जन आंदोलनों से जुड़े लोग बोले: "तीस्ता सहित लोकतांत्रिक अधिकारों के पैरोकारों की तत्काल बिना शर्त रिहाई हो"

Written by Navnish Kumar | Published on: July 19, 2022
तीस्ता सेतलवाड़ सहित लोकतांत्रिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए पैरोकारी करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं की बिना शर्त रिहाई हो। जी हां, ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) कार्यालय में आयोजित बैठक में विभिन्न जनआंदोलनों से जुड़े लोगों द्वारा यह मांग उठाई गईं और सर्वसम्मति से इसके समर्थन में व्यापक अभियान चलाए जाने को लेकर हुंकार भरी गई।



16 जुलाई, शनिवार को ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) के दिल्ली कार्यालय पर विभिन्न जनआंदोलनों से जुड़े कार्यकर्ताओं की एक बैठक बुलाई गई जिसमें चर्चा की गई कि तीस्ता सेतलवाड़, आनंद तेलतुम्बुड़े, गुल्फिशा, गौतम नवलखा, शोमा सेन, उमर खालिद, साईबाबा, मोहम्मद जुबैर जैसे वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ताओं, विद्वानों, पत्रकारों, शिक्षाविद और वकीलों की गैरकानूनी गिरफ्तारी एवं नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) विरोधी आंदोलन के विभिन्न कार्यकर्ताओं को तुरंत रिहा किया जाना चाहिए। क्योंकि उनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला नहीं है। कहा कि मोदी शासन में उनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है जिसकी हम कड़ी निंदा करते हैं और मांग करते हैं कि अन्याय, भेदभाव और स्वतंत्रता से लड़ने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों, वकीलों के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए।

बैठक में अखिल भारतीय किसान सभा के हन्नान मोल्ला, AIUFWP के अशोक चौधरी, सामाजिक कार्यकर्ता मधु प्रसाद व मुनिजा खान, एआईयूएफडब्ल्यूपी से रोमा और सोस्मा, पीपल साइंस मूवमेंट से दिनेश अबरोल, दिल्ली सोलीडेरिटी ग्रुप (DSG) से शबीना, आंचल, राजा रब्बी हुसैन और एस्लामुन जहान, सीएफए से प्रिया, प्रियदर्शिनी व आशीष कालजा, अखिल भारतीय क्रांतिकारी छात्र संगठन से शिशु रंजन और निरंजन, समाजवादी लोक मंच से धर्मेंद्र जोशी, अखिल भारतीय कबाड़ी मजदूर महासंघ से शशि पंडित, पत्रकार एम. अबूजर तथा सांस्कृतिक कार्यकर्ता डॉ. शुभेंधु घोष आदि ने संयुक्त रूप से बयान जारी किया कि लोकतांत्रिक अधिकारों के पैरोकारों की तत्काल बिना शर्त रिहाई होनी चाहिए। बैठक में दो अहम फैसले लिए गए।

1. लोकतांत्रिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए काम करने वाले सभी कार्यकर्ताओं, विद्वानों, लेखकों, पत्रकारों, वकीलों की बिना शर्त रिहाई।

2. सभी गिरफ्तार व्यक्तियों को बिना शर्त रिहा होने तक "राजनीतिक बंदियों" का दर्जा दिया जाना।

साथ ही कहा कि इन दोनों मांगों को लेकर व्यापक जन अभियान चलाया जाएगा और इसके बाद विभिन्न स्तरों पर विरोध आंदोलन किए जाएंगे। इस दौरान व्यापक जन अभियान चलाए जाने को लेकर कार्यक्रमों की रूपरेखा पर भी चर्चा की गई तथा सर्वसम्मति से निम्न कार्यक्रमों को चलाए जाने को लेकर सहमति बनी। 

1. हस्ताक्षर अभियान
2. पोस्ट कार्ड अभियान
3. 14 अगस्त की शाम से 15 अगस्त की सुबह तक हमारी आजादी का जश्न।
4. राजनीतिक बंदियों की रिहाई के समर्थन में एक पैम्फलेट जारी करना।
5. बिना किसी मुकदमे के जेल में बंद राजनीतिक कैदियों के जीवन और संघर्षों को दर्शाने वाली सभी भाषाओं में एक छोटी पुस्तिका प्रकाशित करना।

कहा कि हम सभी लोकतांत्रिक और सामाजिक आंदोलन अपील करते हैं कि हमारे संवैधानिक एवं सामाजिक न्याय के अधिकारों को सर्वोपरि रखा जाए और तमाम राजनैतिक बंदियों को जल्द से जल्द रिहा किया जाए।

वैसे भी, आज देश में जो हो रहा है वो सबके सामने है। सत्ताधारियों की राह में जो लोग किसी भी किस्म की अड़चन पैदा करते हैं, उन्हें समाज और देश के लिए खतरा बताकर फौरन जेल की सलाखों के पीछे डाल देना, और बाद में आरोपपत्र दायर करना, देश में अब एक नया चलन हो गया है। बिना किसी अपराध के इस वक्त देश के बहुत से बौद्धिक लोग जेल की सलाखों के पीछे हैं जो हर किसी के लिए गंभीर चिंता का विषय है और होना चाहिए। 

इन (बौद्धिकों) का कसूर शायद यही है कि इन्होंने अपने कामों से समाज में जागरुकता फैलाने का काम किया, जनता को उसके हक याद दिलाए। इन लोगों को जमानत न मिले और अगर एक मामले में जमानत मंजूर हो जाए, तो फौरन दूसरा आरोप उन पर लग जाए, यह पुख्ता तैयारी भी पहले से है। यह कार्यशैली पुलिस तंत्र की पहचान है। जिस वक्त देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है और लोकतंत्र की पहचान संसद को स्थानांतरित करने की तैयारी हो रही है, तब लोकतंत्र बनाम पुलिसतंत्र पर बहस को कितनी जगह मिलेगी, पता नहीं।

हालांकि पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की खंडपीठ ने सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि अंधाधुंध गिरफ़्तारियां औपनिवेशिक मानसिकता का संकेत हैं। अदालत ने 'ज़मानत नियम है और जेल एक अपवाद है', कानून के इस प्रसिद्ध सिद्धांत को आधार मानते हुए कहा कि अनावश्यक गिरफ़्तारियां सीआरपीसी की धारा 41 व 41(ए) का उल्लंघन हैं। शीर्ष अदालत ने निजी स्वतंत्रता की अहमियत पर जोर देते हुए कहा कि जेलों में कुल कैदियों में से कम से कम दो तिहाई विचाराधीन कैदी हैं, जिनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिनकी गिरफ्तारी की कोई जरूरत नहीं थी। अदालत ने केंद्र सरकार को ज़मानत के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश लाने के लिए नया ज़मानत कानून बनाने के लिए सख्त हिदायत दी है।

दरअसल अदालतों में लंबित मुकदमों और जेलों में विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या, किसी भी लोकतांत्रिक और उदारवादी देश/सरकार के लिए चिंता का सबब होना चाहिए। इसी से पिछले दिनों विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या पर चिंता जताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि वो अलग से एक जमानत कानून लाने पर विचार करे। अदालत ने कहा कि लोकतंत्र, पुलिस तंत्र जैसा नहीं लगना चाहिए क्योंकि दोनों धारणात्मक तौर पर ही एक दूसरे के विरोधी हैं। और पुलिस तंत्र जिसकी लाठी, उसकी भैंस के सिद्धांत पर काम करता है।

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