भारत जैसे देश में धर्म या जाति की राजनीति सफल होना संभव ही नहीं

Written by Mohd Zahid | Published on: December 14, 2018
भारत जैसे देश में केवल अपने धर्म या जाति के लोगों की "कयादत" या राजनीति करके सफल होना संभव ही नहीं, कम से कम दीर्घ काल में तो बिल्कुल ही संभव नहीं। आप यहाँ धार्मिक आधार पर कितना भी ज़हर फैला फैला लें, यहाँ के लोगों की एक दुसरे की रोजमर्रा जिन्दगी की एक दूसरे से पड़ती ज़रूरतें इस ज़हर को खत्म करती रहेंगी।

यहाँ वही राजनीति संभव है जिसमें सभी के मुद्दों का समावेश हो, भले भी यह दिखावा ही क्युँ ना हो, और काँग्रेस इसी पैटर्न पर इस देश में 60 साल से अधिक सत्ता के ऊपर काबिज़ रही है।

धर्म या जाति आधारित राजनीति देश के किसी छोटे से हिस्से में तो कुछ समय के लिए संभव है परन्तु जब पूरे देश की राजनीति पर आप नज़र डालेंगें तो आपको एक बहुत बड़ा "कैनवस" मिलेगा जिसमें विभिन्न जाति और धर्म के लोगों का रंग भरे बिना एक सुंदर आकृति बनाना संभव ही नहीं।

यही कारण है कि राज्य या राज्य के किसी छोटे से हिस्से में जाति या धर्म आधारित राजनीति के अतिवादी राजनीतिज्ञ जब देश की राजनीति में उतरते हैं तो वह उस पूरे "कैनवस" को भरने के लिए अपनी जाति या धार्मिक कट्टरता का चोला उतारकर फेक देते हैं और ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिससे उनको सभी धर्म और जातियों में स्वीकार्य किया जाए।

लालकृष्ण आडवाणी जैसे कट्टर हिन्दुत्ववादी नेता का जिन्ना की मज़ार पर जाकर "जिन्ना" के लिए कसीदे पढ़ना इसी रणनीति का हिस्सा थी, परन्तु हिन्दुत्व और भगवा नफरत के नायक आडवाणी को शायद यह पता ही नहीं था कि जिस भारत के मुसलमानों को खुश करने के लिए वह जिन्ना की मज़ार पर जाकर उनके कसीदे पढ़े उस जिन्ना से भारत का मुसलमान बेहद नफरत करता है और अपनी बर्बादी का खलनायक मानता है।

आडवाणी के बाद हिन्दुत्व के दूसरे नायक नरेन्द्र मोदी कभी गुजरात में आज के योगी जी सै भी अधिक विभत्स थे, उनके मुस्लिम और इस्लाम विरोध के इतिहास को कौन नहीं जानता?

परन्तु जैसे ही वह देश की राजनीति में उतरे इस देश और विदेश में "इस्लाम" के प्रचारक बन गये, और हर मंच पर इस्लाम के सिद्धांतों का गुणगान करने लगे, मुसलमानों के लिए "एक हाथ में कुरान और एक हाथ में कंप्यूटर" का नारा देने लगे।

छद्म और झूठा ही सही, यही करके तो काँग्रेस ने भी इस देश में शासन किया है?

मायावती को देखिए, "तिलक तराजू और तलवार" के घृणित जातिवादी नारे से अपना रिजनैतिक सफर शुरू करने वाली मायावती को जब बड़े "कैनवस" पर चित्र बनाना हुआ तो अपनी ही की गयी राजनीति के उलट उन्होंने ही "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" का नया नारा गढ़ लिया।

और अंत में हैदाराबाद की 7 सीट पर अपने आस्तित्व को बचाने के लिए "15 मिनट में पुलिस को हटाने" का चैलेन्ज दे कर देश में सनसनी की तरह उभरने वाले तथा कट्टर मुस्लिम की राजनीति करने वाले वाले "ओवैसी ऐन्ड ब्रदर्स" को जब हैदाराबाद से बाहर निकलने की आवश्यकता आन पड़ी तो उनको "जय मीम जय भीम" नारे का सहारा लेना पड़ा।

कहने का अर्थ यह है कि अपनी राजनैतिक लाभ के लिए बिल्कुल शुरुआत में देश के हर राजनैतिक दल ने धर्म और जाति की राजनीति करके लोगों को मुर्ख बनाया और जब इसी आधार पर अपना कुछ आधार बना लिया तो उन्होंने अपने इसी चोले को उतारकर फेंक दिया और सबको लेकर चलने की राजनीति करने लगे।

यही भारत की असली ताकत है कि एक सीमा के बाद यह देश सबकी सोच बदलने पर मजबूर कर देता है।

इस देश के लिए छद्म धर्मनिरपेक्षता भी धार्मिक राजनीति और जातिवादी राजनीति से बहुत बेहतर है क्युँकि इसका ज़हर कम से कम "साइनाइट" ना होकर मीठा है।

खैर, यह सच है कि धर्म और जाति की राजनीति करने वाले अवसरवादी राजनीति के नायक होते हैं जिनकी विचारधारा बड़े कैनवस पर आते ही बदल जाती है, छद्म ही सही।

इस देश के आपसी धार्मिक और जातिगत ताने बाने का यह सबसे मज़बूत प्रमाण है कि एक दूसरी जाति या धर्म वालों के खिलाफ ज़हर उगलकर अपनी राजनीति को जन्म देने वाले लोग स्थापित होने के बाद सबको मिलाकर चलने की राजनीति करने लगते हैं।

भारत के खूबसूरत आपसी ताने बाने का सबसे प्रशंसनीय प्रमाण राजस्थान विधानसभा चुनाव मे मिला जबकि हिन्दू बहुल सीट "पोखरण" से भाजपा के हिन्दू प्रत्याशी प्रताप पुरी को कांग्रेस के मुस्लिम प्रत्याशी सालेह मोहम्मद ने हराया और टोंक जैसी मुस्लिम बहुल सीट से भाजपा के मुस्लिम प्रत्याशी युनुस खान को मुसलमानों ने नकार कर काँग्रेस के हिन्दू प्रत्याशी सचिन पायलट को एकतरफा मुकाबले में जिताया।

यही है असली शुद्ध धर्मनिरपेक्षता, भारत को यदि मजबूत करना है तो इसी धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करना होगा और धर्म और जाति की राजनीति करने वालों को नकारना होगा।

छद्म धर्मनिरपेक्षता की कीमत भले मुसलमानों को चुकानी पड़ती है पर कम से कम देश तो सुरक्षित रहता है और देश के मुसलमानों के लिए देश का हित उनके निजी हित से अधिक महत्वपूर्ण है।

तो नकारिए ऐसे अवसरवादी मतलबी राजनितिज्ञों को, देश के लिए।

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