कड़े निर्णय के नाम पर मूर्खता और आत्मप्रचार

Written by Sanjay Kumar Singh | Published on: September 3, 2020
हार्डवर्क और हावर्ड की तुलना बेवकूफ बनाने के लिए तो ठीक है पर नोटबंदी से समझ न आए, जीएसटी के बाद भी समझ में न आए और लॉक डाउन से भी वैसे ही निपटा जाए - तो आप समझ सकते हैं कि मामला सुधरने वाला नहीं है। इसीलिए नेहरू-कांग्रेस से बात ईश्वर यानी गॉड पर आ गई है। नोटबंदी को उस समय कोई मूर्खता नहीं कह रहा था पर अब साफ है कि कैसे फैसला हुआ और उसका क्या लाभ हुआ। लेकिन हमारे लोकप्रिय प्रधानमंत्री और उनके समर्थक मतदाताओं का फैसला सिर माथे।



उनकी सारी लोकप्रियता नेहरू गांधी परिवार को बदनाम करने पर ही टिकी हुई है इसलिए उन्होंने कहा था, "इंदिरा गांधी ने चुनाव के डर से नोटबंदी का प्रस्‍ताव नहीं माना था"। अब आप पूछ सकते हैं कि प्रस्ताव किसका था और क्या उसे चुनाव के डर से ही नहीं माना गया था? पर कोई पूछेगा नहीं। और मीडिया यह सवाल उठाएगा नहीं। प्रचारकों ने प्रचार कर दिया। बिलों का भुगतान हुआ। बात खत्म। पर देश? भगवान भरोसे? वही भगवान दोषी हो गया जिसकी उंगली पकड़कर उसके घर पहुंचा रहे थे। गजब के प्रचारक हैं और दर्शक तो खैर।

नोटबंदी पर प्रधानमंत्री ने कहा था, "... दरअसल कांग्रेस को इस निर्णय के लागू होने की स्थिति में चुनाव में खामियाजा भुगतने का डर था। लिहाजा इंदिरा गांधी ने इस प्रस्‍ताव को खारिज कर दिया और फिर इसे लागू नहीं किया गया।“ एक ही निर्णय से आलोचना और प्रशंसा दोनों। लागू करके देश को क्या मिला यह अभी तक नहीं बताया है। और मीडिया ने पूछा नहीं है। अब आप समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री को अपने प्रचारकों और समर्थकों पर कितना भरोसा है। मैं उनका समर्थक नहीं हूं पर प्रचारकों की सफलता का कायल जरूर हो गया हूं। यह अलग बात है कि मैं उसका कारण समझता हूं पर सिंधिया और पायलट जैसे नेता तो चौंकाते ही हैं। आम वोटर की क्या बात करूं।

कमेंट बॉक्स में एनडीटीवी की 2016 की खबर का लिंक। आज Ravish Kumar ने लिखा है, क्या कड़े निर्णय के चक्कर में देश को गर्त में पहुँचा दिया प्रधानमंत्री मोदी ने? उस पर मेरा कमेंट है - बेशक। शत प्रतिशत। प्रधानमंत्री ने कड़े निर्णयों से आपदा की स्थिति पैदा की फिर अवसर का लाभ उठाया और पीएम केयर्स के जरिए भ्रष्टाचार को अधिकृत रूप दिया और परिभाषा ही बदल दी। और इसे भी कड़ा निर्णय बताया। पैसे लेकर रखे रहे, दवाई बनाने के लिए दिया जबकि दुनिया दवाई बनाने में लगी है और बन जाए तो भारत के काम आएगी ही। पर भारत तो अमेरिका को दवा देने के कड़े निर्णय लेता है और अस्पताल बनाने का निर्णय (बिहार में) चुनाव करीब आने पर लेता है ....। देश को डुबाने और बेचने वाले इन कड़े निर्णयों की छवि प्रचारकों ने संभाल रखी है।

कहने की जरूरत नहीं है कि दो तथाकथित कड़े निर्णयों के बाद महामारी से निपटने का तरीका उतना फूहड़ और मूर्खतापूर्ण रहा। अब लोग कह रहे हैं कि जीडीपी का यह हाल लॉक डाउन के कारण हुआ है जैसे लॉकडाउन का कोई विकल्प नहीं था और उसमें कोई गलती थी ही नहीं।
 

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