इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ का गौरवशाली/क्रांतिकारी इतिहास रहा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ ने देश को आंदोलनकारी, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, संविधानविद, इतिहासकर, कलाकार, साहित्यकार, डॉक्टर, वैज्ञानिक आईएएस, पीसीएस तो दिये ही हैं। लेकिन मेरे लिए छात्रसंघ के मायने इससे भी कहीं ज़्यादा इसलिए है कि यह आम छात्र को मौक़ा देता है, सीखने, लड़ने का, खुद की पहचान बनाने का।
एक आम छात्रा जिसने शायद इलाहाबाद के बाहर भी क़दम नहीं रखा था, जिसने कभी मंचो को नहीं देखा था उस आम लड़की को इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के प्राचीर ही नहीं बल्कि ब्रिटिश पार्लियामेंट से लेकर यूनाइटेड नेशंस में भारत का प्रतिनिधित्व का मौक़ा छात्रसंघ ने दिया। पूरब के ऑक्सफोर्ड की एक आम छात्रा को पश्चिम के ऑक्सफोर्ड में, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भारत के छात्र आंदोलन के बारे में बताने का मौक़ा दिया।
हिन्दुस्तान के आंदोलनों को जानने- समझने, उसमें शिरकत कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय की आवाज़ बनने का मौक़ा भी मुझे यूनिवर्सिटी यूनियन ने दिया क्योंकि मैं ऋचा नहीं, 35 हजार छात्रों की आवाज़ थी।
यह भी सही है कि मुश्किलें क्या होती हैं इसका एहसास भी मुझे छात्र राजनीति ने ही कराया... आज भी मुझे अच्छी तरह से याद है कि लोग कहते थे "कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कुछ भी हो सकता है, पर एक लड़की अध्यक्ष नहीं हो सकती।"
एक सीनियर नेता ने ऐतिहासिक पाकड़ पेड़ की नीचे खड़े होकर, हम चुनाव प्रचार कर रहे लड़कियां- लड़कों से कहा- "कौन है वो बेवकूफ लड़की- जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अध्यक्षी लड़ने चली है??"
हमारा जवाब था- परिणाम बता देंगें।
लोग धनबल- बाहुबल की बात करते हैं। हमारा बल तो सिर्फ हमारे सीनियर, छात्र साथी थे जो न जीतने की पूरी उम्मीद के बावजूद पूरी शिद्दत से चुनाव लड़ रहे थे/ लड़ा रहे थे।
अपने जेब ख़र्च को चुनाव में खर्च कर रहे थे, महिला छात्रावास में दाल- चावल बनाकर जूनियर हम लोगों को खिलाया करती थीं। पोस्टर बनातीं, कैंपेन करतीं और जब हमें अपने लड़की होने की हद में रहने की धमकियां मिलती... तो सब एक ताक़त बन जाया करती थीं।
"धमकियों के पांव नहीं होते दीदी, मेरी एक जूनियर ने मुझे समझाया था" आज भी उसके ये शब्द मुझे हिम्मत देते हैं।
हमारे सीनियर का ये कहना कि "हम इतिहास बनाने जा रहे हैं, पहली निर्वाचित महिला अध्यक्ष हम बनायेंगे। इन शब्दों ने लड़ने की जिजीविषा को बढ़ाया और एहसास दिलाया कि हम अकेले नहीं हैं....
विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव एक आम लड़की/ एक आम छात्र को मजबूत बनना सिखाते हैं।
सरकार से लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन से कैसे छात्र हित/ समाज हित के लिये लड़ा जाता है, कैसे अपने अधिकारों के लिये आवाज़ उठायी जाती यह भी तो राजनीति कि नर्सरी ही सिखाती है।
तानाशाही फैसले सरकार ने हमेशा लिये हैं, विश्वविद्यालय प्रशासन ने लिये हैं.... पर इन तानाशाहियों ने हमें लोकतांत्रिक मूल्य के मतलब सिखाएं हैं और छात्रसंघ ने लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लड़ना सिखाया है..।
जान पर खेल जाना सिखाया पर झुकना नहीं...
13 दिन के आमरण अनशन पर बैठकर ऑफ़लाइन परीक्षा करवाने पर दिल्ली सरकार को झुकाना हो या प्रदेश सरकार से अपने विश्वविद्यालय के लिये बस सुविधा लागू करवाना। या न जाने ऐसे कितने ही आंदोलन, ये छात्र यूनियन की ताक़त का एहसास कराती हैं और ऊर्जा से लबरेज़ कर देती हैं। किसी भी मुश्किल से भिड़ जाने की ताक़त दुगुनी हो जाती है इस मज़बूती का एहसास करने पर।
इस सब से अलग एक व्यक्तिगत इंसान से एक ज़िम्मेदार सामाजिक इंसान होने, एक टीम की तरह करने की, नेतृत्व करने की ट्रेनिंग भी स्टूडेंट यूनियन ही देती है।
यह सच है कि कमियां भी हैं छात्रसंघ में, या वर्तमान समय में आयी हैं। पर कमियां तो लोकतंत्र के उच्च सदन से लेकर निम्न सदन में भी हैं, संसद में भी हैं, विधानसभाओं में भी हैं, इस सरकारी सिस्टम में भी कमियां हैं पर लोकतंत्र के मंदिर को बंद तो नहीं किया जा सकता।
सुधार होने की ज़रूरत है न कि गला घोंट देने की, छात्रसंघ को बंद कर देने की।
मुझ जैसी आम लड़की को पहचान देने वाले छात्रसंघ से न जाने और कितनी लड़कियों- लड़कों को पहचान मिलती पर अपनी कमियों को छिपाने, सरकारी अराजकता को मूक सहमति देने के प्रयास को हमें चुनौती देनी होगी....
छात्रसंघ बंद हुआ है- पर छात्र अभी ज़िंदा हैं,
ज़िंदा हैं तो लड़ेंगे अपनी यूनियन के लिए, अपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लिये।
इंकलाब जिंदाबाद
(ऋचा सिंह
पूर्व अध्यक्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय
शोध छात्रा)
एक आम छात्रा जिसने शायद इलाहाबाद के बाहर भी क़दम नहीं रखा था, जिसने कभी मंचो को नहीं देखा था उस आम लड़की को इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के प्राचीर ही नहीं बल्कि ब्रिटिश पार्लियामेंट से लेकर यूनाइटेड नेशंस में भारत का प्रतिनिधित्व का मौक़ा छात्रसंघ ने दिया। पूरब के ऑक्सफोर्ड की एक आम छात्रा को पश्चिम के ऑक्सफोर्ड में, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में भारत के छात्र आंदोलन के बारे में बताने का मौक़ा दिया।
हिन्दुस्तान के आंदोलनों को जानने- समझने, उसमें शिरकत कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय की आवाज़ बनने का मौक़ा भी मुझे यूनिवर्सिटी यूनियन ने दिया क्योंकि मैं ऋचा नहीं, 35 हजार छात्रों की आवाज़ थी।
यह भी सही है कि मुश्किलें क्या होती हैं इसका एहसास भी मुझे छात्र राजनीति ने ही कराया... आज भी मुझे अच्छी तरह से याद है कि लोग कहते थे "कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कुछ भी हो सकता है, पर एक लड़की अध्यक्ष नहीं हो सकती।"
एक सीनियर नेता ने ऐतिहासिक पाकड़ पेड़ की नीचे खड़े होकर, हम चुनाव प्रचार कर रहे लड़कियां- लड़कों से कहा- "कौन है वो बेवकूफ लड़की- जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय की अध्यक्षी लड़ने चली है??"
हमारा जवाब था- परिणाम बता देंगें।
लोग धनबल- बाहुबल की बात करते हैं। हमारा बल तो सिर्फ हमारे सीनियर, छात्र साथी थे जो न जीतने की पूरी उम्मीद के बावजूद पूरी शिद्दत से चुनाव लड़ रहे थे/ लड़ा रहे थे।
अपने जेब ख़र्च को चुनाव में खर्च कर रहे थे, महिला छात्रावास में दाल- चावल बनाकर जूनियर हम लोगों को खिलाया करती थीं। पोस्टर बनातीं, कैंपेन करतीं और जब हमें अपने लड़की होने की हद में रहने की धमकियां मिलती... तो सब एक ताक़त बन जाया करती थीं।
"धमकियों के पांव नहीं होते दीदी, मेरी एक जूनियर ने मुझे समझाया था" आज भी उसके ये शब्द मुझे हिम्मत देते हैं।
हमारे सीनियर का ये कहना कि "हम इतिहास बनाने जा रहे हैं, पहली निर्वाचित महिला अध्यक्ष हम बनायेंगे। इन शब्दों ने लड़ने की जिजीविषा को बढ़ाया और एहसास दिलाया कि हम अकेले नहीं हैं....
विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनाव एक आम लड़की/ एक आम छात्र को मजबूत बनना सिखाते हैं।
सरकार से लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन से कैसे छात्र हित/ समाज हित के लिये लड़ा जाता है, कैसे अपने अधिकारों के लिये आवाज़ उठायी जाती यह भी तो राजनीति कि नर्सरी ही सिखाती है।
तानाशाही फैसले सरकार ने हमेशा लिये हैं, विश्वविद्यालय प्रशासन ने लिये हैं.... पर इन तानाशाहियों ने हमें लोकतांत्रिक मूल्य के मतलब सिखाएं हैं और छात्रसंघ ने लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लड़ना सिखाया है..।
जान पर खेल जाना सिखाया पर झुकना नहीं...
13 दिन के आमरण अनशन पर बैठकर ऑफ़लाइन परीक्षा करवाने पर दिल्ली सरकार को झुकाना हो या प्रदेश सरकार से अपने विश्वविद्यालय के लिये बस सुविधा लागू करवाना। या न जाने ऐसे कितने ही आंदोलन, ये छात्र यूनियन की ताक़त का एहसास कराती हैं और ऊर्जा से लबरेज़ कर देती हैं। किसी भी मुश्किल से भिड़ जाने की ताक़त दुगुनी हो जाती है इस मज़बूती का एहसास करने पर।
इस सब से अलग एक व्यक्तिगत इंसान से एक ज़िम्मेदार सामाजिक इंसान होने, एक टीम की तरह करने की, नेतृत्व करने की ट्रेनिंग भी स्टूडेंट यूनियन ही देती है।
यह सच है कि कमियां भी हैं छात्रसंघ में, या वर्तमान समय में आयी हैं। पर कमियां तो लोकतंत्र के उच्च सदन से लेकर निम्न सदन में भी हैं, संसद में भी हैं, विधानसभाओं में भी हैं, इस सरकारी सिस्टम में भी कमियां हैं पर लोकतंत्र के मंदिर को बंद तो नहीं किया जा सकता।
सुधार होने की ज़रूरत है न कि गला घोंट देने की, छात्रसंघ को बंद कर देने की।
मुझ जैसी आम लड़की को पहचान देने वाले छात्रसंघ से न जाने और कितनी लड़कियों- लड़कों को पहचान मिलती पर अपनी कमियों को छिपाने, सरकारी अराजकता को मूक सहमति देने के प्रयास को हमें चुनौती देनी होगी....
छात्रसंघ बंद हुआ है- पर छात्र अभी ज़िंदा हैं,
ज़िंदा हैं तो लड़ेंगे अपनी यूनियन के लिए, अपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लिये।
इंकलाब जिंदाबाद
(ऋचा सिंह
पूर्व अध्यक्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय
शोध छात्रा)