सनसनीखेज सुर्खियों के पीछे कोई कहानी जरूर होती है। हमलोगों के जैसा पत्रकार इन हमलों पर अपनी किस तरह की राय बना सकता है। गौरी लंकेश पर ये हमला उनके आवास बैंगलुरू में 8:10 बजे हुआ। इस हमले में उनकी मौके पर मौत हो गई।
हम सब सनसनी, दुःखभरी कहानी और विरोधों को मार्ग को पसंद करते हैं। मैं क्रोध और एक गहरा दुःख महसूस करती हूं। अगर मीडिया ने अपना काम किया होता तो वरिष्ठ पत्रकार और कार्यकर्ता गौरी लंकेश आज जिंदा होतीं? ऐसा बेहतर होता कि उच्च पदों पर आसीन महिला एवं पुरूष द्वारा संवैधानिक शपथ के उल्लंघन पर कहानियों की सुरखियां होती? समानता और गैर-भेदभाव पर होती?
उनकी क्रूर हत्या बिना सोचे समझे नहीं की गई। जिस तरह उनके शरीर पर गोलियां दागी गईं उससे कोई भी कह सकता कि ये भारे के हत्यारों द्वारा की गई हत्या थी जिसे मारने के लिए सुपारी दिया था। उनकी मौत पर जिम्मेदार लोगों के खामोश रहने से गंभीर सवाल उठने लगे हैं। इस तरह खामोश रहने की वजह से ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालो को ताकत मिलती है।
करीब पिछले तीन सालों में देखा गया है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तरों पर मीडिया, लेखकों और संपादकों पर रिपोर्ट को हटाने के लिए दबाव डाला गया है। यद्दपि कर्नाटक कोमू सौहार्द वेदिका (केकेएसवी) ने गौरी की हत्या पर न्यायिक जांच की मांग की है। ये मांग जरूरी और वैद्य है लेकिन ये काफी नहीं है। शासित पार्टी की इच्छा शक्ति और विपक्ष की बेखौफ राजनीतिक आवाज न्याय दिलाने के लिए बहुत ज्यादा जरूरी है। हर रोज जब हमारे संविधान का अगवा किया जा रहा है तो विपक्षी पार्टियां विरोधों का नेतृत्व क्यों नहीं कर रही हैं?
इस तरह की नफरत और जहर कैसे फैलाई जा रही है? गौरी लंकेश की हत्या के कुछ ही समय बाद हमने देखा कि सोशल मीडिया पर जश्न मनाने के ट्वीट किए जा रहे हैं। देश का एक नागरिक फेसबुक पर प्रधानमंत्री से पूछा कि सोशल मीडिया पर आप जिन चार लोगों को फॉलो करते हैं वे गौरी लंकेश की हत्या पर गाली देते हुए ट्वीट करते हैं। हमें इसका पता चला कि आपने उनकी हत्या पर निंदा नहीं की। लेकिन कम-से-कम आप उन्हें फॉलो करना तो छोड़ दें?
एमएम कालबुर्गी, गोविंद पनसारे और नरेंद्र दाभोलकर की हत्या करने वालों को अब तक गिरफ्तार नहीं किया जा सका है। हमलोग अभी तक उनके हत्यारों की तलाश कर रहे हैं? क्या जांच एजेंसियों और प्रभारी अधिकारियों को इन मामलों में जवाब नहीं देना चाहिए?
इसकी जांच में ढीलेपन को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट ने कई बार सीबीआई की खिंचाई कर चुकी है। दिसंबर 2015 में संसद में किरण रीजीजू के गैर जिम्मेदाराना बयान पर गोविंद पनसारे की बहु मेघा पनसारे ने नारजगी जताई थी।
साप्ताहिक पत्रिका आउटलुक के अनुसार 'गौरी लंकेश की हत्या कालबुर्गी, पनसारे और दाभोलकर की हत्या के क्रम की ही एक कड़ी है। सीआईडी ने मामले का उजागर करते हुए कहा था कि इन तीनों की हत्या एक ही तरीके से की गई और तीनों की हत्याओं में एक ही तरीके के हथियार का इस्तेमाल किया गया था। इस साल अगस्त में बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी पाया कि दाभोलकर और पनसारे की हत्या एक ही तरीके से की गई और योजनाबद्ध तरीके से की गई।' सनाथन संस्था के लिए पूछताछ करना अभी भी बाकी है। हत्यारे जमानत पर रिहा किए जा चुके हैं और वे बाहर घूम रहे हैं।
इन हत्याओं के अलावा पिछले तीन सालों में देशभर में कथित भीड़ द्वारा हत्या की कई घटनाएं हुईं। इन अपराधियों को सरकार से संरक्षण प्राप्त है। वे गौरक्षा के नाम पर हिंदू राष्ट्र के स्वघोषित संरक्षक की तरह काम करते हैं। वर्तमान परिस्थिति में कानून का शासन को ताक पर रख कर भीड़ तंत्र शासन चला रही है। इनके खिलाफ प्रतिक्रिया तो दी जाती है लेकिन उचित कार्रवाई नहीं की जा रही है।
एक स्वतंत्र चिंतक और स्वतंत्र विचारक गौरी लंकेश की हत्या क्यों की गई?
55 वर्षीय गौरी लंकेश शुरू से ही उत्साही और क्षमता वाली व्यक्ति थीं। वे निर्भीक पत्रकार थीं और अन्याय के खिलाफ जोरदार तरीके से आवाज उठाई। पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए उन्होंने कन्नड़ भाषा में प्रकाशित 'लंकेश पत्रिका' में लिखने का काम किया। अपने जिंदगी के आखिरी दिनों में उन्होंने रोहिंग्या मुस्लिम के खिलाफ हो रहे जुल्म के बारे में अपनी चिंता भी जाहिर की। वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश गोरखपुर के अस्पताल में हुए मासूम की मौत और समलैंगिकों के अधिकारों को लेकर मुखर थी।
केएसएसवी की तरफ से उन्होंने लड़ाई लड़ी और अदालत में उपस्थित हुईं। उन्होंने सामाजिक असमानता के खिलाफ कई लेख लिखा और उसका विरोध किया। उन्होंने युवाओं को प्रेरित किया।
गौरी आप जहां कहीं भी हो मुस्कुराती रहो
मार्गदर्शक
नम आंखों के साथ...अलविदा