मां गंगा की अविरलता की आशा लिए इस युवा संत ने भूख को जिंदा रखा है !

Written by विमल भाई | Published on: February 23, 2019
उन आंखों के चारों तरफ थोड़े गड्ढे बन गए हैं। हड्डियों के उभार और साफ हो गए हैं। कैसा होता है ना भूख के साथ जिंदा रहना या कहो तो भूख को जिंदा रखना। और जब आपके सामने सिर्फ एक बंद दीवार हो, इस्पात की दीवार जिसने खुलने से पूरी तरह इनकार नहीं किया मगर सुई की बराबर भी छेद नहीं रखा। 

हां मैं बात कर रहा हूं 26 साल की एक गहरे, साँवले घुंघराले बालों वाले युवक की जो अब संत बन गया है। वह देश की गंगा जमुनी तहजीब में विश्वास रखता है। भाईचारे में विश्वास रखते हैं और इसके साथ ही वह सनातन धर्म को मानने वाला है। वह देश की चिंता भी रखता है और इन सब के साथ गंगा की चिंता लिए, अविरल गंगा के प्रवाह की बात करते हुए 24 अक्टूबर से उपवास पर है। उपवास के 118वें दिन पूरा दिन उसके साथ बिताना बड़ा मुश्किल है। आपको तो खाना, खाना जरूरी लगता है क्योंकि आप दौड़ भाग रहे हैं यह तर्क भी लाजिमी है। पर कितना मुश्किल भी होता है कि आप जिस के लिए दौड़ भाग रहे हैं वह 4 महीने पुरानी पेट की भूख के साथ चेहरे पर मुस्कान लिए आपके सामने से ग़ुज़र कर निकलता है, अपने दैनिक कामों को अंजाम देने के लिए। यह युवा संत, ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद ने 22 वर्ष की आयु में सन्यास की मन में ठान कर केरल के अपने घर से निकला और पैदल बद्रीनाथ पहुंचता है। जहाँ स्वामी शिवानंद से उसका परिचय होता है। वह उनके साथ हरिद्वार स्थित उनके आश्रम, मातृ सदन आ जाता है। 

मातृ सदन अति साधारण कमरों का, बिना किसी चारदीवारी का स्थान है। जिसमें गाय भी हैं, इसमें थोड़ी सी फल सब्जियां भी होती हैं। यहां मोर नाचते नजर आएंगे, कभी-कभी हाथी भी आता है मगर कभी नुकसान नहीं पहुंचाता। मातृ सदन हरिद्वार के बहुमंजिलों के, रंग बिरंगे, बड़े-बड़े आश्रमों की चकाचौंध से दूर हरिद्वार के जगजीतपुर इलाके में गंगा के किनारे बसा है। 

सफेद धोती और कुर्ता सा पहने कोई जटाधारी संत दयानंद, ब्रह्मचारी यजनानंद, ब्रह्मचारी आत्मबोधानंद, स्वामी पूर्णानंद, पुण्यानंद, सुलेखा बहन सादगी संयम सेवा का जीवन जीते हुए गंगा की सेवा भी करते नजर आएंगे। सब अपने गुरु शिवानंद जी के कड़े स्वभाव, साफ तीखे स्पष्ट बोलों के साथ रमे हुए नजर आते हैं। संत आत्मबोधानंद ने यहीं पर कभी गाय चराना तो कभी आश्रम के सोशल मीडिया वाले काम को किया है, आखिर वह कंप्यूटर साइंस का छात्र भी तो ठहरा। 

शिवानंद जी गंगा के खनन के खिलाफ बरसों से स्थानीय शासन और सरकार से लड़ रहे हैं। उनकी इस लड़ाई में अदालतों से लेकर उपवास तक शामिल हैं। इन सबने उनको हरिद्वार के तथाकथित सरकारी और राजनीतिक संत समाज से दूर किया हुआ है। युवा संत ने भी इसी वातावरण में अपने आप को निखारा। उसने अपने सामने गंगा की रेत खनन के खिलाफ उपवास कर रहे स्वामी ब्रह्मचारी निगमानंद को सरकारी हिरासत में मृत्यु के आगोश में धकेले जाते देखा। देश के बड़े वैज्ञानिक, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव रहे जीडी अग्रवाल, जिन्होंने बाद में स्वामी सानंद के नाम से सन्यास धारण किया, उनकी 111 दिन की तपस्या को देखा। जिसमें 82 वर्ष के संत का शरीर तिल तिल कर गया और अंत में सरकारी अपहरण के बाद संत निगमानंद की तरह उनकी भी अस्पताल में संदेहास्पद परिस्थितियों में मृत्यु हुई। जो सरकार गंगा और संतों के आशीर्वाद से अपने को आई, बताती है उसने सानंद जी को नहीं सुना। 

युवा संत आत्मबोधानंद इस सबके साक्षी रहे। मातृ सदन के परमाध्याक्ष स्वामी शिवानंद जी ने उनकी तपस्या को आगे चलाने का आश्वासन दिया था। 9 अक्टूबर को स्वामी सानंद के जाने के बाद 24 अक्टूबर से युवा संत आत्मबोधानंद, स्वामी सानंद के संकल्प को लेकर तपस्या पर हैं। 72 वर्ष के अपने गुरु शिवानंद जी को उन्होंने मना लिया कि गंगा मात्र उत्तर नहीं दक्षिण भारत की भी है। सानंद जी हमारे भविष्य के लिए ही अपने प्राण का बलिदान दे गये। सानंद जी की तरह वे शहद पानी पर तपस्या कर रहे हैं। 

15 फरवरी को अर्ध कुम्भ से लौटने के बाद आश्रम के अन्य साथियों की तरह उनका भी स्वास्थ खराब हुआ है। गुरु स्वामी शिवानंद जी भी बीमार हैं, वे अर्ध कुंभ में गंगा के व्यवसायीकरण से वे बहुत दुखी हैं।

आत्मबोधानंद जी को छाती में कफ़ बन रहा है, दवा तो ली है मगर कफ़ का असर शरीर पर बहुत बुरा होता है। अक्टूबर से उनको कई बार देखा है। उनके चेहरे का तेज तो कभी कम नहीं लगा, शरीर जरूर धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है। वह कहीं आते जाते हैं तो उनके गुरु भाई उनके आसपास रहते हैं, उनके लिए कंबल लाते हैं, उनको पानी गर्म करके देते हैं। पहले उनको किसी काम में किसी की मदद लेते नहीं देखा था बल्कि वह सब काम करते थे, औरों की सेवा भी करते थे। अब दिन ढल गया। जब ठंड बढ़ गई और बिस्तर पर वे सीधे लेटे थे। उन्हें देख मुझे याद आया कि जब मैंने सुबह उनको पूछा कि मन में अंदर से क्या लगता है उनका उत्तर था जैसे-जैसे करीब जा रहा हूं मुझे और ताकत मिल रही है। मैंने पूछा किसके करीब? उनका उत्तर था आप जानते हैं, सरकार तो कुछ सुन नहीं रही, कोई जवाब नहीं दे रही। यदि गंगा के अविरल प्रवाह की सही चिंता है तो तुरंत मंदाकिनी पर सिंगोली भटवाड़ी, अलकनंदा पर तपोवन-विष्णुगाड और विष्णुगाड-पीपलकोटी परियोजनाएं निरस्त करें, गंगा पर खनन बंद हो। सानंद जी की अन्य मांगों पर भी कार्य हो।

इसी बात को याद करते हुए मैं उन्हें देख रहा था। बिना किसी आशा के, बिना किसी सकारात्मक उत्तर, किसी आश्वासन की आशा भी नहीं और वह चुप शांत लेटे हैं। रात आ चुकी है। आश्रम के साथी चुपचाप से दैनिक कामों में लगे रहे। इस पूरी परिस्थिति को मैं क्या मानूं? क्या यह कोई निपट गहरी शांत निराशा है या निपट गहरी शांत अंधेरी निराशा के बीच संकल्प की आभा।

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