भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष और विविधता से परिपूर्ण देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने को लेकर पहल जोरों पर है.
कर्नाटक से शुरू हुए हिज़ाब विवाद के बाद समान नागरिक संहिता को लागू करने को लेकर चर्चा तेज हो गयी है. समान नागरिक संहिता (UCC) की बात करना गलत नहीं है लेकिन लागू करवाने की मंशा और चुनाव हित में साम्प्रदायिक माहौल तैयार करने के लिए उसका उपयोग करना घातक है. आज तक केंद्र सरकार द्वारा समान नागरिक संहिता को लेकर कोई मसौदा पेश नहीं किया गया है. बीजेपी शासित 5 राज्यों की सरकार ने समान नागरिक संहिता को राज्य भर में लागू करने की बात कही थी.
वर्तमान में उत्तराखंड की सरकार ने समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code/ UCC) को लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में एक एक्सपर्ट कमिटी का गठन कर दिया है. मार्च में उत्तराखंड में नयी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक के बाद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य में UCC को लागू करवाने की बात कही थी. इससे पहले गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है.
क्या है समान नागरिक संहिता?
यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) भारत में रहने वाले सभी धर्म के नागरिकों के लिए एक समान कानून बनाने की मांग करता है, जो उनके विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने जैसे व्यक्तिगत मामलों पर एक समान कानून का प्रावधान करती है. संवैधानिक रूप से भारत में आपराधिक कानून समान हैं और सभी पर समान रूप से लागू होते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी धार्मिक मान्यताएं क्या हैं, जबकि नागरिक कानून विश्वास से प्रभावित होते हैं. विवाह, विरासत, गोद लेने, उत्तराधिकार आदि जैसे मामलों को भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों के अनुसार नियंत्रित किया जाता है.
समान नागरिक संहिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
समान नागरिक संहिता की उत्पत्ति औपनिवेशिक भारत में हुई जब ब्रिटिश सरकार ने 1835 में भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर जोर देते हुए अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. रिपोर्ट में सिफारिश की गयी कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के संहिताकरण से बाहर रखा जाए.
औपनिवेशिक सरकार ने 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए बी एन राव समिति का गठन किया. राव समिति की रिपोर्ट का मसौदा डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक प्रवर समिति को प्रस्तुत किया गया था, जिस पर संविधान को अपनाने के बाद 1951 में चर्चा हुई.
विधेयक को 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में अपनाया गया था ताकि हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों में वसीयत या इच्छारहित उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध किया जा सके.
हिन्दू कोड बिल कमिटी का गठन 1941 में ही कर दिया गया था जबकि कानून बनाकर पारित करने में 14 साल लग गए. यह एक समान अधिनियम नहीं है, बल्कि तीन अलग-अलग अधिनियम का समूह हैं:
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955;.
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956;.
हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956
इस अधिनियम ने हिंदू व्यक्तिगत कानून में सुधार जरुर किया लेकिन महिलाओं को बहुत अधिक अधिकार नहीं दिया गया. यह संशोधन 2005 में यूपीए सरकार के कार्यकाल में किया गया. वर्ष 2005 के अधिनियम में, एक संशोधन ने महिलाओं को परिवार के वंशजों के रूप में जोड़ा. वर्तमान में एक बेटी को वही हिस्सा आवंटित किया जाता है जो एक बेटे को आवंटित किया जाता है.
समान नागरिक संहिता का विधिक पक्ष
विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग कानूनों को लंबे समय से कानूनी और प्रशासनिक जटिलताओं के रूप में देखा गया है और, जैसा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने उल्लेख किया है,कि "विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के होने के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दे" संघर्ष का आधार बनते है.
भारतीय गणराज्य के संस्थापकों ने इन मुद्दों का अनुमान लगाया था और इसलिए भारत के संविधान के भाग IV, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के अध्याय में अनुच्छेद 44 को जोड़ा गया था.
अनुच्छेद 44 कहता है कि "राज्य नागरिकों के लिए भारत के पूरे क्षेत्र में एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने का प्रयास करेगा".
हालांकि यह विधिक रूप में नहीं है और यह संसद पर निर्भर करता है कि वह यूसीसी लाने के लिए कानून बनाए. ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुच्छेद 37 कहता है कि "इस भाग (भाग IV) में निहित प्रावधान किसी भी अदालत द्वारा परिवर्तनीय नहीं होंगे और यह राज्य का कर्तव्य होगा कि वह कानून बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करे.
इसके बनने के बाद ,एक ही नागरिक कानून, सभी नागरिकों पर लागू होगा, चाहे उनके विश्वास भिन्न भिन्न हो.
न्यायपालिका के दृष्टिकोण:
भारत में सुप्रीम कोर्ट सहित कई अदालतों ने यूसीसी का मसौदा पेश न करने को लेकर सरकार से बार-बार सवाल किया है. मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य (1985) मामले के दौरान, शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को राष्ट्रीय एकता के हितों में "सामान्य नागरिक संहिता" लागू करने के लिए प्रोत्साहित किया था.
न्यायालय ने जॉर्डन डिएंगडेह बनाम एस एस चोपड़ा (1985) मामले में भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 के तहत एक ईसाई महिला और एक सिख पुरुष के बीच विवाह के संदर्भ में भी इसे दोहराया था.
एबीसी बनाम राज्य (एनसीटी ऑफ दिल्ली), 2015 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर एक ईसाई बच्चे की संरक्षकता के संदर्भ में यूसीसी की अनुपस्थिति पर दुख व्यक्त किया था.
हाल ही में, जोस पाउलो कौटिन्हो बनाम मारिया लुइजा वैलेंटीना परेरा (2019) मामले में सर्वोच्च अदालत ने फिर से यूसीसी की कमी पर अपनी निराशा व्यक्त करते हुए कहा: "जबकि राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों से निपटने वाले भाग IV के अनुच्छेद 44 में संविधान के संस्थापकों ने उम्मीद की थी कि राज्य भारत के सभी क्षेत्रों में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने का प्रयास करेगा, आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
उसी फैसले में, यह टिप्पणी की गई कि गोवा यूसीसी के साथ एक "अच्छा उदाहरण" है जहाँ "कुछ सीमित अधिकारों की रक्षा के अलावा धर्म की परवाह किए बिना यह सभी के लिए लागू होता है".
यूसीसी पर विधि आयोग का पक्ष
विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से सम्बंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया. विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा संविधान के मूल अधिकार में वर्णित अनुच्छेद 14 से 25 से प्रभावित होता रहा है.
विधि आयोग ने 2018 की एक रिपोर्ट में कहा कि भारत के लिए समान नागरिक संहिता "इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है" इसका कारण यह था कि भारत जैसे विविधता वाले देश को अपने सभी लोगों की जरूरतों का सम्मान करने के लिए अलग-अलग कानून बनाने होंगे और एकरूपता लाना वास्तव में मामलों को सरल बनाने से अधिक जटिल बनाने का काम करेगा. इसमें कहा गया है कि "संविधान ने स्वयं आदिवासियों आदि जैसे कई लोगों को इतनी सारी छूट दी है. सिविल प्रक्रिया संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में भी छूट है. यूसीसी एक समाधान नहीं है और एक समग्र अधिनियम नहीं हो सकता है.
राज्य सरकार समान नागरिक संहिता को लागू कर सकती है या नहीं इस बात पर कानून के जानकारों की अलग-अलग राय है. पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य का कहना है कि केंद्र और राज्य दोनों को इस तरह का कानून लाने का अधिकार है क्योंकि शादी, तलाक, विरासत और संपत्ति के अधिकार जैसे मुद्दे संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं. लेकिन पूर्व केंद्रीय कानून सचिव पीके मल्होत्रा का मानना था कि केंद्र सरकार ही संसद में जाकर ऐसा कानून ला सकती है. पीके मल्होत्रा का तर्क है कि चूंकि संविधान का अनुच्छेद 44 पूरे भारत के सभी नागरिकों के लिए बात करता है, इसलिए केवल संसद ही ऐसा कानून बनाने के लिए सक्षम है.
कानूनी विशेषज्ञों का यह भी तर्क है कि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 में "यूनिफार्म" शब्द का उपयोग किया था, न कि "कॉमन"(सामान्य)
"सामान्य" का अर्थ है "सभी परिस्थितियों में एक और समान", जबकि "यूनिफार्म" का अर्थ है "समान परिस्थितियों में समान"
इसी तरह, विशेषज्ञों का तर्क है कि अनुच्छेद 43 में उल्लेख किया गया है कि "राज्य उपयुक्त कानून द्वारा प्रयास करेगा", वाक्यांश में "उपयुक्त कानून द्वारा" अनुच्छेद 44 में अनुपस्थित है, जो इंगित करता है कि निर्माताओं ने एक ही कानून द्वारा समान नागरिक संहिता के अधिनियमन का इरादा नहीं किया था.
इसके अलावा, यूसीसी समानता सुनिश्चित करने का उद्देश्य रखता है, लेकिन हिंदू कानून में हुए सुधारों ने लिंग भेदभाव को पूरी तरह से समाप्त नही किया है.
उदाहरण के लिए, हिंदू महिलाओं द्वारा वास्तव में विरासत में मिली भूमि की मात्रा, हिंदू कानून में हुए सुधार के तहत उनके वांछनीय अधिकार का एक छोटा सा हिस्सा है. यहां तक कि जब वे महिलाओं को भूमि का वारिस तय करते हैं, तो यह हमेशा एक समान हिस्से की तुलना में बहुत कम होता है.
समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात करना बीजेपी का वर्षों पुराना चुनावी एजेंडा रहा है. अटल बिहारी वाजपेयी के समय से लेकर आज तक इस एजेंडे को मुद्दा बना कर चुनावी फायदा हासिल करना बदस्तूर जारी रहा है. हालाँकि समान नागरिक संहिता बहुसंख्यक आबादी के लिए अधिक मुश्किलें खडी कर सकता है क्यूँकि भारत की बहुसंख्यक आबादी में विविधता भी अधिक देखी गयी है. विडंबना यह है कि बिना मसौदे को तैयार किए और उस पर विचार विमर्श किए इसे चुनावी मुद्दा बनाया जा रहा है. ऐसे चुनावी मुद्दे को गोदी मीडिया के सहयोग से आसानी से साम्प्रदायिक रंग भी दिया जा सकता है जबकि असलियत इससे काफी अलग तस्वीर बयाँ करता है. वर्षों से लंबित समान नागरिक संहिता के सवाल का विधिकरण कम और राजनीतिकरण अधिक हो रहा है.
Related:
कर्नाटक से शुरू हुए हिज़ाब विवाद के बाद समान नागरिक संहिता को लागू करने को लेकर चर्चा तेज हो गयी है. समान नागरिक संहिता (UCC) की बात करना गलत नहीं है लेकिन लागू करवाने की मंशा और चुनाव हित में साम्प्रदायिक माहौल तैयार करने के लिए उसका उपयोग करना घातक है. आज तक केंद्र सरकार द्वारा समान नागरिक संहिता को लेकर कोई मसौदा पेश नहीं किया गया है. बीजेपी शासित 5 राज्यों की सरकार ने समान नागरिक संहिता को राज्य भर में लागू करने की बात कही थी.
वर्तमान में उत्तराखंड की सरकार ने समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code/ UCC) को लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में एक एक्सपर्ट कमिटी का गठन कर दिया है. मार्च में उत्तराखंड में नयी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक के बाद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने राज्य में UCC को लागू करवाने की बात कही थी. इससे पहले गोवा में समान नागरिक संहिता लागू है.
क्या है समान नागरिक संहिता?
यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) भारत में रहने वाले सभी धर्म के नागरिकों के लिए एक समान कानून बनाने की मांग करता है, जो उनके विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने जैसे व्यक्तिगत मामलों पर एक समान कानून का प्रावधान करती है. संवैधानिक रूप से भारत में आपराधिक कानून समान हैं और सभी पर समान रूप से लागू होते हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी धार्मिक मान्यताएं क्या हैं, जबकि नागरिक कानून विश्वास से प्रभावित होते हैं. विवाह, विरासत, गोद लेने, उत्तराधिकार आदि जैसे मामलों को भारत में विभिन्न धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों के अनुसार नियंत्रित किया जाता है.
समान नागरिक संहिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
समान नागरिक संहिता की उत्पत्ति औपनिवेशिक भारत में हुई जब ब्रिटिश सरकार ने 1835 में भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर जोर देते हुए अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. रिपोर्ट में सिफारिश की गयी कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के संहिताकरण से बाहर रखा जाए.
औपनिवेशिक सरकार ने 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए बी एन राव समिति का गठन किया. राव समिति की रिपोर्ट का मसौदा डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक प्रवर समिति को प्रस्तुत किया गया था, जिस पर संविधान को अपनाने के बाद 1951 में चर्चा हुई.
विधेयक को 1956 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के रूप में अपनाया गया था ताकि हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों में वसीयत या इच्छारहित उत्तराधिकार से संबंधित कानून को संशोधित और संहिताबद्ध किया जा सके.
हिन्दू कोड बिल कमिटी का गठन 1941 में ही कर दिया गया था जबकि कानून बनाकर पारित करने में 14 साल लग गए. यह एक समान अधिनियम नहीं है, बल्कि तीन अलग-अलग अधिनियम का समूह हैं:
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955;.
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956;.
हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1956
इस अधिनियम ने हिंदू व्यक्तिगत कानून में सुधार जरुर किया लेकिन महिलाओं को बहुत अधिक अधिकार नहीं दिया गया. यह संशोधन 2005 में यूपीए सरकार के कार्यकाल में किया गया. वर्ष 2005 के अधिनियम में, एक संशोधन ने महिलाओं को परिवार के वंशजों के रूप में जोड़ा. वर्तमान में एक बेटी को वही हिस्सा आवंटित किया जाता है जो एक बेटे को आवंटित किया जाता है.
समान नागरिक संहिता का विधिक पक्ष
विभिन्न समुदायों के लिए अलग-अलग कानूनों को लंबे समय से कानूनी और प्रशासनिक जटिलताओं के रूप में देखा गया है और, जैसा कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने उल्लेख किया है,कि "विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के होने के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दे" संघर्ष का आधार बनते है.
भारतीय गणराज्य के संस्थापकों ने इन मुद्दों का अनुमान लगाया था और इसलिए भारत के संविधान के भाग IV, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के अध्याय में अनुच्छेद 44 को जोड़ा गया था.
अनुच्छेद 44 कहता है कि "राज्य नागरिकों के लिए भारत के पूरे क्षेत्र में एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने का प्रयास करेगा".
हालांकि यह विधिक रूप में नहीं है और यह संसद पर निर्भर करता है कि वह यूसीसी लाने के लिए कानून बनाए. ऐसा इसलिए है क्योंकि अनुच्छेद 37 कहता है कि "इस भाग (भाग IV) में निहित प्रावधान किसी भी अदालत द्वारा परिवर्तनीय नहीं होंगे और यह राज्य का कर्तव्य होगा कि वह कानून बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करे.
इसके बनने के बाद ,एक ही नागरिक कानून, सभी नागरिकों पर लागू होगा, चाहे उनके विश्वास भिन्न भिन्न हो.
न्यायपालिका के दृष्टिकोण:
भारत में सुप्रीम कोर्ट सहित कई अदालतों ने यूसीसी का मसौदा पेश न करने को लेकर सरकार से बार-बार सवाल किया है. मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य (1985) मामले के दौरान, शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को राष्ट्रीय एकता के हितों में "सामान्य नागरिक संहिता" लागू करने के लिए प्रोत्साहित किया था.
न्यायालय ने जॉर्डन डिएंगडेह बनाम एस एस चोपड़ा (1985) मामले में भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 के तहत एक ईसाई महिला और एक सिख पुरुष के बीच विवाह के संदर्भ में भी इसे दोहराया था.
एबीसी बनाम राज्य (एनसीटी ऑफ दिल्ली), 2015 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर एक ईसाई बच्चे की संरक्षकता के संदर्भ में यूसीसी की अनुपस्थिति पर दुख व्यक्त किया था.
हाल ही में, जोस पाउलो कौटिन्हो बनाम मारिया लुइजा वैलेंटीना परेरा (2019) मामले में सर्वोच्च अदालत ने फिर से यूसीसी की कमी पर अपनी निराशा व्यक्त करते हुए कहा: "जबकि राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों से निपटने वाले भाग IV के अनुच्छेद 44 में संविधान के संस्थापकों ने उम्मीद की थी कि राज्य भारत के सभी क्षेत्रों में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने का प्रयास करेगा, आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
उसी फैसले में, यह टिप्पणी की गई कि गोवा यूसीसी के साथ एक "अच्छा उदाहरण" है जहाँ "कुछ सीमित अधिकारों की रक्षा के अलावा धर्म की परवाह किए बिना यह सभी के लिए लागू होता है".
यूसीसी पर विधि आयोग का पक्ष
विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से सम्बंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु विधि आयोग का गठन किया गया. विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा संविधान के मूल अधिकार में वर्णित अनुच्छेद 14 से 25 से प्रभावित होता रहा है.
विधि आयोग ने 2018 की एक रिपोर्ट में कहा कि भारत के लिए समान नागरिक संहिता "इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है" इसका कारण यह था कि भारत जैसे विविधता वाले देश को अपने सभी लोगों की जरूरतों का सम्मान करने के लिए अलग-अलग कानून बनाने होंगे और एकरूपता लाना वास्तव में मामलों को सरल बनाने से अधिक जटिल बनाने का काम करेगा. इसमें कहा गया है कि "संविधान ने स्वयं आदिवासियों आदि जैसे कई लोगों को इतनी सारी छूट दी है. सिविल प्रक्रिया संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता में भी छूट है. यूसीसी एक समाधान नहीं है और एक समग्र अधिनियम नहीं हो सकता है.
राज्य सरकार समान नागरिक संहिता को लागू कर सकती है या नहीं इस बात पर कानून के जानकारों की अलग-अलग राय है. पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचार्य का कहना है कि केंद्र और राज्य दोनों को इस तरह का कानून लाने का अधिकार है क्योंकि शादी, तलाक, विरासत और संपत्ति के अधिकार जैसे मुद्दे संविधान की समवर्ती सूची में आते हैं. लेकिन पूर्व केंद्रीय कानून सचिव पीके मल्होत्रा का मानना था कि केंद्र सरकार ही संसद में जाकर ऐसा कानून ला सकती है. पीके मल्होत्रा का तर्क है कि चूंकि संविधान का अनुच्छेद 44 पूरे भारत के सभी नागरिकों के लिए बात करता है, इसलिए केवल संसद ही ऐसा कानून बनाने के लिए सक्षम है.
कानूनी विशेषज्ञों का यह भी तर्क है कि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 में "यूनिफार्म" शब्द का उपयोग किया था, न कि "कॉमन"(सामान्य)
"सामान्य" का अर्थ है "सभी परिस्थितियों में एक और समान", जबकि "यूनिफार्म" का अर्थ है "समान परिस्थितियों में समान"
इसी तरह, विशेषज्ञों का तर्क है कि अनुच्छेद 43 में उल्लेख किया गया है कि "राज्य उपयुक्त कानून द्वारा प्रयास करेगा", वाक्यांश में "उपयुक्त कानून द्वारा" अनुच्छेद 44 में अनुपस्थित है, जो इंगित करता है कि निर्माताओं ने एक ही कानून द्वारा समान नागरिक संहिता के अधिनियमन का इरादा नहीं किया था.
इसके अलावा, यूसीसी समानता सुनिश्चित करने का उद्देश्य रखता है, लेकिन हिंदू कानून में हुए सुधारों ने लिंग भेदभाव को पूरी तरह से समाप्त नही किया है.
उदाहरण के लिए, हिंदू महिलाओं द्वारा वास्तव में विरासत में मिली भूमि की मात्रा, हिंदू कानून में हुए सुधार के तहत उनके वांछनीय अधिकार का एक छोटा सा हिस्सा है. यहां तक कि जब वे महिलाओं को भूमि का वारिस तय करते हैं, तो यह हमेशा एक समान हिस्से की तुलना में बहुत कम होता है.
समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात करना बीजेपी का वर्षों पुराना चुनावी एजेंडा रहा है. अटल बिहारी वाजपेयी के समय से लेकर आज तक इस एजेंडे को मुद्दा बना कर चुनावी फायदा हासिल करना बदस्तूर जारी रहा है. हालाँकि समान नागरिक संहिता बहुसंख्यक आबादी के लिए अधिक मुश्किलें खडी कर सकता है क्यूँकि भारत की बहुसंख्यक आबादी में विविधता भी अधिक देखी गयी है. विडंबना यह है कि बिना मसौदे को तैयार किए और उस पर विचार विमर्श किए इसे चुनावी मुद्दा बनाया जा रहा है. ऐसे चुनावी मुद्दे को गोदी मीडिया के सहयोग से आसानी से साम्प्रदायिक रंग भी दिया जा सकता है जबकि असलियत इससे काफी अलग तस्वीर बयाँ करता है. वर्षों से लंबित समान नागरिक संहिता के सवाल का विधिकरण कम और राजनीतिकरण अधिक हो रहा है.
Related: