''युद्ध नहीं, जन राजनीति के लिए आम सहमति की जरुरत''

Written by अखिलेंद्र प्रताप सिंह | Published on: March 4, 2019
14 फरवरी 2019 पुलवामा घटना के बाद देश का राजनीतिक वातावरण तेजी से बदल गया। युद्ध का माहौल चौतरफा बनने लगा और युद्धोन्मादियों की बन आयी।

पाकिस्तान में भारत को देख लेने के नाम पर उन्माद पैदा किया गया तो हमारे यहां पाकिस्तान को उड़ा दो, दुनिया के नक्शे से मिटा दो, का शोर सुनाई देने लगा। दोनों देशों में एक दूसरे देश के विरूद्ध राष्ट्रीय सहमति की बात सुनाई देने लगी। 26 फरवरी को पाकिस्तान स्थित बालाकोट पर भारतीय वायु सेना के विमानों द्वारा जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी ट्रेनिंग शिविर पर हमला हुआ। दूसरे दिन पाकिस्तान ने भी भारत के वायु क्षेत्र में घुस कर हमला किया। 

भारतीय वायु सेना द्वारा उसे पीछे ढकेलने के ही क्रम में भारत का एक पायलट पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में पकड़ लिया गया, जिसे कूटनीतिक दबाव में पाकिस्तान को छोड़ना पड़ा। दोनों देशों में फिलहाल तनाव बढ़ता दिख नहीं रहा है लेकिन युद्धोन्माद की राजनीति जारी है। नरेंद्र मोदी ने कहा है कि ‘पायलट प्रोजेक्ट पूरा हुआ, असली लड़ाई अभी बाकी है‘।
    
विपक्ष की पार्टियों ने कहना शुरू किया कि उन्हें वायु सेना पर गर्व है और राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल पर वह मोदी सरकार के साथ हैं। कुछ
उदारमन लोगों ने कहना शुरू किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर राष्ट्रीय सहमति होनी चाहिए, यही हमारी परम्परा रही है उस पर कतई कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन सच तो सच है, चाहें राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला हो या दूसरे मुल्क के साथ युद्ध का मुद्दा हो वह तो राजनीति विहीन नहीं हो सकता है। 

एक सही और सटीक कहावत है कि युद्ध अन्य तरीकों से राजनीति का ही जारी रूप है। विपक्षी दलों ने कहा कि सैनिकों की शहादत पर भाजपा और मोदी राजनीति कर रहे हैं। लोक सभा चुनाव सर पर है, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर भारतीय जनता पार्टी और उनकी सरकार राजनीति ही तो करेगी। बताना विपक्ष खासकर कांग्रेस को है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की उसकी अवधारणा क्या है?

कश्मीर और पाकिस्तान के बारे में उसकी समझ हिंदुत्व की राजनीति से भिन्न कैसे है? ऐसा तो नहीं हो सकता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी देश के अंदर हिंदुत्व की अधिनायकवादी राजनीति करें और विदेशी मामलों में लोकतांत्रिक नजरिये की पक्षधर हो जाये। किसी देश की आंतरिक नीतियों का ही विस्तार उसकी विदेश नीति में होता है।

आजादी के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा की अवधारणा पर आम सहमति यदि बनी होती तो गांधी जी की हत्या न हुई होती। आखिरकार उन्हें मारा ही गया पाकिस्तान का एजेंट घोषित करके। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लिए भारत देश एक नक्शा है। जहां जनता और जनभावना की कोई अहमियत नहीं है। उन्हें कश्मीर भूखण्ड चाहिए, चाहे उसके लिए कितने सैनिकों और कश्मीरियों की बलि ही चढ़ानी न पड़े। महबूबा मुफ्ती जिनके साथ मिलकर लगभग तीन साल भारतीय जनता पार्टी ने सरकार चलायी उनकी राय भी उनके लिए मायने नहीं रखती। 2009 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में टॉप करने वाले शाह फैजल की कश्मीर के बारे में राय उन्हें नागवार लगती है। वे आमादा हैं 35 ए और संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए। पिछले 4 सालों में कश्मीर के सभी पक्षकारों से बात करने की उन्होंने जहमत नहीं उठाई और आज भी वे इसकी जरूरत नहीं महसूस करते हैं।
    
देश के अंदर लोकतांत्रिक संस्थाओं को बर्बाद करना उनकी आदत है। बहुलता और असहमति का दमन करना उनका स्वभाव है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने कभी भी वैचारिक-राजनीतिक दृष्टि से पाकिस्तान को एक राष्ट्र के बतौर स्वीकार ही नहीं किया। यह कुछ युद्धोन्मादियों और हथियार के व्यापारी व मीडिया हाउस के कुछ पत्रकारों का ही शोरगुल नहीं है कि पाकिस्तान को दुनिया के नक्शे से गायब कर दो, दरअसल यह संघ की ठोस वैचारिक सोच है कि पाकिस्तान को खण्ड- खण्ड कर भारत में मिला देना चाहिए और अखण्ड भारत का निर्माण करना चाहिए।
      
नरेंद्र मोदी ने पायलट प्रोजेक्ट पूरा होने की बात की है लेकिन देश को यह नहीं बताया है कि उनके इस प्रोजेक्ट को पूरा करने में अमरीका और सऊदी अरब की क्या भूमिका रही है। जबकि सभी लोग यह जानते हैं कि अमरीकी राष्ट्रपति ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री द्वारा भारतीय पायलट छोड़ने की घोषणा के पहले ही दुनिया को भारत व पाकिस्तान में तनाव कम करने की खुश खबरी दे दी थी। युद्धोन्मादी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खुश है कि पाकिस्तान दुनिया में अलग-थलग पड़ गया है। यहां तक कि इस्लामिक सहयोग संगठन के देश भी उसके साथ नहीं है उल्टे उन लोगों ने अपने सम्मेलन में अतिथि देश के बतौर भारत को आमंत्रित किया है और विदेश मंत्री सुषमा
स्वराज ने वहां अपनी बात रखी है। लेकिन इससे भी खुश होने की जगह कुछ सीखने की जरूरत है।
        
1991 में भारत के पास भी विदेशी भुगतान के लिए पैसा नहीं था और हमें अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के शरण में जाना पड़ा और भारतीय बाजार पर क्रमशः विदेशियों का कब्जा होता चला गया। संसाधन और बाजार से वंचित किसानों की आत्म हत्या, नौजवानों की बेकारी जगजाहिर है।

आदिवासियों, नौजवानों और असंगठित क्षेत्र के कामगारों की लूट पर ही यह समृद्धि है। इसके टिकाऊपन पर इतराने की जरूरत नहीं है। भारत भी गहरे आर्थिक संकट से गुजर रहा है। युद्ध की राजनीति से भले ही हथियार के सौदागर मालामाल हो जायें, लेकिन आम जनजीवन तबाह हो जायेगा। भारत की ताकत भारत के बाजार में है, जो कारपोरेट और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले है। जिस दिन हम अपने बाजार पर पुनः दावा पेश करेंगे और अमरीकी प्रभाव क्षेत्र से हट कर विश्व राजनीति में स्वतंत्र दावा पेश करेंगे, उसी दिन अमरीका, यूरोप और सऊदी अरब जैसे देशों से बन रही मित्रता की पोल खुल जायेगी।
    
बेशक मोदी सरकार पाकिस्तान सरकार से वार्ता नहीं करना चाहती, न करे। लेकिन देश को यह जरूर बताये कि बगैर कश्मीरियों को विश्वास में लिये हुए वह पाकिस्तान की कूटनीति और आतंकी संगठनों से कैसे निपट सकती है। इजराइल के नक्शे कदम पर बढ़ने वाली मोदी सरकार इतना तो जानती ही है कि इजराइल की तमाम आक्रामक कार्यवाहियों के बावजूद अभी भी फिलीस्तीन का वजूद है। खैर
जो भी हो हिंदुत्व की युद्ध राजनीति के लिए नहीं उसके विरूद्ध जन राजनीति के लिए देश में आम सहमति बनाने की जरूरत है।

(उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं।)

लेखक
अखिलेन्द्र प्रताप सिंह
राष्ट्रीय कार्य समिति सदस्य
स्वराज अभियान

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