स्वामी सानंद की ये चिठ्ठी लोकतंत्र का “शोक-पत्र” है...

Written by Shashi Shekhar | Published on: October 18, 2018
प्रोफेसर अग्रवाल की प्रधानमंत्री के नाम ये चिट्ठी दरअसल लोकतंत्र का शोकगीत है. जिसका हर एक शब्द जनता की बेबसी और लाचारी से निकलता है. जिसके धुन तंत्र की निरंकुशता के नोट्स पर तैयार होते है. जो कर्णप्रिय तो नहीं है, लेकिन मौजूदा लोकतंत्र का यथार्थ है. लोकतंत्र का यही यथार्थ अक्सर लोकतंत्र का भ्रम पैदा करता है...इस यथार्थ और भ्रम के बीच कोई है तो बस आम आदमी और प्रोफेसेअर अग्रवाल जैसे लोग...जो इस उम्मीद में अपनी जान दे देते है कि शायद किसी दिन हुक्मरानों के सीने में बसा दिल धडकेगा..



खैर. आप सत्ता का रूप देखते है. मैं चरित्र देखता हूं. आप मनमोहन की जगह मोदी पा कर खुश है. मैं यूपीए की जगह एनडीए देखता हूं. बस. न ज्यादा, न कम. वर्ना तब स्वामी निगमानंद ने 115 दिनों के अनशन के बाद अपना बलिदान दे दिया था. अब, 112 दिनों के अनशन के बाद स्वामी सानंद यानी प्रोफेसर जीडी अग्रवाल ने गंगा की खातिर अपना जीवन कुर्बान कर दिया. इस बीच बदला कुछ नहीं, सिर्फ गंगा थोडी और मैली होती चली गई.

आपको नमामि गंगे का शोर दिखता है, मुझे गंगा एक्शन प्लान याद आ रहा है. तब राजीव गांधी थे, आज मोदी है. गंगा एक्शन प्लान भी हजारों करोड का प्लान था, नमामि गंगे भी हजारों करोड का प्लान है. न 1985 से 2014 तक गंगा साफ हुई, न 2014 से 2018 तक गंगा साफ हो सकी, न अगले 10 सालों में गंगा साफ हो सकेगी. बस, इस बीच गंगा की कोख को बांझ बनाने के लिए सैकडों हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट लगते गए. जिसे रोकने की क्षमता न मनमोहन सिंह में थी, न नरेंद्र मोदी में.

गंगा आरती से गंगा साफ हो जाती तो गंगा कभी मैली ही न होती. गंगा के घाटों के सौन्दर्यीकरण से गंगा साफ हो जाती तो फिर दिक्कत ही क्या थी? नमामि गंगे का एडवर्टिजमेंट देने भर से गंगा सफ हो जाती तो इस देश से हर समस्या का निवारण एडवर्टिजमेंट से हो चुका होता.

गंगा तो तब साफ होगी, जब नीयत साफ होगी. जिस देश में मात्र 30 फीसदी गन्दगी (सीवर लाइन) ही ट्रीटमेंट (सीवर ट्रीटमेंट प्लांट) के बाद नदी में मिलती हो, वहां सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना और क्रियांवयन पर पिछले 4 साल में कितना खर्च हुआ? महज 5-6 फीसद पैसा. कानपुर के जाजमऊ के टैनरीज क्या अपने केमिकल्स का ट्रीटमेंट (कानून के अनुसर) करते है, इसे देखने के लिए कोई मजबूत प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हो, तो बताइए.

मुरादाबाद से ले कर पटना तक, गंगा का पानी एक महीने पी कर दिखाइए. नहीं पी सकते. जिस पानी में कभी औषधीय गुण होता था, आज वो जहर बन चुका है. क्यों? गंगा का जल स्तर लगातार घट रहा है. क्यों? कौन चुरा रहा है गंगा का पानी? गंगा की अविरलत को किसकी नजर लग गई. केदारनाथ आपदा याद है न. वो आपदा प्राकृतिक थी. लेकिन, उसकी भयावहता मानव निर्मित. तो ठीक है, हाइड्रो बिजली का आनंद लीजिए. फिर क्यों गंगा की चिंता करते है? सबकुछ एक साथ मिल जाए, संभव तो नहीं. विकास कर लीजिए या गंगा को बचा लीजिए.

क्या मांग रहा था 80 साल का एक वृद्ध प्रोफेसर? बस, एक कानून. गंगा की रक्षा के लिए. अपनी मां को बचाने के लिए. बस यही तो मांग थी कि खनन रोक दो, गंगा बचाने के काम में जन सहभागिता सुनिश्चित करो. लेकिन, सरकार कहां चाहती है जनसहभागिता. फिर, तो गंगा बचाने के नाम पर जो हजारों करोड का फंड है, उसमें कमी जो पड जाएगी. यानी, जनता की सहभागिता कुछ न हो, जनता के सुझाव न हो, सवाल न हो, बस गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए जनता पैसा देती रहे और सरकार बहदुर अपनी मर्जी से. अपनी राजनीति से, अपनी सुविधा से गंगा के नाम पर दुकानदारी करती रहे. यही होता आया है. यही हो रहा है, यही होता रहेगा.

तो फिर नोट कर लीजिए, गंगा कभी साफ न होगी. हमारी पीढिया सरस्वती की तरह ही एक दिन गंगा की तस्वीर किताबों में देखेगी. और तब शायद गंगा के किनारे बसे करोडों लोगों की जिन्दगी में आने वाले दर्दनाक बदलाव की हम कल्पना भी नहीं कर सकते है.

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