एक आदमी तीनों भूमिका में नहीं हो सकता

Written by Sanjay Kumar Singh | Published on: August 10, 2020
प्रधानमंत्री अलग-अलग भूमिका या उपयोग में। अगर स्वयं कर रहे हैं तो भूमिका और एक पद पर बने रहने या बनते रहने की मजबूरी में कर रहे हैं तो उपयोग। चुनाव जीतने, पद संभालने के बाद व्यक्ति पूरे देश का प्रधानमंत्री होता है। ना पार्टी का ना पार्टी से जुड़े किसी संघ का ना सिर्फ वोट देने वालों का।



इसीलिए उन्हें उन्होंने शपथ ली है, “मैं, नरेन्द्र दामोदरदास मोदी ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा। मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा। मैं संघ के प्रधानमंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतकरण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात अनुराग या द्वेष के बिना सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा .....।“ संविधान के प्रति निष्ठा एक चित्र में दिख रही है और यह पीएमओ के ट्वीटर हैंडल का प्रोफाइल चित्र भी है।

दूसरे चित्र में ईश्वर के प्रति उनका अनुराग दिख रहा है जो एक धर्म का व्यक्ति होने के नाते सामान्य और सही है पर दूसरे धर्म के प्रति अनुराग नहीं दिखना असामान्य है। द्वेष उस भाषण में दिखा था जब उन्होंने कहा था, 'ये आग लगाने वाले कौन हैं, उनके कपड़ों से ही पता चल जाता है।' बेशक यह सामान्यीकरण है जो प्रधानमंत्री को नहीं करना चाहिए। एक नागरिक के रूप में अगर उनके कुछ अधिकार हैं तो प्रधानमंत्री के रूप में जिम्मेदारी नागरिक के मुकाबले बहुत ज्यादा है। कहने की जरूरत नहीं है कि उनके इस भाषण के बाद उनकी पार्टी के कार्यकर्ता पकड़े गए थे जो आग लगाते हुए कपड़ों से कुछ और दिखना चाहते थे।

प्रधानमंत्री पद की शपथ लें तो पहली तस्वीर, वोट बटोरने के लिए कुछ भी बोल दें और आगे की व्यवस्था के लिए साष्टांग लेट जाएं – यह सामान्य नहीं है। पांच साल के अंदर तो बिल्कुल नहीं। इनमें कोई एक अभिनय है। संभव है, दोनों ही अभिनय हो। कई लोग कह रहे हैं कि व्यक्ति को धार्मिक कार्य करने की आजादी हैं। प्रधानमंत्री को भी है। बिल्कुल है। पर प्रधानमंत्री से कुछ अपेक्षाएं भी हैं। अगर वे किसी और धर्म के होते और उस धर्म के सम्मान में या उस धर्म के लोगों को प्रभावित करते तो चुनाव नहीं जीत पाते। इसलिए उसपर शायद एतराज नहीं होता। या पहले नहीं हुआ हो।

हमारे यहां दूसरे धर्म के लोगों के लिए काम करने को तुष्टिकरण करार दिया गया है। और बहुसंख्यकों के हित में काम करने को संवैधानिक आजादी। अगर ऐसी ही व्याख्या होती रही और धर्म के आधार पर ही मतदान होते रहे तो चुनाव की जरूरत ही नहीं है। जहां तक मुझे याद है कश्मीर का मामला भी जनमत से ही होना था। पर वह तो हुआ नहीं और बाकी देश को बहुमत की राय से हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाए? तीसरा ट्वीट पार्टी का है और उसके साथ तस्वीर बताती है कि बात ही नहीं व्यक्ति भी महत्वपूर्ण है और इसीलिए प्रचारक कहते हैं कि विकल्प नहीं है। वाकई ऐसा अनैतिक विकल्प शायद ही हो।

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