साक्षात्कार: "जवाबदेह बनाने से ही बचेंगी संवैधानिक संस्थाएं, इनके कार्यों की पब्लिक स्क्रूटनी भी जरूरी"

Written by Navnish Kumar | Published on: September 19, 2022
आज देश का एक बड़ा प्रगतिशील तबका खासकर एससी-एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी से जुड़ा हर तीसरा आदमी यह कहते मिल जाएगा कि संविधान खतरे में है। संविधान पर हमले बढ़े हैं और संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है। कुछ लोगों की रोजाना की उल्टी सीधी बयानबाजी से भी इस आरोप को हवा मिल रही है। लेकिन सवाल इससे आगे का है कि क्या संविधान बचाने की भी कहीं कोई कोशिश हो रही है। उत्तर हां में है। अपने अपने तरीकों और क्षमता से बहुत से लोग इस दिशा में उतनी ही ताकत के साथ काम कर रहे हैं। उन्हीं में से एक है सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता और संविधान बचाओ ट्रस्ट के संयोजक राजकुमार। खास बात यह है कि राजकुमार संविधान को बचाने का यह काम संवैधानिक उपायों से ही करने में लगे हैं। आम आदमी को एक सशक्त और जागरूक नागरिक/मतदाता बनाना उनका लक्ष्य हैं। दलित अधिकारों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ उन्होंने चुनाव सुधार खासकर चुनाव आयोग की नागरिकों के प्रति प्रतिबद्धता और जवाबदेही को लेकर बड़ा काम किया है और कर रहे हैं। दलित उत्पीड़न के साथ चुनाव सुधार के लिए ईवीएम की प्रमाणिकता, वोटर लिस्ट की शुद्धता तथा कमजोर तबकों यानी एससी-एसटी, ओबीसी और माइनोरिटी के लोगों को मताधिकार से वंचित करने के खिलाफ उनकी इस लड़ाई को लेकर राजकुमार से बातचीत की सबरंग संवाददाता नवनीश कुमार ने....



नवनीश: सबसे पहले आप संविधान बचाओ ट्रस्ट के बारे में कुछ बताइए?

राजकुमार: संविधान बचाओ ट्रस्ट 2011 से दलित अधिकारों के लिए काम करता है। पहले यह संविधान बचाओ समिति थी। जिसके बैनर पर दलित उत्पीड़न और आरक्षण बचाओ यानी सरकारी सेवाओं में एससी एसटी ओबीसी आदि कमजोर वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने को लेकर काम किया। उसके बाद 2019 में इसे ट्रस्ट के रूप में पंजीकृत कराया गया और आज कमजोर वर्गों के उत्पीड़न के खिलाफ संवैधानिक लड़ाई लड़ने का काम कर रहा है। एससी एसटी एक्ट में ज्यादातर मामले झूठे दर्ज होने के आरोपों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा "पहले जांच फिर एफआईआर" का संशोधन कर दिया गया था। जिसके खिलाफ भी ट्रस्ट ने सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ी। हालांकि सरकार ने संसद के माध्यम से भी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट दिया था लेकिन उसके बाद भी पृथ्वीराज चौहान व प्रिया शर्मा आदि सुप्रीम कोर्ट गए जिसमें हमने पार्टी बनकर मजबूती से पक्ष रखा और कोर्ट ने हमारी बात को सही तथ्यात्मक पाया। उस दौरान लगातार रैली प्रदर्शन के माध्यम से भी हमने लोगों को जागरूक किया। 

नवनीश: बहुत से लोग आज भी मानते हैं कि एससी एसटी एक्ट का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है। आपका क्या कहना है?

राजकुमार: बिल्कुल गलत अवधारणा है। आपको बताएं कि जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी एक्ट में इसी बात को लेकर "पहले जांच और फिर एफआईआर" और "गिरफ्तारी से पहले सक्षम अधिकारी की अनुमति" का आदेश दिया था तो हमने (ट्रस्ट ने) 2016 से 2018 के बीच दर्ज एससी-एसटी एक्ट के मामलों की व्यापक पड़ताल की। इसके लिए हमने आरटीआई में सभी पुलिस कमिश्नरों और डीजीपी से 2016 से 2018 के बीच एससी एसटी एक्ट में हुई एफआईआर और दाखिल चार्जशीट का ब्योरा मांगा। कि एससी-एसटी एक्ट में दर्ज कितने मामलों में चार्जशीट हुई और कितने मामलों में एफआर (फाइनल रिपोर्ट) लगी तो आप यकीन नहीं करोगे कि करीब 1000 थानों की जो सूचना हमें प्राप्त हुई थी उसमें करीब 80% मामलों में चार्जशीट हुई है। इसलिए एक्ट के दुरुपयोग की बात कहना कोरी कपोल कल्पना मात्र है। हालांकि कानून हो या कोई अच्छी पहल, अपवाद हर जगह होते हैं लेकिन देश भर के थानों से आरटीआई के तहत जुटाई सूचना को कोर्ट ने भी माना और पृथ्वीराज चौहान आदि के मामले को खारिज किया।

नवनीश: आरक्षण बचाते बचाते आप संविधान बचाने पर आ गए। संविधान को किससे खतरा है?

राजकुमार: संविधान को खतरा उन सभी से है जिन पर उसे प्रोटेक्ट करने की जिम्मेवारी है। जो उसकी शपथ लेते हैं लेकिन उसके अनुसार आचरण नहीं करते हैं। सरकार और संवैधानिक संस्थाओं में बैठे भ्रष्ट और बेईमान जनप्रतिनिधियों और लोक सेवकों से है। संसद हो या केंद्र/राज्य सरकार, न्यायपालिका हो या कार्यपालिका या फिर चुनाव आयोग सरीखी संवैधानिक संस्थाएं हो, में बैठे भ्रष्ट लोगों से है। जनप्रतिनिधि और लोकसेवक संविधान की शपथ लेते हैं लिहाजा उनका कृत्य और आचरण दोनों न सिर्फ संविधान सम्मत होने चाहिए बल्कि होते दिखने भी चाहिए। अन्यथा की स्थिति में संविधान पर खतरा बढ़ता ही जाएगा। अब देखिए, कुछ लोग नया संविधान तैयार करने की बात कर रहे हैं। बाकायदा अखबारों में खबरों के माध्यम से इसका प्रचार तक किया जा रहा है लेकिन संवैधानिक संस्थाएं मौन है। आखिर क्यों और क्या यह मौन, समर्थन की श्रेणी में आता है?

नवनीश: संविधान पर बढ़ते खतरे को कैसे दूर किया जा सकता है। इस बाबत आपका क्या मत है?

राजकुमार: संविधान पर बढ़ते खतरे को रोकने का उपाय संविधान में  ही लिखा है। संविधान के अनुच्छेद 51ए में व्यवस्था है कि प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वो संविधान को माने और उसके अनुसार आचरण करें। इसके साथ ही नेशनल ऑनर एक्ट 1971 में संविधान और राष्ट्रीय ध्वज का अपमान दंडनीय अपराध है।  इसी से हम संवैधानिक लड़ाई को ही तरजीह देते हैं। मसलन सक्षम न्यायालयों में मुकदमें दर्ज कराते हैं और प्रभावी पैरवी सुनिश्चित करते है। दरअसल कोई भी लोकसेवक यदि अपनी संवैधानिक ड्यूटी का निर्वहन उसके द्वारा ली गयी संविधान की शपथ के अनुसार नहीं करता है तो उसका यह कृत्य संविधान और देश के नागरिकों के साथ धोखाधड़ी है। उसका यह अपराध राजद्रोह की श्रेणी में भी आता है।

नवनीश: आप चुनाव सुधार पर भी काम कर रहे हैं। चुनाव सुधार क्यों जरूरी हैं?

राजकुमार:
स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ मतदान प्रक्रिया का होना जरूरी है। भारत में लोकसभा और विधानसभा का स्वतंत्र निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव संपन्न कराने का कार्य संविधान के आर्टिकल 324 के तहत भारत निर्वाचन आयोग की संवैधानिक ड्यूटी है। लेकिन भारत निर्वाचन आयोग आज तक शुद्ध मतदाता सूची बनाने तक में ही विफल रहा है। आलम यह है कि अपवाद छोड़ दें तो 2022 के विधानसभा चुनाव में कोई ऐसा बूथ नहीं था जिस पर सभी पात्र मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में शामिल हो और मतदाता सूची 100% शुद्ध हो। शुद्ध मतदाता सूची के बगैर स्वतंत्र निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव की कल्पना करना असंभव है। ऐसे में जब वोट का संवैधानिक अधिकार खतरे में पड़ता दिख रहा है तो लोकतंत्र का कमजोर होना तय है। बाबा साहब ने सभी वयस्क मतदाताओं को वोट का संवैधानिक अधिकार दिया तो उस समय जब वह संसद से मुस्कराते हुए बाहर निकले थे तो किसी ने उनसे उनकी मुस्कराहट का राज पूछा तो उन्होंने बताया था कि मैंने देश के संविधान में प्रत्येक व्यस्क नागरिक को मतदान का अधिकार देकर देश की महारानियों को बांझ बनाने का काम कर दिया है, अब देश में राजा महारानियां पैदा नहीं कर पायेंगी। देश के नागरिक अपने मतदान के अधिकार से ही राजा का चुनाव करेंगे।   स्वस्थ लोकतंत्र के लिए हम चुनाव सुधार की वकालत करते हैं।

नवनीश: क्या आप मानते हैं कि चुनाव प्रक्रिया स्वतंत्र निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं है?

राजकुमार:
जी हां, देखें तो प्रत्येक चुनाव से पहले 3 तरह के लोगों के नाम मतदाता सूची से डिलीट करने (काटने) का अभियान चलाया जाता है जिसमें गत 5 वर्षों में दिवंगत हुए मतदाता, दूसरा ऐसे मतदाता जो अस्थाई निवासी थे उनका निवास परिवर्तन हो गया हो और तीसरे वे मतदाता जिनके नाम एक से अधिक स्थानों पर मतदाता सूची में दर्ज हो। तीनों ही मामलों में किसी भी मतदाता का नाम मतदाता सूची से पृथक करने से पहले उसके घर पर पंजीकृत डाक से सूचना भेजना अनिवार्य है और 15 दिन तक पंजीकृत डाक से भेजी गई सूचना का जवाब यदि निर्वाचक रजिस्ट्रीकरण अधिकारी/उपजिलाधिकारी को प्राप्त नहीं होता तो वह मौके पर जाकर सत्यापन करेगा और संतुष्ट होने के बाद ही उसका नाम मतदाता सूची से डिलीट कर सकेगा। लेकिन इस प्रक्रिया का भी पूर्णतः पालन नहीं किया जा रहा है। इसी से जिनके नाम वोटर लिस्ट से कटने चाहिए, उनके नाम न कटकर पात्र मतदाताओं के नाम भी काट दिए जाते हैं। ऐसी स्थिति में फ्री, फेयर और ट्रांसपेरेंट (स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी) चुनाव बेमानी ही कहे जाएंगे। 



स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव तभी संभव है जब पूरे चुनाव प्रक्रिया की स्क्रूटनी का अधिकार जनता को हो। दरअसल, चुनाव में बूथ पर वोट डालने का अधिकार गोपनीय होता है लेकिन हमारे यहां पूरी प्रक्रिया को ही गोपनीय बना दिया गया है। जो चुनाव सुधार की राह का भी सबसे बड़ा रोड़ा है।  

नवनीश: इसके अलावा चुनाव प्रक्रिया में आप क्या बड़ी खामियां देखते हैं?

राजकुमार
: चुनाव आयोग की गाइडलाइन के अनुसार मतगणना के दौरान 5 पोलिंग स्टेशन के ईवीएम के मतों का वीवीपैट पर्ची से मिलान करना अनिवार्य होता है लेकिन केवल 5 बूथों का ही मिलान किया जा रहा है। वो भी मतगणना पूरी होने के बाद आखिर में, जबकि आयोग के दिशा निर्देशों के अनुसार, यह पूरी प्रक्रिया मतगणना शुरू होने से पहले होनी चाहिए। ताकि कोई गड़बड़ी हो तो पहले ही पकड़ी जा सके। आखिर में गिनने के चलते अक्सर हार जीत हो जाने के बाद हारने वाला पक्ष, मौके से चला जाता है। उसके बाद तो पर्ची मिलान की बस औपचारिकता ही निभाई जाती है। सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त मतगणना की वीडियोग्राफी में भी साफ है कि कई जगह ईवीएम में संरक्षित वोटों का वीवीपैट पर्ची से पूरी तरह मिलान तक नहीं किया गया। बस औपचारिकता की गई है।

दूसरा, वोटर लिस्ट की शुद्धता का जो मामला है। उसमें आप जानते ही है कि हर लोकसभा विधानसभा चुनाव से पहले बड़ी संख्या में डुप्लीकेट वोट काटे जाते हैं। 2012 में डुप्लीकेट वोट काटकर वोटर लिस्ट शुद्ध (क्लीन) की गई थी लेकिन उसके बाद 2014 लोकसभा, 2017 विधानसभा, 2019 लोकसभा व अब 2022 यूपी विधानसभा में फिर से बड़ी संख्या में 15 हजार तक डुप्लीकेट वोट काटे गए हैं। आखिर बार-बार डुप्लीकेट वोट कहां से आ जा रहे हैं। अब देखिए चुनाव आयोग ने डुप्लीकेट वोट छांटने के लिए सॉफ्टवेयर तो बना लिया लेकिन डुप्लीकेट वोट बनाने वालों के खिलाफ मुकदमा तक नहीं कराया। यदि एक बार कड़ी कार्रवाई हो जाती तो बार बार का डुप्लीकेट वोट बनाने का अपराध खत्म हो जाता। यही नहीं, कुल वोटों की संख्या पूरी रखने को उतनी ही (नए बने डुप्लीकेट के बराबर) संख्या में कमजोर वर्गों के असल वोट काट दिए जाते हैं। इसमें वोट काटने की प्रक्रिया का पालन तक नहीं किया जाता है और बड़ी संख्या में लोगों को उनके मताधिकार से वंचित कर दिया जाता है। यह काम, किसी की भी सरकार हो चुनाव दर चुनाव होता चला आ रहा है। यही कारण है कि 50 साल से ज्यादा हो गए और हमारी वोटर लिस्ट शुद्ध नहीं हो पाई है।

नवनीश: बिजनौर में मताधिकार से वंचित करने का क्या मामला है?
  
राजकुमार
: इसमें पहले नंबर पर डुप्लीकेट वोट बनाने का मामला है। डुप्लीकेट से जहां एक ओर फर्जी वोट बन जाती है तो वहीं दूसरी ओर असल  पात्र व्यक्ति की वोट कट जाती है। इस चुनाव में यह खूब हुआ है। हमने बिजनौर में बड़ापुर विधानसभा के एक मामले में धामपुर एसडीएम व तहसीलदार के खिलाफ एससी एसटी कोर्ट के आदेश पर मुकदमा भी दर्ज कराया है। बिजनौर के आलमपुर गावंडी गांव के अनुसूचित जाति के पवन पुत्र कृपाल सिंह की बगैर निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए वोट काट दी गई थी और मताधिकार छीन जाने के साथ ही वह चुनाव लड़ने से भी वंचित हो गया। एससी एसटी एक्ट में यह दंडनीय अपराध है। इसी तरह का चंदौसी (संभल) में मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा के खिलाफ भी मामला विचाराधीन है।

नवनीश: सभी को वोट का अधिकार सुनिश्चित हो, इसके लिए चुनाव प्रक्रिया में क्या सुधार अपेक्षित है?

राजकुमार:
इसके लिए विकसित देशों के भांति ईवीएम की बजाय बैलेट पेपर से चुनाव हो और जब तक यह व्यवस्था लागू नहीं होती है, वीवीपैट की 100 % पर्चियों का मिलान ईवीएम में पड़े वोटों से होना चाहिए। दूसरा, ईवीएम की प्रमाणिकता से लेकर वोटर लिस्ट की शुद्धता सुनिश्चित हो ताकि कमजोर तबकों यानी एससी-एसटी, ओबीसी और माइनॉरिटी के लोगों को मताधिकार से वंचित न होना पड़े। अब आप देखिए, यूपी विधानसभा में हमने सभी जिलों के निर्वाचन अधिकारियों के साथ मुख्य निर्वाचन अधिकारी और भारत निर्वाचन आयोग से अलग अलग सूचनाएं मांगी थी कि किस पोलिंग बूथ पर कितने महिला पुरुषों ने वोट डाला। इसी तरह बूथवार ईवीएम से कितने वोट निकले? कुछ ही जगह से सूचना मिल पाई और वो भी बहुत देरी से लेकिन प्राप्त सूचना में पड़े वोट व ईवीएम से निकले वोट में कई बूथों पर अंतर मिला। कुछ बूथ पर यह अंतर 50 से भी ज्यादा वोट का निकला हैं जो ईवीएम एवं प्रशासनिक मशीनरी को संदेह के घेरे में ले आती है। हमने ईवीएम व वीवीपैट की प्रमाणिकता को लेकर भी जानकारी मांगी कि ईवीएम 100% शुद्धता से काम करेगी, इस बाबत राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर की किसी भी संस्था से ईवीएम की 100 प्रतिशत शुद्धता प्रमाणित होने का निर्माण कंपनी का प्रमाण पत्र मुहैया कराएं तो देश के किसी भी जिलाधिकारी एवं मुख्य निर्वाचन अधिकारियों ने सूचना नहीं दी। भारत निर्वाचन आयोग ने ईवीएम निर्माता कंपनियों और कंपनियों ने भारत निर्वाचन आयोग की एक्सपर्ट टीम से ईवीएम की प्रमाणिकता की बात कही।

नवनीश: अंत में... चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को लेकर आपका क्या कहना है?

राजकुमार:
संवैधानिक रूप से चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है। परंतु चुनाव ईवीएम के द्वारा होते हैं। ईवीएम निर्माता कंपनी ही देश भर में लोकसभा व विधानसभा चुनाव में तकनीकी स्टाफ की तैनाती करती है। ईवीएम निर्माता कंपनी केंद्र सरकार के उपक्रम होते हैं और उसके अधीन काम करते है। मतदान से मतगणना तक का सारा कार्य निर्माता कंपनियों का स्टाफ करता है। जो प्रत्यक्ष/परोक्ष तौर से ही सही, चुनाव आयोग की स्वतंत्रता में मुझे बड़ा दखल नजर आता है। ये ईवीएम निर्माता कंपनियां भी पूरी तरह से चुनाव आयोग के अधीन होनी चाहिए।

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