इस शिक्षक दिवस, लुटियंस बंगले में बैठा एक गुरु क्या सोच रहा होगा?

Written by Sabrangindia Staff | Published on: September 5, 2018
अमंत्रं अक्षरं नास्ति, नास्ति मूलं अनौषधं। 
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥ 



अपने जीवन के अंतिम पडाव में आ चुका एक गुरु जरूर इस मंत्र को आज के दिन करता होगा. असुरों के गुरु शुक्राचार्य की शुक्रनीति का श्लोक है. मतलब है, कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे कोई मन्त्र न शुरू होता हो, कोई ऐसा मूल यानी जड़ नहीं है, जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नहीं होता, उसको काम में लेने वाले ही दुर्लभ हैं.

लेकिन, इस गुरु ने तो एक बेहतरीन योजक की भूमिका निभाई. शुक्र नीति को गलत साबित नहीं होने दिया. सिद्ध किया कि हर आदमी योग्य होता है. इतना योग्य कि एक वेटरन गुरु अपना रथ उसके भरोसे छोड देता है. अपना सारथी बना लेता है. एक कृष्ण गुरु थे, जिन्होंने सारथी बन कर अर्जुन का मार्गदर्शन किया. लेकिन, इस गुरु ने तो अर्जुन को अपना सारथी बना लिया. जीवन भर उपदेश देते रहे. राजनीति के महाभारत के हर व्यूह को तोडने की कला सीखाते रहे. आज वह गुरु नितांत एकांतवास में है. तब, जब हस्तिनापुर दीपों से सजा है. चहुंओर उल्लास का वातावरण है.

सोचिए, एक गुरु के तौर पर 30, पृथवीराज मार्ग वाले बंगले में बैठे वयोवृद्ध आडावाणी जी इस शिक्षक दिवस को कैसे याद कर रहे होंगे? जिस शिष्य के लिए मित्र से लडाई तक लडे, जिस शिष्य की गद्दी बचाने के लिए राम धर्म और राज धर्म के बीच दीवार बन गए, उस शिष्य ने उनके साथ क्या किया? क्या किया, वहीं जो हर शिष्य करता है. राजनीति में कोई शिष्य जीवन भर शिष्य तो बना नहीं रह सकता. वह सीधे गुरुघंटाल बनता है.

सोच रहे होंगे कि मैंने तो गुरुदक्षिणा में अंगूठा भी नहीं मांगा. अंगूठा क्या गुरुदक्षिणा भी नहीं मांगा था. बस एक हसरत थी. शिष्य ने उस हसरत को भी अधूरा जीने-मरने को छोड दिया. बडे बंगले के लॉन में बैठ शायद इस बात से संतोष कर रहे होंगे कि बेकार ही द्रोणाचार्य होने का भ्रम पाला था. न तो मैं द्रोणाचार्य था न मेरा शिष्य अर्जुन, जो द्रुपद को हरा कर राजपाट मुझे सौंप दे.

वैसे शिष्य तो कई थे इस राजनीतिक द्रोणाचार्य के. सबके सब साथ छोड गए. जीवन की डगर है ही इतनी पथरीली-रपटीली. कहां कोई याद कर पाता है गुरु को. जब इंसा आज अपने प्रथम गुरु (मां) को ही याद नहीं कर पा रहा, द्वितीय गुरु पिता को नहीं या कर पा रहा, तो जीवन के टेढे-मेढे रास्तों पर चलने के लिए टेढे-मेढे तरीके बताने वाले गुरुओं को भला याद करने की फुर्सत कहां किसी को है.

बहरहाल, मुझे हर उस गुरु से सहानुभूति है, जो शिष्यों के द्वारा उपेक्षित है, जो समाज द्वारा उपेक्षित है. मुझे 30, पृथ्वीराज बंगले में बैठे गुरु से भी सहानुभूति है तो आज शिक्षक दिवस के अवसर पर सुप्रीम कोर्ट में वेतन की लडाई लड रहे 4 लाख नियोजित शिक्षकों से भी सहानुभूति है. मुझे उन हजारों प्रोफेसर गुरुओं से भी सहानुभूति है जो एडहॉक पर कुछ हजार रुपये में कॉलेजों में पढा रहे है, शायद इस उम्मीद में कि भविष्य बेहतर हो जाए.

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