झारखंड सरकार ने सूचना कानून में भारी फेरबदल की तैयारी की है। राज्य मंत्रिमंडल की 21 मार्च की बैठक में इसे स्वीकृति मिलने की संभावना है। प्रस्तावित फेरबदल मूल अधिनियम के विरूद्ध बताए जा रहे हैं। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 भारत की संसद द्वारा पारित कानून है। राज्य सरकार को इसे लागू करने संबंधी नियम बनाने मात्र की शक्ति है। मूल कानून में किसी छेड़छाड़ का अधिकार झारखंड सरकार को नहीं है।प्रस्तावित फेरबदल में मूल कानून की परिभाषाओं को ही बदल दिया गया है। मूल कानून में राज्य सरकार को सिर्फ धारा चार, छह, सात, 13 और 19 को लागू करने के नियम बनाने का अधिकार है। प्रस्तावित संशोधन में मूल कानून की धारा दो की परिभाषाऐ बदली गई हैं। अभिलेख और सूचना की परिभाषा मूल कानून में स्पष्ट दी गई है। उन्हें संकुचित करने का अधिकार राज्य सरकार को नहीं है।
उल्लेखनीय है कि अब तक केंद्र सरकार के तर्ज पर बनी फीस एवं लागत संबंधी नियमावली झारखंड में लागू थी। प्रस्तावित नियमावली केद्र सरकार की नियमावली से बिलकुल उल्टी होगी और यह मूल कानून से भी अलग है।
इसमें किसी विषय पर निष्कर्ष निकालने, मान्यताओं को स्पष्ट करने या अभिमत या परामर्श को सूचना की परिभाषा से अलग करने की बात कही गई है। किसी कानून की परिभाषाओं के निष्कर्ष निकालना संबंधित आयोग अथवा अदालत का काम है। मूल कानून में संशोधन के बगैर राज्य सरकार किसी भी परिभाषा में फेरबदल नहीं कर सकती और न ही कोई परंतुक जोड़ सकती है।
इसी तरह, राजनीतिक दल, सामाजिक संस्था अथवा व्यक्तियों के समूह को “नागरिक“ नहीं मानते हुए उन्हें सूचना के अधिकार से वंचित कर दिया गया है। जबकि भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशासनिक विभाग की मार्गदर्शिका में स्पष्ट है कि ऐसे आवेदनों को भी किसी नागरिक द्वारा आवेदन की श्रेणी में रखकर सूचना दी जाए। केद्रीय सूचना आयोग ने भी ऐसे निर्णय सुनाए हैं।
प्रस्तावित संशोधन में किसी कार्य विशेष का क्या औचित्य था या है अथवा वह कार्य क्यों किया गया, या क्यों नहीं किया गया जैसे “क्यों“ वाले शब्दों पर रोक लगाई गई है। जबकि मूल कानून की प्रस्तावना में ही इसका उद्देश्य सभी संस्थाओं में “उत्तरदायित्व“ सुनिश्चित करना बताया गया है। फिर कोई भी सूचना मांगने में क्या, क्यों, कैसे इत्यादि शब्द आना स्वाभाविक है। जैसे, अगर कोई यह सूचना लेना चाहे कि फलां जमीन के अधिग्रहण का क्यों किया गया, तो जनसूचना अधिकारी बता सकता है कि रेल लाइन या सड़क के लिए उस जमीन का अधिग्रहण हुआ। इसलिए क्या, क्यों, कैसे जैसे शब्दों से परहेज के पीछे वास्तव में नागरिकों को सूचना के अधिकार से वंचित करने की कोशिश है।
प्रस्तावित संशोधन में बीपीएल व्यक्ति को सूचना देने संबंधी कई रोक और परेशानी खड़ी की गई है। उसे खुद उपस्थित होने, बार-बार अपना बीपीएल प्रमाणपत्र और घोषणापत्र जमा करने की बाध्यता की गई है। साथ ही, अब मात्र दस पेज की सूचना निशुल्क देने का नियम बनाया जा रहा है। जबकि मूल कानून में बीपीएल नागरिक से कोई शुल्क नहीं लेने का प्रावधान है। इसे सीमित करने का अधिकार राज्य सरकार को नहीं है।
सबसे ताज्जुब की बात तो यह है कि प्रस्तावित संशोधन में बीपीएल नागरिक के संवैधानिक अधिकारों से ही वंचित कर दिया गया है। बीपीएल नागरिक अगर कोई सूचना प्राप्त करते हैं, तो उसका उपयोग सिर्फ व्यक्तिगत कार्य में कर सकेगा। यानी अगर किसी मंत्री या अधिकारी के भ्रष्टाचार की कोई जानकारी मिले, तो उसका एक नागरिक के तौर पर उपयोग नहीं कर सकता। जबकि कोई नागरिक किसी भी सूचना को हासिल करके उसका क्या उपयोग करेगा, इस पर कोई पाबंदी लगाने का अधिकार सरकार को नहीं है।
प्रस्तावित संशोधन में “तीसरे पक्ष“ के संबंध में सूचनाओं पर भी कई पाबंदी लगाई गई है। जबकि तृतीय पक्ष के संबंध में मूल कानून की धारा 11 में प्रावधान हैं जिसमें छेड़छाड़ का राज्य सरकार को अधिकार नहीं। इसमें कई बिंदुओं को मूल कानून की धारा आठ में जोड़ दिया गया है जिसका सरकार को नहीं, सिर्फ संसद को अधिकार है।
मूल कानून की धारा 24 में केंद्र सरकार के इंटेलिजेंस और सुरक्षा संगठन से संबंधी मानव अधिकार के मामलों पर केंदीय सूचना आयोग की अनुमति से सूचना देने का प्रावधान है। राज्य के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है। लेकिन झारखंड सरकार के प्रस्तावित संशोधन में इसे राज्य सूचना आयोग के साथ जोड़ दिया गया है। साथ ही, इसमें भ्रष्टाचार के मामलों की सूचना भी राज्य सूचना आयोग की अनुमति से देने का प्रावधान कर दिया गया है। जबकि भ्रष्ट्राचार की सूचना पर तो भारत सरकार ने भी कोई रोक नहीं लगाई है।
प्रस्तावित संशोधन में किसी आवेदन में मात्र एक विषय की सूचना मांगने, मात्र 150 शब्दों का आवेदन देने जैसे प्रावधान बनाकर नागरिकों को परेशान करने और अधिकारियों की मनमानी के रास्ते खोल दिए गए हैं। इसमें यह भी लिख दिया गया है कि केवल ऐसी सूचना प्रदान की जाएगी जो लोक प्राधिकार के पास पहले से है या उसके नियंत्रण में है। जबकि ऐसे विषय मूल कानून में स्पष्ट किए गए हैं। मूल कानून की धारा 7(9) में कहा गया है कि किसी सूचना को साधारणतया उसी प्रारूप में उपलब्ध कराया जाएगा, जिसमें उसे मांगा गया हो।
एक हास्यास्पद बात यह भी लिख दी गई है कि यदि कोई आवेदन किसी दूसरे लोक प्राधिकार से संबंधित हो, तो जनसूचना अधिकारी को यह कहकर लौटा सकता है कि मुझे यह पता नहीं है कि यह किस विभाग से संबंधित है। ऐसे नियमों का उपयोग नागरिकों को परेशान करने के लिए किया जा सकता है। मूल कानून में धारा छह (3) के तहत आवेदन के अंतरण के प्रावधान भी उलट दिए गए हैं।
सूचना का अधिकार कानून बनने के वक्त ही सभी लोक प्राधिकारों को अपने सारे दस्तावेज व्यवस्थित और कंप्यूटरीकृत करने का निर्देश दिया गया था। हर विभाग को हर साल 17 बिंदुओं पर सूचना को सार्वजनिक करना भी अनिवार्य है। ऐसा करने से काफी सूचनाएं वेबसाइट पर ही मिल जाएगी। केद्र सरकार ने ऐसा किया भी है। इसी लिए केद्र सरकार को अब तक सूचना कानून में कोई छेड़छाड़ करने की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन झारखंड में 17 बिंदुओं की स्वघोषणा नहीं करने के कारण ज्यादा आवेदन आते हैं। अब नागरिकों को परेशान करने वाली नियमावली बनाने से राज्य में गलत संदेश जाएगा। नागरिक इस पर सड़कों में आएंगे और अदालत जाएंगे तो सरकार की किरकिरी होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
Courtesy: Media Vigil
उल्लेखनीय है कि अब तक केंद्र सरकार के तर्ज पर बनी फीस एवं लागत संबंधी नियमावली झारखंड में लागू थी। प्रस्तावित नियमावली केद्र सरकार की नियमावली से बिलकुल उल्टी होगी और यह मूल कानून से भी अलग है।
इसमें किसी विषय पर निष्कर्ष निकालने, मान्यताओं को स्पष्ट करने या अभिमत या परामर्श को सूचना की परिभाषा से अलग करने की बात कही गई है। किसी कानून की परिभाषाओं के निष्कर्ष निकालना संबंधित आयोग अथवा अदालत का काम है। मूल कानून में संशोधन के बगैर राज्य सरकार किसी भी परिभाषा में फेरबदल नहीं कर सकती और न ही कोई परंतुक जोड़ सकती है।
इसी तरह, राजनीतिक दल, सामाजिक संस्था अथवा व्यक्तियों के समूह को “नागरिक“ नहीं मानते हुए उन्हें सूचना के अधिकार से वंचित कर दिया गया है। जबकि भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशासनिक विभाग की मार्गदर्शिका में स्पष्ट है कि ऐसे आवेदनों को भी किसी नागरिक द्वारा आवेदन की श्रेणी में रखकर सूचना दी जाए। केद्रीय सूचना आयोग ने भी ऐसे निर्णय सुनाए हैं।
प्रस्तावित संशोधन में किसी कार्य विशेष का क्या औचित्य था या है अथवा वह कार्य क्यों किया गया, या क्यों नहीं किया गया जैसे “क्यों“ वाले शब्दों पर रोक लगाई गई है। जबकि मूल कानून की प्रस्तावना में ही इसका उद्देश्य सभी संस्थाओं में “उत्तरदायित्व“ सुनिश्चित करना बताया गया है। फिर कोई भी सूचना मांगने में क्या, क्यों, कैसे इत्यादि शब्द आना स्वाभाविक है। जैसे, अगर कोई यह सूचना लेना चाहे कि फलां जमीन के अधिग्रहण का क्यों किया गया, तो जनसूचना अधिकारी बता सकता है कि रेल लाइन या सड़क के लिए उस जमीन का अधिग्रहण हुआ। इसलिए क्या, क्यों, कैसे जैसे शब्दों से परहेज के पीछे वास्तव में नागरिकों को सूचना के अधिकार से वंचित करने की कोशिश है।
प्रस्तावित संशोधन में बीपीएल व्यक्ति को सूचना देने संबंधी कई रोक और परेशानी खड़ी की गई है। उसे खुद उपस्थित होने, बार-बार अपना बीपीएल प्रमाणपत्र और घोषणापत्र जमा करने की बाध्यता की गई है। साथ ही, अब मात्र दस पेज की सूचना निशुल्क देने का नियम बनाया जा रहा है। जबकि मूल कानून में बीपीएल नागरिक से कोई शुल्क नहीं लेने का प्रावधान है। इसे सीमित करने का अधिकार राज्य सरकार को नहीं है।
सबसे ताज्जुब की बात तो यह है कि प्रस्तावित संशोधन में बीपीएल नागरिक के संवैधानिक अधिकारों से ही वंचित कर दिया गया है। बीपीएल नागरिक अगर कोई सूचना प्राप्त करते हैं, तो उसका उपयोग सिर्फ व्यक्तिगत कार्य में कर सकेगा। यानी अगर किसी मंत्री या अधिकारी के भ्रष्टाचार की कोई जानकारी मिले, तो उसका एक नागरिक के तौर पर उपयोग नहीं कर सकता। जबकि कोई नागरिक किसी भी सूचना को हासिल करके उसका क्या उपयोग करेगा, इस पर कोई पाबंदी लगाने का अधिकार सरकार को नहीं है।
प्रस्तावित संशोधन में “तीसरे पक्ष“ के संबंध में सूचनाओं पर भी कई पाबंदी लगाई गई है। जबकि तृतीय पक्ष के संबंध में मूल कानून की धारा 11 में प्रावधान हैं जिसमें छेड़छाड़ का राज्य सरकार को अधिकार नहीं। इसमें कई बिंदुओं को मूल कानून की धारा आठ में जोड़ दिया गया है जिसका सरकार को नहीं, सिर्फ संसद को अधिकार है।
मूल कानून की धारा 24 में केंद्र सरकार के इंटेलिजेंस और सुरक्षा संगठन से संबंधी मानव अधिकार के मामलों पर केंदीय सूचना आयोग की अनुमति से सूचना देने का प्रावधान है। राज्य के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है। लेकिन झारखंड सरकार के प्रस्तावित संशोधन में इसे राज्य सूचना आयोग के साथ जोड़ दिया गया है। साथ ही, इसमें भ्रष्टाचार के मामलों की सूचना भी राज्य सूचना आयोग की अनुमति से देने का प्रावधान कर दिया गया है। जबकि भ्रष्ट्राचार की सूचना पर तो भारत सरकार ने भी कोई रोक नहीं लगाई है।
प्रस्तावित संशोधन में किसी आवेदन में मात्र एक विषय की सूचना मांगने, मात्र 150 शब्दों का आवेदन देने जैसे प्रावधान बनाकर नागरिकों को परेशान करने और अधिकारियों की मनमानी के रास्ते खोल दिए गए हैं। इसमें यह भी लिख दिया गया है कि केवल ऐसी सूचना प्रदान की जाएगी जो लोक प्राधिकार के पास पहले से है या उसके नियंत्रण में है। जबकि ऐसे विषय मूल कानून में स्पष्ट किए गए हैं। मूल कानून की धारा 7(9) में कहा गया है कि किसी सूचना को साधारणतया उसी प्रारूप में उपलब्ध कराया जाएगा, जिसमें उसे मांगा गया हो।
एक हास्यास्पद बात यह भी लिख दी गई है कि यदि कोई आवेदन किसी दूसरे लोक प्राधिकार से संबंधित हो, तो जनसूचना अधिकारी को यह कहकर लौटा सकता है कि मुझे यह पता नहीं है कि यह किस विभाग से संबंधित है। ऐसे नियमों का उपयोग नागरिकों को परेशान करने के लिए किया जा सकता है। मूल कानून में धारा छह (3) के तहत आवेदन के अंतरण के प्रावधान भी उलट दिए गए हैं।
सूचना का अधिकार कानून बनने के वक्त ही सभी लोक प्राधिकारों को अपने सारे दस्तावेज व्यवस्थित और कंप्यूटरीकृत करने का निर्देश दिया गया था। हर विभाग को हर साल 17 बिंदुओं पर सूचना को सार्वजनिक करना भी अनिवार्य है। ऐसा करने से काफी सूचनाएं वेबसाइट पर ही मिल जाएगी। केद्र सरकार ने ऐसा किया भी है। इसी लिए केद्र सरकार को अब तक सूचना कानून में कोई छेड़छाड़ करने की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन झारखंड में 17 बिंदुओं की स्वघोषणा नहीं करने के कारण ज्यादा आवेदन आते हैं। अब नागरिकों को परेशान करने वाली नियमावली बनाने से राज्य में गलत संदेश जाएगा। नागरिक इस पर सड़कों में आएंगे और अदालत जाएंगे तो सरकार की किरकिरी होगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)
Courtesy: Media Vigil