मीडिया के महानायक की घर वापसी के स्वागत में देश कहां था ?

Written by sabrang india | Published on: September 30, 2019
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बहुचर्चित ‘हाउडी मोदी’ इवेंट व संयुक्त राष्ट्र महासभा को सम्बोधित करने समेत अपनी हफ्ते भर की अमेरिका यात्रा के सारे अपेक्षित व निर्धारित कार्यक्रम पूरे करके स्वदेश वापस लौटे तो भाजपा कार्यकर्ता उनके स्वागत में हवाई अड्डे से तीन किलोमीटर दूर तक एकत्र हुए।



उन्होंने ढोल बजाकर हाथों में तख्तियां लेकर और नाच-गाकर अपनी खुशी का एहसास कराया। स्वाभाविक ही गोदी मीडिया ने इसे ‘महानायक की घर वापसी’ के तौर पर देखा। इस कारण और भी कि वह अभी तक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा उन्हें दिये गये ‘फादर ऑफ इंडिया’ के काम्प्लीमेंट के खुमार में डूबा है।

इस सब से अभिभूत मोदी ने अपने स्वागतार्थियों को सम्बोधित करते हुए कहा कि उनकी इस यात्रा से 130 करोड़ भारतीयों का मान-सम्मान और प्रतिष्ठा बढ़ी है। इतना ही नहीं, दुनिया भारत को गम्भीरता से लेने लगी है। इस कदर कि जलने वाले पड़ोसी देश इसे पचा नहीं पा रहे और नफरत भरे भाषण देकर अपनी भड़ास निकाल रहे हैं।

बहरहाल, किसी भी नेता का नायकत्व और महानायकत्व दुनिया की नजरों का परिणाम होता है, जिसमें निर्णायक तत्व यही है कि लोगों की कितनी बड़ी संख्या उसके समर्थन में है। इस दृष्टि से मोदी दुनिया के अन्य नेताओं से निश्चित ही आगे हैं, क्योंकि पांच साल प्रधानमंत्री रह चुकने के बाद भी गत लोकसभा चुनाव में उनका जनसमर्थन घटने के बजाय बढ़ा ही है। फिर उन्होंने देश में ऐसे प्रयोग भी आरम्भ किये हैं, दुनिया के नेता जिन्हें बेहतर मान रहे हैं।

लेकिन क्या इस स्थिति का वास्तविक अर्थ वही है, जो मोदी निकाल रहे हैं? जिन 130 करोड़ भारतीयों का हवाला दे रहे हैं, उनमें से अनेक मतदान प्रक्रिया में भागीदारी ही नहीं करते, जबकि आधे लोगों को मताधिकार ही नहीं है।

तिस पर देश की चुनावपद्धति ऐसी है कि जिन सरकारों को बहुमत मिलता है, उनकी बाबत भी यह दावा नहीं किया जा सकता कि उन्हें देश के सारे तो क्या, उन मतदाताओं के भी आधे से अधिक का समर्थन प्राप्त है, जो मतदान करने जाते हैं।

ऐसे में यह तो कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री की पार्टी को संसद और विधानमंडलों में सबसे अधिक सीटें हासिल हैं, जो उनके गठबंधन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के साथ मिलकर और ज्यादा हो जाती है। लेकिन इस गठबंधन में भी एकता नहीं है और परस्पर असहमति और विरोध के स्वर उठा करते हैं।

उसकी इस उठापटक को हरियाणा और महाराष्ट्र में हो रहे विधानसभा चुनाव में भी देखा जा सकता है। राजग के बाहर के राजनीतिक दलों में भी एकजुटता नहीं है। हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल के नाम से पहचाना जाने वाला चौधरी देवीलाल का कुनबा छ: भागों में बंट गया है तो पार्टियों के जातीय आधारों का भी विभाजन हो गया है।

राजनीति के जानकार कहते हैं कि राजनीतिक पार्टियों में यह प्रवृत्ति नई नहीं है। अलबत्ता, यह चुनावों के अवसर पर ही ज्यादा दिखायी पड़ती है।

ऐसे में यह तो स्वीकार किया जा सकता है कि समकालीन देश और दुनिया में मोदी की स्वीकार्यता का ग्राफ बढ़त पर है, लेकिन पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह टिकाऊ या दीर्घकालिक भी होगा।

यही अमेरिका है, जिसने 2014 तक मोदी के अमेरिका प्रवेश पर पाबन्दी लगा रखी थी और उन्हें वीजा तक देने को तैयार नहीं था। अब उसी अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प उनके सबसे बड़े मित्र होने का दावा कर रहे हैं, तो उनकी ओर से सार्वजनिक रूप से जिस दोस्ताना व्यवहार का प्रदर्शन हुआ है, वह इस रूप में कब तक बना रहेगा?

जो अमेरिका अपने राष्ट्रीय स्वार्थो के मद्देनजर अभी अपनी पुरानी मान्यताओं व स्थापनाओं के प्रतिकूल रुख अपनाये हुए है, कौन कह सकता है कि स्वार्थों के बदलते ही फिर नहीं बदल जायेगा?

दूसरे पहलू पर जायें तो मोदी इस वक्त भाजपा के नेता भर नहीं हैं। वे देश के संवैधानिक रूप से निर्वाचित प्रधानमंत्री हैं, जिसने यह शपथ ले रखी है कि अपने पद के दायित्वों के निर्वहन में किसी प्रकार का भेदभाव, घृणा या द्वेष नहीं बरतेगा।

सवाल है कि उनके समर्थकों ने उनकी स्वदेश वापसी पर हवाई अड्डे पर जो जमावड़ा किया, वह इस रूप में उनके महत्व को घटाने वाला था या बढ़ाने वाला? वे देश के प्रधानमंत्री हैं और सारे देश का मानसम्मान बढ़ाकर लौटे हैं तो सिर्फ उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रसन्नता का प्रदर्शन करना क्या यह नहीं दिखाता कि उनके लोग भी उनके काम को अपने निहित दलीय स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं?

सवाल है कि मोदी दुनिया भर के मंचों पर जाकर जो काम कर रहे हैं, वह राष्ट्र के महत्व और वर्चस्व की स्थापना करने वाला है, तो उनके लोग ही उसे इतने संकीर्ण नजरिये से क्यों ले रहे हैं? वे अपनी प्रसन्नता में पूरे देश को शामिल करके व्यापक संदेश क्यों नहीं देते?

वे क्यों नहीं समझते कि लोकतंत्र में जिस भी पार्टी या नेता को जनादेश मिलता है, वही संविधान के अनुसार देश की व्यवस्था का नियमन, नियंत्रण और संचालन करता है। इस सम्बन्धी दायित्वों के निर्धारण व कर्तव्यों के निर्वहन से जुड़े किसी भी मूल्यांकन में दलगत भेदभाव की मनाही है।

संविधान में प्रधानमंत्री को किसी दल और पार्टी के नहीं, संसद के प्रति जवाबदेह बताया गया है, इसलिए उनके योगदान या मान-सम्मान को किसी पार्टी तक सीमित करना उसके महत्व को नकारना ही है। यह मानने से मना करना भी कि अब वे उन लोगों के भी प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनाव में पूरी शक्ति के साथ उनका विरोध किया था।

अलबत्ता, देश में आज भी ऐसे विरोधी दल और नेता हैं, जिनका मानना है कि देश इन दिनों अर्थव्यवस्था की जो बदहाली झेल रहा है, उनके पीछे मोदी के नोटबन्दी और जीएसटी जैसे कार्यक्रम हैं, जो मन्दी की सौगात ले आये हैं। लेकिन भाजपा इसे लेकर उनसे दुश्मनी निभाकर खुद को और प्रधानमंत्री को छोटा ही करेगी। क्योंकि ऐसी असहमतियां हमारे लोकतंत्र का महत्वपूर्ण तत्व हैं और उन्हें विद्रोह नहीं माना जा सकता।

फिर मोदी को जो भी मान-सम्मान मिल रहा है, वह मोदी नामक व्यक्ति का नहीं, बल्कि भारत के प्रधानमंत्री का है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय राजनय व शिष्टाचार की भी बड़ी भूमिका है। इन्हीं के कारण विरोधी विचार वाले चीन के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी भारत आते हैं तो उनके स्वागत और सम्मान में कोई कोताही नहीं की जाती।

खुद मोदी उन्हें अपने गृह प्रदेश ले जाकर झूला झुलाते हैं। इसी तरह देश का कोई विपक्षी नेता भी विदेश जाता है तो वहां देश की सरकार की आलोचना नहीं करता, देश के महत्व को ही प्रतिपादित करता है। इसमें कोई चूक हो जाती है तो इसके लिए वह खेद भी प्रकट करता है।

लोकतांत्रिक देशों में अलग-अलग दलों की सरकारें बना ही करती हैं। चुनावों में उनकी सीटों की संख्या भी घटती-बढ़ती रहती है, लेकिन महत्व उनका नहीं, लोकतांत्रिक व्यवस्था और प्रणाली का होता है, जिसे देश ने स्वीकार कर रखा है। इसलिए मोदी की वापसी पर उनके स्वागत को दलीय नहीं, राष्ट्रीय स्वरूप दिया जाना चाहिए था।

दलीय प्रफुल्लता ज्ञापन के लिए अलग से पार्टी की बैठकें और उसमें सम्बोधन हो सकते थे। चूंकि प्रधानमंत्री सबके हैं- सारे देश के, इसलिए उनके महत्व का बखान दूसरे लोगों द्वारा किया जाना बेहतर होता। यह क्या कि वे अपने ही मुंह से अपना बखान करते और अपने ही लोगों को सुनाते रहे!

साभार- जनमोर्चा न्यूज

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