ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती 22 तारीख के कार्यक्रम को अस्वीकारने वाले शंकराचार्यों में से हैं . उनका कहना है की ये कार्यवाही धर्म के अनुसार नहीं हो रही है. उन्हें इस कर्मकांड में शामिल नहीं किया जा रहा है जब कि इस काम में उन का और दूसरे न बुलाये गए शंकराचार्यों का महत्त्व बहुत बड़ा है, मंदिर का निर्माण अधूरा है, सही धार्मिक तौर तरीकों का पालन नहीं हो रहा है, विधान के अनुसार जिन लोगों को ये कर्मकांड करना चाहिए उन्हें अनदेखा कर के दूसरों से ये काम कराया जा रहा है, मूहर्त सही नहीं है, इत्यादि.
चाहे ये दावे सही हों या ग़लत, इन पर समय लगाना समय की बर्बादी है. क्यों? वो इसलिए कि ये बातें करने वाले और मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा करने वाले मूल रूप से एक ही हैं. उन्हें असली मुद्दे से कोई परेशानी नहीं है. असली मुद्दा है एक मस्जिद को तोड़ कर मंदिर बनाने की हिंसा, उस हिंसा का जश्न मनाना, हिंसा करने और उकसाने वालों का मंदिर के निर्माण में शामिल होना, देश के चुने हुए प्रमुख नेता का आने वाले कार्यक्रम में ज़ोर-शोर से शामिल होना, प्राण प्रतिष्ठा का पूरी तरह सांप्रदायिक चुनावी राजनीति के लिए इस्तेमाल, उस के नाम पर पैसा जमा करना और इस कार्यक्रम को हर तरह से समर्थन और बढ़ावा देने के लिए सरकारी तंत्र का दुरुपयोग.
शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने 22 तारीख के कार्यक्रम के प्रति अपनी और दूसरे शंकराचार्यों की आपत्ति के बारे में करण थापर को एक लम्बा इंटरव्यू दिया. करण थापर ने उन से पूछा कि, “मुझे ये बताइये शंकराचार्य जी कि अयोध्या का मंदिर तो बन गया. क्या आप की इच्छा है कि मस्जिदों पर ऐसे ही मंदिर काशी और मथुरा में भी बनने चाहियें?” शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का उत्तर था, “हाँ, ये बात सही है. हम इस के पक्षपाति हैं”. उन्होनें ये भी बताया कि मदिरों के पुनर्निर्माण की मांग तो बहुत पहले ही “धर्म सम्राट” स्वामी करपत्री द्वारा बनायी गयी राजनीतिक पार्टी के manifesto में दी गयी थी.
स्वामी करपत्री ने 1948 में अखिल भारतीय राम राज्य परिषद का गठन किया था जिस ने 1952 और 1962 में लोक सभा के इलेक्शन भी लड़े थे और 2-3 सीटें भी जीती थीं. इस पार्टी के manifesto में मंदिरों के पुनर्निर्माण की मांग की गयी थी. ब्रिटिश साम्राजयवाद से मुक्ति के बाद नए आज़ाद भारत में स्वामी करपत्री और उन के जैसे संघियों का मुख्या एजेंडा था हिन्दू धार्मिक नियमों में किसी भी तरह के सुधार का विरोध (जाति प्रथा, महिला अधिकार आदि) मंदिर पुनर्निर्माण, अखंड भारत का निर्माण (हिंदुत्व की परिभाषा के अनुसार), मुसलमान बने हिन्दुओं की घर वापसी, अल्पसंख्यकों के अधिकारों को मिटाना और गाय को बड़ा मुद्दा बनाना.
ये वही लोग थे जिन्होनें स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध किया था और अंग्रेज़ों से मिल कर देश के साथ ग़द्दारी की थी. स्वामी करपत्री ने 1940 में धर्म संघ की स्थापना की थी. ये गुट RSS की तरह ही आज़ादी के आंदोलन में फूट डालने का काम कर रहा था. ध्यान देने योग्य है कि इन के खतरनाक इरादों के चलते स्वामी करपत्री और धर्म संघ के अन्य सदस्यों को 14 अगस्त 1947 की रात को गिरफ्तार कर लिया गया था.
आज इन्हीं के अनुयायी सत्ता में बैठे हैं और मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कर रहे हैं. और विरोध करने वाले शंकराचार्य भी उन के ही अनुयायी हैं. ये बात समझना बहुत ज़रूरी है कि इन में मूल रूप से कोई अंतर नहीं. हाल के कुछ दिनों में हम जैसे लोग जो भारत के संविधान और मिलीजुली संस्कृति को बचाने का जज़्बा रखते हैं, इस बात पर थोड़े confused दिखे. हम में से कुछ साथी शंकराचार्यों की दलीलें को ही अपने विरोध का हिस्सा बनाने की ग़लती कर रहे हैं. जैसे ये कहना कि देखो अभी तो मंदिर पूरा बना ही नहीं है तो प्राण प्रतिष्ठा कैसे हो सकती है? क्या इस का मतलब ये है कि अगर मंदिर निर्माण पूरी तरह हो चूका होता तो हम देश के प्रधान मंत्री द्वारा सांप्रदायिक हिंसा के ज़रिये बने मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का समर्थन करते?
ये सही है कि हिंदुत्व टोली के आपसी झगड़ों को हमें उजागर करना चाहिए ताकि सब को पता चले कि ये पैसे और सत्ता को लेकर आपस में कैसे लड़ते हैं. पर इन के झगड़ों की आपसी दलीलों पर हमें समय बर्बाद करने की ज़रुरत नहीं है. इन के हिसाब से क्या अधार्मिक है या अनैतिक है इस पर बहस हमारा काम नहीं है. क्या पता कल विरोध करने वाले शंकराचार्य कार्यक्रम में शामिल हो जाएँ? या अपने वक्तव्य वापिस ले लें? या आगे आने वाले किसी उपलक्ष में मोदी से गले मिलते नज़र आएं? इस की पूरी सम्भावना है क्योंकि रथ यात्रा के निकलने में, बाबरी मस्जिद को तोड़ने में, कोर्ट के सामने राम लला की उसी जगह पर पैदाइश के सबूत देने में, दूसरी मस्जिदों को भी तोड़ कर मंदिर बनाने की मांग करने में, घृणा और हिंसा का गन्दा माहौल बनाने में और देश को थिओक्रैटिक स्टेट बनाने की कोशिश में ये तथाकथित विरोधी उतने ही ज़िम्मेदार हैं जितने कि प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का समर्थन करने वाले.
22 तारिख को हमारा काम तय है. सांप्रदायिक राजनीति के शोर भरे, घृणा और हिंसा फैलाने वाले, फूट डाल कर वोट जमा करने वाले आयोजन के दिन हमें प्यार, सौहार्द और ज़ुल्म व शोषण के खिलाफ एकजुटता के अपने काम को और शिद्दत से करने का संकल्प लेना है. कल भगवान और धर्म के नाम पर सत्ता और पैसा हड़पने वाले लोगों के हो-हल्ले में हमें अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को बुझने नहीं देना है. आज हमें और गहराई से सोचना हैं कि कैसे हम अपने संघर्ष को मज़बूत करें, कैसे साथ आयें और कैसे आगे बढ़ें कि अंधकार फैलाने वाली शक्तियों को हरा सकें. याद रहे कि कुछ रातों में तारे नज़र नहीं आते पर वो होते हैं! शायद कल के उन्मादी अंधकार में वो तारे नज़र न आएं पर वो हैं. हम सब वो तारे हैं. हमें शांति की राह पर जगमगाते रहना है - अपना काम जारी रखना है.
आप के साथ और विमर्श से शांति शिक्षा का काम जारी रखने की इच्छुक,
शीरीन.
शांति के लिए हम सब के साथ की ज़रुरत है. Peace Vigil संस्था शांति शिक्षा का काम करती है.
साभार- Peace Vigil
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