2019 के आम चुनावों के नतीजों ने हमें जो दिखाया है उसकी तमाम वजहें विश्लेषकों और विद्वानों ने गिनाई हैं। इनमें ज़्यादातर वजहें जायज़ हैं और उसका कुछ न कुछ असर नतीजों पर पड़ा है। लेकिन तीन ऐसी प्रमुख वजहें हैं जो इन नतीजों को बहुत निर्णायक बनती हैं। इन चुनावों ने भारतीय समाज में 'सभ्यता की लड़ाई' को ऐसे दौर में पहुँचा दिया जहाँ 'भारत की संकल्पना' के समाप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया है। जिस 'भारत की संकल्पना' को पिछले तकरीबन 150 सालों की आज़ादी और समाज परिवर्तन की धाराओं ने बड़ी मेहनत और मेधा से तैयार किया था। क्या हैं ये तीन कारण -
1. भारतीय समाज का बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और कॉर्पोरेट समर्थित अंध राष्ट्रवाद की निर्णायक विजय।
2. पिछले 150 सालों में विकसित समाज परिवर्तन की धारा विशेष रूप से जाती विरोधी चेतना की मानीखेज़ पराजय और ब्राह्मणवाद की विजय।
3. तीसरा और अंतिम कारण, जिसे हम कारणों का कारण कह सकते हैं - वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कल्पित प्रोजेक्ट का अंतिम दौर में पहुँच जाना। तीसरा और अंतिम कारण हमारे इस नोट के सन्दर्भ में सबसे ज़्यादा प्रासंगिक है क्यों की यही कारण ऐसा है जो सब्जेक्टिव है, यानी हालात में मानवीय हस्तक्षेप का नतीजा है।
इन तीनों कारणों के विस्तार में न जा कर हम आज के कार्यभार, विशेष रूप से सामाजिक- सांस्कृतिक कार्यभार पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
उनके पास एक कहानी है : -
'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में नेहरू यह सवाल पूछते हैं की 'भारत माता' कौन है ? यह सवाल पूछने के ज़रिये नेहरू 'भारतीय समाज' जैसी किसी चीज़ की तलाश कर रहे थे। इस सभ्यता में श्रृंखला और टूटी हुई कड़ियों को तलाशते हुए नेहरू प्राचीन सभ्यता से लेकर आधुनिक समाज के जन्म की एक कहानी कहते हैं। यह कहानी हम सब की कहानी है। इसे सिर्फ नेहरू ने ही नहीं कहा बल्कि हज़ारों साल में विभिन्न मूल्यों, संस्कृतियों और विचारों की टकराहट से होता हुआ जो कच्चा माल आधुनिक युग के दहन पात्र में चढ़ाया गया- यह उसकी कहानी है। इसे भारत की सभ्यता ने लिखा और संस्कृतियों ने सुनाया था।
जब आज़ादी, बराबरी और इन्साफ की विभिन्न धाराओं के मंथन से भारतीय राष्ट्र जन्म ले रहा था- उस समय सिर्फ़ अमृत नहीं जहर भी सतह पर उतराने लगा था। जब हमारे नेता, मनीषी और आम जान मिल कर इस देश की चादर बन रहे थे कुछ और लोग भी थे जो भारतीय समाज के सबसे दकियानूसी और हिंसक विचारों को लेकर आगे बढ़ रहे थे। उनके पास भारतीय इतिहास और स्मृति की एक प्रतिकथा मौजूद थी। इनकी इस प्रतिकथा के तीन हज़ार साल का एक नैरेटिव तैयार किया गया। इस प्रतिकथा का नायक प्राचीनता के बोध से दबा एक आधुनिक हिन्दू राष्ट्र था-
यह हिन्दू पुरुष, सवर्ण- मध्यवर्गीय था- जिसे समय-समय पर विदेशी आक्रांताओं, विधर्मियों और 'अपने' ही समाज के दलितों ने हमें परेशान किया था। वह चिंतित था और उसे अपने धर्म और स्त्रियों की रक्षा 'दूसरों' से करनी थी। इस हिन्दू के नैरेटिव में सिर्फ़ विधर्मियों और विजातियों को ही नहीं बल्कि एक समावेशी और साझा भारत की संकल्पना को भी अपना दुश्मन मान लिया। फिर इस दुश्मनी की एक कहानी तैयार की गयी। इस कहानी का भारत एकहरा, अकेला, शोषक और हिंसक था और उसे अपनी इस छवि पर गर्व था। इस कहानी के लेखक थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उनके अनुसांगिक संगठन। उन्होंने भारत की आज़ादी के पूर्व ही अपनी कहानी बहुत मेहनत से लिखनी और सुनानी शुरू की। यह उनकी खूबी थी की उन्होंने अपनी कहानी को एक सभ्यता विमर्श में तब्दील कर दिया। फिर इस विमर्श को लोगों तक पहुँचाने के लिए क्रमबद्ध रूप से संगठनों, संस्थाओं और व्यक्तिओं के कई नेटवर्क तैयार किये। साथ ही तैयार की कार्यकर्ता और समर्थकों की एक विराट फ़ौज। आधुनिक तरीकों के माध्यम से यह नेटवर्क देशव्यापी ही नहीं बल्कि विश्यव्यापी हो गया। एक सामाजिक- सांस्कृतिक संगठन की बुनियाद पर उन्होंने एक जन विरोधी राजनीती तैयार की। उनकी बनायी इन संस्थाओं ने लोगों को सिर्फ विचार ही नहीं दिए बल्कि इन विचारों के प्रसार के लिए भौतिक ढाँचे भी प्रदान किये। उदहारण के लिए 'सरस्वती शिशु मंदिर' की श्रृंखला ही काफी है। चप्पे -चप्पे पर फैले इन विद्यालयों ने उनकी कहानी कहने के लिए मंच ही नहीं दिए बल्कि बाबरी मस्जिद ध्वंस आंदोलन के दौरान कार्यकर्ताओं के ठहरने के हेतु शिविर और पूड़ी के पैकेट तैयार करने के लिए कारखाने भी मुहैय्या कराये।
इसका प्रभाव हुआ- एक वैकल्पिक इतिहास बोध का प्रसार। सबसे निर्णायक ये हुआ कि उत्पीड़ित भी उत्पीड़कों की भाषा बोलने लगे। यह इतिहासबोध- मिथक को इतिहास और इतिहास को मिथक की तरह पेश करता है। इस इतिहासबोध के प्रभाव में भारतीय समाज का भीतरी तौर पर साम्प्रदायिकरण और फासिस्टिकरण हुआ। किसी भी राज्य में हर दौर में काम या ज़्यादा मात्रा में फासिस्ट होने की आशंका हमेशा मौजूद रहती है। लेकिन उससे ज़्यादा खतरनाक होता है किसी समाज का फासिस्ट होते जाना। भारतीय समाज में विशेष रूप से अल्पसंख्यक, दलित, महिला, आदिवासी, और अन्य वंचित समुदायों के ऊपर बढ़ते हमलों तथा सामान्य रूप से पूरे समाज में बढ़ती हिंसा - इस फासिस्टिकरण की वजह से मुमकिन हुयी है।
समाज में बढ़ती बहुआयामी हिंसा उसी कहानी का नतीजा है जो हमें संगठनो-संस्थानों के एक विशाल नेटवर्क ने सुनाई है। क्या यह इतिहास का व्यंग्य नहीं है कि आज के भारत के इतिहास बोध का निर्माण RSS ने किया है।
हमारे पास भी एक कहानी है- और यह असली कहानी है। उन्होंने हमारी कथा के सामने अपनी प्रति कथा रखी और हमारा समाज उस प्रतिकथा को ही असली मानने लगा। हमारी कथा भारत के हज़ारों साल की कथा है। सिंधु से लेकर वेद तक, बुद्ध से गाँधी तक, कालिदास से कन्हण, मौलाना आज़ाद से इराबोट सिंह, अकबर से नेहरू तक, कबीर से अम्बेडकर तक, रज़िया से सावित्रीबाई तक, ख़ुसरो से रवीन्द्रनाथ तक, गार्गी से लावाई तक, चार्वाक से भगत सिंह तक, बसवेश्वर से नामदेव तक... गाँव-दर-गाँव, शहर-दर-शहर, जाने-अनजाने, नायक-नायिका, कारनामे, रचनात्मकता और पराक्रम की अनगिनत कथाएं हमारे पास असली कहानी है। पर ये कहानी हम अपने देश को सुना नहीं सके।
इतने सारे रंग-बिरंगे सहयोगी और अंतर्विरोधी रेशों को एक कथा में पिरोने के लिए जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी होता है- कथाकार का inclusive होना। हम देश से inclusive होने की उम्मीद करते रहे लेकिन हमने inclusion (समावेशन) से ज़्यादा exclusion (बहिष्करण) पर ध्यान लगाया। हमारी कोई साझा भारतीय कथा तैयार ही नहीं हुई। हम सभ्यता के फलक पर सोच ही नहीं पाए। हमने मतभेद, विचारधाराओं, उप-विचारधाराओं, विमर्शों, उप-विमर्शों के खाने में खुद को इतना विभाजित कर लिया कि वह कहानी हम कहने में हम अक्षम हो गए जिसे देश सुनना चाहता था और जिस कथा की हम सन्तान थे। हमारी कथा एक सूत्र न होकर fractured ही रही।
यह उस भारत की कथा है जिसे हज़ारों साल में गढ़ा गया है। यह वह idea of India (भारत की संकल्पना) की कथा है जिसे भारत की आज़ादी की लड़ाई और समाज परिवर्तन की विभिन्न धाराओं ने मिलकर रचा था। इस कथा की गूँज हमारे संविधान में सुनाई देती है। इस idea of india ने सुनिश्चित किया था कि धार्मिक, जातीय, लैंगिक, भाषाई और नस्लीय किसी आधार पर हमारे समाज में भेदभाव नहीं होगा और सबको अवसर की समानता उपलब्ध होगी। आज़ादी के बाद का हमारा इतिहास दो तरह की भारत कथाओं के संघर्ष की दास्तान है। उनका भारत जो संकीर्ण और इकहरा है और हमारा भारत जो प्रगतिशील और रंग-बिरंगा है।
हमने अपनी कहानी को taken for granted लिया। हमें यह महसूस हुआ कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित हमारी यह भारत कथा स्वयं सिद्ध है। यह संविधान और लोकतान्त्रिक ढाँचों की बदौलत ख़ुद ब ख़ुद प्रसारित होती रहेगी। लेकिन 'उनके' साथ न संविधान था न लोकतान्त्रिक ढाँचें - उनके पास उनके संकीर्ण भारत की कथा थी और समर्पित कथावाचकों की फौज़। उन्होंने बखूबी अपनी प्रतिकथा लोगों के दिमाग में बैठा दी और एक छद्म इतिहासबोध का निर्माण किया।
लेकिन हमें याद करना होगा फिर से- हमारे पास भी एक कथा है। एक बहुलतावादी-बहुसांस्कृतिक भारत की, एक आज़ादी और बराबरी पसंद भारत की।
हम अपनी कहानी कैसे सुनाएँ
सभ्यता की कहानियाँ संस्कृति ही सुना सकती है। राजनीतिक संघर्षों में तात्कालिकता का दबाव होता है। लेकिन संस्कृति की कहानी दूरगामी होती है उसके पैमाने हज़ारों साल के होते हैं। हमारी भारत कथा ऐसी ही होगी- हज़ारों साल के पैमाने पर फैली इंसाफ पसंद- बहुलतावादी भारत की कथा। इतिहास और संस्कृति की समावेशी कथा- जिसमें अंतर्विरोधों को न्यूनतम साझा के पैमाने से हल किया जा सके। जिसमें राष्ट्र से आगे जाकर हम एक भारत की सभ्यता की कहानी सुना सकें और उसके भविष्य का चित्र बना सकें। हमें हमारी भारत कथा और अपने कथावाचकों की फौज तैयार करनी होगी। हमें एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की रूप रेखा बनानी होगी।
परिवर्तन का ज़्यादातर नैरेटिव राजनीतिक परिभाषाओं में क़ैद होकर रह गया है। राजनीतिक हलकों में सामाजिक समस्याओं के भी राजनीतिक हल खोजे जाते हैं और संस्कृति की स्थिति दोयम दर्ज़े की होती है। आमतौर पर संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में समझा जाता है। इसलिए सांस्कृतिक कर्म राजनीति के आगे चलने वाली मशाल न होकर उसकी पिछलग्गू बन जाता है। राजनीति का विमर्श तात्कालिक रूप से सटीक होने की शर्त की वजह से विभाजनकारी है। लेकिन संस्कृति में विमर्श के पांच कम से कम ऐसे दायरे बनते हैं जिसमें विचारधारा- गुट- दल आदि के सीमित दायरों से निकलकर व्यापक सहमति बनाई जा सकती है- ये पांच दायरे हैं- समानता, जाति विनाश, स्त्री-मुक्ति, सद्धभावना और प्रकृति तथा आदिवासी। ये पंचशील ऐसे हैं जिसके दायरे में व्यापक सहमति और सामंजस्य के साथ हमारी 'भारत कथा' सुनाई जा सकती है।
हमारा कथावाचन दो तरीकों से चलेगा। पहला कार्यक्रमों और आयोजनों की श्रृंखला दूसरा हमारी अपनी संस्थाओं (ढाँचों) का निर्माण। सांस्कृतिक कहने का आशय सामाजिक-साँस्कृतिक , अंतर-सामुदायिक सहभोज, अंतर्जातीय-धार्मिक विवाहों में मदद-आयोजन, मेलों का आयोजन, एवं भागीदारी (मेले यानी वही मेले जो समाज में आयोजित होते हैं ) खेल क्लबों का निर्माण, गांव-गाँव, मोहल्ले-मोहल्ले सांस्कृतिक कार्यक्रम और नाट्य-उत्सवों का आयोजन, धर्म-सुधार, सद्भावना एवं साझी विरासत पर कार्यशालायें- इसमें नए नए फॉर्म्स तलाशे और इजाद किये जा सकते हैं। दूसरा है अपनी संस्थायें और ढांचे तैयार करना- विद्यालय, शिशु गृह, सार्वजानिक उत्सव गृह, प्राकृतिक खेती के उद्यम, साझी रसोई आदि। यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है।
अगर हम आज़ादी के आंदोलन के दौरान विकसित राजनीति को देखें तो हम पाएंगे कि उसका आधार एक सशक्त समाज सुधार आंदोलन रहा है, गाँधी तो अक्सरहा रचनात्मक कार्यक्रम को राजनीति से ज़्यादा महत्व देते दीखते हैं। लेकिन आज़ादी के बाद का समय इस बात का गवाह रहा है कि कैसे सेकुलर-समावेशी या प्रगतिशील राजनीति बग़ैर किसी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के विकसित हुई है। राजनीति के नीचे साँस्कृतिक आन्दोलन का कोई ठोस आधार ही नहीं रहा। ज़ाहिर है नुक्कड़ नाटक समूह, लेखक संगठन या लघु पत्रिका एक हिस्सा तो हो सकते हैं लेकिन उसे सांस्कृतिक समझना हमारी भूल है।
तो साथियों! हमारे पास भी एक भारत कथा है- उसे एक सूत्र में पिरोना और उसे देश को सुनाना- यही हमारा आज का काम है- जिसे बहुत पहले शुरू हो जाना था।
(अंशू मालवीय सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
1. भारतीय समाज का बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और कॉर्पोरेट समर्थित अंध राष्ट्रवाद की निर्णायक विजय।
2. पिछले 150 सालों में विकसित समाज परिवर्तन की धारा विशेष रूप से जाती विरोधी चेतना की मानीखेज़ पराजय और ब्राह्मणवाद की विजय।
3. तीसरा और अंतिम कारण, जिसे हम कारणों का कारण कह सकते हैं - वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कल्पित प्रोजेक्ट का अंतिम दौर में पहुँच जाना। तीसरा और अंतिम कारण हमारे इस नोट के सन्दर्भ में सबसे ज़्यादा प्रासंगिक है क्यों की यही कारण ऐसा है जो सब्जेक्टिव है, यानी हालात में मानवीय हस्तक्षेप का नतीजा है।
इन तीनों कारणों के विस्तार में न जा कर हम आज के कार्यभार, विशेष रूप से सामाजिक- सांस्कृतिक कार्यभार पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।
उनके पास एक कहानी है : -
'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में नेहरू यह सवाल पूछते हैं की 'भारत माता' कौन है ? यह सवाल पूछने के ज़रिये नेहरू 'भारतीय समाज' जैसी किसी चीज़ की तलाश कर रहे थे। इस सभ्यता में श्रृंखला और टूटी हुई कड़ियों को तलाशते हुए नेहरू प्राचीन सभ्यता से लेकर आधुनिक समाज के जन्म की एक कहानी कहते हैं। यह कहानी हम सब की कहानी है। इसे सिर्फ नेहरू ने ही नहीं कहा बल्कि हज़ारों साल में विभिन्न मूल्यों, संस्कृतियों और विचारों की टकराहट से होता हुआ जो कच्चा माल आधुनिक युग के दहन पात्र में चढ़ाया गया- यह उसकी कहानी है। इसे भारत की सभ्यता ने लिखा और संस्कृतियों ने सुनाया था।
जब आज़ादी, बराबरी और इन्साफ की विभिन्न धाराओं के मंथन से भारतीय राष्ट्र जन्म ले रहा था- उस समय सिर्फ़ अमृत नहीं जहर भी सतह पर उतराने लगा था। जब हमारे नेता, मनीषी और आम जान मिल कर इस देश की चादर बन रहे थे कुछ और लोग भी थे जो भारतीय समाज के सबसे दकियानूसी और हिंसक विचारों को लेकर आगे बढ़ रहे थे। उनके पास भारतीय इतिहास और स्मृति की एक प्रतिकथा मौजूद थी। इनकी इस प्रतिकथा के तीन हज़ार साल का एक नैरेटिव तैयार किया गया। इस प्रतिकथा का नायक प्राचीनता के बोध से दबा एक आधुनिक हिन्दू राष्ट्र था-
यह हिन्दू पुरुष, सवर्ण- मध्यवर्गीय था- जिसे समय-समय पर विदेशी आक्रांताओं, विधर्मियों और 'अपने' ही समाज के दलितों ने हमें परेशान किया था। वह चिंतित था और उसे अपने धर्म और स्त्रियों की रक्षा 'दूसरों' से करनी थी। इस हिन्दू के नैरेटिव में सिर्फ़ विधर्मियों और विजातियों को ही नहीं बल्कि एक समावेशी और साझा भारत की संकल्पना को भी अपना दुश्मन मान लिया। फिर इस दुश्मनी की एक कहानी तैयार की गयी। इस कहानी का भारत एकहरा, अकेला, शोषक और हिंसक था और उसे अपनी इस छवि पर गर्व था। इस कहानी के लेखक थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं उनके अनुसांगिक संगठन। उन्होंने भारत की आज़ादी के पूर्व ही अपनी कहानी बहुत मेहनत से लिखनी और सुनानी शुरू की। यह उनकी खूबी थी की उन्होंने अपनी कहानी को एक सभ्यता विमर्श में तब्दील कर दिया। फिर इस विमर्श को लोगों तक पहुँचाने के लिए क्रमबद्ध रूप से संगठनों, संस्थाओं और व्यक्तिओं के कई नेटवर्क तैयार किये। साथ ही तैयार की कार्यकर्ता और समर्थकों की एक विराट फ़ौज। आधुनिक तरीकों के माध्यम से यह नेटवर्क देशव्यापी ही नहीं बल्कि विश्यव्यापी हो गया। एक सामाजिक- सांस्कृतिक संगठन की बुनियाद पर उन्होंने एक जन विरोधी राजनीती तैयार की। उनकी बनायी इन संस्थाओं ने लोगों को सिर्फ विचार ही नहीं दिए बल्कि इन विचारों के प्रसार के लिए भौतिक ढाँचे भी प्रदान किये। उदहारण के लिए 'सरस्वती शिशु मंदिर' की श्रृंखला ही काफी है। चप्पे -चप्पे पर फैले इन विद्यालयों ने उनकी कहानी कहने के लिए मंच ही नहीं दिए बल्कि बाबरी मस्जिद ध्वंस आंदोलन के दौरान कार्यकर्ताओं के ठहरने के हेतु शिविर और पूड़ी के पैकेट तैयार करने के लिए कारखाने भी मुहैय्या कराये।
इसका प्रभाव हुआ- एक वैकल्पिक इतिहास बोध का प्रसार। सबसे निर्णायक ये हुआ कि उत्पीड़ित भी उत्पीड़कों की भाषा बोलने लगे। यह इतिहासबोध- मिथक को इतिहास और इतिहास को मिथक की तरह पेश करता है। इस इतिहासबोध के प्रभाव में भारतीय समाज का भीतरी तौर पर साम्प्रदायिकरण और फासिस्टिकरण हुआ। किसी भी राज्य में हर दौर में काम या ज़्यादा मात्रा में फासिस्ट होने की आशंका हमेशा मौजूद रहती है। लेकिन उससे ज़्यादा खतरनाक होता है किसी समाज का फासिस्ट होते जाना। भारतीय समाज में विशेष रूप से अल्पसंख्यक, दलित, महिला, आदिवासी, और अन्य वंचित समुदायों के ऊपर बढ़ते हमलों तथा सामान्य रूप से पूरे समाज में बढ़ती हिंसा - इस फासिस्टिकरण की वजह से मुमकिन हुयी है।
समाज में बढ़ती बहुआयामी हिंसा उसी कहानी का नतीजा है जो हमें संगठनो-संस्थानों के एक विशाल नेटवर्क ने सुनाई है। क्या यह इतिहास का व्यंग्य नहीं है कि आज के भारत के इतिहास बोध का निर्माण RSS ने किया है।
हमारे पास भी एक कहानी है- और यह असली कहानी है। उन्होंने हमारी कथा के सामने अपनी प्रति कथा रखी और हमारा समाज उस प्रतिकथा को ही असली मानने लगा। हमारी कथा भारत के हज़ारों साल की कथा है। सिंधु से लेकर वेद तक, बुद्ध से गाँधी तक, कालिदास से कन्हण, मौलाना आज़ाद से इराबोट सिंह, अकबर से नेहरू तक, कबीर से अम्बेडकर तक, रज़िया से सावित्रीबाई तक, ख़ुसरो से रवीन्द्रनाथ तक, गार्गी से लावाई तक, चार्वाक से भगत सिंह तक, बसवेश्वर से नामदेव तक... गाँव-दर-गाँव, शहर-दर-शहर, जाने-अनजाने, नायक-नायिका, कारनामे, रचनात्मकता और पराक्रम की अनगिनत कथाएं हमारे पास असली कहानी है। पर ये कहानी हम अपने देश को सुना नहीं सके।
इतने सारे रंग-बिरंगे सहयोगी और अंतर्विरोधी रेशों को एक कथा में पिरोने के लिए जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी होता है- कथाकार का inclusive होना। हम देश से inclusive होने की उम्मीद करते रहे लेकिन हमने inclusion (समावेशन) से ज़्यादा exclusion (बहिष्करण) पर ध्यान लगाया। हमारी कोई साझा भारतीय कथा तैयार ही नहीं हुई। हम सभ्यता के फलक पर सोच ही नहीं पाए। हमने मतभेद, विचारधाराओं, उप-विचारधाराओं, विमर्शों, उप-विमर्शों के खाने में खुद को इतना विभाजित कर लिया कि वह कहानी हम कहने में हम अक्षम हो गए जिसे देश सुनना चाहता था और जिस कथा की हम सन्तान थे। हमारी कथा एक सूत्र न होकर fractured ही रही।
यह उस भारत की कथा है जिसे हज़ारों साल में गढ़ा गया है। यह वह idea of India (भारत की संकल्पना) की कथा है जिसे भारत की आज़ादी की लड़ाई और समाज परिवर्तन की विभिन्न धाराओं ने मिलकर रचा था। इस कथा की गूँज हमारे संविधान में सुनाई देती है। इस idea of india ने सुनिश्चित किया था कि धार्मिक, जातीय, लैंगिक, भाषाई और नस्लीय किसी आधार पर हमारे समाज में भेदभाव नहीं होगा और सबको अवसर की समानता उपलब्ध होगी। आज़ादी के बाद का हमारा इतिहास दो तरह की भारत कथाओं के संघर्ष की दास्तान है। उनका भारत जो संकीर्ण और इकहरा है और हमारा भारत जो प्रगतिशील और रंग-बिरंगा है।
हमने अपनी कहानी को taken for granted लिया। हमें यह महसूस हुआ कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित हमारी यह भारत कथा स्वयं सिद्ध है। यह संविधान और लोकतान्त्रिक ढाँचों की बदौलत ख़ुद ब ख़ुद प्रसारित होती रहेगी। लेकिन 'उनके' साथ न संविधान था न लोकतान्त्रिक ढाँचें - उनके पास उनके संकीर्ण भारत की कथा थी और समर्पित कथावाचकों की फौज़। उन्होंने बखूबी अपनी प्रतिकथा लोगों के दिमाग में बैठा दी और एक छद्म इतिहासबोध का निर्माण किया।
लेकिन हमें याद करना होगा फिर से- हमारे पास भी एक कथा है। एक बहुलतावादी-बहुसांस्कृतिक भारत की, एक आज़ादी और बराबरी पसंद भारत की।
हम अपनी कहानी कैसे सुनाएँ
सभ्यता की कहानियाँ संस्कृति ही सुना सकती है। राजनीतिक संघर्षों में तात्कालिकता का दबाव होता है। लेकिन संस्कृति की कहानी दूरगामी होती है उसके पैमाने हज़ारों साल के होते हैं। हमारी भारत कथा ऐसी ही होगी- हज़ारों साल के पैमाने पर फैली इंसाफ पसंद- बहुलतावादी भारत की कथा। इतिहास और संस्कृति की समावेशी कथा- जिसमें अंतर्विरोधों को न्यूनतम साझा के पैमाने से हल किया जा सके। जिसमें राष्ट्र से आगे जाकर हम एक भारत की सभ्यता की कहानी सुना सकें और उसके भविष्य का चित्र बना सकें। हमें हमारी भारत कथा और अपने कथावाचकों की फौज तैयार करनी होगी। हमें एक नए सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन की रूप रेखा बनानी होगी।
परिवर्तन का ज़्यादातर नैरेटिव राजनीतिक परिभाषाओं में क़ैद होकर रह गया है। राजनीतिक हलकों में सामाजिक समस्याओं के भी राजनीतिक हल खोजे जाते हैं और संस्कृति की स्थिति दोयम दर्ज़े की होती है। आमतौर पर संस्कृति को सांस्कृतिक कार्यक्रम के रूप में समझा जाता है। इसलिए सांस्कृतिक कर्म राजनीति के आगे चलने वाली मशाल न होकर उसकी पिछलग्गू बन जाता है। राजनीति का विमर्श तात्कालिक रूप से सटीक होने की शर्त की वजह से विभाजनकारी है। लेकिन संस्कृति में विमर्श के पांच कम से कम ऐसे दायरे बनते हैं जिसमें विचारधारा- गुट- दल आदि के सीमित दायरों से निकलकर व्यापक सहमति बनाई जा सकती है- ये पांच दायरे हैं- समानता, जाति विनाश, स्त्री-मुक्ति, सद्धभावना और प्रकृति तथा आदिवासी। ये पंचशील ऐसे हैं जिसके दायरे में व्यापक सहमति और सामंजस्य के साथ हमारी 'भारत कथा' सुनाई जा सकती है।
हमारा कथावाचन दो तरीकों से चलेगा। पहला कार्यक्रमों और आयोजनों की श्रृंखला दूसरा हमारी अपनी संस्थाओं (ढाँचों) का निर्माण। सांस्कृतिक कहने का आशय सामाजिक-साँस्कृतिक , अंतर-सामुदायिक सहभोज, अंतर्जातीय-धार्मिक विवाहों में मदद-आयोजन, मेलों का आयोजन, एवं भागीदारी (मेले यानी वही मेले जो समाज में आयोजित होते हैं ) खेल क्लबों का निर्माण, गांव-गाँव, मोहल्ले-मोहल्ले सांस्कृतिक कार्यक्रम और नाट्य-उत्सवों का आयोजन, धर्म-सुधार, सद्भावना एवं साझी विरासत पर कार्यशालायें- इसमें नए नए फॉर्म्स तलाशे और इजाद किये जा सकते हैं। दूसरा है अपनी संस्थायें और ढांचे तैयार करना- विद्यालय, शिशु गृह, सार्वजानिक उत्सव गृह, प्राकृतिक खेती के उद्यम, साझी रसोई आदि। यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है।
अगर हम आज़ादी के आंदोलन के दौरान विकसित राजनीति को देखें तो हम पाएंगे कि उसका आधार एक सशक्त समाज सुधार आंदोलन रहा है, गाँधी तो अक्सरहा रचनात्मक कार्यक्रम को राजनीति से ज़्यादा महत्व देते दीखते हैं। लेकिन आज़ादी के बाद का समय इस बात का गवाह रहा है कि कैसे सेकुलर-समावेशी या प्रगतिशील राजनीति बग़ैर किसी सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के विकसित हुई है। राजनीति के नीचे साँस्कृतिक आन्दोलन का कोई ठोस आधार ही नहीं रहा। ज़ाहिर है नुक्कड़ नाटक समूह, लेखक संगठन या लघु पत्रिका एक हिस्सा तो हो सकते हैं लेकिन उसे सांस्कृतिक समझना हमारी भूल है।
तो साथियों! हमारे पास भी एक भारत कथा है- उसे एक सूत्र में पिरोना और उसे देश को सुनाना- यही हमारा आज का काम है- जिसे बहुत पहले शुरू हो जाना था।
(अंशू मालवीय सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)