उत्तर प्रदेश: बुनकरों की बदहाली पैदा कर रही आजीविका संकट, खोल रही पलायन के द्वार! 

Written by सतीश भारतीय | Published on: March 23, 2024
कपड़ा मानव की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। मानव समाज ने अपने विकास के साथ कपड़ा बुनना या बनाना भी सीखा। जैसे पेट के लिए रोटी और रहने के लिए आवास जरूरी होता है, वैसे ही सर्दी, गर्मी और बरसात से शरीर की सुरक्षा के लिए कपड़ा अनिवार्य है। भारत में कपड़े को उसके असली स्वरूप में लाने का काम ‘हाथ के कारीगरों’ ने किया। 19 वीं सदी का आगाज ऐसा दौर रहा जब भारत में कपड़ा निर्मित करने के लिए ‘हथकरघा’ का उपयोग किया जाने लगा। रफ़्ता-रफ़्ता हथकरघा लोगों की जीविका का साधन बन गया। मगर, विद्धुतकरघा के प्रचलन ने हथकरघा मजदूरों की कमर तोड़ दी। हालांकि, केन्द्रीय वस्त्र मंत्रालय की रिपोर्ट वर्ष 2022-23 के मुताबिक आर्थिक गतिविधि के रूप में हथकरघा कृषि के बाद सबसे बड़े रोजगार प्रदाता में से एक है।  

 
बुनकर दीपक मौर्य, फोटो: सतीश भारतीय

देश में कपड़ा उत्पादन की बढ़ोत्तरी के लिए गुजरात, महाराष्ट्र जैसे विभिन्न राज्यों का अहम योगदान रहा है। इन्हीं राज्यों में देश की सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश भी शामिल है। उत्तर प्रदेश भारत का तीसरा सबसे अधिक कपड़ा उत्पादक राज्य है। यूपी में राष्ट्रीय उत्पादन का 13.24% कपड़ा उत्पादित होता है। वर्ष 2021-22 में प्रदेश से कपड़ा और परिधान का निर्यात 20,500 करोड़ रूपए था। 

राज्य में तकरीबन 1,99000 हथकरघा बुनकर हैं। जबकि, करीबन 5,00000 पावरलूम (विद्धुतकरघा) बुनकर हैं। प्रदेश में हथकरघा और विद्धुतकरघा बुनकरों द्वारा कपड़ा बनाने का काम विभिन्न शहरों में कई दशकों से किया जा रहा है। कपड़ा बुनकरी का काम मुख्यत: मऊ, भदोही, बनारस, मीरजापुर, आगरा, कानपुर जैसे अन्य शहरों में होता है। मगर वर्तमान दौर में बुनकर और बुनकरी का कारोबार दिन-ब-दिन बदहाल होता जा रहा है। बुनकरी कारोबार की बदतर दशा आए दिन मीडिया की सुर्खियों में नजर आ रही है। 

उत्तर प्रदेश में बुनकरों और बुनकरी कारोबार की स्थिति क्यों बिगड़ती जा रही है और इसे कैसे संभाला जाए? इसकी पड़ताल करने के लिए हम जा पहुंचे प्रदेश के बनारस शहर। कपड़ा की दृष्टि से देखा जाए तो बनारस ‘वाराणसी साड़ियों’ के लिए देश-दुनियाँ में मशहूर है। वहीं बनारस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी है। इसलिए भी यहाँ के बुनकरों की हालत जानना दिलचस्प हो जाता है। बनारस में बुनकरों का हाल जानते हुए जब हमने उनसे संवाद किया, तब बुनकरों ने अपना दुख-दर्द बयां करते हुए अलग-अलग टिप्पणियाँ हमारे सम्मुख रखीं। 

बनारस के शिवपुर में पहले हमारी मुलाकात कैलाशनाथ (उम्र 68 वर्ष) से हुयी। वह अपने छोटे से पॉवरलूम कारखाने में कपड़ा बना रहे थे। उनका कहना है कि, ‘मालिक बुनकरों को पैसा नहीं दे पा रहे हैं। हालत यह है कि बहुत से मजदूर बुनकरी का काम छोड़कर लेबरी कर रहे हैं। मैं कहने को तो मालिक हूँ, लेकिन खुद कपड़ा मशीन चलाता हूँ। पहले हमारे यहाँ 4 मजदूर काम करते थे। 2 रात में और 2 दिन में। लेकिन अब रात वाले मजदूरों ने काम छोड़ दिया है। अब दिन में 2 ही मजदूर काम करते हैं। इनमें से एक मजदूर तो कभी-कभार ही आता है। 


कपड़ा कारखाना चलाने वाले बुनकर कैलाशनाथ

कैलाशनाथ आगे दर्द भरी आवाज़ में कहते हैं कि, ‘सरकार का बिजली बिल हमारा काम कमजोर का रहा है। हमें सरकार से नफरत नहीं है। सरकार से उम्मीद है कि वह ऐसे सफल प्रयास करे कि हमारा बेपटरी धंधा पटरी पर आ जाए।   

फिर, हम कादीपुर मंडी की ओर आगे बढ़े ही थे कि, हमें दीपक जा मिले। वह बोलते हैं कि, ‘अब बुनकरों की बदहाली बता रही है कि इस धंधे की पेन्ट-शर्ट उतर गई। हम कच्चा माल खरीद कर कपड़ा तो तैयार कर देते हैं, लेकिन अब हमारे कपड़े के लिए बाजार में मांग नहीं हैं। धंधे की हालत यह है कि 40 रूपए का दुपट्टा बाजार में बेचते हैं तो खरीदार नहीं मिलता। मोदी सरकार ने अच्छे काम किए। सरकार सड़क पर मार्बल लगवा दे। लेकिन, जब हमारे परिवार का पेट नहीं भरेगा, तब हम कैसे कहेंगे हमारी हालात ठीक है। 

दीपक से यह पूंछने पर कि, सरकार यदि आप को लोन दे तब क्या आपके कारोबार में मदद मिल सकती है? तब दीपक कहते हैं कि, ‘लोन तो हमें मिल जाएगा, हम लोन से कपड़े भी बना लेंगे। लेकिन सवाल यह है कि हम कपड़े को बेचेंगे कहाँ? जब हमारा व्यापार नहीं चलेगा, तब हम लोन भरेंगे कैसे? सरकार हमारे कपड़े के लिए एक अलग बाजार तैयार करे। 

दीपक आगे कहते हैं कि, ‘एक कपड़ा बनाने में 50 हाथ लगता है। मगर हमारा माल दो-दो साल रखा रहता है हमें खरीदने वाला नहीं मिलता। ऐसे में हमारा कपड़ा नहीं बिकता, तब सोचिए हम पर क्या गुजरती होगी। 

जब हमने यह सवाल किया कि, आपका माल बाजार में क्यों नहीं खरीदा जाता? तब दीपक कहते हैं कि, ‘आम लोगों के हाथों में पैसा नहीं है। देश में ज्यादातर संपत्ति गिने-चुने कारोबरियों के पास है। आम लोगों की हालत खस्ता हो रही है, इसके बाद हम दुर्गा नगर कालोनी में प्रवेश हुए। यहाँ हमें पॉवरलूम मशीन की आवाजें सुनाई दीं। कुछ कदम चलने पर हमें दिखाई दिया पॉवरलूम कपड़ा कारखाना। कारखाने की हालत कुछ ऐसी लगी जैसे कोई 40-50 साल पुराना हो।  


अपने पिता के साथ कपड़ा निर्माता मनीष

मनीष से कारोबार का मिजाज पूछते हुए हमने गुफ्तगू शुरू की। तब वह बताते हैं कि, ‘हमारे पूर्वजों के समय से हम बुनकरी का काम करते आ रहे हैं। हम बुनकरी में शेरवानी के कुर्ते-पाजामे, प्लेन कपड़े का कच्चा माल तैयार करते हैं। लेकिन पिछले 10 साल से बुनकरों और बुनकरी के काम की स्थिति बहुत दयनीय होती जा रही है। वहीं, ना माल (कपड़ा) बिक रहा है और ना माल के ऑर्डर आ रहे हैं। ऐसे में मेरे अंडर काम करने वाले 15-20 लोगों को वेतन देने में भी बहुत  दिक्कत हो रही है। 
  
मनीष से यह पूंछने पर कि, आपके काम को कैसे संरक्षित किया जा सकता है? तब मनीष कहते हैं कि, ‘हमारे धंधे में अब मुनाफा एक-दो रुपए पर टिका है। ऐसे में हमारे काम पर टैक्स और बिजली बिल उचित लगाया जाए। बुनकरों की तरफ सरकार ध्यान दे और आर्थिक मदद करे। 
   
मनीष दावा करते हैं कि, ‘बनारस में करीब 45 प्रतिशत लोग बुनकर हैं। पहले बुनकरों के लिए प्रति मोटर 65 रुपए बिजली बिल लगता था, लेकिन अब कई गुना बढ़ गया है। एक तो धंधे की बदहाली ऊपर से टैक्स व बिजली बिल का प्रेशर। इस स्थिति में मन तो करता है कि यह धंधा छोड़ दें, लेकिन हमारी पुश्तैनी कला से लगाव इतना है कि, यह कार्य नहीं छोड़ नहीं पाते।

कारखाने में पॉवरलूम मशीन चलाते दिनेश की तरफ जब हम रुख करते हैं तब वह अपना दर्द कुछ यूं बयां करते हैं, ‘धंधा इतना तितर-बितर हो गया है। कपड़ा बिक्री नहीं होती है। कपड़ा बिक्री हो इसलिए हर 6 माह में डिजाइन बदलते हैं। पैसे की बहुत तंगी है। कई बार यह सोचना पड़ता है कि बच्चों के लिए एक पाव मिठाई खरीदें या रहने दें।

वहीं, दिनेश के बाजू में धागा सुलझाते बुनकर संजय फरमाते हैं कि, ‘हम 12 घंटे काम करते हैं। इन 12 घंटे में मेहनत और काम तो बहुत हो जाता है, मगर, दैनिक आमदनी बमुश्किल से 200 से 400 रूपए तक ही हो पाती है। 


बुनकर संजय मौर्य
 
संजय के बोल थमतें हैं कि, सुस्ताते हुए कुर्सी बैठे जावेद अख्तर बोल पड़ते हैं। वे बोलते हैं, ‘बुनकरी करते हुए 15 साल चुके हैं। पहले हथकरघे से कपड़ा बुनते थे। अब मशीन से पॉलिएस्टर कपड़ा बनाते हैं। मगर, कपड़े का काम इतना डाउन हो गया है कि, मालिक, मजदूर, सब परेशान हैं। कोई भी काम सही समय पर नहीं हो रहा है। 
 
आगे दुर्गा नगर कालोनी की संकरी गलियों से निकलकर चल पड़े हम शिवपुर बाजार की ओर। शिवपुर बाजार में हमारी भेंट कुछ बुनकर मजदूरों से हुई, जिनमें रविनाथ मिश्रा (उम्र 70 वर्ष) भी मौजूद थे। जब हमने उनकी तरफ निगाहें कीं तब वह बतलाते हैं कि, ‘मैं 30-35 साल से बुनकरी का काम करते आ रहा हूँ, मगर अब इस धंधे का आर्थिक ढांचा इतना लड़खड़ा गया है कि, खाने के लिए आदमी मोहताज हो जाता है।


बुनकर मजदूर रविनाथ मिश्रा


वे आगे कहते हैं, ‘बनारसी साड़ी अब ऑरिजनल नहीं रही। अब डुपलिकेट साड़ी बनाई जा रही है। आलम यह है कि, अब बनारसी साड़ी बनाने वाले रो रहे हैं। हमें भी लगता है कि यह काम अब हम ज्यादा खींच नहीं पाएंगे। रविनाथ धंधे की बदहाली का कारण महंगाई को भी मानते हैं। 

इसके उपरांत जब हम राजू पटेल से संवाद करते हैं, तब वह कहते हैं कि, ‘मैं बिहार में बुनकरी का काम कर चुका हूँ। अब उत्तर प्रदेश में कर रहा हूँ। बुनकरी से आज परिवार का पेट पालन कठिन हो गया है। यदि परिवार में कोई बीमार हो जाए तब हम कर्ज का शिकार हो जाते है। कर्ज में डूबा इंसान कर्ज चुकाये या परिवार का पेट भरे, इसी चिंता से घिरा रहता है।


बुनकर मजदूर राजू पटेल


बनारस के शिवपुर बाजार में हमने कपड़ा बिक्रेता विक्की जायसवाल से बनारसी साड़ी और बुनकरों को लेकर चर्चा की। इस दौरान विक्की कहते हैं कि, ‘बनारस में कई जगह बनारसी साड़ी बनाई जाती है। इन्हीं इलाकों में गणेशपुर भी शामिल है। गणेशपुर में छोटे-छोटे कई कपड़ा कारखाने चलते हैं। लेकिन, वक्त की मार ने बहुत से कपड़ा कारखाने ठप्प करा दिए। बुनकरों द्वारा बनाई जाने वाली बनारसी साड़ी और अन्य कपड़े अब छोटे व्यापारी सेल नहीं कर पाते। वजह यह है कि बनारसी कपड़े का रखरखाव और दाम महंगा पड़ रहा है। यहाँ सिंथेटिक्स कपड़ा जल्दी सेल हो जाता है। जब 50 सिंथेटिक्स साड़ी बिकती है, तब एक-दो बनारसी और सिल्क साड़ी बिक पाती है।, 

बनारस में बुनकरी कारोबार, मजदूरों और किसानों पर काम कर रहे कार्यकर्ता रामजनम से जब हमने कपड़ा व्यवसाय को लेकर बात की। तब रामजनम कहते हैं कि, ‘बुनकरी से लेकर जितने भी परंपरागत धंधे रहे हैं उन्हें सत्ता की तरफ से देश में आर्थिक, राजनैतिक संरक्षण मिलता रहा है। जैसे-जैसे परंपरागत धंधे चौपट हो गए वैसे ही बुनकरी चौपट हो गया है। बुनकरों...के पास केवल हुनर है, उस हुनर को समाप्त करने कि कोशिश की जा रही है। राम जनम आगे कहते हैं, ‘मैने देखा है कि यूपी में महू के बुनकरों की हालत इतनी बदतर हो गई है कि वे अरब मुल्कों की ओर मजदूरी के लिए पलायन कर रहे हैं। बुनकरी के काम में अधिकतर अल्पसंख्यक समुदाय भी शामिल रहा है। लेकिन सत्ता उनको अलग नजरिए से देखती है। इसलिए भी बुनकरी के कारोबार में गिरावट आ रही है। यह गिरावट 1990 के दशक से शुरू हो चुकी थी। लेकिन, अब बद से बदतर हालत हो चुकी है। अब यूपी के बाजारों में जो सूरत का माल आ रहा है, इसलिए भी यहाँ के माल की डिमांड खत्म हो गई। इस धंधे को कैसे संभाला जाए? यह पूंछने पर रामजनम कहते हैं कि, धंधा संभालने के लिए विशेष योजना, नीति और नियत की दरकार है। 

बनारस से सटे चंदौली जिले के समाजसेवी और बुनकरी के पेशे से जुड़े ईजाद अहमद से हमने फोन संपर्क से बुनकरों के पलायन को लेकर जब उनके विचार जानना चाहा तब ईजाद दावा करते हैं कि, ‘चंदौली में 15000 से 20000 बुनकर बुनकरी का काम छोड़कर सूरत, बैंगलोर जैसे अन्य शहरों में पलायन कर गए हैं। बुनकरों...का पलायन लगातार बढ़ता जा रहा है। हमारे आसपास रहने वाले 25 से 30 बुनकर परिवार भी शहरों में पलायन कर चुके हैं। ईजाद आगे यह भी कहते हैं कि, हम खुद सोचते रहते हैं कि, चंदौली से कहीं और पलायन कर जाएं, लेकिन हमारा दिल गवारा नहीं कर रहा कि हम अपना मकान, घरद्वार छोड़कर कहीं और जाएं।
  
जब हमने बात की शैलेष प्रताप सिंह से, जो सरकार के साथ मिलकर बुनकरों को लेकर काम कर रहे हैं। तब वह कहते हैं, ‘बुनकर जो कपड़ा बनाते हैं वह पार्टी वियर और फैन्सी कपड़े हैं। यह कपड़े लोग आम दिनों में नहीं पहनते। बुनकरों के पास एक रास्ता यह है कि, वे ऐसे कपड़े बनाएं जिनकी बाजार में अधिक मांग है। यदि बुनकर बाजार और लोगों की मांग के हिसाब से कपड़े तैयार करते हैं, तब वे रफ़्ता-रफ़्ता आर्थिक तंगी से निकल सकते हैं। साथ-साथ अपने कपड़ा कारोबार को भी मजबूत कर सकते हैं।

शैलेष आगे कहते हैं, ‘सरकारें बुनकरों को कई योजनाएं बनती है, मगर वे योजनाएं धरातल पर नहीं पहुँचतीं। वहीं अशिक्षा की...वजह से बुनकर योजनाओं के संबंध में अधिकारियों से संवाद नहीं कर पाते।  

वाराणसी वस्त्र बुनकर संघ के महासचिव ज्वाला सिंह से जब हमने बुनकरों और बुनकरी कारोबार की स्थिति को लेकर उनकी राय जाननी चाही तब वह कहते हैं कि, ‘हमारा संगठन उत्तर प्रदेश के तमाम संगठन (बुनकरों की व्यवस्थाओं) को लेकर आंदोलन भी कर रहे हैं। बनारस...और पूरे उत्तर प्रदेश में कोई रॉ मटेरियल का उत्पादन नहीं है। उत्तर प्रदेश सूरत और साउथ के क्षेत्रों पर निर्भर है। इन क्षेत्रों से लाया गया माल हमें 20% महंगा पड़ता है। जो पिछली सरकार थी उसने हमें 2006 के दौरान बिजली की छूट दी थी। तब बाहर से लाया गया महंगा माल ज्यादा नहीं अखरता था। लेकिन, वर्ष 2017 से आयी योगी सरकार के कार्यों से...बुनकरों की हालत दयनीय होती जा रही है। हमारी मांग है कि, सरकार बुनकरों के लिए पुरानी व्यवस्था लागू करे। पुरानी व्यवस्था में बुनकरों के लिए सब्सिडी और बिजली में अधिक छूट थी।       
 
बुनकरों को लेकर राज्य सरकार की योजनाएं और बजट  

उत्तर प्रदेश सरकार ने दिसम्बर 2019 को बुनकरी उद्योग के लिए दिशा निर्देश भी जारी किए। यह दिशा निर्देश पावरलूम बुनकरों को बिजली दर में छूट की प्रतिपूर्ति योजना के संबंध में थे। निर्देश ऊर्जा विभाग के अनुविभाग-3 शासनादेश संख्या-1969/24-पी-3-2006 दिनांक 14-06-2006 को अवक्रमित करते हुए दिशा निर्देश जारी किए गए। दिशा निर्देश के मुख्य अंश में उल्लेख किया गया कि, (0.5) हॉर्स पॉवर तक के पावरलूम बुनकर को 120 यूनिट और (1.0) हॉर्स पॉवर तक के पावरलूम बुनकर को 240 यूनिट की सीमा तक रूपए 0.3.50 प्रति यूनिट की दर से बिजली दर में प्रतिपूर्ति निर्धारित की जाएगी। यह योजना 1 जनवरी 2020 से लागू माने जाने का भी जिक्र किया गया। 

उत्तर प्रदेश सरकार हथकरघा क्षेत्र के प्रशिक्षुओं को सहायता योजना भी चलती है। योजना के अंतर्गत भारतीय संस्थान चौकाघाट वाराणसी में 45 उमीदवारों का चयन किया जाता है। यहाँ तीन वर्षीय डिप्लोमा पाठ्यक्रम में प्रथम वर्ष के स्टूडेंट्स के लिए 500 रूपए, द्वितीय वर्ष के स्टूडेंट्स के लिए 550 रूपए और तृतीय वर्ष स्टूडेंट्स के लिए 600 छात्रवृति दी जाती है। यह छात्रवृति प्रत्येक माह के आधार पर 10 माह तक दी जाती है। वर्ष 2021-22 में इस छात्रवृति के लिए 7.19 लाख का बजट प्रस्तावित किया गया। 

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2006 में पावरलूम बुनकरों को विद्धुत दर छूट की प्रतिपूर्ति किए जाने का निर्णय लिया गया। जिसमें शहरी बुनकरों के लिए प्रति करघा 130.0 रूपए और ग्रामीण बुनकरों के लिए प्रति करघा 37.50 रूपए दिया जा रहा है। वर्ष 2020-21 में पावरलूम बुनकरों को लाभान्वित करने के लिए 1 अरब 50 करोड़ रूपए के बजट की स्वीकृति की गई। वहीं, वित्तीय वर्ष 2021-22 में पावरलूम बुनकरों को विद्धुत दर में छूट की योजना के अंतर्गत 2 अरब 50 करोड़ की राशि प्रस्तावित की गई। 

वहीं, हथकरघा बुनकरों के लिए प्रति माह 328 रूपए और प्रतिवर्ष 3936 रूपए की दर से बिजली में छूट दी जाती है। वर्ष 2021-22 में 12703 हथकरघा बुनकरों के लिए विद्धुत दर में छूट की प्रतिपूर्ति हेतु 5 करोड़ रूपए का बजट प्रस्तावित किया गया।  

प्रदेश में मुख्यमंत्री हथकरघा पुरस्कार योजना भी आरंभ की गई। इस योजना के तहत ‘ए’ और ‘बी’ कैटेगरी में सम्मान राशि का उल्लेख है। कैटेगरी में ‘ए’ में 39 बुनकर को 5,58,000 राशि का बजट प्रस्तावित है। जबकि,  कैटेगरी में ‘बी’ में 12 बुनकरों के लिए 7,00,000 राशि का बजट प्रस्तावित है।  

वस्त्र उद्योग के आँकड़े, निर्यात और केंद्र सरकार का बजट 

भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट 2022-2023 के मुताबिक वर्ष 2022-2023 में गैर-टीएक्ससी के तहत विद्धुत करघा सेवा केंद्रों को 23.55 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। विद्धुतकरघा बुनकरों को प्रधानमंत्री ऋण योजना के तहत 93.60 करोड़ रूपए आवंटित किए गए। 2014-15 से 510 महिला कारोबारियों ने शटलरहित करघे के साथ अपनी नई इकाइयां स्थापित कीं। 

रिपोर्ट में साधारण विद्धुतकरघों के लिए स्वस्थाने उन्नयन योजना का जिक्र किया गया। यह योजना 8 करघों वाली छोटी विद्धुतकरघा इकाइयों के लिए है। 4 से कम करघे वाली इकाइयों के लिए प्राथमिकता है। योजना के तहत केंद्र सरकार उन्नयन की लागत के 50%, 70% और 90% सीमा तक वित्तीय सहायता प्रदान करेगी। सामान्य, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए अधिकतम सब्सिडी प्रति करघा  क्रमश: 45,000 रूपए, 67,000 रूपए और 81,000 रूपए होगी। 
 
केंद्र सरकार की सब्सिडी के अलावा महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्य सरकार प्रति विद्धुतकरघा 10,000 रूपए सहायता कर रही हैं। वहीं, बिहार सरकार 12,000 रूपए विद्धुतकरघा के लिए वित्तीय सहायता प्रदान कर रही है। 

देश में प्रमुख हथकरघा निर्यात केंद्रों में करूर, पानीपत और वाराणसी सहित अन्य भी शामिल है। 
    
केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2015-16 से वर्ष 2022-23 तक 616 हथकरघा कलस्टरों की वित्तीय सहायता प्रदान की गई है। इसके अलावा 9 मेगा हैंडलूम कलस्टर उत्तर प्रदेश (वाराणसी), बिहार, तमिलनाडु और मणिपुर सहित 8 राज्यों में कार्यान्वयनाधीन है। वर्ष 2022-23 के दौरान विभिन्न पहलों के क्रियान्वयन के लिए 11.21 करोड़ रूपए की राशि जारी की गई है।  

रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया हथकरघा क्षेत्र का हमारी अर्थव्यवस्था में विशिष्ट स्थान है। आर्थिक गतिविधि के रूप में हथकरघा कृषि के बाद सबसे बड़े रोजगार प्रदाता में से एक है। यह क्षेत्र लगभग 28.23 लाख हथकरघों पर कार्यरत 35.23 लाख व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करता है। इन व्यक्तियों में 13.7% अनुसूचित जाति, 17.8% अनुसूचित जनजाति, 36% अन्य पिछड़ा वर्ग और 32.4% अन्य जाती से संबंधित है। 

एनएचडीपी के तहत 2021-22 से 2025-26 तक मेगा हथकरघा कलस्टर 5 वर्षों की अवधि में प्रति कलस्टर 30.00 करोड़ रूपए तक के योगदान से 10000 हथकरघा/कलस्टरों को कवर करेगा। 

इंडियन ट्रेड पोर्टल के मुताबिक 23.77 लाख करघों के साथ हथकरघा उद्योग देश का सबसे बड़ा कुटीर उद्योग है। ग्रामीण क्षेत्र में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता है। हथकरघा 3 मिलियन से अधिक लोगों को रोजगार देता है। 72.29% प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ उद्योग मुख्य रूप से महिला श्रमिकों को रोजगार देता है।
 
भारत 20 से अधिक देशों में हथकरघा उत्पादों का निर्यात करता है। अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन, इटली, जर्मनी, फ़्रांस, जैसे अन्य देश शामिल हैं। वहीं इंटरनेशनल जर्नल ऑफ साइन्टफिक एण्ड इनोवेटिव रिसर्च स्टडीज के डेटा की मानें तो वर्ष 2009-2010 तक 43.31 लाख लोग बुनकरी के क्रियाकलापों से जुड़े थे। अनकम, श्रीनिवास, और नीममाला राजेश ने वर्ष 2016 में अपने अध्ययन में पाया कि, बुनकरों की आय 2000-4000 रुपए मासिक है। 

वस्त्र नीति 2017 के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 2.50 लाख से अधिक हथकरघा बुनकर हैं। वहीं, 1.10 लाख हथकरघे और सैकड़ों वर्षों से विकसित नैसर्गिक हथकरघा क्लस्टर है। विश्व में हाथ से बने कपड़ों का 95 प्रतिशत भाग भारत से ही प्राप्त होता है। 

भारत सरकार की दृष्टि है कि, कपड़ा क्षेत्र में 250 बिलियन अमेरिकी डॉलर का विकास किया जाए ताकि भारत को वैश्विक कपड़ा विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित किया जा सके। सरकार का ध्यान वर्ष 2030 तक वैश्विक कपड़ा निर्यात में 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्राप्त करना है।  

विचारणीय है कि, बुनकरी उद्योग और बुनकरों के विकास के लिए राज्य और केंद्र सरकार की कई योजनाएं हैं, मगर बुनकरों की स्थिति आए दिन गड़बड़ हो रही है। बुनकरों की बदहाली यह अहसास करा रही है कि, सरकार की सभी योजनाएं फिसड्डी साबित हो रहीं हैं। अब तक ऐसी कोई विशेष योजना नहीं आयी है जिससे बुनकरी उद्योग को संभाला जा सके। वहीं, बुनकर मजदूरों के लिए कोई विशेष स्वास्थ्य योजना भी नहीं हैं। जिससे उनके स्वास्थ्य को सुरक्षित किया जा सके।    

बुनकरी उद्योग और बुनकरों को लेकर जो आँकड़े हमारे सामने हैं उससे बुनकरी उद्योग की महत्वता समझी जा सकती है। मगर इन आंकड़ों से यह साबित नहीं हो जाता कि, बुनकरी उद्योग की गिरती हालत को अब संभाल लिया गया है। या कि, बुनकरों की चुनौतियाँ और समस्याएं समाप्त हो गई हैं। बुनकरी कारोबार की गिरती साख बुनकरों को दिन-ब-दिन अशक्त और बेबसी का शिकार कर रही है। सरकार यदि वाकई चाहती है कि, बुनकरी उद्योग और बुनकरों की हालत में उपयुक्त सुधार लाया जाए, तब ऐसी ठोस और नई योजनाएं, नीतियाँ और विधियाँ बनाने की दरकार है जिनका क्रियान्वयन धरातलीय स्तर से किया जा सके।     
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