नहीं लगाई जानी चाहिए. 22-23 अगस्त की रात को डूसू नेताओं ने मूर्तियां यह कहते हुए हटा दीं कि चुनाव के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति से मूर्तियां लगाई जाएंगी. यह खबर थी कि एनएसयूआई ने एबीवीपी के इस गैर-कानूनी काम के विरोध में स्थानीय थाने में एफआरआई दर्ज कराई थी. लेकिन उस दिशा में पुलिस या विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से किसी कार्रवाई की सूचना नहीं है.
इस घटना में ध्यान देने बात है कि मूर्तियों को लगाने से लेकर सावरकर की मूर्ति को विरूपित करने और मूर्तियों को हटाने तक - सब कुछ गुपचुप तरीके से हुआ. विश्वविद्यालय खुलेपन, पारदर्शिता और आपसदारी के लिए जाने जाते हैं. यह चिंता की बात है कि विश्वविद्यालय प्रशासन और दोनों प्रमुख छात्र संगठनों ने इस मामले में समझदारी का परिचय नहीं दिया. मूर्तियां लगाने वाले एबीवीपी के डूसू अध्यक्ष ने कहा कि उन्होंने पिछले साल नवम्बर में विश्वविद्यालय प्रशासन को इस बारे में लिखा था, जिसमें डूसू कार्यालय सावरकर के नाम पर रखने की मांग भी की गई थी. उनके मुताबिक विश्वविद्यालय प्रशासन ने कई बार आग्रह करने के बावजूद उनकी मांग पर ध्यान नहीं दिया. लेकिन इससे डूसू अध्यक्ष को मनमानी करने की छूट नहीं मिल जाती. वहीँ विश्वविद्यालय प्रशासन को समझना चाहिए कि किसी मामले को लटकाने अथवा ढंकने-तोपने की कोशिश से चीज़ें गलत दिशा में जा सकती हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन को समय रहते इस मामले का पारदर्शी तरीके से निपटारा करना चाहिए था.
डूसू अध्यक्ष ने इस मामले में जो किया वह सावरकर की शैली के अनुरूप था. सावरकर अपनी हिंसा और छल-कपट की नीति को भगवान कृष्ण के साथ जोड़ कर सही ठहराते थे. उनकी होड़ दरअसल गांधी की अहिंसा और पारदर्शिता की नीति से थी. डूसू अध्यक्ष का लक्ष्य भी अंतत: डूसू कार्यालय में सावरकर की मूर्ति स्थापित करना था. सुभाष बोस और भगत सिंह की मूर्तियां नौजवानों के बीच सावरकर को वैधता दिलाने के लिए नत्थी की गईं. अगर डूसू चुनाव में एबीवीपी जीतती है तो वह डूसू कार्यालय में सावरकर की मूर्ति स्थापित करने की दिशा में जरूर प्रयास करेगी. लेकिन एनएसयूआई के अध्यक्ष द्वारा सावरकर की मूर्ति को रात के अंधेरे में विरूपित करना सुभाष बोस और भगत सिंह की कार्य-शैली के विरुद्ध है. उन्होंने सावरकर की शैली का अनुसरण करके एबीवीपी को ही मजबूत किया है. इसका कारण समझ में आता है. देश के संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों के उलट भारत का शासक वर्ग जो नवउदारवादी नीतियां चला रहा है, वे बिना छल-कपट के जारी नहीं रखी जा सकतीं. पिछले करीब तीन दशकों से यह छल-कपट चल रहा है, जिसमें कांग्रेस और भाजपा सबसे बड़ी भागीदार पार्टियां हैं. भाजपा की बहुमत सरकार के दौर में यह छल-कपट परवान चढ़ना ही था.
क्रांतिकारी के रूप में सावरकर विवादास्पद रहे हैं. उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए सेलुलर जेल से कई माफीनामे लिख कर 1924 में रिहाई हासिल की थी. रिहाई के बाद वे हिंदू महासभा के नेता के रूप में ब्रिटिश हुकूमत के वफादार बने रहे. क्रांतिकारी आंदोलन में कई लोग मुखबिर बने, कई लोग आंदोलन से विरत हो गए और श्री अरविंदो घोष जैसे क्रांतिकारी आध्यात्मिक रास्ते पर चले गए. लेकिन ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादारी जैसा रास्ता केवल सावरकर ने अपनाया. गांधी की हत्या में अदालत ने उनकी संलिप्तता स्वीकार की, लेकिन सबूतों के अभाव में उन्हें बरी कर दिया. 'हिंदुत्व' की अवधारणा और 'हिंदू-राष्ट्र' का सिद्धांत देने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) उन्हें अपना प्रतीक-पुरुष (आइकॉन) स्वीकार करता है और गांधी की हत्या के केस में उनका भरसक बचाव करता है. इसी नाते अटलबिहारी वाजपेयी की मिली-जुली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने 2003 में संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर का चित्र स्थापित किया था. राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने चित्र का अनावरण किया था. संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर का चित्र लगाने की अनुमति देने वाले पैनल में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रणब मुख़र्जी और शिवराज पाटिल के साथ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी भी थे. 2004 के आम चुनाव में भाजपानीत सरकार परास्त हो गई. तब से लोकसभा अध्यक्ष के साथ केवल भाजपा के नेता ही सावरकर की जयंती और पुण्यतिथि पर उन्हें रस्मी श्रद्धांजलि देते थे. लालकृष्ण अडवाणी ने एक बार अन्य पार्टियों के नेताओं के इस रवैये की निंदा भी थी. 2014 में प्रधानमंत्री बनने पर नरेंद्र मोदी ने संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर को श्रद्धांजलि दी.
डॉ. लोहिया ने यह जोर देकर कहा है कि किसी भी नेता की मूर्ति उसकी मृत्यु के 100 साल हो जाने के बाद लगाई जानी चाहिए. उनके सामने शायद तत्कालीन विश्व का परिदृश्य था, जिसमें नेताओं-विचारकों की मूर्तियां बड़े पैमाने पर प्रोपगेंडा पॉलिटिक्स में इस्तेमाल की जा रही थीं. अभी का दौर ऐसा है जब हम अपने खोखलेपन को भरने के लिए विभिन्न प्रतीक-पुरुषों की प्रतिमाओं का सहारा लेने की होड़ लगाते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में विवेकानंद की आदमकद प्रतिमा पहले से स्थापित है. उस पर एक तरह से एबीवीपी का पेटेंट भी है. इसके अलावा और प्रतिमाएं लगाने का सिलसिला शुरू होगा तो इस अस्मितावादी गोलबंदी के इस दौर में अपने-अपने प्रतीक-पुरुषों की कमी नहीं रहेगी. दक्षिण परिसर में भी प्रतिमा(ओं) लगाने की मांग होगी. समय के अंतराल के साथ हर कॉलेज कोई न कोई मूर्ति लगाना चाहेगा. विभागों में भी ऐसी मांग उठ सकती है. यह चलन अन्य विश्वविद्यालयों को भी प्रभावित कर सकता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कर्तव्य बनता था कि सावरकर की मूर्ति लगाने को आतुर एबीवीपी के नेताओं को बुला कर समझाता कि विश्वविद्यालय में किसी भी अनुशासन का कोई एक विचार/विचारक नहीं पढ़ाया जाता है. सच्ची राष्ट्रीय चेतना का निर्माण राष्ट्रीय नायकों के विचारों/आदर्शों को आलोचनात्मक ढंग से अपनाने पर होता है. विश्वविद्यालय प्रशासन अभी भी यह काम कर सकता है, ताकि विवाद आगे न बढ़े और विश्वविद्यालय का माहौल न बिगड़े. छात्र संगठनों को भी चाहिए कि वे अपने को छात्र हितों तक सीमित रखें, ताकि ज्यादा प्रभावी रूप में अपनी भूमिका निभा सकें. मौजूदा दौर में पूरी शिक्षा व्यवस्था पर तेजी से निजीकरण का हमला हो रहा है. इस हमले का मुकाबला सबसे पहले छात्र और शिक्षक संगठन ही कर सकते हैं. एबीवीपी और एनएसयूआई बड़ी राजनैतिक पार्टियों से जुड़े सुविधा-संपन्न छात्र संगठन हैं. वे ठान लें तो अपनी पार्टियों और सरकारों को शिक्षा का निजीकरण करने के फैसलों से रोक सकते हैं. उनकी वह भूमिका परिसर में नेताओं की मूर्तियां लगाने से कहीं ज्यादा उपयोगी होगी.
(लेखक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं।)
कुछ विद्वानों और पत्रकारों ने भी इस घटना का नोटिस लेते हुए लिखा कि सावरकर के साथ सुभाष बोस और भगत सिंह को नत्थी करना उन दोनों स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान है. विवाद बढ़ता देख एबीवीपी ने बतौर संगठन अपने को मूर्ति-स्थापन की घटना से यह कहते हुए अलग कर लिया कि विश्वविद्यालय परिसर में कोई भी मूर्ति विश्वविद्यालय प्रशासन और अन्य सम्बद्ध निकाय की अनुमति के बिना नहीं लगाई जानी चाहिए. 22-23 अगस्त की रात को डूसू नेताओं ने मूर्तियां यह कहते हुए हटा दीं कि चुनाव के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति से मूर्तियां लगाई जाएंगी. यह खबर थी कि एनएसयूआई ने एबीवीपी के इस गैर-कानूनी काम के विरोध में स्थानीय थाने में एफआरआई दर्ज कराई थी. लेकिन उस दिशा में पुलिस या विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से किसी कार्रवाई की सूचना नहीं है.
इस घटना में ध्यान देने बात है कि मूर्तियों को लगाने से लेकर सावरकर की मूर्ति को विरूपित करने और मूर्तियों को हटाने तक - सब कुछ गुपचुप तरीके से हुआ. विश्वविद्यालय खुलेपन, पारदर्शिता और आपसदारी के लिए जाने जाते हैं. यह चिंता की बात है कि विश्वविद्यालय प्रशासन और दोनों प्रमुख छात्र संगठनों ने इस मामले में समझदारी का परिचय नहीं दिया. मूर्तियां लगाने वाले एबीवीपी के डूसू अध्यक्ष ने कहा कि उन्होंने पिछले साल नवम्बर में विश्वविद्यालय प्रशासन को इस बारे में लिखा था, जिसमें डूसू कार्यालय सावरकर के नाम पर रखने की मांग भी की गई थी. उनके मुताबिक विश्वविद्यालय प्रशासन ने कई बार आग्रह करने के बावजूद उनकी मांग पर ध्यान नहीं दिया. लेकिन इससे डूसू अध्यक्ष को मनमानी करने की छूट नहीं मिल जाती. वहीँ विश्वविद्यालय प्रशासन को समझना चाहिए कि किसी मामले को लटकाने अथवा ढंकने-तोपने की कोशिश से चीज़ें गलत दिशा में जा सकती हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन को समय रहते इस मामले का पारदर्शी तरीके से निपटारा करना चाहिए था.
डूसू अध्यक्ष ने इस मामले में जो किया वह सावरकर की शैली के अनुरूप था. सावरकर अपनी हिंसा और छल-कपट की नीति को भगवान कृष्ण के साथ जोड़ कर सही ठहराते थे. उनकी होड़ दरअसल गांधी की अहिंसा और पारदर्शिता की नीति से थी. डूसू अध्यक्ष का लक्ष्य भी अंतत: डूसू कार्यालय में सावरकर की मूर्ति स्थापित करना था. सुभाष बोस और भगत सिंह की मूर्तियां नौजवानों के बीच सावरकर को वैधता दिलाने के लिए नत्थी की गईं. अगर डूसू चुनाव में एबीवीपी जीतती है तो वह डूसू कार्यालय में सावरकर की मूर्ति स्थापित करने की दिशा में जरूर प्रयास करेगी. लेकिन एनएसयूआई के अध्यक्ष द्वारा सावरकर की मूर्ति को रात के अंधेरे में विरूपित करना सुभाष बोस और भगत सिंह की कार्य-शैली के विरुद्ध है. उन्होंने सावरकर की शैली का अनुसरण करके एबीवीपी को ही मजबूत किया है. इसका कारण समझ में आता है. देश के संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों के उलट भारत का शासक वर्ग जो नवउदारवादी नीतियां चला रहा है, वे बिना छल-कपट के जारी नहीं रखी जा सकतीं. पिछले करीब तीन दशकों से यह छल-कपट चल रहा है, जिसमें कांग्रेस और भाजपा सबसे बड़ी भागीदार पार्टियां हैं. भाजपा की बहुमत सरकार के दौर में यह छल-कपट परवान चढ़ना ही था.
क्रांतिकारी के रूप में सावरकर विवादास्पद रहे हैं. उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए सेलुलर जेल से कई माफीनामे लिख कर 1924 में रिहाई हासिल की थी. रिहाई के बाद वे हिंदू महासभा के नेता के रूप में ब्रिटिश हुकूमत के वफादार बने रहे. क्रांतिकारी आंदोलन में कई लोग मुखबिर बने, कई लोग आंदोलन से विरत हो गए और श्री अरविंदो घोष जैसे क्रांतिकारी आध्यात्मिक रास्ते पर चले गए. लेकिन ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादारी जैसा रास्ता केवल सावरकर ने अपनाया. गांधी की हत्या में अदालत ने उनकी संलिप्तता स्वीकार की, लेकिन सबूतों के अभाव में उन्हें बरी कर दिया. 'हिंदुत्व' की अवधारणा और 'हिंदू-राष्ट्र' का सिद्धांत देने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) उन्हें अपना प्रतीक-पुरुष (आइकॉन) स्वीकार करता है और गांधी की हत्या के केस में उनका भरसक बचाव करता है. इसी नाते अटलबिहारी वाजपेयी की मिली-जुली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने 2003 में संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर का चित्र स्थापित किया था. राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने चित्र का अनावरण किया था. संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर का चित्र लगाने की अनुमति देने वाले पैनल में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रणब मुख़र्जी और शिवराज पाटिल के साथ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी भी थे. 2004 के आम चुनाव में भाजपानीत सरकार परास्त हो गई. तब से लोकसभा अध्यक्ष के साथ केवल भाजपा के नेता ही सावरकर की जयंती और पुण्यतिथि पर उन्हें रस्मी श्रद्धांजलि देते थे. लालकृष्ण अडवाणी ने एक बार अन्य पार्टियों के नेताओं के इस रवैये की निंदा भी थी. 2014 में प्रधानमंत्री बनने पर नरेंद्र मोदी ने संसद के सेंट्रल हॉल में सावरकर को श्रद्धांजलि दी.
डॉ. लोहिया ने यह जोर देकर कहा है कि किसी भी नेता की मूर्ति उसकी मृत्यु के 100 साल हो जाने के बाद लगाई जानी चाहिए. उनके सामने शायद तत्कालीन विश्व का परिदृश्य था, जिसमें नेताओं-विचारकों की मूर्तियां बड़े पैमाने पर प्रोपगेंडा पॉलिटिक्स में इस्तेमाल की जा रही थीं. अभी का दौर ऐसा है जब हम अपने खोखलेपन को भरने के लिए विभिन्न प्रतीक-पुरुषों की प्रतिमाओं का सहारा लेने की होड़ लगाते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में विवेकानंद की आदमकद प्रतिमा पहले से स्थापित है. उस पर एक तरह से एबीवीपी का पेटेंट भी है. इसके अलावा और प्रतिमाएं लगाने का सिलसिला शुरू होगा तो इस अस्मितावादी गोलबंदी के इस दौर में अपने-अपने प्रतीक-पुरुषों की कमी नहीं रहेगी. दक्षिण परिसर में भी प्रतिमा(ओं) लगाने की मांग होगी. समय के अंतराल के साथ हर कॉलेज कोई न कोई मूर्ति लगाना चाहेगा. विभागों में भी ऐसी मांग उठ सकती है. यह चलन अन्य विश्वविद्यालयों को भी प्रभावित कर सकता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कर्तव्य बनता था कि सावरकर की मूर्ति लगाने को आतुर एबीवीपी के नेताओं को बुला कर समझाता कि विश्वविद्यालय में किसी भी अनुशासन का कोई एक विचार/विचारक नहीं पढ़ाया जाता है. सच्ची राष्ट्रीय चेतना का निर्माण राष्ट्रीय नायकों के विचारों/आदर्शों को आलोचनात्मक ढंग से अपनाने पर होता है. विश्वविद्यालय प्रशासन अभी भी यह काम कर सकता है, ताकि विवाद आगे न बढ़े और विश्वविद्यालय का माहौल न बिगड़े. छात्र संगठनों को भी चाहिए कि वे अपने को छात्र हितों तक सीमित रखें, ताकि ज्यादा प्रभावी रूप में अपनी भूमिका निभा सकें. मौजूदा दौर में पूरी शिक्षा व्यवस्था पर तेजी से निजीकरण का हमला हो रहा है. इस हमले का मुकाबला सबसे पहले छात्र और शिक्षक संगठन ही कर सकते हैं. एबीवीपी और एनएसयूआई बड़ी राजनैतिक पार्टियों से जुड़े सुविधा-संपन्न छात्र संगठन हैं. वे ठान लें तो अपनी पार्टियों और सरकारों को शिक्षा का निजीकरण करने के फैसलों से रोक सकते हैं. उनकी वह भूमिका परिसर में नेताओं की मूर्तियां लगाने से कहीं ज्यादा उपयोगी होगी.
(लेखक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं।)