उस जर्जर भवनों के सरकारी स्कूल में क्षेत्र के सिर्फ गरीब मजदूर, किसानों के बच्चे पढ़ते थे

Written by Mithun Prajapati | Published on: December 1, 2018
वह मुंहफट था। अक्सर बात जब दिल में आये कह देता था। उसे सही कहने में जगह समय या व्यक्ति के पद गरिमा से कुछ लेना-देना नहीं था। अपनी आदत के कारण वह बदनाम था। लोग उसे उजड्ड, लंठ कुछ भी कह देते।

वह उस इलाके के एक मात्र सरकारी स्कूल में बैठा था। उस स्कूल में बाउंड्री नहीं बनी थी जिसका फायदा यह होता था कि सड़क पर चलती गाड़ियां बच्चे आसानी से देख लेते थे। यह उनके मनोरंजन का साधन भी था। जब कोई मोटरसाइकिल सवार उस धूल भरी सड़क से गुजरता और उसका पूरा शरीर धूल से भर जाता तो यह देखकर  स्कूल के बच्चे बहुत आनंदित होते। कभी-कभी दुःख भी होता मसलन विधायक की कांच लगी  गाड़ी गुजरी और धूल विधायक को छू भी न पाई। बड़ी गाड़ियां बच्चों को परेशान कर जाती। जब कभी पुरवाई हवा तेज चलती तो गाड़ी के कारण उड़ी हुई धूल पेड़ के नीचे चल रही क्लास को छूते हुए आगे निकल जाती। क्लास अक्सर उस बचे हुए एक मात्र बरगद के पेड़ के नीचे ही चला करती थी। 

आज से करीब तीस साल पहले जब इस स्कूल की नींव पड़ने वाली थी तो  क्षेत्र के ठाकुर साहब ने दया करके यह जमीन सरकार को  दी थी। जमीन तो कोई और भी दे देता पर लोग बताते हैं कि दूर दूर तक सिर्फ ठाकुर साहब के पास ही जमीन थी।  उस समय यह पुरानी बाग हुआ करती थी जिसमें अठारह बीस बड़े पेड़ों के अलावा बहुत से छोटे पेड़ थे। ठाकुर साहब के जाते ही उनकी जमीनें लड़कों में बट गयी और जो पेड़ थे धीरे- धीरे कटते गए। यह एक मात्र पेड़ था जिसके नीचे क्लास लगा करती थी। दो कमरे भी बने थे सरकार की तरफ से पर अब वे जर्जर हो चुके थे जिसका सबसे बड़ा फायदा वहां रहने वाले कुत्ते, बिल्लियों का था। आदमी उसमें जाते नहीं थे और जानवर उसमें से निकलते नहीं थे। स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे कभी- कभी पत्थर मारकर समय पास कर लेते थे। कई निशानेबाज  लड़के थे उस स्कूल में जिसके कारण दो बिल्लियां पत्थर लगने के कारण कानी हो चुकी थीं। 

यहां कोई खेल प्रतियोगिता नहीं होती थी नहीं तो टैलेंट के हिसाब से कई बच्चे आगे निकल कर डिस्ट्रिक्ट लेवल तक तो पहुँच ही जाते। एक बार गलती से डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट इस धूल भर सड़क से गुजरे थे और उनकी नजर इस स्कूल पर पड़ी थी। वे रुकरकर बच्चों से मिले तो प्रभावित भी हुए थे। स्कूल के विकास का वादा करके गए DM साहब दुबारा नहीं दिखे और न ही कोई उनकी तरफ से किये गए वादे को पूरा करने का प्रयास करते दिखा।  

यह सरकारी स्कूल था जिसे देखकर कहा जा सकता था कि सरकार का इसमें दो भवनों भर का योगदान है। क्षेत्र के अन्य बड़ी जातियों के लड़के दस किलोमीटर दूर कॉन्वेंट में पढ़ने जाया करते थे। सभ्य घर के लोग यहां अपने बच्चों को भेजकर अपना स्टेटस खराब नहीं करना चाहते थे।  यहां अक्सर वही बच्चे पढ़ते थे जिनकी प्राथमिकता घर  पर माँ पिता जी का हाथ बटाना था। उससे फुरसत मिली तो पढ़ाई भी कर लेते थे। जरुरत पड़ी तो स्कूल से चाहे जब घर से बुलाये जाने पर हाथ बटाने के लिए घर भी चले जाते थे। कपड़े की बाध्यता नहीं थी। फटी हुई निक्कर में भी आया जा सकता था । जूते की  आवश्यकता नहीं थी। किसी- किसी के माता पिता उदार होते थे तो चप्पलें खरीदकर दे देते थे। 

गुरु जी पढ़ा रहे थे- दहेज समाज की बुराई है। यह समाज को खोखला कर रही है। इससे बचना चाहिए। सब लड़के हां हां कर रहे थे। क्लास में गुरु जी की बात ध्वनिमत से पारित होने ही वाली थी कि वह मुंहफट था बोल पड़ा- दहेज बुराई तो है पर जब देना पड़े, लेने में भलाई है। यह समाज में रईसी का प्रतीक है। जो जितना दहेज पाता है उतना ही रईस समझा जाता है। उसकी आवाज पूरी क्लास में गूंजी और अलग दिशा में चलती दिखी। जैसे मंदिर निर्माण के दौर में कोई शिक्षा बजट की बात कर जाए, हिन्दू, मुस्लिम की बात छोड़ कोई शांति की पैरवी करता दिखे। सारे बच्चे उसकी तरफ मुड़े जैसे पूछ रहे हों- क्यों बे, तू गुरु जी से ज्यादा जानता है क्या  

गुरु जी बिदक गए। मोटे चश्मे की डंडी सीधी की और उसकी  तरफ घूरते हुए बोले- अपनी बात को प्रमाणित करेंगे? 
उसने कहा- गुरु जी। आप ही तो उस दिन कह रहे थे- बहुत बड़े आदमी हैं चौबे जी, बेटे के बियाह में इतना सारा दहेज पाए हैं। चौबे जी से भी ज्यादा रईस तो पांडे जी हैं जो पूरे क्षेत्र में सबसे ज्यादा दहेज पाए हैं। और पिछले बरस आप अपने लड़के का बियाह किये थे तो मोटरसाइकिल लिए, रुपिया लिए, बहुत से सामान लिए। अब बता रहे हैं कि दहेज समाज की बुराई है ! बताओ जब बुराई है तो लिए क्यों ?
गुरु जी को बात चुभ गयी। पहली बात तो ये कि इत्ता से लड़का उनसे बहस कर रहा है और दूसरी ये की उनकी बात काट रहा है और सबसे बड़ी बात उनपर ही आक्षेप लगा रहा है ! वे उसके पास गए। कान को  ऐंठते हुए पकड़कर ऊपर खींचते हुए बोले- जब हमनें श्लोक बताया है, 'सत्यं ब्रूयात प्रियम ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम अप्रियम' तो क्यों वो बात बोलते हो जो सत्य हो लेकिन अप्रिय हो? 

वह चिंचियाते हुए बोला- लेकिन यह बात तो आपने किसी अपंग के लिए कही थी। दहेज वाली बात तो सत्य है और कड़वी है। अप्रिय तो नहीं !

खिसियाये गुरु जी ने उसे एक चमाट जड़ दिया। सर्दी के कारण बह रही नाक पूरे गाल पर फैल गयी। वह संभलता कुछ कहता इसके पहले किसी अन्य क्लास के बच्चे ने टूटी थाली को बजाकर छुट्टी होने का ऐलान कर दिया। इस प्रकार वह मुंहफट और थप्पड़ खाने से बच गया और गुरु जी और सवालों से घिरने से।

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