इस वर्ष के भारतीय प्रशाशनिक सेवा की परीक्षाओं के परिणामो से पुनः ये बात साबित हुई है के २१वी सदी अम्बेडकरी सदी जहाँ बड़ी संख्या में बहुजन समाज के युवक युवतिया अनारक्षित सीटो पर भी निकल रहे हैं. इस साल कर्नाटक के पिछड़ी जाति की महिला नंदिनी के आर ने टॉप किया . पिछले वर्ष की टोपर दलित छात्रा टीना डाभी रही थी . दलित और पिछड़ी जातियों के अलावा जो दूसरी महत्वपूर्ण बाद नज़र आ रही है वो यह के बहुत अच्छी संख्या में मुस्लिम समाज के युवा पीढ़ी ने इन परीक्षाओं में अपना जलवा बिखेरा है लेकिन इन सब के बीच में यदि सबसे प्रेरणास्पद कहानी अगर रही है तो वो राजस्थान के २८ वर्षीय उम्मुल खेर की रही है जिन्होंने जिंदगी के हर कदम पर संघर्ष किया और इस मुकाम पर पहुँची.
उम्मुल की कहानी इसलिए सुनना जरुरी है क्योंकि इस देश में शारीरिक दुर्बलता की शिकार लडकियों का जीना दूभर होता है क्योंकि स्वयं उनके माँ बाप उन्हें बोझ समझने लगते हैं . शारीरिक रूप से अक्षम से बहुत से लडको के माता-पिता उनका विशेष ख्याल रखते हैं लेकिन जब मामला लड़की का होता है तो वो अपने को नितांत असहाय मानने लगते हैं . उस लड़की और उसकी शारीरिक अक्षमता पर कई किस्म के सवाल शुरू हो जाते हैं . हर दिन उसे जवाब देने पड़ते हैं. अक्सर उनसे ये सवाल होता है, ‘ अरे ये कैसे हुआ ? क्या कभी डाक्टर को नहीं दिखाया ? क्या करें भगवान ने इंतनी सुन्दरता दी लेकिन पूरा शरीर नहीं दिया और यू कहिये के जितने मुंह उतनी बाते . ऐसी स्थिति में बहुत से लोगो की मानसिक स्थिति बहुत ख़राब हो जाती है क्योंकि दूसरो के जवाब तो फिर भी हम लोग दे सकते हैं लेकिन ‘अपनों’ के कटाक्ष और टिप्पणिया बहुत दुखदाई होती हैं . उम्मुल एक गरीब परिवार में पैदा हुई और उसकी जिंदगी दिल्ली की निजामुद्दीन की झुग्गीयो में पली जहाँ उसके माँ बाप रहते थे . गरीबी के कारण तो पढाई मुश्किल थी लेकिन उसके ऊपर उसे एक विशेष प्रकार की बीमारी थी जिससे हड्डिया कमजोर हो जाती हैं और छोटी से गलती में ही हड्डियों के टूटने का खतरा बना रहता है . अभी तक कमसे कम १६ बार फ्रैक्चर हुआ . ऐसी स्थिति कितनी गंभीर है इसका अंदाज नहीं लगाया जा सकता . जब वह पांचवी में पढ़ती थी तो उसकी माँ की मौत हो गयी और पापा ने कुछ समय बाद दूसरा विवाह कर लिया . घर की हालत ख़राब थी किसी तरह से उसने ८ वी पास किया और मम्मी पापा ने कहा अब बहुत हो गया , पढ़ाई बंद करो . ये बहुत कठिन क्षण होते हैं किसी भी युवा के लेकिन उम्मुल ने जो ठाना था वो किया. अपने घर से विद्रोह कर दिया . अकेले रहने लगी और अपनी झुग्गी के बच्चो को ट्यूशन पढ़ाने लगी . शायद इतना कठिन परिश्रम के कम से कम तीन शिफ्ट में बच्चो को पढ़ाकर उसने अपनी पढ़ाई जारी रखी और फिर दिल्ली विश्विद्यालय के गार्गी कॉलेज में एडमिशन लिया . यहाँ भी वो मेहनत करती रही और फिर उसके बल पर ही उसे जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में इंटरनेशनल रिलेशन में एडमिशन मिल गया .अब हॉस्टल भी मिल चूका था और २००० रुपैया की मासिक स्कालरशिप भी थी लेकिन उसका जूनून जारी था . एम् फिल में एडमिशन के साथ जे आर ऍफ़ क्वालीफाई किया और अब उसकी फेल्लोशिप २५,००० रुपैया महिना हो गयी और बहुत हद तक उसकी दैनिक आवशयकताओ की पूर्ति हो चुकी थी लेकिन उसके अन्दर एक जूनून था के उसे सिविल सर्विसेज में जाना है और इस वर्ष की परीक्षा में क्वालीफाई कर उसका वह सपना भी पूरा हो चूका है .
ये कहानी आप सभी ने पढ़ी होगी लेकिन मैं इसलिए यहाँ दोहरा रहा हूँ क्योंकि भारतीय समाज में जिन्हें ‘विकलांग’ कह कर अपमानित क्या जाता है उनके साथ व्यवहार और भी क्रूर होता है और इसके लिए जरुरी है के उनका प्रतिनिधित्व हर लेवल पर हो ताके उनके साथ भेद्भाव और दुर्व्यवहार न हो. भारत जाति, रंग, और शारीरिक अक्षमता के मामले में सबसे असभ्य देशो में माना जायेगा जहा संविधान में तो सभीको समानता प्रदान की गयी है लेकिन दैनिक जिंदगी में भयावह असमानता दिखाई देती है .
अभी नागपुर से दिल्ली आ रही एक ट्रेन में एक पैरा एथिलिट जो अनेक अंतरास्ट्रीय खेलो में भारत का प्रत्निनिध्त्व कर चुकी हैं, को रेलवे में अप्पर बर्थ मिला. व्हीलचेयर पर चलने वाली एक बहादुर महिला को भारत के रेलवे ने नीचे की सीट नहीं दी और जब उसने टीटी से शिकायत की तो उसे कह दिया गया को खुद ही निपट ले . मजबूरन उसे जमीन पर सोना पड़ा . जहा प्रशाशन की बेशर्मी बहुत ज्यादा है वही हमारे समाज के अन्दर का कमीनापन भी दिखाई देता है . क्या ट्रेन में अन्य नोग नहीं थे जो इस लड़की की स्थिति को देख रहे थे ? क्या सबके सब उपर की सीट पर जाने में असमर्थ थे ? कुछ बाते ऐसी हैं जो हमारे समाज के गिरते हालत को बयां करती हैं और वे गंभीर हैं. जब समाज के अन्दर ऐसी स्थिति नहीं है के किसी की जरुरत को देखकर लोग स्वयं ही अपनी सीट दे सके तो फिर तो कानून की जरुरत बनती है .
मामला इतना साधारण नहीं होता . इस समाज में लोग चाहते हैं के आप बिलकुल भिखारियों की तरह अपनी असह्यता की कहानी कहे . नेता से लेकर अभिनेता तक हर जगह पर आपके ऊपर दया करने वाले लाखो मिलेंगे लेकिन जब आप सर उठाकर इज्जत से बिना किसी के सहायता के या पूर्ण विश्वास के साथ काम करते हैं या जाते हैं तो मन ही मन परेशानी होती है . ये परिस्थति जातियों में ऐसी है के कोई हमारे बराबर कैसे ?
इस वर्ष बहुत अच्छी संख्या में ‘ विशेष’ साथी हमारी सिविल सर्विसेज में आये हैं और ये बहुत उत्साहवर्धक खबर है लेकिन उनको प्रशाशन में कितना सहयोग मिलेगा और आम जन में शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम या विशेष लोगो के लिए नजरिये में कितना परिवर्तन आएगा ये तो समय ही बतायेगा लेकिन लोगो को समझ लेना चाहिए के हर एक व्यक्ति के पास योग्यता है और हमें अपना नजरिया बदलने की आवश्यकता है .
दरअसल आज हम सभी उम्मुल और उनके जैसी अन्य शख्सियतो के हौसले को सलाम कर रहे हैं लेकिन ये बात जान लेना बहुत जरुरी है के मात्र उसके करने से हमारे समाज और राज्य की जिम्मेवारी ख़त्म नहीं हो जाती. ऐसे बहुत से युवक युवतिया हैं जिनके पास इंतना हौसला है और वे संघर्ष भी कर रहे हैं लेकिन सभी मुकाम तक नहीं पहुँचते. इन बातो पर हमें विचार भी करना पड़ेगा क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में एक दो रोल मॉडल बनाकर बाकी समाज को ‘हौसले ‘ पे जीने का भाषण होता है . अर्थात पूरा फोकस स्वयं पर है न के राज्य की जिम्मेवारियो पर . अब यदि हम दलितों, पिछडो, या हासिये के अन्य तबको के लोगो का अध्ययन करें तो मुख्यतः सिविल सर्विसेज में आने वाले बच्चे सामाजिक आर्थिक तौर पर अन्य के मुकाबले बेहतरीन स्थिति में हैं . जैसे आज जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से इन सेवाओं में निकलने वाले बच्चो का प्रतिशत बढा है क्योंकि वहां पर उनकी एंट्री हुई और एक ऐसा माहौल मिला जो इन सेवाओं में जाने के लिए उपयुक्त है . उम्मुल के माँ बाप ने उसे छोड़ा लेकिन दिल्ली में रहने और स्वयं सेवी संस्थाओं के सहयोग के चलते वह निकलते चली गयी और फिर तो जे आर आफ की फ़ेलोशिप या हॉस्टल के सुविधा मिलने लगी तो उसका बहुत बोझ ख़त्म हो गया . मेरे कहने का आशय यह है के आज जब छात्रो के लिए फ़ेलोशिप बंद हो रही है , जब जे एन यू जैसे विश्विद्यालयो पर हमला केवल इसलिए है क्योंकि वहा पर दलित, पिछड़े आदिवासी पसमांदा छत्र आकर पढ़ रहे हैं तो सोचना जरुरी है क्योंकि ये अवसर का सिद्धांत है जो सबको नहीं मिलता . सबसे पहले तो हासिये के अधिकांश बच्चो की स्कूली शिक्षा इतनी ख़राब है के वो डिग्री ले भी ले तो भी उसके बहुत मायने नहीं है क्योंकि प्रतियोगिता परीक्षाओं में आ पाना ही मुश्किल है. अगर हम सिविल सर्विसेज में निकलने वाले बच्चो को देखेंगे तो बहुत से पहले से ही नौकरी में हैं , कुछ अलाइड सर्विसेज में आने के बाद भी तैय्यारी कर रहे होते हैं, बाकी जे एन यू की सुविधाओं का लाभ लेकर निकले हैं. अगर कोई ये कह दे के गाँव में रहकर या अपने छोटे से कस्बे में रहकर उन्हों पुरानी सुविधाओं के साथ कोई निकल रहा है तो ये मुश्किल है . दिल्ली जैसे शहरों में एक माहौल और पढाई के बेहतरीन स्टैण्डर्ड होते हैं . मुंबई और दिल्ली की झुग्गियो से भी बच्चे निकले हैं क्योंकि वह चाहे सरकारी स्कुलो में ही क्यों न पढ़े, उन्हें एक माहौल मिलता है जो ग्रामीण परिवेश में नहीं मिलता .
उसे मैं इन सभी प्रतियोगियों के जज्बे को सलाम करता हूँ खासकर उम्मुल के क्योंकि उसने सम्मान पूर्वक जीने की जिजीविषा के साथ अपनी मेहनत जारी रखी लेकिन महत्वपूर्ण यह है के समाज को भी अपना नजरिया बदलने की जरुरत है . हो सकता है के उम्मुल के अधिकारी बनने के बाद लोग उनका सम्मान करे लेकिन सवाल इस बात का है के जो लोग अधिकारी नहीं बन पाए क्या वे सम्मान के काबिल नहीं है ? जो लोग अपने जीवन में संघर्ष कर रहे है और स्वाभिमान से जी रहे है और साथ ही और लोगो को भी जीने की राह दे रहे हैं क्या वे सम्मान के हक़दार नहीं . आज भारत में हमें उस औपनिवेशिक मानसकिता को भी बदलना पड़ेगा जो ‘सत्ता’ से जुड़े रहने को ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि बताती है और शायद इसी कारण हम सभी का एक ही सपना होता है के हम प्रशासनिक सेवा में जाए ताकि लालबत्ती की गाड़ी और सिक्यूरिटी में घिरे होकर हमारा रुतबा बढे . शायद ही बहुत कम छात्र होंगे जो बहुत पढाई करने के बाद कहे के हमें समाज बदलाव का कार्य करना है या क्रिएटिव बनना है . हालाँकि आज बहुत बड़ी संख्या में युवा इन प्रशाशनिक सेवाओं से दूर भागकर स्वयं नए प्रकार के कार्य कर भी रहा है जैसे फिल्म मेकिंग, आर्ट, लेखन, नयी पत्रकारिता, पब्लिसिटी से दूर एकांत में लोगो में बदलाव के कार्य आदि लेकिन अभी हमारे समाज में सरकार में ‘अधिकारी’ होने का मतलब आपका पूर्ण जीवन सफल है . इस सोच में बदलाव की आवश्यकता है . उम्मुल चाहे अधिकारी होती या नहीं, उसने मेहनत की और वो सम्मान से जीवन जी रही है, उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व है और वो ‘असहाय’ नहीं है और यही हमारे लिए उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है हालाँकि हम उम्मीद करेंगे के वो जिस पद पर भी जाए उसमे यथार्थ भर दे और उन्हें उन लाखो लोगो की संवेदनाओं से जोड़ दे अभी भी अपनी शारीरिक मजबूरियों के कारण समाज में मात्र हासिये पर ही नहीं है अपितु तिरिस्क्रित भी हैं.
उम्मुल की कहानी इसलिए सुनना जरुरी है क्योंकि इस देश में शारीरिक दुर्बलता की शिकार लडकियों का जीना दूभर होता है क्योंकि स्वयं उनके माँ बाप उन्हें बोझ समझने लगते हैं . शारीरिक रूप से अक्षम से बहुत से लडको के माता-पिता उनका विशेष ख्याल रखते हैं लेकिन जब मामला लड़की का होता है तो वो अपने को नितांत असहाय मानने लगते हैं . उस लड़की और उसकी शारीरिक अक्षमता पर कई किस्म के सवाल शुरू हो जाते हैं . हर दिन उसे जवाब देने पड़ते हैं. अक्सर उनसे ये सवाल होता है, ‘ अरे ये कैसे हुआ ? क्या कभी डाक्टर को नहीं दिखाया ? क्या करें भगवान ने इंतनी सुन्दरता दी लेकिन पूरा शरीर नहीं दिया और यू कहिये के जितने मुंह उतनी बाते . ऐसी स्थिति में बहुत से लोगो की मानसिक स्थिति बहुत ख़राब हो जाती है क्योंकि दूसरो के जवाब तो फिर भी हम लोग दे सकते हैं लेकिन ‘अपनों’ के कटाक्ष और टिप्पणिया बहुत दुखदाई होती हैं . उम्मुल एक गरीब परिवार में पैदा हुई और उसकी जिंदगी दिल्ली की निजामुद्दीन की झुग्गीयो में पली जहाँ उसके माँ बाप रहते थे . गरीबी के कारण तो पढाई मुश्किल थी लेकिन उसके ऊपर उसे एक विशेष प्रकार की बीमारी थी जिससे हड्डिया कमजोर हो जाती हैं और छोटी से गलती में ही हड्डियों के टूटने का खतरा बना रहता है . अभी तक कमसे कम १६ बार फ्रैक्चर हुआ . ऐसी स्थिति कितनी गंभीर है इसका अंदाज नहीं लगाया जा सकता . जब वह पांचवी में पढ़ती थी तो उसकी माँ की मौत हो गयी और पापा ने कुछ समय बाद दूसरा विवाह कर लिया . घर की हालत ख़राब थी किसी तरह से उसने ८ वी पास किया और मम्मी पापा ने कहा अब बहुत हो गया , पढ़ाई बंद करो . ये बहुत कठिन क्षण होते हैं किसी भी युवा के लेकिन उम्मुल ने जो ठाना था वो किया. अपने घर से विद्रोह कर दिया . अकेले रहने लगी और अपनी झुग्गी के बच्चो को ट्यूशन पढ़ाने लगी . शायद इतना कठिन परिश्रम के कम से कम तीन शिफ्ट में बच्चो को पढ़ाकर उसने अपनी पढ़ाई जारी रखी और फिर दिल्ली विश्विद्यालय के गार्गी कॉलेज में एडमिशन लिया . यहाँ भी वो मेहनत करती रही और फिर उसके बल पर ही उसे जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय में इंटरनेशनल रिलेशन में एडमिशन मिल गया .अब हॉस्टल भी मिल चूका था और २००० रुपैया की मासिक स्कालरशिप भी थी लेकिन उसका जूनून जारी था . एम् फिल में एडमिशन के साथ जे आर ऍफ़ क्वालीफाई किया और अब उसकी फेल्लोशिप २५,००० रुपैया महिना हो गयी और बहुत हद तक उसकी दैनिक आवशयकताओ की पूर्ति हो चुकी थी लेकिन उसके अन्दर एक जूनून था के उसे सिविल सर्विसेज में जाना है और इस वर्ष की परीक्षा में क्वालीफाई कर उसका वह सपना भी पूरा हो चूका है .
ये कहानी आप सभी ने पढ़ी होगी लेकिन मैं इसलिए यहाँ दोहरा रहा हूँ क्योंकि भारतीय समाज में जिन्हें ‘विकलांग’ कह कर अपमानित क्या जाता है उनके साथ व्यवहार और भी क्रूर होता है और इसके लिए जरुरी है के उनका प्रतिनिधित्व हर लेवल पर हो ताके उनके साथ भेद्भाव और दुर्व्यवहार न हो. भारत जाति, रंग, और शारीरिक अक्षमता के मामले में सबसे असभ्य देशो में माना जायेगा जहा संविधान में तो सभीको समानता प्रदान की गयी है लेकिन दैनिक जिंदगी में भयावह असमानता दिखाई देती है .
अभी नागपुर से दिल्ली आ रही एक ट्रेन में एक पैरा एथिलिट जो अनेक अंतरास्ट्रीय खेलो में भारत का प्रत्निनिध्त्व कर चुकी हैं, को रेलवे में अप्पर बर्थ मिला. व्हीलचेयर पर चलने वाली एक बहादुर महिला को भारत के रेलवे ने नीचे की सीट नहीं दी और जब उसने टीटी से शिकायत की तो उसे कह दिया गया को खुद ही निपट ले . मजबूरन उसे जमीन पर सोना पड़ा . जहा प्रशाशन की बेशर्मी बहुत ज्यादा है वही हमारे समाज के अन्दर का कमीनापन भी दिखाई देता है . क्या ट्रेन में अन्य नोग नहीं थे जो इस लड़की की स्थिति को देख रहे थे ? क्या सबके सब उपर की सीट पर जाने में असमर्थ थे ? कुछ बाते ऐसी हैं जो हमारे समाज के गिरते हालत को बयां करती हैं और वे गंभीर हैं. जब समाज के अन्दर ऐसी स्थिति नहीं है के किसी की जरुरत को देखकर लोग स्वयं ही अपनी सीट दे सके तो फिर तो कानून की जरुरत बनती है .
मामला इतना साधारण नहीं होता . इस समाज में लोग चाहते हैं के आप बिलकुल भिखारियों की तरह अपनी असह्यता की कहानी कहे . नेता से लेकर अभिनेता तक हर जगह पर आपके ऊपर दया करने वाले लाखो मिलेंगे लेकिन जब आप सर उठाकर इज्जत से बिना किसी के सहायता के या पूर्ण विश्वास के साथ काम करते हैं या जाते हैं तो मन ही मन परेशानी होती है . ये परिस्थति जातियों में ऐसी है के कोई हमारे बराबर कैसे ?
इस वर्ष बहुत अच्छी संख्या में ‘ विशेष’ साथी हमारी सिविल सर्विसेज में आये हैं और ये बहुत उत्साहवर्धक खबर है लेकिन उनको प्रशाशन में कितना सहयोग मिलेगा और आम जन में शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम या विशेष लोगो के लिए नजरिये में कितना परिवर्तन आएगा ये तो समय ही बतायेगा लेकिन लोगो को समझ लेना चाहिए के हर एक व्यक्ति के पास योग्यता है और हमें अपना नजरिया बदलने की आवश्यकता है .
दरअसल आज हम सभी उम्मुल और उनके जैसी अन्य शख्सियतो के हौसले को सलाम कर रहे हैं लेकिन ये बात जान लेना बहुत जरुरी है के मात्र उसके करने से हमारे समाज और राज्य की जिम्मेवारी ख़त्म नहीं हो जाती. ऐसे बहुत से युवक युवतिया हैं जिनके पास इंतना हौसला है और वे संघर्ष भी कर रहे हैं लेकिन सभी मुकाम तक नहीं पहुँचते. इन बातो पर हमें विचार भी करना पड़ेगा क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में एक दो रोल मॉडल बनाकर बाकी समाज को ‘हौसले ‘ पे जीने का भाषण होता है . अर्थात पूरा फोकस स्वयं पर है न के राज्य की जिम्मेवारियो पर . अब यदि हम दलितों, पिछडो, या हासिये के अन्य तबको के लोगो का अध्ययन करें तो मुख्यतः सिविल सर्विसेज में आने वाले बच्चे सामाजिक आर्थिक तौर पर अन्य के मुकाबले बेहतरीन स्थिति में हैं . जैसे आज जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से इन सेवाओं में निकलने वाले बच्चो का प्रतिशत बढा है क्योंकि वहां पर उनकी एंट्री हुई और एक ऐसा माहौल मिला जो इन सेवाओं में जाने के लिए उपयुक्त है . उम्मुल के माँ बाप ने उसे छोड़ा लेकिन दिल्ली में रहने और स्वयं सेवी संस्थाओं के सहयोग के चलते वह निकलते चली गयी और फिर तो जे आर आफ की फ़ेलोशिप या हॉस्टल के सुविधा मिलने लगी तो उसका बहुत बोझ ख़त्म हो गया . मेरे कहने का आशय यह है के आज जब छात्रो के लिए फ़ेलोशिप बंद हो रही है , जब जे एन यू जैसे विश्विद्यालयो पर हमला केवल इसलिए है क्योंकि वहा पर दलित, पिछड़े आदिवासी पसमांदा छत्र आकर पढ़ रहे हैं तो सोचना जरुरी है क्योंकि ये अवसर का सिद्धांत है जो सबको नहीं मिलता . सबसे पहले तो हासिये के अधिकांश बच्चो की स्कूली शिक्षा इतनी ख़राब है के वो डिग्री ले भी ले तो भी उसके बहुत मायने नहीं है क्योंकि प्रतियोगिता परीक्षाओं में आ पाना ही मुश्किल है. अगर हम सिविल सर्विसेज में निकलने वाले बच्चो को देखेंगे तो बहुत से पहले से ही नौकरी में हैं , कुछ अलाइड सर्विसेज में आने के बाद भी तैय्यारी कर रहे होते हैं, बाकी जे एन यू की सुविधाओं का लाभ लेकर निकले हैं. अगर कोई ये कह दे के गाँव में रहकर या अपने छोटे से कस्बे में रहकर उन्हों पुरानी सुविधाओं के साथ कोई निकल रहा है तो ये मुश्किल है . दिल्ली जैसे शहरों में एक माहौल और पढाई के बेहतरीन स्टैण्डर्ड होते हैं . मुंबई और दिल्ली की झुग्गियो से भी बच्चे निकले हैं क्योंकि वह चाहे सरकारी स्कुलो में ही क्यों न पढ़े, उन्हें एक माहौल मिलता है जो ग्रामीण परिवेश में नहीं मिलता .
उसे मैं इन सभी प्रतियोगियों के जज्बे को सलाम करता हूँ खासकर उम्मुल के क्योंकि उसने सम्मान पूर्वक जीने की जिजीविषा के साथ अपनी मेहनत जारी रखी लेकिन महत्वपूर्ण यह है के समाज को भी अपना नजरिया बदलने की जरुरत है . हो सकता है के उम्मुल के अधिकारी बनने के बाद लोग उनका सम्मान करे लेकिन सवाल इस बात का है के जो लोग अधिकारी नहीं बन पाए क्या वे सम्मान के काबिल नहीं है ? जो लोग अपने जीवन में संघर्ष कर रहे है और स्वाभिमान से जी रहे है और साथ ही और लोगो को भी जीने की राह दे रहे हैं क्या वे सम्मान के हक़दार नहीं . आज भारत में हमें उस औपनिवेशिक मानसकिता को भी बदलना पड़ेगा जो ‘सत्ता’ से जुड़े रहने को ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि बताती है और शायद इसी कारण हम सभी का एक ही सपना होता है के हम प्रशासनिक सेवा में जाए ताकि लालबत्ती की गाड़ी और सिक्यूरिटी में घिरे होकर हमारा रुतबा बढे . शायद ही बहुत कम छात्र होंगे जो बहुत पढाई करने के बाद कहे के हमें समाज बदलाव का कार्य करना है या क्रिएटिव बनना है . हालाँकि आज बहुत बड़ी संख्या में युवा इन प्रशाशनिक सेवाओं से दूर भागकर स्वयं नए प्रकार के कार्य कर भी रहा है जैसे फिल्म मेकिंग, आर्ट, लेखन, नयी पत्रकारिता, पब्लिसिटी से दूर एकांत में लोगो में बदलाव के कार्य आदि लेकिन अभी हमारे समाज में सरकार में ‘अधिकारी’ होने का मतलब आपका पूर्ण जीवन सफल है . इस सोच में बदलाव की आवश्यकता है . उम्मुल चाहे अधिकारी होती या नहीं, उसने मेहनत की और वो सम्मान से जीवन जी रही है, उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व है और वो ‘असहाय’ नहीं है और यही हमारे लिए उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है हालाँकि हम उम्मीद करेंगे के वो जिस पद पर भी जाए उसमे यथार्थ भर दे और उन्हें उन लाखो लोगो की संवेदनाओं से जोड़ दे अभी भी अपनी शारीरिक मजबूरियों के कारण समाज में मात्र हासिये पर ही नहीं है अपितु तिरिस्क्रित भी हैं.