राष्ट्रवाद क्या है ? राष्ट्रवाद की परिकल्पना क्या है ? क्या राष्ट्रवाद के नाम पर जर्मन तानाशाह हिटलर द्वारा अपने ही देश के लाखों यहूदियों को आग की भट्ठी में झोक देना ही असली राष्ट्रवाद है या हिटलर की नकल करते भारत में संघ और उनकी सरकारें इस देश में राष्ट्र के नाम पर मुसलमानों को खलनायक बना कर दंगों और सरकारी मशीनरी के माध्यम से उनका दमन करना राष्ट्रवाद है ?
क्या राष्ट्र के नाम पर देश के ही एक वर्ग को उनके धर्म के आधार पर देशद्रोही घोषित करना और उनको मारना तथा प्रताणित करना ही राष्ट्रवाद है ?
नहीं , उपरोक्त सभी राष्ट्रवाद नहीं बल्कि सत्ता पाने और बरकरार रखने के लिए की जाने वाली राजनीति है , समाज में एक वर्ग के विरुद्ध नफरत भरकर बिखराव पैदा करना और फिर दूसरे वर्ग का इसी नफरत के कारण वोट लेकर सरकार बनाना राष्ट्रवाद नहीं बल्कि राष्ट्रवाद के नाम पर दूसरे वर्ग को बेवकूफ बना कर अपने राजनैतिक हित साधने की राजनीति है।
आईए गाँधी जी के व्यवहार से राष्ट्रवाद को समझिए।
9 अगस्त 1942 को गाँधी जी द्वारा "भारत छोड़ो" आंदोलन की घोषणा की गयी। और उसी समय राजा गोपालचारी जी, कम्युनिस्ट पार्टियाँ, मुहम्मद अली जिन्ना, सावरकर, आरएसएस , भीम राव अंबेडकर और राजा रजवाड़ों ने भारत "छोड़ो आंदोलन" का या तो खुलेआम विरोध किया या असहयोग किया।
राजा गोपालाचारी ने तो इस आंदोलन के विरोध में कांग्रेस छोड़ दी। डाक्टर भीम राव अंबेडकर तो उस समय अंग्रेज़ों के मुलाज़िम ही थे।
इस आंदोलन का विरोध करते हुए नौ अगस्त 1942 को ही ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा,
"मुस्लिम भारत के सभी लोगों की पूर्ण स्वतंत्रता का पक्षधर हैं। हमने कांग्रेस का प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि तत्काल राष्ट्रीय सरकार बनाने की मांग का मतलब हिंदू राज या हिंदू बहुमत की सरकार होगा। मेरी मुसलमानों से अपील है कि वे इस आंदोलन से बिलकुल अलग रहें।मैं कांग्रेस को चेतावनी देता हूं कि वह मुसलमानों को बाध्य न करें।"
उधर 10 अगस्त 1942 को हिंदू महा सभा के अध्यक्ष बी.डी. सावरकर ने भी जिन्ना के ही शब्द बोले बस मुस्लिम की जगह हिन्दू रख दिया।
उन्होंने कहा कि
"हिंदू महासभा की और हिंदुओं की सहानुभति गिरफ्तार नेताओं के प्रति है। भारतीय असंतोष का निवारण केवल स्वतंत्रता और सत्ता हस्तांतरण से ही हो सकता है फिर भी कांग्रेस का प्रस्ताव हिंदुओं के न्यायोचित अधिकारों के लिए ही नहीं, भारत की अखंडता और शक्ति के भी प्रतिकूल होगा। मेरा कर्तव्य है कि सभी हिंदू भाईयों से विशेषतः हिंदुओं से कहूं कि वे इस प्रस्ताव के पक्ष में कुछ ना करें।"
जैसा कि संघ का चरित्र दोगलेपन का है वह उस समय भी खुद को गैर राजनीतिक संगठन बता कर इस आंदोलन से अलग रहा।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने तो इस भारत छोड़ो आंदोलन को गैर जिम्मेदाराना आंदोलन कहा था। राज गोपालाचारी ने कहा कि ऐसे समय में भारत छोड़ो आंदोलन नहीं होना चाहिए।
और रजवाड़े यह समझ रहे थे कि आजादी के बाद उनका अस्तित्व समाप्त होने वाला है इसलिए वह भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध कर रहे थे।
सोचिएगा कि गाँधी जी का चरित्र , हृदय और राष्ट्रवाद कितना विशाल था कि वह अपने "भारत छोड़ो" आंदोलन का विरोध कर रहे लोगों को कभी उन्होंने देशद्रोही नहीं कहा।
गाँधी जी का व्यक्तित्व उस समय इतना विशाल था कि यदि वह इन लोगों को उस समय "देशद्रोही" कह देते तो इनका ऐतिहासिक वजूद ही बदल जाता और आज तमाम वर्गों के नायक बने लोग देश के खलनायक बन गये होते। पर गाँधी जी हर मत को साथ लेकर देश को आज़ाद कराने के रास्ते पर चलते रहे और देश को आज़ाद करा दिया।
राष्ट्र के सभी लोगों को प्रेमपुर्वक सम्मान देते हुए राष्ट्र का सबके सहयोग से निर्माण करना ही राष्ट्रवाद है।
यह ये ज़हरीले संघी कभी नहीं समझेंगे।
क्या राष्ट्र के नाम पर देश के ही एक वर्ग को उनके धर्म के आधार पर देशद्रोही घोषित करना और उनको मारना तथा प्रताणित करना ही राष्ट्रवाद है ?
नहीं , उपरोक्त सभी राष्ट्रवाद नहीं बल्कि सत्ता पाने और बरकरार रखने के लिए की जाने वाली राजनीति है , समाज में एक वर्ग के विरुद्ध नफरत भरकर बिखराव पैदा करना और फिर दूसरे वर्ग का इसी नफरत के कारण वोट लेकर सरकार बनाना राष्ट्रवाद नहीं बल्कि राष्ट्रवाद के नाम पर दूसरे वर्ग को बेवकूफ बना कर अपने राजनैतिक हित साधने की राजनीति है।
आईए गाँधी जी के व्यवहार से राष्ट्रवाद को समझिए।
9 अगस्त 1942 को गाँधी जी द्वारा "भारत छोड़ो" आंदोलन की घोषणा की गयी। और उसी समय राजा गोपालचारी जी, कम्युनिस्ट पार्टियाँ, मुहम्मद अली जिन्ना, सावरकर, आरएसएस , भीम राव अंबेडकर और राजा रजवाड़ों ने भारत "छोड़ो आंदोलन" का या तो खुलेआम विरोध किया या असहयोग किया।
राजा गोपालाचारी ने तो इस आंदोलन के विरोध में कांग्रेस छोड़ दी। डाक्टर भीम राव अंबेडकर तो उस समय अंग्रेज़ों के मुलाज़िम ही थे।
इस आंदोलन का विरोध करते हुए नौ अगस्त 1942 को ही ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अध्यक्ष मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा,
"मुस्लिम भारत के सभी लोगों की पूर्ण स्वतंत्रता का पक्षधर हैं। हमने कांग्रेस का प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि तत्काल राष्ट्रीय सरकार बनाने की मांग का मतलब हिंदू राज या हिंदू बहुमत की सरकार होगा। मेरी मुसलमानों से अपील है कि वे इस आंदोलन से बिलकुल अलग रहें।मैं कांग्रेस को चेतावनी देता हूं कि वह मुसलमानों को बाध्य न करें।"
उधर 10 अगस्त 1942 को हिंदू महा सभा के अध्यक्ष बी.डी. सावरकर ने भी जिन्ना के ही शब्द बोले बस मुस्लिम की जगह हिन्दू रख दिया।
उन्होंने कहा कि
"हिंदू महासभा की और हिंदुओं की सहानुभति गिरफ्तार नेताओं के प्रति है। भारतीय असंतोष का निवारण केवल स्वतंत्रता और सत्ता हस्तांतरण से ही हो सकता है फिर भी कांग्रेस का प्रस्ताव हिंदुओं के न्यायोचित अधिकारों के लिए ही नहीं, भारत की अखंडता और शक्ति के भी प्रतिकूल होगा। मेरा कर्तव्य है कि सभी हिंदू भाईयों से विशेषतः हिंदुओं से कहूं कि वे इस प्रस्ताव के पक्ष में कुछ ना करें।"
जैसा कि संघ का चरित्र दोगलेपन का है वह उस समय भी खुद को गैर राजनीतिक संगठन बता कर इस आंदोलन से अलग रहा।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने तो इस भारत छोड़ो आंदोलन को गैर जिम्मेदाराना आंदोलन कहा था। राज गोपालाचारी ने कहा कि ऐसे समय में भारत छोड़ो आंदोलन नहीं होना चाहिए।
और रजवाड़े यह समझ रहे थे कि आजादी के बाद उनका अस्तित्व समाप्त होने वाला है इसलिए वह भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध कर रहे थे।
सोचिएगा कि गाँधी जी का चरित्र , हृदय और राष्ट्रवाद कितना विशाल था कि वह अपने "भारत छोड़ो" आंदोलन का विरोध कर रहे लोगों को कभी उन्होंने देशद्रोही नहीं कहा।
गाँधी जी का व्यक्तित्व उस समय इतना विशाल था कि यदि वह इन लोगों को उस समय "देशद्रोही" कह देते तो इनका ऐतिहासिक वजूद ही बदल जाता और आज तमाम वर्गों के नायक बने लोग देश के खलनायक बन गये होते। पर गाँधी जी हर मत को साथ लेकर देश को आज़ाद कराने के रास्ते पर चलते रहे और देश को आज़ाद करा दिया।
राष्ट्र के सभी लोगों को प्रेमपुर्वक सम्मान देते हुए राष्ट्र का सबके सहयोग से निर्माण करना ही राष्ट्रवाद है।
यह ये ज़हरीले संघी कभी नहीं समझेंगे।