साधो, मैंने हेमा मालिनी को चुनाव आते ही गेंहूँ के खेत मे देखा। बरबस ही मुझे अपना बचपना याद आ गया। मैं तुमसे थोड़ा बचपन की यादें बाटना चाहता हूं। अप्रैल और मई का महीना किसानों के लिए बड़ा मेहनत का होता है। फगुआ खेल के खत्म न हुआ कि सरसों खेत में पक कर झड़ने लगती है। सरसों कटते-कटते मटर, चना, अरहर भी उसी अवस्था में पहुंच जाते हैं। इन सब के बीच मुख्य फसल गेहूं भी पक कर कटने लिए तैयार हो जाती है। किसान के लिए यह बड़ा संवेदनशील मामला होता है। वह किसकी तरफ ध्यान दे। इन्हीं बीच मौसम रोज करवट बदलता है। कभी आंधी, कभी आंधी के साथ बरसात तो कभी ओले मुसीबत बनकर खेतों में बरसते ही रहते हैं।
साधो, कहने का मतलब ये कि किसानी में इन दो महीनों में हाड़ तोड़ मेहनत होती है। तो मैं बात बचपन की कर रहा था। होता ये था कि जब सब खेत का काम पूरा हो जाता था तो आखिर में गेहूं का भूसा थ्रेसर से मड़ाई के बाद खेत में ही पड़ा रह जाता था जिसे ढो कर घर में रखने की जिम्मेदारी छोटे बच्चों की होती थी। होता ये था कि परीक्षाओं के खत्म होने के बाद हम फ्री हो जाया करते थे और घर वाले भूसे की जिम्मेदारी पकड़ा देते थे। हमारे छोटे होने के कारण भूसा ढोने का सिलसिला लंबा चलता। पर कोशिश रहती कि कितनी जल्दी खत्म कर दें। कई बार ऐसा हुआ कि इन्ही महीनों में चुनाव भी पड़ जाते। चुनाव प्रचार करने वालों की भीड़ दिखती तो मन में खयाल आता कि ये इतने लोग हैं, एक एक बोरा भूसा घर छोड़ दें तो एक ही बार में सब खत्म हो जाये और हम बच्चे खेलने चले जाएं। पर दूसरे ही क्षण खयाल आता कि ये तो नेता लोग हैं, इनके ऊपर तो देश की जिम्मेदारी है। इन्हें मेहनत क्यों करनी चाहिए! ये इतना दिमाग लगाकर देश चलाते हैं।
साधो, दरअसल ये बातें मैं अपने आप नहीं सोचता था। यह सब स्कूलों में पढ़ा दिया गया था। दो चार नेताओं के उदाहरण देकर समझा दिया गया था कि वे देश के लिए कितने महत्वपूर्ण रहे थे अपने टाइम पर। बचपन का दिमाग बड़ा कोमल होता है। जो बता दो सच मान लेता है। किसी चाचा ने मुझे एक बार बता दिया था कि गांधी वध क्यों जरूरी था। उस चाचा ने गोडसे को भी महान बता दिया था और मैंने मान भी लिया था। साधो, इसमें मेरा कोई दोष नहीं, दोष बालपन का था। ऐसा नहीं है कि मैं सारी बातों को सच मान लेता था, मेरे मन में सवाल भी उठते थे जो कभी कभी फिजूल के तर्कों तो कभी 'तुम बहस बहुत करते हो' कहके शांत करा दिया जाता था।
हां, तो बात मैंने हेमा मालिनी की कर रहा था। वे चुनाव के मौसम में गेंहू के खेत मे दिखीं। सोशल मीडिया पर कई तरह के चर्चे हुए। भाजपाई उन्हें खेतों में देखकर खुश हुए। कांग्रेसी मीम बनाकर कभी बसंती तो कभी कुछ संबोधित करते हुए जोक शेयर कर रहे थे। साधो, यहां एक बात यह नोटिस करने वाली है कि लोग किसी मुद्दे पर सरकार के विरोध में कभी कभी इतने महिला विरोधी हो जाते हैं कि उनके अंदर का मर्दवाद साफ तौर पर देखा जा सकता है। मैंने कई बड़े नेताओं को विपक्ष की महिला नेता पर अभद्र टिप्पणी करते हुए सुना है।
कितनों ने गेंहूँ के खेत में जाने पर हेमा की तारीफ में कहा कि ये जमीन से जुड़ी नेता हैं। मुझे बस हंसी आई। इस देश की विडंबना यह है कि कोई नेता जरा सी मेहनत करता दिख जाए तो वह महान हो जाता है। यहां नेताओं के लिए मेहनत अपवाद है। आलस, ऐशोआराम, भ्रष्टाचार, रंगदारी, बलात्कार, दंगे, हत्या ये सारी चीजें आम हैं। हम अखबार पढ़ते हैं, खबर की हेड लाइन होती है कि फलां नेता ने फलां की हत्या करवा दी या फलां पार्टी के विधायक के ऊपर रेप के आरोप लगे। यह खबरें हमारे लिए आम होती हैं, हम आगे बढ़ जाते हैं। पर जब हेडलाइन होती है कि फला नेता सड़क पर झाड़ू लगाते दिखे तो हम उसे पढ़ने लगते हैं।
साधो, मैं हेमा जी से सवाल पूछता हूँ कि आपको इन सब की क्या जरूरत! खेत में फोटो अभियान से बेहतर यह होता कि आप लोगों के बीच जातीं और पांच साल में अपने किये गए काम के आधार पर वोट मांगतीं। मेरा यही सवाल हर उस सांसद से है जो पांच साल गायब रहते हैं। मेरा सवाल संबित पात्रा से है जो आजकल घर-घर भोज-भोज खेल रहे हैं। मेरा सवाल विपक्ष के हर नेता से है कि पांच साल आपने जनता के खिलाफ जा रहे कितने निर्णयों को लेकर सरकार को कितनी बार घेरा? मेरा सवाल कांग्रेस से है कि नोटबन्दी में हुई मौतों के लिए आपने सरकार से कब मुआवजे की मांग की?
सवाल तो बहुत से हैं साधो। पर जवाब नहीं है। जवाब होता तो आज योगी जी पांच साल में किये गए विकास को मुद्दा बना रहे होते न कि अली और बजरंग बली को। जवाब होता तो चौकीदार जी सीना चौड़ा कर नोटबन्दी के फायदे पर वोट मांग रहे होते न कि शहीदों के नाम पर। जवाब होता तो चुनाव का केंद्र विकास होता न कि बेंगूसराय का कन्हैया कुमार।
साधो, कहने का मतलब ये कि किसानी में इन दो महीनों में हाड़ तोड़ मेहनत होती है। तो मैं बात बचपन की कर रहा था। होता ये था कि जब सब खेत का काम पूरा हो जाता था तो आखिर में गेहूं का भूसा थ्रेसर से मड़ाई के बाद खेत में ही पड़ा रह जाता था जिसे ढो कर घर में रखने की जिम्मेदारी छोटे बच्चों की होती थी। होता ये था कि परीक्षाओं के खत्म होने के बाद हम फ्री हो जाया करते थे और घर वाले भूसे की जिम्मेदारी पकड़ा देते थे। हमारे छोटे होने के कारण भूसा ढोने का सिलसिला लंबा चलता। पर कोशिश रहती कि कितनी जल्दी खत्म कर दें। कई बार ऐसा हुआ कि इन्ही महीनों में चुनाव भी पड़ जाते। चुनाव प्रचार करने वालों की भीड़ दिखती तो मन में खयाल आता कि ये इतने लोग हैं, एक एक बोरा भूसा घर छोड़ दें तो एक ही बार में सब खत्म हो जाये और हम बच्चे खेलने चले जाएं। पर दूसरे ही क्षण खयाल आता कि ये तो नेता लोग हैं, इनके ऊपर तो देश की जिम्मेदारी है। इन्हें मेहनत क्यों करनी चाहिए! ये इतना दिमाग लगाकर देश चलाते हैं।
साधो, दरअसल ये बातें मैं अपने आप नहीं सोचता था। यह सब स्कूलों में पढ़ा दिया गया था। दो चार नेताओं के उदाहरण देकर समझा दिया गया था कि वे देश के लिए कितने महत्वपूर्ण रहे थे अपने टाइम पर। बचपन का दिमाग बड़ा कोमल होता है। जो बता दो सच मान लेता है। किसी चाचा ने मुझे एक बार बता दिया था कि गांधी वध क्यों जरूरी था। उस चाचा ने गोडसे को भी महान बता दिया था और मैंने मान भी लिया था। साधो, इसमें मेरा कोई दोष नहीं, दोष बालपन का था। ऐसा नहीं है कि मैं सारी बातों को सच मान लेता था, मेरे मन में सवाल भी उठते थे जो कभी कभी फिजूल के तर्कों तो कभी 'तुम बहस बहुत करते हो' कहके शांत करा दिया जाता था।
हां, तो बात मैंने हेमा मालिनी की कर रहा था। वे चुनाव के मौसम में गेंहू के खेत मे दिखीं। सोशल मीडिया पर कई तरह के चर्चे हुए। भाजपाई उन्हें खेतों में देखकर खुश हुए। कांग्रेसी मीम बनाकर कभी बसंती तो कभी कुछ संबोधित करते हुए जोक शेयर कर रहे थे। साधो, यहां एक बात यह नोटिस करने वाली है कि लोग किसी मुद्दे पर सरकार के विरोध में कभी कभी इतने महिला विरोधी हो जाते हैं कि उनके अंदर का मर्दवाद साफ तौर पर देखा जा सकता है। मैंने कई बड़े नेताओं को विपक्ष की महिला नेता पर अभद्र टिप्पणी करते हुए सुना है।
कितनों ने गेंहूँ के खेत में जाने पर हेमा की तारीफ में कहा कि ये जमीन से जुड़ी नेता हैं। मुझे बस हंसी आई। इस देश की विडंबना यह है कि कोई नेता जरा सी मेहनत करता दिख जाए तो वह महान हो जाता है। यहां नेताओं के लिए मेहनत अपवाद है। आलस, ऐशोआराम, भ्रष्टाचार, रंगदारी, बलात्कार, दंगे, हत्या ये सारी चीजें आम हैं। हम अखबार पढ़ते हैं, खबर की हेड लाइन होती है कि फलां नेता ने फलां की हत्या करवा दी या फलां पार्टी के विधायक के ऊपर रेप के आरोप लगे। यह खबरें हमारे लिए आम होती हैं, हम आगे बढ़ जाते हैं। पर जब हेडलाइन होती है कि फला नेता सड़क पर झाड़ू लगाते दिखे तो हम उसे पढ़ने लगते हैं।
साधो, मैं हेमा जी से सवाल पूछता हूँ कि आपको इन सब की क्या जरूरत! खेत में फोटो अभियान से बेहतर यह होता कि आप लोगों के बीच जातीं और पांच साल में अपने किये गए काम के आधार पर वोट मांगतीं। मेरा यही सवाल हर उस सांसद से है जो पांच साल गायब रहते हैं। मेरा सवाल संबित पात्रा से है जो आजकल घर-घर भोज-भोज खेल रहे हैं। मेरा सवाल विपक्ष के हर नेता से है कि पांच साल आपने जनता के खिलाफ जा रहे कितने निर्णयों को लेकर सरकार को कितनी बार घेरा? मेरा सवाल कांग्रेस से है कि नोटबन्दी में हुई मौतों के लिए आपने सरकार से कब मुआवजे की मांग की?
सवाल तो बहुत से हैं साधो। पर जवाब नहीं है। जवाब होता तो आज योगी जी पांच साल में किये गए विकास को मुद्दा बना रहे होते न कि अली और बजरंग बली को। जवाब होता तो चौकीदार जी सीना चौड़ा कर नोटबन्दी के फायदे पर वोट मांग रहे होते न कि शहीदों के नाम पर। जवाब होता तो चुनाव का केंद्र विकास होता न कि बेंगूसराय का कन्हैया कुमार।