स्कूल बना गौशाला, रसोई में रखे हैं कंडे

Published on: October 7, 2016

मध्य प्रदेश में शिक्षा के अधिकार कानून का किस तरह से मजाक उड़ाया जा रहा  है, इसकी मिसाल है मुरैना में खेरवारे का पुरा-सांगोली गांव का प्राथमिक विद्यालय।

Gaushala
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करीब दस साल पहले यह स्कूल खासतौर पर दलित बच्चों के लिए शुरू किया गया था, लेकिन आज ये गौशाला में तब्दील हो चुका है। जमीन पर जानवर बांधने के लिए खूँटे गड़े हैं, दीवारों पर कंडे चिपके हैं। केवल एक ब्लैकबोर्ड ही है जिससे साबित होता है कि यह गौशाला नहीं स्कूल है।

कहने को स्कूल में पहली से पाँचवीं कक्षा तक के तीस बच्चे हैं, लेकिन न कोई  बच्चा यहाँ दिखता है और न ही शिक्षक। वैसे यहाँ दो शिक्षकों की तैनाती है लेकिन पढ़ाने यहाँ कोई नहीं आता। पास के मिडिल स्कूल के शिक्षक बताते हैं कि जो बच्चे यहाँ से पास होकर निकले हैं, वो अक्षर तक नहीं पहचानते, यानी पूरा स्कूल केवल कागजों पर चल रहा है।

स्कूल की अनदेखी का कारण जातिवाद ही है। स्कूल के हेडमास्टर रामकुमार तोमर ठाकुर जाति का है जो दलित बच्चों को पढ़ाई से दूर रखना चाहता है क्योंकि ये बच्चे पढ़-लिख गए तो खेतों में मजदूरी कौन करेगा।

गाँव के राधेश्याम जाटव का कहना है, “हरिजन बस्ती में स्कूल है तो यहाँ के बच्चों को मास्टर क्यों छुएगा। यही कारण है कि खाली पड़े स्कूल में हम लोग अब अपने जानवर बाँधने लगे हैं।”  गौशाला बन चुके स्कूल के हेडमास्टर रामकुमार तोमर का हास्यास्पद दावा है कि वो पूरी ईमानदारी से पढ़ाते हैं और जातिवाद तथा छुआछूत में यकीन नहीं करते।

एक छात्र सूरज जाटव ने बताया कि मिड-डे मील के नाम पर कोटा लेने के लिए बच्चों के नाम तो लिखे जाते हैं, लेकिन बच्चों को न पढ़ाया जाता है और न मिडडे मील दिया जाता है। इसी के कारण छह साल के गुड्डू को पहली कक्षा में होना चाहिए लेकिन उसका नाम पाँचवीं में दर्ज कर दिया गया है। इसी तरह से सात साल का देवेश भी रिकॉर्ड के अनुसार पाँचवीं का छात्र है। इसी तरह से स्कूली रजिस्टर की खानापूर्ति की जाती है।

स्कूल में तीन कमरे हैं, लेकिन सब या तो जानवर बाँधने के काम आते हैं या गोबर के कंडे पाथने के। मिडडे मील पकाने वाली अंगूरी देवी बताती हैं, “रसोई में तो गोबर भरा है। मास्टर कभी-कभी मुझे एक पाव दाल और रोटियाँ बनाने को कहता है तो मैं अपने घर से बना लाती हूँ। तब बच्चे भी अपने घर से थाली प्लेट लेकर आ जाते हैं।”

ब्लॉक शिक्षा अधिकारी बादाम सिंह मानते हैं कि गाँव वालों ने स्कूल की शिकायत की है, इसलिए एक शिक्षक का वहाँ से तबादला करके कंचन सिंह नाम के दूसरे शिक्षक को भेजा गया है। नया मास्टर है तो दलित जाति का लेकिन हेडमास्टर की
चलाई परंपरा का ही वह पालन करता है और सप्ताह में केवल दो दिन स्कूल आता है।

सवाल यह भी है कि दस साल में बच्चों की पढ़ाई का जो नुकसान हुआ है, वह एक तबादले से कैसे पूरा हो सकता है, और इससे भी बड़ा सवाल ये है कि एक टीचर के तबादले से फर्क क्या पड़ा है। हालात तो जस के तस हैं।

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