ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस का प्रचार और एमपैनलमेंट की शर्तें

Written by Sanjay Kumar Singh | Published on: October 8, 2020
भाजपा सरकार ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस का प्रचार लगातार करती रही है। असल में पकौड़े बेचने को कारोबार कहने और नाली के गैस से चाय बनाने जैसी सूचनाओं की ही तरह ईज़ ऑफ बिजनेस भी हवा-हवाई दावा है। जीएसटी लागू किए जाने के बाद छोटा कारोबार वैसे ही मुश्किल हो गया है। उसपर से किसी भी सरकारी काम के लिए जीएसटी जरूरी किया जाना और जीएसटी के नियम ऐसे हैं कि निजी कारोबारी भी अपंजीकृत कारोबारी को काम देने से बचते हैं। काम कम हो तो जीएसटी की आपचारिकाएं पूरी करने का खर्च निकालना भी मुश्किल है और सरकार चाहे न माने यह खर्चा एक परिवार का खर्च चलाने से ज्यादा बैठता है। हालांकि अभी वह मुद्दा नहीं है।



अनुवाद का काम जीएसटी के कारण कितना मुश्किल हुआ इसपर मैंने खूब लिखा है और वह एक किताब के रूप में प्रकाशित हो चुका है, जीएसटी 100 झंझट (कौटिल्य)। अभी वह भी मुद्दा नहीं है। काम कम होने और लगातार चल रही मंदी के कारण कई लोगों ने सुझाव दिया कि मुझे सरकारी काम में भी हाथ आजमाना चाहिए। मैं जानता हूं कि मेरे वश का नहीं है फिर भी कुछ मित्रों की सलाह, सहयोग और उत्साह से सोचा कि कोशिश करने में क्या जाता है।

मित्रों ने बताया और एक निविदा दस्तावेज हाथ में है। कायदे से मैं निविदा नहीं भर सकता और 30 साल से अनुवाद का काम करने के बावजूद मैं निविदा भरने के योग्य भी नहीं हूं, काम मिलना, करना और भुगतान प्राप्त कर लेना तो बहुत दूर। सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग (सीडैक) के इस निविदा दस्तावेज से लगता है कि सरकार की योजना अनुवादकों और अनुवाद करने वाली फर्मों का एक पैनल बनाने और उन्हीं से अनुवाद करवाने की है और सरकार के भिन्न विभागों, मंत्रालयों तथा स्वायत्त संस्थाओं का अनुवाद इसी के जरिए या इसके पैनल के अनुवादकों से कराया जाएगा।

अनुवाद जैसा कम धन और छोटे स्तर पर किया जा सकने वाला काम इतने ताम-झाम के साथ करवाने पर छोटे-मोटे अनुवादक वैसे छूट जाएंगे और काम महंगा हो जाएगा सो अलग। बिचौलिए भी जरूरी हो जाएंगे। आवेदन करने वाली फर्म का जीएसटी पंजीकृत होना जरूरी है जबकि मैं जितना काम करता हूं उसके लिए जीएसटी के नियमों के अनुसार पंजीकरण जरूरी नहीं है। पंजीकरण की बाध्यता से निपटने का एक तरीका यह दिखा कि मैं अपने नाम से व्यैक्तिक अनुवादक के रूप में आवेदन करूं। इसके लिए जीएसटी जरूरी नहीं है।

निविदा की शर्तें और अन्य जरूरतों में मुझे ऐसा कुछ नहीं मिला जिससे लगे कि काम करना आसान किया गया है। हो सकता है सरकार अनुवाद को बिजनेस मानती ही नहीं हो पर 24 सितंबर की निविदा सूचना के तहत निविदा जमा कराने की अंतिम तिथि 14 अक्तूबर है। इसके साथ सभी दस्तावेज, डिमांड ड्राफ्ट के रूप में धरोहर राशि और एक महीने के अंदर वापस करने का दावा तथा देर होने पर कोई ब्याज जुर्माना नहीं देने जैसी तमाम शर्ते या मनमानियां यथावत हैं। और इसमें लल्लूपने की यह शर्त भी बनी हुई है कि सफल बोलीदाता को एमपैनलमेंट की सूचना दी जाएगी और एमपैनेलमेंट आदेश जारी करने से पहले बोलीदाता को लिखित स्वीकारोक्ति 10 दिन के अंदर भेजनी होगी और ऐसा नहीं करने पर धरोहर राशि जब्त कर ली जाएगी।

भ्रष्ट और निकम्मी सरकार जो कारोबारियों का बिल्कुल ख्याल नहीं रखती थी, ने ऐसी शर्तें चाहे जिस कारण से रखी हों ईज ऑफ बिजनेस का दावा करने वाली सरकार के जमाने में इसका क्या मतलब है? जो धरोहर राशि के साथ एमपैनलमेंट के लिए आवेदन कर रहा है। वह स्वीकार क्यों नहीं करेगा और नहीं स्वीकार करेगा तो आवेदन क्यों करेगा। जब आवेदन आया है, धरोहर राशि भी है तो आपको 10 दिन में ही मामला निपटाने और पैसे जब्त करने की जल्दी क्यों है? इसकी बजाय यह लिखा जाता कि जो एमपैनल नहीं किए जाएंगे उनका पैसा वापस कर दिया जाएगा और ऐमपैनलमेंट के लिए चुने जाने वाले को स्वीकारोक्ति देनी होगी। स्वीकारोक्ति प्राप्त होने के बाद ही उन्हें काम दिया जाएगा। निविदा अवधि के दौरान पैसे वापस नहीं होंगे।

कोई दस महीने बाद स्वीकारोक्ति देगा तो वह तब से काम करेगा और नहीं देगा तो पैसे पड़े ही हुए हैं। योग्य है ही। इस शर्त से लग रहा है कि एमपैनलमेंट के बाद काम करना जरूरी होगा नहीं तो धरोहर राशि जब्त हो जाएगी। इस शर्त का कोई मतलब नहीं है। अगर किसी को सही रेट नहीं मिलेगा तो वह काम नहीं करेगा। सुविधा सिर्फ एमएसएमई को है। उन्हें पंजीकरण प्रमाणपत्र देने पर धरोहर राशि नहीं देनी होगी। अब इस मामले में राशि जब्त करने का क्या होगा पता नहीं। इस तरह यह एमएसएमई का प्रचार लगता है।

योग्यता शर्त और दिलचस्प है। याद रखिए यह ऐमपैनलमेंट के लिए आवेदन है। अनुभव आदि की शर्तें एजेंसी और अनुवादक दोनों के लिए एक हैं। एजेंसी में खास योग्यता वाला व्यक्ति कर्मचारी हो सकता है पर व्यक्ति खुद करना चाहे तो उसकी योग्यता वही होनी चाहिए जो मांगी गई है। और मामला सिर्फ शैक्षणिक योग्यता का नहीं है। किए गए काम के दस्तावेजी सबूत भी देने हैं। अगर कोई एजेंसी काम करती है, सबूत देती है तो योग्य कर्मचारी की क्या जरूरत और योग्य कर्मचारी जरूरी है तो पिछले अनुभव का क्या काम। और पिछला अनुभव किसी योग्य कर्मचारी की बदौलत हो और वह नौकरी छोड़ दे तो फर्म की धरोहर राशि क्यों नहीं जब्त होगी और जब काम होता रहे तो जब्त क्यों होगी और जब्त नहीं होगी तो योग्य कर्मचारी की क्या जरूरत?

कहने का मतलब है कि संबंध काम से हो या डिग्री से - दोनों किसलिए। और वह भी ऐसी डिग्री जिसका काम से कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए हिन्दी अनुवादक की योग्यता पीएचडी बताई गई है। क्या आपने कभी सुना है कि कोई पीएचडी अनुवाद करता हो। और अगर मान लीजिए कोई प्रेमचंद के साहित्य पर पीएचडी हो ही तो उसका अनुवाद में क्या उपयोग या एमए पास में कौन सी कमी होगी जो पीएचडी में होगी? विचित्र शर्त है यह। हालांकि पीएचडी या स्नातक लिखा है। अब आप इसका मतलब लगाते रहिए। उसपर भी तुर्रा यह कि जिस भाषा के लिए बोली दी जाए उस भाषा में दो कर्मचारी स्नातक या पीएचडी हों।

यह नहीं लिखा है कि पीएचडी या स्नातक किसी एक भाषा में चाहिए या दोनों में या दोनों में एक-एक। तथ्य यह है कि मैंने ना हिन्दी पढ़ी है ना अंग्रेजी और मैं विज्ञान का छात्र हूं। फिर भी फर्राटे से अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद करता हूं। कितने ही हिन्दी के पीएचडी मिल जाएंगे जो अंग्रेजी पढ़ नहीं पाएंगे लिखना तो दूर और कंप्यूटर पर हिन्दी टाइप करने में तो अच्छे अच्छे फोनेटिक और रेमिंग्टन की बोर्ड खोजने लगते हैं। और ऐसी शर्तों के बावजूद सरकार का दावा है कि बिजनेस करना आसान हुआ है और भारत की रैंकिंग बेहतर हुई है। कमाने वालों से गुंडे और पुलिस दोनों  वसूली करते है चंदा और पीएम केयर्स ऊपर से।

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