दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाईं पाँखें कई दिनों के बाद।
मुझे वह दिन याद आ गया जब करीब आठ महीने के बाद अक्टूबर 5 को मुम्बई में रेस्त्रां और होटल खुल गए। साथ ही वे सारी खाने पीने की दुकाने भी खुल गईं जो सड़कों और फुटपाथ पर साइकिल पर चलते हुए लगा करती थीं। इलाके की वह फुटपाथ की दुकान भी खुल गई जिसपर दोपहर में खाने वालों की भीड़ लग जाती थी। इन खाने वालों में अक्सर रिक्शे वाले, अन्य दुकान वाले, मजदूरी करने वाले और भी तमाम तरह के लोग हुआ करते थे। पर उस दिन जब वह खाने की फुटपाथ की दुकान खुली तो लोग नहीं थे। मुश्किल से उस भीड़ लगने वाली दुकान पर दो तीन लोग थे।
बहुत दिन के सूनेपन के बाद वहां थोड़ी चहल पहल उस दिन दिखी थी। गैस जल रही थी। खाने के भगोने जो दाल चावल से भरे थे, ऊपर लगा दिए गए थे।
मैं यहां अक्सर दोपहर में खाना खाया करता था। इसे खुला देखकर उस दिन भी खाने के उद्देश्य से वहां रुक गया। अक्सर आने जाने की वजह से दुकानदार पहचानता था। उसने पहुंचते ही एक मुस्कान दी। जैसे वह स्वागत कर रहा हो। कोरोना के पहले वह ऐसा नहीं कर पाता था। व्यस्तता बहुत होती थी।
मैंने बात करने के उद्देश्य से कहा- आखिर खुल ही गया। चलो कुछ तो बेहतर हो रहा है।
उस खाने की दुकान के सेठ ने कहा- ग्राहक नहीं हैं। धंधा बिलकुल नहीं है।
मैंने कहा- अभी शुरुआत है। लोगों में थोड़ा डर भी है। धीरे धीई बेहतर हो जाएंगी चीजें।
सेठ ने हां में सिर हिलाया। पर एक निराशा उसके चेहरे पर थी।
मैं वहीं लंबी सी जो बेंच लगी थी उसपर बैठा था। मेरे ठीक सामने एक व्यक्ति बैठा खाना खा रहा था। उसके कपड़े और बाल पर गिरे हुए पुताई के रंग से यह ठीक तरह से समझ में आ रहा था कि वह रंगाई का काम करता है। इस दुकान पर राइस प्लेट ही मिला करती थी जिसमें एक प्रकार की सब्जी, एक दाल, चार पांच रोटियां, चावल, अचार के अलावा सलाद के रूप में कभी मूली, कभी प्याज तो कभी ककड़ी हुआ करती थी। मेरे सामने बैठे आदमी ने तेज से आवाज लगाई- थोड़ा प्याज देना।
दुकान पर काम करने वाले एक लड़के ने दबी जुबान में कहा- प्याज महंगा है।
सामने बैठा खा रहा व्यक्ति थोड़ा गुस्सा होते हुए बोला- पैंतीस रुपये लेता है राइस प्लेट के और कहता है प्याज महंगा है? कल प्याज सस्ता हो जाएगा तो क्या पचीस में देगा राइस प्लेट?
उसकी जुबान में दम था। उसका लॉजिक भी बड़ा दमदार था। उसने यह बात ऐसे कही जैसे 35 रुपये अदा कर इसमें मिलने वाली सारी सुविधाओं को ले लेना चाहता है। दुकान के सेठ ने कुछ न कहते हुए प्याज के दो टुकड़े उसकी प्लेट में लाकर रख दिए।
मैं वहीं बैठा उस दुकानदार के बारे में सोचता रहा। सब्जियों की कीमत आसमान पर है। कोई भी सब्जी 100 से 200 रुपये/किलो के भाव के नीचे नहीं बिक रही है। यह दुकानदार फिर भी 35 रुपये के राइस प्लेट में सब्जी दे रहा है, दाल दे रहा है, अचार और प्याज भी दे रहा है। वह क्यों दे रहा है? क्योंकि वह समझता है आज चीजें महंगी हैं, आपदा है। कल तो सस्ती भी होंगी। यही तो लॉजिक था उस सामने बैठे दीवार की पुताई वाले रंग से सने आदमी का जिसने पूरे हक से प्याज मांगा था।
मैं सरकार के बारे में सोचता हूँ। लॉक डाउन जैसे वीभत्स दृश्य मैंने कभी न देखे। ट्रकों में भरे लटके पलायन करते लोग, पैदल हजारों किलोमीटर चले जाते लोग, भूखे प्यासे पुलिस की लाठियां खाते लोग, रेलवे ट्रैक पर भिखरी रोटियां, हाथ, सिर उंगलियां यह कैसे जेहन से निकले?
यह पलायन आखिर क्यों था? इन पलायन करने वालों को भोजन, पानी अगर समय पर मिलते रहने की गारंटी हर राज्य की सरकारें देती क्या तब भी यह पलायन इतना ही होता? यह जो फुटपाथ में तीस पैंतीस में भरपेट भोजन करा देने वाले ढाबे, दस रुपये में वड़ापाव, समोसा पाव खिला देने वाली दुकानें खुली रहतीं तब भी यह पलायन क्या इतनी ही मात्रा में होता? शायद नहीं।
वह वाक्य जो सामने बैठे व्यक्ति ने कहा था 'आज चीजें महंगी हैं, कल सस्ती भी तो होंगी' बार बार मन में घूमता रहा। सरकार ने यह साधारण सा वाक्य दिमाग में क्यों नहीं डाला। आज देश में विपदा है तो क्यों न चीजों के दाम कम कर दिए जाएं। डीजल पेट्रोल के दाम कम कर दिए जाएं ताकि जो लोग अपनी गाड़ियों से एक स्थान से दूसरे स्थान जा रहे हैं उनपर बोझ कम पड़े। सीएनजी के दाम कम कर दिए जाएं ताकि जो रिक्शे वाले अपने गांव की तरफ जा।रहे वो कम पैसे में पहुंच लें। आखिर ये मेरे देश के लोग हैं। देश इनसे है। आज भाव कम कर देंगे तो कल अच्छे दिन आने पर भाव बढ़ाकर भरपाई कर ली जाएगी। पर हुआ ठीक इसके उलट। अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें पूरे लॉक डाउन में घटती रहीं और भारत में पूरे लॉक डाउन में तेल की कीमतें थोड़ा थोड़ा बढ़ती रहीं। आज भी हालात ये हैं कि तेल की कीमतें अपने सबसे उच्चतम स्तर पर हैं पर कहीं कोई चर्चा नहीं है। गैस सिलेंडर के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। सब्जियों, दालों, खाद्य तेल जैसी वस्तुओं का भाव पूरे लॉक डाउन में आसमान पर रहा पर किसी को कोई फिक्र नहीं। आलू जैसी बेसिक चीज 60 रुपये किलो बिकती रही। आज किसान के खेत मे आलू हो गया है तो इसकी कीमत कौड़ी के भाव हो गई है।
सरकार का अपने नागरिकों को मुश्किल समय में बेसिक चीजें उपलब्ध न करा पाना क्या उसका फेलियर नहीं है?
यह सरकार का फेलियर ही है। पर सरकार बहादुर इन चीजों में भी गर्व करके फूल जाती है। इन फेलियर्स पर भी सरकार चुनावों में वोट मांग लेती है। बिहार चुनाव के दौरान लगाई गई वह होर्डिंग कौन भूल सकता है जिसमें लिखा गया था- लॉक डाउन में मजदूरों को सुरक्षित उनके घर तक पहुंचाया इसलिए वोट हमको दो।
जब लॉक डाउन में सब सुरक्षित घर पहुंचे तो वे रेलवे ट्रैक ओर मरने वाले कौन थे? हाइवे पर साइकिल पर ही कुचल कर मर जाने वाले कौन थे? पुलिस की लाठियां खाते अपने को बचाते हुए लोग कहाँ के रहने वाले थे? खैर....
वह आदमी खाना खाकर उठ चुका था। मेरे सामने भी राइस की प्लेट आ चुकी थी। वह आदमी दुकानदार सेठ को पैसे चुका रहा था। वहां का काम करने वाले ने बताया एक रोटी एक्स्ट्रा है। रंगे हुए व्यक्ति ने बड़ी शालीनता से कहा- अब तू एक रोटी के पैसे भी कटेगा? जब पगार हो जाएगी तब एक रोटी के पैसे काटना। सेठ ने पैंतीस रुपये ही काटे।
मैं रोटी का निवाला मुंह में रखते हुए बस सोच रहा था- जब किसी दिन कारपोरेट के हाथ पूर्णरूप से बिकी हुई सरकार आ गई और इन फुटपाथ के छोटे छोटे चलने वाले ढाबों, होटलों दुकानों को हटवा देगी तो कोई मजदूर कैसे 35 रुपये में भरपेट भोजन करेगा?
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाईं पाँखें कई दिनों के बाद।
मुझे वह दिन याद आ गया जब करीब आठ महीने के बाद अक्टूबर 5 को मुम्बई में रेस्त्रां और होटल खुल गए। साथ ही वे सारी खाने पीने की दुकाने भी खुल गईं जो सड़कों और फुटपाथ पर साइकिल पर चलते हुए लगा करती थीं। इलाके की वह फुटपाथ की दुकान भी खुल गई जिसपर दोपहर में खाने वालों की भीड़ लग जाती थी। इन खाने वालों में अक्सर रिक्शे वाले, अन्य दुकान वाले, मजदूरी करने वाले और भी तमाम तरह के लोग हुआ करते थे। पर उस दिन जब वह खाने की फुटपाथ की दुकान खुली तो लोग नहीं थे। मुश्किल से उस भीड़ लगने वाली दुकान पर दो तीन लोग थे।
बहुत दिन के सूनेपन के बाद वहां थोड़ी चहल पहल उस दिन दिखी थी। गैस जल रही थी। खाने के भगोने जो दाल चावल से भरे थे, ऊपर लगा दिए गए थे।
मैं यहां अक्सर दोपहर में खाना खाया करता था। इसे खुला देखकर उस दिन भी खाने के उद्देश्य से वहां रुक गया। अक्सर आने जाने की वजह से दुकानदार पहचानता था। उसने पहुंचते ही एक मुस्कान दी। जैसे वह स्वागत कर रहा हो। कोरोना के पहले वह ऐसा नहीं कर पाता था। व्यस्तता बहुत होती थी।
मैंने बात करने के उद्देश्य से कहा- आखिर खुल ही गया। चलो कुछ तो बेहतर हो रहा है।
उस खाने की दुकान के सेठ ने कहा- ग्राहक नहीं हैं। धंधा बिलकुल नहीं है।
मैंने कहा- अभी शुरुआत है। लोगों में थोड़ा डर भी है। धीरे धीई बेहतर हो जाएंगी चीजें।
सेठ ने हां में सिर हिलाया। पर एक निराशा उसके चेहरे पर थी।
मैं वहीं लंबी सी जो बेंच लगी थी उसपर बैठा था। मेरे ठीक सामने एक व्यक्ति बैठा खाना खा रहा था। उसके कपड़े और बाल पर गिरे हुए पुताई के रंग से यह ठीक तरह से समझ में आ रहा था कि वह रंगाई का काम करता है। इस दुकान पर राइस प्लेट ही मिला करती थी जिसमें एक प्रकार की सब्जी, एक दाल, चार पांच रोटियां, चावल, अचार के अलावा सलाद के रूप में कभी मूली, कभी प्याज तो कभी ककड़ी हुआ करती थी। मेरे सामने बैठे आदमी ने तेज से आवाज लगाई- थोड़ा प्याज देना।
दुकान पर काम करने वाले एक लड़के ने दबी जुबान में कहा- प्याज महंगा है।
सामने बैठा खा रहा व्यक्ति थोड़ा गुस्सा होते हुए बोला- पैंतीस रुपये लेता है राइस प्लेट के और कहता है प्याज महंगा है? कल प्याज सस्ता हो जाएगा तो क्या पचीस में देगा राइस प्लेट?
उसकी जुबान में दम था। उसका लॉजिक भी बड़ा दमदार था। उसने यह बात ऐसे कही जैसे 35 रुपये अदा कर इसमें मिलने वाली सारी सुविधाओं को ले लेना चाहता है। दुकान के सेठ ने कुछ न कहते हुए प्याज के दो टुकड़े उसकी प्लेट में लाकर रख दिए।
मैं वहीं बैठा उस दुकानदार के बारे में सोचता रहा। सब्जियों की कीमत आसमान पर है। कोई भी सब्जी 100 से 200 रुपये/किलो के भाव के नीचे नहीं बिक रही है। यह दुकानदार फिर भी 35 रुपये के राइस प्लेट में सब्जी दे रहा है, दाल दे रहा है, अचार और प्याज भी दे रहा है। वह क्यों दे रहा है? क्योंकि वह समझता है आज चीजें महंगी हैं, आपदा है। कल तो सस्ती भी होंगी। यही तो लॉजिक था उस सामने बैठे दीवार की पुताई वाले रंग से सने आदमी का जिसने पूरे हक से प्याज मांगा था।
मैं सरकार के बारे में सोचता हूँ। लॉक डाउन जैसे वीभत्स दृश्य मैंने कभी न देखे। ट्रकों में भरे लटके पलायन करते लोग, पैदल हजारों किलोमीटर चले जाते लोग, भूखे प्यासे पुलिस की लाठियां खाते लोग, रेलवे ट्रैक पर भिखरी रोटियां, हाथ, सिर उंगलियां यह कैसे जेहन से निकले?
यह पलायन आखिर क्यों था? इन पलायन करने वालों को भोजन, पानी अगर समय पर मिलते रहने की गारंटी हर राज्य की सरकारें देती क्या तब भी यह पलायन इतना ही होता? यह जो फुटपाथ में तीस पैंतीस में भरपेट भोजन करा देने वाले ढाबे, दस रुपये में वड़ापाव, समोसा पाव खिला देने वाली दुकानें खुली रहतीं तब भी यह पलायन क्या इतनी ही मात्रा में होता? शायद नहीं।
वह वाक्य जो सामने बैठे व्यक्ति ने कहा था 'आज चीजें महंगी हैं, कल सस्ती भी तो होंगी' बार बार मन में घूमता रहा। सरकार ने यह साधारण सा वाक्य दिमाग में क्यों नहीं डाला। आज देश में विपदा है तो क्यों न चीजों के दाम कम कर दिए जाएं। डीजल पेट्रोल के दाम कम कर दिए जाएं ताकि जो लोग अपनी गाड़ियों से एक स्थान से दूसरे स्थान जा रहे हैं उनपर बोझ कम पड़े। सीएनजी के दाम कम कर दिए जाएं ताकि जो रिक्शे वाले अपने गांव की तरफ जा।रहे वो कम पैसे में पहुंच लें। आखिर ये मेरे देश के लोग हैं। देश इनसे है। आज भाव कम कर देंगे तो कल अच्छे दिन आने पर भाव बढ़ाकर भरपाई कर ली जाएगी। पर हुआ ठीक इसके उलट। अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें पूरे लॉक डाउन में घटती रहीं और भारत में पूरे लॉक डाउन में तेल की कीमतें थोड़ा थोड़ा बढ़ती रहीं। आज भी हालात ये हैं कि तेल की कीमतें अपने सबसे उच्चतम स्तर पर हैं पर कहीं कोई चर्चा नहीं है। गैस सिलेंडर के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। सब्जियों, दालों, खाद्य तेल जैसी वस्तुओं का भाव पूरे लॉक डाउन में आसमान पर रहा पर किसी को कोई फिक्र नहीं। आलू जैसी बेसिक चीज 60 रुपये किलो बिकती रही। आज किसान के खेत मे आलू हो गया है तो इसकी कीमत कौड़ी के भाव हो गई है।
सरकार का अपने नागरिकों को मुश्किल समय में बेसिक चीजें उपलब्ध न करा पाना क्या उसका फेलियर नहीं है?
यह सरकार का फेलियर ही है। पर सरकार बहादुर इन चीजों में भी गर्व करके फूल जाती है। इन फेलियर्स पर भी सरकार चुनावों में वोट मांग लेती है। बिहार चुनाव के दौरान लगाई गई वह होर्डिंग कौन भूल सकता है जिसमें लिखा गया था- लॉक डाउन में मजदूरों को सुरक्षित उनके घर तक पहुंचाया इसलिए वोट हमको दो।
जब लॉक डाउन में सब सुरक्षित घर पहुंचे तो वे रेलवे ट्रैक ओर मरने वाले कौन थे? हाइवे पर साइकिल पर ही कुचल कर मर जाने वाले कौन थे? पुलिस की लाठियां खाते अपने को बचाते हुए लोग कहाँ के रहने वाले थे? खैर....
वह आदमी खाना खाकर उठ चुका था। मेरे सामने भी राइस की प्लेट आ चुकी थी। वह आदमी दुकानदार सेठ को पैसे चुका रहा था। वहां का काम करने वाले ने बताया एक रोटी एक्स्ट्रा है। रंगे हुए व्यक्ति ने बड़ी शालीनता से कहा- अब तू एक रोटी के पैसे भी कटेगा? जब पगार हो जाएगी तब एक रोटी के पैसे काटना। सेठ ने पैंतीस रुपये ही काटे।
मैं रोटी का निवाला मुंह में रखते हुए बस सोच रहा था- जब किसी दिन कारपोरेट के हाथ पूर्णरूप से बिकी हुई सरकार आ गई और इन फुटपाथ के छोटे छोटे चलने वाले ढाबों, होटलों दुकानों को हटवा देगी तो कोई मजदूर कैसे 35 रुपये में भरपेट भोजन करेगा?