साक्षात्कार: गैर-दलीय राजनीतिक आंदोलन से ही राजनीतिक शून्यता का माहौल भरा जा सकेगा: अशोक चौधरी

Written by Navnish Kumar | Published on: September 9, 2022
"देश के मौजूदा हालात देंखे तो एक बार फिर से देश में राजनीतिक शून्यता का माहौल देखने को मिल रहा है। कोई विकल्प या नेतृत्व नजर नहीं आ रहा है। इसलिए लोग, न चाहते हुए भी मजबूरी में सत्ता पक्ष से जुड़े रहते हैं। ऐसी स्थिति में ही नया फोर्स/नेतृत्व पैदा होता है। भारत कई दशकों से इसका इंतजार कर रहा है।"


Ashok Chaudhry

वर्तमान में देश के मौजूदा हालात क्या हैं और उसका सामना कैसे किया जाए और उसमें जन संगठनों की भूमिका क्या हो सकती है, इसी सब को लेकर सबरंग संवाददाता नवनीश कुमार ने अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष और 50 साल से ज्यादा से वनों पर निर्भर समुदायों और दलित-आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे अशोक चौधरी से विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के कुछ मुख्य अंश।

नवनीश: देश के वर्तमान राजनीतिक माहौल को आप कैसे देखते हैं?

 *अशोक चौधरी:* मौजूदा हालात देखें तो एक बार फिर से देश में राजनीतिक शून्यता का माहौल देखने को मिल रहा है। कोई विकल्प या नेतृत्व नजर नहीं आ रहा है। इसलिए लोग, न चाहते हुए भी मजबूरी में सत्ता पक्ष से जुड़े रहते हैं। ऐसी स्थिति में ही नया फोर्स/नेतृत्व पैदा होता है। भारत कई दशकों से इसका इंतजार कर रहा है। इतिहास में बार बार ऐसा वक्त आता है। हमारे देश में भी कई बार आया है। आजादी के पहले भी और बाद में भी। थोड़ा विस्तार से समझें तो गांधी जी के दक्षिण अफ्रीका से आने से पहले कांग्रेस अंग्रेजों को चैलेंज नहीं कर पा रही थी। छोटे छोटे आंदोलन जरूर कुछ चुनौती देते दिख रहे थे लेकिन उनमें राजनीतिक परिपक्वता का अभाव था। महात्मा गांधी ने आकर उस राजनीतिक शून्यता को भरा। पूरे देश का भ्रमण किया और असहयोग आंदोलन शुरू किया। लेकिन जलियांवाला बाग कांड के बाद असहयोग आंदोलन को वापस लेने से एक बार फिर राजनीतिक शून्यता का उभार देखने को मिला तो भगत सिंह व अंबेडकर आएं और राजनीतिक आजादी की मांग को नई दिशा प्रदान की। 

आजादी के बाद की बात करें तो इंदिरा गांधी के दौर में भी जब देश मौजूदा हालात के जैसे ही महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक तंगहाली से गुजर रहा था तो बिहार के जेपी आंदोलन ने देश को सत्ता परिवर्तन का रास्ता दिखाया। इसके बाद यूपीए-2 के दौरान बदइंतजामी को लेकर अन्ना आंदोलन को उभारा गया जिसकी बदौलत ही मोदी सरकार सत्ता में आईं। अब एक बार फिर देश में वही राजनीतिक शून्यता नजर आ रही है।"

नवनीश: देश की सामाजिक आर्थिक स्थिति पर आप क्या सोचते हैं?

अशोक चौधरी: देश के मौजूदा हालात चिंताजनक हैं। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी मोर्चों पर हालात बद से बदतर हो चले है। सरकारी संरक्षण पाने से सांप्रदायिक ताकतें उफान पर हैं। भाईचारा जो हमारी सबसे बड़ी ताकत है आज कहीं न कहीं दरक रहा है। संवैधानिक संस्थाओं को नष्ट किया जा रहा है। लोगों की आजादी तरह तरह से बाधित की जा रही है, छीनी जा रही है। आपातकाल की घोषणा किए बगैर मनमाने तरीके से लोगों को जेलों में ठूंसा जा रहा है। आर्थिक मोर्चे की बात करें तो गिरती आय, बेरोजगारी, अमीरी गरीबी की गहराती खाई और बढ़ती महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी है। आमजन भुखमरी के कगार पर है और पूरी तरह से पूंजीवादियों की आर्थिक गुलामी में जी रहे हैं।



नवनीश: ऐसे हालात का सामना कैसे किया जा सकता है और उसमें जन संगठनों की आप क्या भूमिका देखते हैं?

अशोक चौधरी: ऐसे हालातों में लोगों की समस्याओं को संबोधित किया जाना जरूरी होता है। नहीं किया गया और उनका (समस्याओं का) उचित और सम्मानजनक हल नहीं तलाशा गया तो मानसिक परेशानियां और आत्महत्याएं बढ़ेंगी। ऐसे में जनांदोलन ही एकमात्र विकल्प है। इसके लिए श्रीलंका की तरह जनता को फिर से प्रतिपक्ष बनना होगा। हां, जनांदोलन का स्वरूप क्या होगा, उसे तैयार करने में जन-संगठनों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होगी। ऐसे हालात में गैर दलीय राजनीतिक आंदोलनों की भूमिका अहम हो जाती है। दरअसल राजनीतिक पार्टियों से इस बाबत कोई उम्मीद नहीं की जा सकती। मौजूदा दौर में राजनीतिक पार्टी कहीं न कहीं सभी एक ही तरह की सत्ता केंद्रित राजनीति करती है, जन केंद्रित नहीं। ऐसे में केंद्र सरकार हो या फिर राज्य की सरकारें, सभी की नीतियां पूंजीपतियों और कॉरपोरेट-परस्ती के इर्द गिर्द ही गुंथी होती है। बस अप्रोच में अंतर होता है। वर्तमान में राहुल गांधी जरूर कुछ हद तक कॉरपोरेट के खिलाफ आवाज उठाते दिख रहे हैं। लेकिन इतना भर काफी नहीं है। ऐसे समय में एंटी- सीएए मूवमेंट और किसान आंदोलन की तर्ज पर लोगों को आगे आना होगा, सबको मिलकर खड़ा होना होगा।

नवनीश: क्या वन जन श्रमजीवी यूनियन की भी कोई भूमिका आप इसमें देखते हैं?

अशोक चौधरी: अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन हो या कोई अन्य जन संगठन, अकेले कोई इस लड़ाई को नहीं लड़ सकता है। इसके लिए जन संगठनों को एक साथ आना होगा और सकारात्मक तौर से सरकार को चुनौती देनी होगी। किसान आंदोलन ने सकारात्मक लड़ाई लड़ी। बिना टूटे, बिना विचलित हुए किसान डटे रहे और अंततः जीत हुई। सरकार को कृषि बिल वापस लेने को मजबूर होना पड़ा। हालांकि अब सरकार उसको (समझौते को) सम्मान नहीं दे रही है तो यह सरकार की भूल है। और सरकार को इस (ऐतिहासिक) भूल का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। इस बार किसान आंदोलन पहले के मुकाबले ज्यादा व्यापक और निर्णायक होगा। देश के सभी राज्य सक्रिय तौर से किसान आंदोलन का हिस्सा बनेंगे।



नवनीश: जन संगठनों को एक साथ लाने के लिए क्या प्रयास होने चाहिए?

अशोक चौधरी: जन-संगठनों के बीच एकजुटता नहीं है वहीं ज्यादातर जन संगठन अपनी भूमिका को लेकर भी स्पष्ट (क्लियर) नहीं है। ऐसे में जन-संगठनों को न सिर्फ एक साथ लाना होगा बल्कि किसान आंदोलन की तर्ज पर राजनीतिक स्वरूप भी देना होगा। इसके लिए तीस्ता सेतलवाड़, उमर खालिद, आनंद तेलतुंबडे जैसी सख्शियत अहम भूमिका निभा सकती है। तीस्ता जी को जेल भेजने के विरोध में जिस तरह से देश भर के जन-संगठन उनके पक्ष में मजबूती से एकजुट खड़े रहे। उससे साफ है कि तीस्ता सेतलवाड निर्विवाद रूप से इस जन-पहल/लड़ाई को आगे बढ़ा सकती हैं। तीस्ता जी, देश के दलित शोषित तबकों के साथ लंबे समय से काम कर रही हैं। संवैधानिक आधार पर उनका एक स्पष्ट दृष्टिकोण है और जेल जाने से उन्हें एक नई ताकत मिली है। फिर जिस तरह लोगों ने तीस्ता को सपोर्ट किया है वो अपने आप में महत्वपूर्ण है और एक तरह से उनके काम और उनकी हिम्मत का सम्मान है।

दरअसल, जो डरे हुए हैं वो कुछ नहीं कर सकते हैं। मौजूदा दौर में देश के लिए एंटी सीएए मूवमेंट और किसान आंदोलन राजनीतिक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण आंदोलन रहे हैं। इसी तर्ज पर देश में नई जन-राजनीतिक पहल करने की जरूरत है जिसमें सभी समुदाय, लिंग और वर्ग शामिल हो। समय की भी यही मांग है। बस, इसके लिए अहम है कि जनसंगठनों को एक साथ लाना और राजनीतिक स्वरूप देना।



नवनीश: अब बात FRA की करें तो क्या वनाधिकार कानून को कमजोर किया जा रहा है, इस बारे में आपका क्या कहना है?

अशोक चौधरी: देश भर में वनाश्रित समुदायों और आदिवासियों के हक को मान्यता प्रदान करने वाले इस महत्वपूर्ण (वनाधिकार) कानून पर अमल की स्थिति निसंदेह उत्साहजनक नहीं है। चौधरी जोर देते हुए कहते है कि केंद्र व राज्य की सरकारें वंचित समुदायों को उनका हक देने में तरह तरह से अड़ंगे लगाने में जुटी हैं। लेकिन आदिवासी समुदाय अपने अधिकारों को लेकर सांगठनिक और राजनीतिक तौर से पूरी तरह एकजुट और जागरूक हो रहे हैं। पूरे देश में आदिवासी आंदोलन चल रहे हैं जिससे इतना तो तय है कि सरकार इसे (FRA को) सीधे खारिज करने की हिम्मत नहीं कर सकती है। हां, इसे कमजोर करने की कोशिशें जरूर तेज होंगी। वन संरक्षण और वन्य जीव अधिनियम में संशोधन आदि के नाम पर सरकार वनाधिकार कानून को, अनुच्छेद 370 की तरह, निष्प्रभावी जरूर बना सकती है लेकिन खत्म नहीं कर सकती हैं। अंततः संगठित संघर्ष की ही जीत होगी। आदिवासियों और वनाश्रित समुदायों के संघर्ष की जीत होगी। 

यही नहीं, आने वाले समय में वनाधिकार आंदोलन और तेज होगा। आदिवासी और वनाश्रित समुदाय जल, जंगल, जमीन और खदान आदि संसाधनों पर अपने हक को छोड़ने वाले नही हैं। इसी सब के चलते वनाधिकार कानून पर अमल को लेकर झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि कुछ राज्य सरकारों ने अपना रुख भी बदला है। इतना ही नहीं, सरकारों को याद रखना होगा कि देश में जल, जंगल, जमीन और खदान की सबसे बड़ी संपदा वनों में है तो सबसे ज्यादा श्रमजीवी लोग भी जल जंगल जमीन पर ही निर्भर हैं। सरकार लोगों को उनके हक नहीं देकर अराजकता की स्थिति पैदा कर रही है। जनांदोलन से ही इस अराजकता को रोका जा सकता है और देर सबेर सरकार को झुकना ही पड़ेगा।



नवनीश: अंत में... क्लाइमेट चेंज को लेकर जो हालत है, उससे निपटने को लेकर आप क्या सोचते हैं?

अशोक चौधरी: पर्यावरणीय बदलाव (क्लाइमेट चेंज) और इससे निपटने को लेकर तो सरकार के पास कोई सोच ही नहीं है। इसके लिए सरकार को एक नेशन (राष्ट्र) के तौर पर नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के स्तर पर जाकर काम करना होगा। क्योंकि प्रकृति और पर्यावरण को सिर्फ राष्ट्रीय सीमाओं के तौर पर देखा नहीं जा सकता। यह सबका साझा मसला है। साझे प्रयास जरूरी हैं, करने होंगे। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि 2014 से सार्क देशों की मीटिंग भी बंद हो गई है। दूसरा, प्राकृतिक संसाधनों की पूंजीवादी लूट बंद करनी होगी। वन विभाग को भगाना होगा और जंगल पैदा करने वाले, उसे भगवान मानने वाले आदिवासियों वनवासियों का जंगल पर अधिकार लौटाना होगा।

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