प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार कश्मीर समस्या के लिए मुख्य रूप से जवाहरलाल नेहरू को दोषी मानते हैं और बार-बार यह दावा करते हैं कि यदि कश्मीर का मसला सरदार पटेल को सौंपा जाता तो वह कब का हल हो जाता। सच पूछा जाए तो ये दोनों दावे पूरी तरह बेबुनियाद हैं। कश्मीर से जुड़ा घटनाक्रम यह बताता है कि यदि कश्मीर के मामले में नेहरू दिलचस्पी नहीं लेते तो कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बन जाता या एक आजाद देश बन जाता।
इतिहास इस बात का गवाह है कि आजादी के आंदोलन के दौरान ही नेहरू, कश्मीर और कश्मीरियों की समस्याओें की ओर ध्यान देने लगे थे। इस मामले में वे उस समय के कश्मीर के सर्वमान्य नेता शेख अब्दुल्ला से पूरा सहयोग करते थे।
भारत की आजादी के प्रश्न पर विचार करने के लिए मार्च 1946 में केबिनेट मिशन भारत आया था। उसी दरम्यान शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के महाराजा के विरूद्ध एक जमीनी आंदोलन प्रारंभ कर दिया। अब्दुल्ला की मांग थी ‘महाराजा कश्मीर छोड़ो’। उन्होंने अपनी मांग केबिनेट मिशन के समक्ष भी रखी। इससे नाराज होकर महाराजा ने शेख को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। नेहरूजी को यह बात नागवार लगी। उन्होंने घोषणा की कि वे कश्मीर जाएंगे और अब्दुल्ला के नेतृत्व में जारी आंदोलन में शामिल होंगे। अब्दुल्ला को कानूनी मदद उपलब्ध करवाने के लिए वे अपने साथ आसिफ अली को ले गए। आसिफ अली एक कांग्रेस नेता होने के साथ-साथ एक प्रसिद्ध वकील भी थे। कश्मीर की सीमा में पहुंचते ही दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया।
उस दौरान मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। आजाद ने तत्कालीन वायसराय लार्ड वेवेल से अनुरोध किया कि वे जैसे भी संभव हो नेहरूजी से उनकी बात करवाएं। नेहरू और आसिफ अली को कश्मीर के एक डाक बंगले में नजरबंद किया गया था। आजाद साहब से नेहरूजी की बात हुई और आजाद ने नेहरूजी से कहा कि वे वापिस आ जाएं। पहले तो नेहरूजी ने ऐसा करने में असमर्थता दिखाई परंतु मौलाना आजाद के इस आश्वासन के बाद कि वे स्वयं कश्मीर मामले को अपने हाथ में लेंगे और शेख अब्दुल्ला की रिहाई का प्रयास करेंगे, नेहरू वापिस आने को तैयार हो गए। मौलाना के अनुरोध पर वेवेल ने नेहरू को लाने के लिए सरकारी हवाई जहाज भेजा और रात्रि के दो बजे वे दिल्ली वापिस आए। मौलाना आजाद की किताब ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में प्रकाशित इस विवरण से यह सिद्ध होता है कि नेहरू कश्मीर मामले से भावनात्मक रूप से जुड़े रहे। कश्मीर की जनता नेहरू जी की इस प्रतिबद्धता से वाकिफ थी। इसी कारण शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर की जनता भारत में शामिल होने को तैयार थी। इस सहमति के पीछे शेख का नेतृत्व भी था। शेख भारत में इसलिए शामिल होना चाहते थे क्योंकि उन्हें भरोसा था कि आजादी के बाद भारत एक प्रगतिशील, सेक्युलर देश बनेगा।
जहां तक कश्मीर के संबंध में सरदार पटेल की भूमिका का सवाल है, प्रारंभ में उनका विचार यह था कि चूंकि कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है इसलिए वह चाहे तो पाकिस्तान में शामिल हो सकता है। परंतु जूनागढ़ के नवाब की अपनी रियासत का विलय पाकिस्तान में करने की घोषणा की हरकत के बाद पटेल ने अपना विचार बदल दिया और कश्मीर के मामले में नेहरू की नीति के समर्थक हो गए। इस संबंध में नेहरू-पटेल के बीच पत्रव्यवहार का उल्लेख किया जा सकता है।
पटेल के पत्रों का संग्रह दस बड़े ग्रंथों में किया गया है। इन ग्रंथों का संपादन सुप्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास ने किया है। पत्रव्यवहार के दसवें खंड में कश्मीर के मामले पर नेहरू-पटेल के पत्र शामिल किए गए हैं। इस खंड में सन् 1947 से लेकर सन् 1950 तक के पत्र शामिल हैं। इस खंड में एक भी ऐसा पत्र नहीं है जिसे पढ़कर यह प्रतीत हो कि दोनों के बीच कश्मीर के बारे में कोई गहरा मतभेद था।
इस ग्रंथ में एक ऐसा पत्र शामिल है जिसमें पटेल इस बात को स्वीकार करते हैं कि कश्मीर की समस्या का ऐसा हल संभव नहीं है जो सभी पक्षों को संतोषप्रद लगे। दोनों में इस बात पर मतैक्य था कि अब कश्मीर में जनमत संग्रह संभव नहीं है।
दिनांक 25 फरवरी 1950 को सरदार पटेल ने नेहरू को एक लंबा पत्र लिखा। इस पत्र में कश्मीर समेत अनेक समस्याओं का जिक्र है। पटेल लिखते हैं कि कश्मीर का प्रश्न संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सामने है। चूंकि हम व पाकिस्तान दोनों संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य हैं इसलिए इस समस्या का हल सुरक्षा परिषद पर छोड़ देना चाहिए। फिलहाल इससे ज्यादा और कुछ नहीं किया जा सकता। इससे स्पष्ट है कि पटेल कश्मीर के मसले को सुरक्षा परिषद में ले जाने के विरोधी नहीं थे।
इसी तरह 29 जून 1950 को नेहरू ने एक लंबा पत्र पटेल को लिखा। इस पत्र में नेहरू लिखते हैं कि इस समय अंतर्राष्ट्रीय स्थिति भी पूरी तरह से उलझनपूर्ण है। इस स्थिति में कश्मीर की समस्या क्या रूप ले सकती है कहना कठिन है। परंतु ऐसी स्थिति जनमत संग्रह की बात करने के लिए पूरी तरह बेमानी है। पटेल, नेहरू के इस पत्र का उत्तर 3 जुलाई 1950 को भेजते हैं। पटेल उस समय देहरादून में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। वे अपने उत्तर में नेहरू से पूरी तरह सहमति जताते हुए कहते हैं कि इस समय जनमत संग्रह की बात किसी हाल में नहीं की जा सकती। पटेल लिखते हैं ‘‘आज की स्थिति में जनमत संग्रह के मुद्दे पर बात करना कतई संभव नहीं है। यदि इस तरह की बात कही जाती है तो गैर-मुस्लिम कश्मीर से बड़े पैमाने पर पलायन कर सकते हैं। इस संभावना के मद्देनजर हमें स्पष्ट रूप से कह देना चाहिए कि इस समय जनमत संग्रह की संभावना पर विचार नहीं किया जा सकता। जब तक उचित वातावरण नहीं बनता है तब तक जनमत संग्रह किसी भी हालत में संभव नहीं है।‘‘
भाजपा और संघ परिवार की ओर से बार-बार कहा जाता है कि पटेल नेहरू की कश्मीर नीति से सहमत नहीं थे। विशेषकर पटेल, नेहरू के कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने के निर्णय के पूरी तरह खिलाफ थे। यदि ऐसा होता तो पटेल यह क्यों कहते कि इस मामले को सुरक्षा परिषद पर छोड़ देना चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह दावा किया था कि ‘‘आज मैंने सरदार पटेल और डॉ अंबेडकर के सपनों को पूरा किया है”।
जहां तक पटेल का सवाल है उनका नजरिया ऊपर स्पष्ट हो चुका है। संसद में और संसद के बाहर यह झूठ फैलाया जा रहा है कि डॉ अंबेडकर ने अनुच्छेद 370 को लागू किए जाने का विरोध किया था और 370 के मसौदे को तैयार करने से मना कर दिया था।
मीडिया में यह झूठ बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा है कि डॉ अम्बेडकर ने शेख अब्दुल्ला को कोई पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने 370 को गलत बताया था। जबकि कोई भी टीवी चैनल या अखबार इस बात के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं दे रहा है। यह कहा जा रहा है कि इस बात को आरएसएस के नेता बलराज मधोक ने कहीं कहा था।
सच यह है कि बलराज मधोक के हवाले से कही जाने वाली यह बात 1991 में ‘तरूण भारत’ समाचार पत्र - जो आरएसएस की पत्रिका है - में पहली बार उल्लिखित की गई जब डॉ अंबेडकर के परिनिर्वाण के लगभग चार दशक बीत चुके थे।
इस बात के पक्ष में कोई भी लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। यह विशुद्ध रूप से संघी झूठ है। अगर इस बात को सच भी मान लिया जाए तो बात यहीं खत्म नहीं हो जाती।
सच यह है कि डॉ अम्बेडकर कश्मीर के विभाजन के पक्ष में थे। उनका कहना था कि कश्मीर का मुस्लिम बहुल हिस्सा पाकिस्तान को दे देना चाहिए और हिन्दू, सिक्ख और बौद्ध आबादी जिस क्षेत्र में है उसे भारत में रहना चाहिए। इस बात के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं।
नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते समय उन्होंने अपने इस्तीफे के कारणों को स्पष्ट करते हुए एक पत्र जारी किया था। उस पत्र में अपने इस्तीफे का तीसरा कारण बताते हुए उन्होंने लिखा - ‘‘पाकिस्तान के साथ हमारा झगड़ा हमारी विदेश नीति का हिस्सा है जिसको लेकर मैं गहरा असंतोष महसूस करता हूं। पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्तों में खटास दो कारणों से है - एक है कश्मीर और दूसरा है पूर्वी बंगाल में हमारे लोगों के हालात। मुझे लगता है कि हमें कश्मीर के बजाए पूर्वी बंगाल पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए जहां जैसा कि हमें अखबारों से पता चल रहा है, हमारे लोग असहनीय स्थिति में जी रहे हैं। उस पर ध्यान देने के बजाए हम अपना पूरा जोर कश्मीर मुद्दे पर लगा रहे हैं। उसमें भी मुझे लगता है कि हम एक अवास्तविक पहलू पर लड़ रहे हैं।''
इतिहास इस बात का गवाह है कि आजादी के आंदोलन के दौरान ही नेहरू, कश्मीर और कश्मीरियों की समस्याओें की ओर ध्यान देने लगे थे। इस मामले में वे उस समय के कश्मीर के सर्वमान्य नेता शेख अब्दुल्ला से पूरा सहयोग करते थे।
भारत की आजादी के प्रश्न पर विचार करने के लिए मार्च 1946 में केबिनेट मिशन भारत आया था। उसी दरम्यान शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के महाराजा के विरूद्ध एक जमीनी आंदोलन प्रारंभ कर दिया। अब्दुल्ला की मांग थी ‘महाराजा कश्मीर छोड़ो’। उन्होंने अपनी मांग केबिनेट मिशन के समक्ष भी रखी। इससे नाराज होकर महाराजा ने शेख को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। नेहरूजी को यह बात नागवार लगी। उन्होंने घोषणा की कि वे कश्मीर जाएंगे और अब्दुल्ला के नेतृत्व में जारी आंदोलन में शामिल होंगे। अब्दुल्ला को कानूनी मदद उपलब्ध करवाने के लिए वे अपने साथ आसिफ अली को ले गए। आसिफ अली एक कांग्रेस नेता होने के साथ-साथ एक प्रसिद्ध वकील भी थे। कश्मीर की सीमा में पहुंचते ही दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया।
उस दौरान मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। आजाद ने तत्कालीन वायसराय लार्ड वेवेल से अनुरोध किया कि वे जैसे भी संभव हो नेहरूजी से उनकी बात करवाएं। नेहरू और आसिफ अली को कश्मीर के एक डाक बंगले में नजरबंद किया गया था। आजाद साहब से नेहरूजी की बात हुई और आजाद ने नेहरूजी से कहा कि वे वापिस आ जाएं। पहले तो नेहरूजी ने ऐसा करने में असमर्थता दिखाई परंतु मौलाना आजाद के इस आश्वासन के बाद कि वे स्वयं कश्मीर मामले को अपने हाथ में लेंगे और शेख अब्दुल्ला की रिहाई का प्रयास करेंगे, नेहरू वापिस आने को तैयार हो गए। मौलाना के अनुरोध पर वेवेल ने नेहरू को लाने के लिए सरकारी हवाई जहाज भेजा और रात्रि के दो बजे वे दिल्ली वापिस आए। मौलाना आजाद की किताब ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में प्रकाशित इस विवरण से यह सिद्ध होता है कि नेहरू कश्मीर मामले से भावनात्मक रूप से जुड़े रहे। कश्मीर की जनता नेहरू जी की इस प्रतिबद्धता से वाकिफ थी। इसी कारण शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर की जनता भारत में शामिल होने को तैयार थी। इस सहमति के पीछे शेख का नेतृत्व भी था। शेख भारत में इसलिए शामिल होना चाहते थे क्योंकि उन्हें भरोसा था कि आजादी के बाद भारत एक प्रगतिशील, सेक्युलर देश बनेगा।
जहां तक कश्मीर के संबंध में सरदार पटेल की भूमिका का सवाल है, प्रारंभ में उनका विचार यह था कि चूंकि कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है इसलिए वह चाहे तो पाकिस्तान में शामिल हो सकता है। परंतु जूनागढ़ के नवाब की अपनी रियासत का विलय पाकिस्तान में करने की घोषणा की हरकत के बाद पटेल ने अपना विचार बदल दिया और कश्मीर के मामले में नेहरू की नीति के समर्थक हो गए। इस संबंध में नेहरू-पटेल के बीच पत्रव्यवहार का उल्लेख किया जा सकता है।
पटेल के पत्रों का संग्रह दस बड़े ग्रंथों में किया गया है। इन ग्रंथों का संपादन सुप्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास ने किया है। पत्रव्यवहार के दसवें खंड में कश्मीर के मामले पर नेहरू-पटेल के पत्र शामिल किए गए हैं। इस खंड में सन् 1947 से लेकर सन् 1950 तक के पत्र शामिल हैं। इस खंड में एक भी ऐसा पत्र नहीं है जिसे पढ़कर यह प्रतीत हो कि दोनों के बीच कश्मीर के बारे में कोई गहरा मतभेद था।
इस ग्रंथ में एक ऐसा पत्र शामिल है जिसमें पटेल इस बात को स्वीकार करते हैं कि कश्मीर की समस्या का ऐसा हल संभव नहीं है जो सभी पक्षों को संतोषप्रद लगे। दोनों में इस बात पर मतैक्य था कि अब कश्मीर में जनमत संग्रह संभव नहीं है।
दिनांक 25 फरवरी 1950 को सरदार पटेल ने नेहरू को एक लंबा पत्र लिखा। इस पत्र में कश्मीर समेत अनेक समस्याओं का जिक्र है। पटेल लिखते हैं कि कश्मीर का प्रश्न संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सामने है। चूंकि हम व पाकिस्तान दोनों संयुक्त राष्ट्रसंघ के सदस्य हैं इसलिए इस समस्या का हल सुरक्षा परिषद पर छोड़ देना चाहिए। फिलहाल इससे ज्यादा और कुछ नहीं किया जा सकता। इससे स्पष्ट है कि पटेल कश्मीर के मसले को सुरक्षा परिषद में ले जाने के विरोधी नहीं थे।
इसी तरह 29 जून 1950 को नेहरू ने एक लंबा पत्र पटेल को लिखा। इस पत्र में नेहरू लिखते हैं कि इस समय अंतर्राष्ट्रीय स्थिति भी पूरी तरह से उलझनपूर्ण है। इस स्थिति में कश्मीर की समस्या क्या रूप ले सकती है कहना कठिन है। परंतु ऐसी स्थिति जनमत संग्रह की बात करने के लिए पूरी तरह बेमानी है। पटेल, नेहरू के इस पत्र का उत्तर 3 जुलाई 1950 को भेजते हैं। पटेल उस समय देहरादून में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। वे अपने उत्तर में नेहरू से पूरी तरह सहमति जताते हुए कहते हैं कि इस समय जनमत संग्रह की बात किसी हाल में नहीं की जा सकती। पटेल लिखते हैं ‘‘आज की स्थिति में जनमत संग्रह के मुद्दे पर बात करना कतई संभव नहीं है। यदि इस तरह की बात कही जाती है तो गैर-मुस्लिम कश्मीर से बड़े पैमाने पर पलायन कर सकते हैं। इस संभावना के मद्देनजर हमें स्पष्ट रूप से कह देना चाहिए कि इस समय जनमत संग्रह की संभावना पर विचार नहीं किया जा सकता। जब तक उचित वातावरण नहीं बनता है तब तक जनमत संग्रह किसी भी हालत में संभव नहीं है।‘‘
भाजपा और संघ परिवार की ओर से बार-बार कहा जाता है कि पटेल नेहरू की कश्मीर नीति से सहमत नहीं थे। विशेषकर पटेल, नेहरू के कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने के निर्णय के पूरी तरह खिलाफ थे। यदि ऐसा होता तो पटेल यह क्यों कहते कि इस मामले को सुरक्षा परिषद पर छोड़ देना चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह दावा किया था कि ‘‘आज मैंने सरदार पटेल और डॉ अंबेडकर के सपनों को पूरा किया है”।
जहां तक पटेल का सवाल है उनका नजरिया ऊपर स्पष्ट हो चुका है। संसद में और संसद के बाहर यह झूठ फैलाया जा रहा है कि डॉ अंबेडकर ने अनुच्छेद 370 को लागू किए जाने का विरोध किया था और 370 के मसौदे को तैयार करने से मना कर दिया था।
मीडिया में यह झूठ बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा है कि डॉ अम्बेडकर ने शेख अब्दुल्ला को कोई पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने 370 को गलत बताया था। जबकि कोई भी टीवी चैनल या अखबार इस बात के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं दे रहा है। यह कहा जा रहा है कि इस बात को आरएसएस के नेता बलराज मधोक ने कहीं कहा था।
सच यह है कि बलराज मधोक के हवाले से कही जाने वाली यह बात 1991 में ‘तरूण भारत’ समाचार पत्र - जो आरएसएस की पत्रिका है - में पहली बार उल्लिखित की गई जब डॉ अंबेडकर के परिनिर्वाण के लगभग चार दशक बीत चुके थे।
इस बात के पक्ष में कोई भी लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। यह विशुद्ध रूप से संघी झूठ है। अगर इस बात को सच भी मान लिया जाए तो बात यहीं खत्म नहीं हो जाती।
सच यह है कि डॉ अम्बेडकर कश्मीर के विभाजन के पक्ष में थे। उनका कहना था कि कश्मीर का मुस्लिम बहुल हिस्सा पाकिस्तान को दे देना चाहिए और हिन्दू, सिक्ख और बौद्ध आबादी जिस क्षेत्र में है उसे भारत में रहना चाहिए। इस बात के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं।
नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते समय उन्होंने अपने इस्तीफे के कारणों को स्पष्ट करते हुए एक पत्र जारी किया था। उस पत्र में अपने इस्तीफे का तीसरा कारण बताते हुए उन्होंने लिखा - ‘‘पाकिस्तान के साथ हमारा झगड़ा हमारी विदेश नीति का हिस्सा है जिसको लेकर मैं गहरा असंतोष महसूस करता हूं। पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्तों में खटास दो कारणों से है - एक है कश्मीर और दूसरा है पूर्वी बंगाल में हमारे लोगों के हालात। मुझे लगता है कि हमें कश्मीर के बजाए पूर्वी बंगाल पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए जहां जैसा कि हमें अखबारों से पता चल रहा है, हमारे लोग असहनीय स्थिति में जी रहे हैं। उस पर ध्यान देने के बजाए हम अपना पूरा जोर कश्मीर मुद्दे पर लगा रहे हैं। उसमें भी मुझे लगता है कि हम एक अवास्तविक पहलू पर लड़ रहे हैं।''