इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा कि खाने-पीने, रहने-चलने और स्वास्थ्य के साथ मनुष्य के सर्वांगीण विकास की चाबी 'शिक्षा' भी लगातार महंगी होती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक हर वर्ष शिक्षा करीब 10 से 12 फीसदी की दर से महंगी होती जा रही है। शिक्षण संस्थान प्रत्येक वर्ष फीस बढ़ाते जा रहे हैं। घर के बाकी खर्चों पर महंगाई के बोझ के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में महंगाई, दोगुनी गति से बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, IIM बैंगलुरू के दो वर्ष के एमबीए कोर्स के लिये एक दशक पहले 13 लाख खर्च करने पड़ते थे। लेकिन उसी कोर्स के अब 23 लाख रुपये से ज्यादा खर्च करने पड़ते हैं। प्राइमरी, उच्च प्राइमरी, माध्यमिक, स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा के खर्चों में गुणात्मक बढ़ोत्तरी है तो इंजीनियरिंग, मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कोर्सेज IIT, IIM का पढ़ाई खर्च आम मध्यमवर्गीय परिवारों की हैसियत से बाहर चला गया है।
याद कीजिए, तीन साल पहले जेएनयू में फीस बढ़ोत्तरी को लेकर हुए आंदोलन को। याद करिए इलाहाबाद, बनारस और गोरखपुर विश्वविद्यालय में आंदोलनरत छात्रों के उबाल को या फिर कल ही की DDU गोरखपुर विश्वविद्यालय की घटना याद कर लीजिए, किस तरह महंगी फीस जैसी समस्याएं, नित नई समस्याओं को जन्म दे रही है। गोरखपुर यूनिवर्सिटी में एबीवीपी छात्रों ने वीसी और रजिस्ट्रार को घसीट-घसीट कर पीटा। दूसरी ओर, तमिलनाडु के सेलम शहर की वह वायरल लेकिन हृदयविदारक वीडियो जिसमें सड़क के किनारे चुपचाप चलती एक महिला अचानक आगे बढ़कर सामने से आ रही बस के आगे जाती है और बस से तेज धक्के के बाद सड़क पर गिरकर उसकी मौत हो जाती है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 46 साल की पप्पाथी ने अपने बेटे के कॉलेज की फ़ीस भरने के लिए बस के आगे आकर जान दे दी क्योंकि उसे किसी ने बताया था कि दुर्घटना में मौत पर मुआवज़ा मिलता है।
पप्पाथी स्थानीय कलेक्टर ऑफिस में अस्थाई सफाई मजदूर व सिंगल पैरेंट थीं। द प्रिंट के मुताबिक, उसे महीने के दस हजार मिल रहे थे, जिसमें दोनों बेटा-बेटी का पढ़ाई खर्च उठाने में बहुत मुश्किल हो रही थी। वह बेटे के कॉलेज की 45 हजार रुपए की फ़ीस के लिए पैसे नहीं जुटा पा रही थी। उसे लगा कि उसकी मौत के मुआवज़े से बेटे की फ़ीस के पैसे का जुगाड़ हो जाएगा। पप्पाथी ने बेटे को पढ़ाने के लिए अपनी जान दे दी। यह सिर्फ एक मां के त्याग की कारुणिक और दिल दहलाने वाली कहानी भर नहीं है। यह देश में लगातार महंगी होती शिक्षा के आम गरीबों और वर्किंग क्लास परिवारों की पहुंच से बाहर होते जाने की त्रासद और कड़वी कहानी भी है।
लेकिन यह उन करोड़ों गरीब, वर्किंग क्लास, निम्नवर्गीय और यहां तक कि मध्यमवर्गीय परिवारों की कहानी भी है जो अपने बच्चों की अच्छी और ऊंची शिक्षा के लिए पेट काटकर, जमीन गिरवी रखकर और कर्जे लेकर फ़ीस और दूसरे खर्चे चुकाने और यहां तक कि पप्पाथी की तरह जान देने को भी तैयार हैं। समाजशास्त्री इन परिवारों को “आकांक्षी वर्ग" (एस्पिरेशनल क्लास) कहते हैं जिसे पढ़ाई-लिखाई का महत्त्व पता चल गया है। यह वर्ग समझ चुका है कि उनकी और उनके बच्चों की मुक्ति अच्छी और ऊंची पढ़ाई-लिखाई में ही है। इसके कारण पिछले डेढ़-दो दशकों में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा में दाखिला बढ़ा है, उच्च शिक्षा में पंजीकरण प्रतिशत बढ़ा है, लैंगिक अंतर कम हुआ है। यह एक बड़ी कामयाबी है। लेकिन बढ़ती फीस, बच्चों के साथ उनके अभिभावकों के सपनों को भी कुचलने का काम कर रही है।
आलम यह है कि पिछले कुछ दशकों में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा खासकर इंजीनियरिंग-मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कोर्सेज की फ़ीस और दूसरे खर्चों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है जिसके कारण शिक्षा आम ग़रीब और वर्किंग क्लास परिवारों की पहुंच से बाहर होती जा रही है। यहां तक कि सरकारी आईआईटी और आईआईएम की फ़ीस भी आसमान छू रही है। इससे प्राइवेट यूनिवर्सिटी और संस्थानों की फ़ीस का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उद्यमी और प्रकाशक महेश्वर पेरी ने बीते फ़रवरी में एक ट्विटर थ्रेड में खुलासा किया था कि आईआईएम (अहमदाबाद) की फ़ीस वर्ष 2007 से 2022 के बीच 15 सालों में 4 लाख रूपये सालाना से बढ़कर 27 लाख रूपये सालाना पहुंच गई है जोकि 575 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी है। पेरी के मुताबिक, देश के प्रमुख चार IIM की सालाना औसत फ़ीस 25 लाख रूपये से ज्यादा है जबकि IIT के मैनेजमेंट स्कूल्स की सालाना औसत फ़ीस 12 लाख रूपये से ज्यादा है। यही नहीं अशोका, जिंदल या फिर मणिपाल जैसी प्राइवेट यूनिवर्सिटी, ग्रेजुएट कोर्स के लिये लाना 5 से 11 लाख रुपये तक की फीस लेते हैं।
लगातार महंगी होती जा रही शिक्षा
एक अनुमान के मुताबिक, हर वर्ष शिक्षा करीब 10 से 12 फीसदी की दर से महंगी होती जा रही है। हर शिक्षण संस्थान प्रत्येक वर्ष अपनी फीस बढ़ाते जा रहे हैं। घर के बाकी खर्चों पर महंगाई के बोझ के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में महंगाई दोगुनी गति से बढ़ रही है। द प्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार, भविष्य में शिक्षा और महंगी ही होगी। उदाहरण के लिए 4 साल की इंजीनियरिंग कोर्स के लिये अभी 12 लाख रुपये चुकाने पड़ते हैं लेकिन दस साल बाद इसी कोर्स के लिये 25 से 30 लाख रुपये के बीच चुकाने पड़ सकते हैं। निजी मेडिकल कॉलेजों में 5 साल के MBBS कोर्स के लिये अभी 50 लाख से लेकर 1 करोड़ रुपये तक की फीस देनी होती है। दूसरा, यह कहने की जरूरत नहीं है कि जब सरकारी इंजीनियरिंग और प्रबंधन और दूसरे प्रोफेशनल डिग्री/पीजी डिप्लोमा संस्थानों की फ़ीस इतनी ज्यादा हो गई है तो प्राइवेट संस्थानों की फ़ीस का कहना ही क्या? उदाहरण के लिए, सरकारी नेशनल लॉ स्कूल यूनिवर्सिटी, बैंगलोर की सालाना फ़ीस 3.2 लाख रूपये (हॉस्टल/मेस सहित) है तो प्राइवेट क्षेत्र के जिंदल लॉ स्कूल की सालाना फ़ीस 8.92 लाख रूपये और सिम्बायोसिस लॉ स्कूल की सालाना फ़ीस 6.2 लाख है। सवाल है कि यह फ़ीस कितने गरीब, वर्किंग क्लास और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार चुका पाएंगे?
शिक्षा पर बढ़ता जा रहा खर्च
सरकारी आंकड़े यानी एनएसएसओ के 75वें चक्र के सर्वेक्षण “हाउसहोल्ड सोशल कंजम्पशन आफ एजुकेशन इन इंडिया” (2017-18) पर गौर करें तो साफ़ दिखता है कि माध्यमिक से आगे की पढ़ाई-लिखाई आम गरीब, वर्किंग क्लास और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुंच से बाहर होती जा रही है। उच्च शिक्षा पहले से ही पहुंच के बाहर हो चुकी है। यहां तक कि प्राथमिक शिक्षा का खर्च उठा पाना भी अधिकांश गरीब और वर्किंग क्लास परिवारों को भारी पड़ रहा है। इस रिपोर्ट को अगर 17-18 में एनएसएसओ की ओर से हुए आवधिक श्रमशक्ति सर्वेक्षण से सामने आये पप्पाथी जैसे अनियमित/अस्थाई (कैजुअल) और दूसरे नियमित श्रमिकों की औसत मासिक आय के साथ जोड़कर देखें तो एक कड़वी सच्चाई सामने आती है कि महंगी होती शिक्षा कैसे आम निम्न-मध्यमवर्गीय और वर्किंग क्लास परिवारों के पहुंच से बाहर होती जा रही है।
इन दोनों सर्वेक्षणों के मुताबिक, शहरी इलाकों में एक अस्थाई मजदूर की औसत मासिक आय का 38 फीसदी तक उसके दो बच्चों की शिक्षा पर खर्च हो जाता है। ग्रामीण इलाकों में अस्थाई मजदूर की कुल मासिक आय का लगभग 15.2 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च हो जाता है। इसी तरह से शहरी नियमित श्रमिक की औसत मासिक आय का 14 फीसदी और ग्रामीण इलाके के स्थाई श्रमिक की आय का 6.5 फीसदी दो बच्चों की शिक्षा पर खर्च हो जाता है। इन दोनों सर्वेक्षणों के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में एक अनियमित/अस्थाई मजदूर की मासिक आय का लगभग 26.5 प्रतिशत उसके दो बच्चों की उच्चतर माध्यमिक और 34.3 प्रतिशत तक स्नातक (ग्रेजुएशन) की पढ़ाई-लिखाई और शहरी इलाके के अनियमित मजदूर की मासिक आय का 56 फीसदी तक दो बच्चों की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पर और लगभग 43.5 फीसदी ग्रेजुएशन की शिक्षा पर खर्च हो जाता है।
ट्यूशन यानी कोचिंग का बढ़ता कारोबार
सरकारी, यहां तक कि प्राइवेट स्कूलों में भी शिक्षा की स्थिति यह है कि स्कूलों की फ़ीस चुकाने के साथ-साथ अभिभावकों को प्राइवेट ट्यूशन पर भी अच्छा-खासा पैसा खर्च करना पड़ता है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा मुफ़्त है लेकिन वहां पढ़ाई-लिखाई का हाल इतना बुरा है कि प्राइवेट ट्यूशन लोगों की मजबूरी हो गई है। एनजीओ- प्रथम की ओर से हर साल जारी होनेवाली स्कूलों की वार्षिक दशा रिपोर्ट (2022) के मुताबिक, कोरोना महामारी के बाद देश भर में प्राथमिक स्कूलों (पहली से आठवीं कक्षा) के उन छात्र-छात्राओं की संख्या में इजाफ़ा हुआ है जो प्राइवेट ट्यूशन ले रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 से 2022 के बीच अखिल भारतीय स्तर पर प्राइवेट ट्यूशन में जानेवाले स्कूली विद्यार्थियों की संख्या 26.4 फीसदी से बढ़कर 30.5 फीसदी तक पहुंच गई है।
दरअसल महामारी के दौरान स्कूलों के बंद होने से बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई के लिए भी लोग अपना पेट काटकर भी बच्चों के लिए प्राइवेट ट्यूशन कर रहे हैं। विडम्बना देखिये कि सबसे गरीब राज्य बिहार में सबसे अधिक 71.7 फीसदी, झारखंड में 45.3 फीसदी, उत्तरप्रदेश में 23.7 फीसदी और असम में 25.3 फीसदी बच्चे प्राइवेट ट्यूशन लेने के लिए मजबूर हैं। यह प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का एक और सुबूत है जिसकी सबसे बड़ी कीमत गरीब और वर्किंग क्लास चुका रहा है। इसी तरह उच्च माध्यमिक और उच्च शिक्षा की बदहाली की कब्र पर पूरे देश में कोचिंग उद्योग फल-फूल रहा है।
द प्रिंट के मुताबिक, देश में कोचिंग उद्योग का आकार बढ़कर 58,088 करोड़ रूपये पहुंच गया है जोकि वर्ष 2028 तक बढ़कर 1,33,995 करोड़ रूपये तक पहुंच जाएगा। कारण यह कि बच्चों को कोचिंग में भेजे बिना अच्छे इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, ला या दूसरे प्रोफेशनल कॉलेजों में दाखिला दिला पाना मुश्किल हो गया है। अब देखा जाए तो कोचिंग की फ़ीस और दूसरे खर्चे इतने अधिक हैं कि आम गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चों को वहां भेजने की सोच भी नहीं सकता है। यहां तक कि अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भी कोचिंग और प्रोफेशनल कोर्सेज की फ़ीस चुका पाना संभव नहीं रह गया है।
इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि अनियमित सफाई कर्मचारी और सिंगल पैरेंट पप्पाथी के लिए मासिक 10 हजार रूपये की तनख्वाह में अपने दोनों बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठाना कितना मुश्किल हो गया होगा कि उसने अपनी जान देने तक का त्रासद कदम उठा लिया। यह एक कड़वी सच्चाई है कि पप्पाथी जैसे लाखों परिवारों के बच्चों के लिए लगातार महंगी होती उच्च शिक्षा सपने जैसी होती जा रही है। उदाहरण के लिए, शिक्षा की महंगाई (मुद्रास्फीति) दर देख लीजिए। बीते जून महीने में जब खुदरा मुद्रास्फीति की दर (सीपीआई) 4.8 फीसदी दर्ज की गई, उसमें शिक्षा की मुद्रास्फीति दर 5.92 फीसदी थी लेकिन शहरी इलाकों में शिक्षा की मुद्रास्फीति दर 6.37 फीसदी थी।
बिजनेसलाइन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जून’2014 से जून’2018 के बीच प्राइमरी और उच्च प्राइमरी शिक्षा की फ़ीस आदि पर खर्चों में 30.7 फीसदी और 27.5 फीसदी की भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसी तरह माध्यमिक कक्षाओं की फ़ीस आदि खर्चों में 21 फीसदी की भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई। स्नातक (ग्रेजुएशन) की शिक्षा के खर्चों में 5.8 फीसदी और स्नातकोत्तर (पीजी) की शिक्षा के खर्चों में कोई 13 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई। लेकिन इंजीनियरिंग से लेकर मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कोर्सेज की पढ़ाई का खर्च तो आम मध्यमवर्गीय परिवारों की हैसियत से भी बाहर चला गया है।
अभिभावकों और बच्चों की अच्छी और ऊंची शिक्षा हासिल करने के सपने टूट- बिखर रहे
लगातार महंगी होती शिक्षा के कारण पप्पाथी जैसे कितने अभिभावकों और उनके बच्चों की अच्छी और ऊंची शिक्षा हासिल करने के सपने टूट-कर बिखर रहे हैं। यह उस देश के लिए भी एक बड़ी त्रासदी है जहां दुनिया की सबसे युवा और आकांक्षी आबादी है। महंगी होती शिक्षा देश में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी को और गहरा कर रही है। यह देश को जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) की स्थिति से एक जनसांख्यिकीय दुर्घटना (डेमोग्राफिक डिजास्टर) की ओर धकेल रहा है।
कम फीस और ज्यादा गुणवत्ता वाले शिक्षा संस्थानों का होना बेहद जरूरी
भारत जैसे देश में सस्ती या निःशुल्क शिक्षा जैसे सर्वाधिक महत्व वाले मुद्दे पर जनसाधारण का रुख चौंकाने वाला है। पिछले कुछ समय से पूरे देश में कई विश्वविद्यालयों के छात्र फीस वृद्धि को लेकर उत्तेजित हैं। शासक वर्ग की ओर से इसके प्रति या तो उदासीनता दिखाई जा रही है या फिर इसे राजनीतिक रंग देकर खारिज करने की कोशिश की जा रही है। विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं कर रहे हैं और न ही देश के अन्य युवा और जन-साधारण इस प्रश्न पर बड़ी संख्या में लामबंद हो रहे हैं। बल्कि युवाओं का एक बड़ा हिस्सा दिग्भ्रम का शिकार होकर उल्टे ऐसे आंदोलनों का मजाक बना रहा है। भारत जैसे देश में सस्ती या निःशुल्क शिक्षा जैसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दे पर जनसाधारण की यह उदासीनता चौंकाने वाली हो सकती है।
शिक्षा के स्तर पर सर्वाधिक भेदभाव
आज किसी भी समाज के लिए इतना स्पष्ट और प्रकट भेद किसी और स्तर पर नहीं दिखाई देगा जितना कि शिक्षा के स्तर पर दिखता है। बच्चे के जन्म के साथ ही यह लगभग तय हो जाता है कि उसके माता-पिता की आय के आधार उसे किस तरह की स्कूली शिक्षा मिल पाएगी। किस तरह की शिक्षा से यहां तात्पर्य है कि उसकी पढ़ाई का माध्यम कौन सी भाषा होगी, स्कूल में शिक्षकों के ज्ञान के स्तर से लेकर खेल एवं अतिरिक्त कला-कौशल के प्रशिक्षण जैसी सुविधाएं कैसी होंगीं। उसके सर्वांगीण विकास और आत्मविश्वास के निर्माण के लिए दुनिया देखने-दिखाने का उसमें कितना अवसर होगा। अन्य संस्कृतियों के साथ घुलने-मिलने का कितना अवसर होगा। नवीनतम तकनीकों, अध्ययन-सामग्रियों और प्रयोगशालाओं की व्यवस्था कैसी और कितनी होगी। आधुनिक समय में बेहतर शिक्षा के ये ही मानदंड हैं। आज यही सुविधाएं तय करने लगी हैं कि आगे उच्च शिक्षा के मामले में किस छात्र के किस स्तर तक पहुंच पाने की संभावना है। यही सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी फिर आगे जाकर राजनीतिक और आर्थिक पूंजी बन जाती है यही खाई फिर समाज में शासक-वर्ग और शासित-वर्ग के बीच एक द्वैध को रचती है। इसमें कुछेक अपवाद अवश्य होते हैं, लेकिन ऐसे अपवादों की संख्या, जिन्हें कभी ‘गुदड़ी के लाल’ इत्यादि कहकर संबोधित किया जाता था, कम से कमतर होती जा रही हैं।
भारतीय संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में रखी गई है ताकि भारत की विविधता और संघीय ढांचे को देखते हुए राज्य और केंद्र, दोनों का दखल उसमें रहे। साथ ही, मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शिक्षा और संस्कृति का अधिकार दिया गया है ताकि विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों के लोग अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए शैक्षणिक संस्थान स्थापित कर सकें। इनके अलावा संविधान में अनुच्छेद 21-ए का सृजन कर ‘शिक्षा के अधिकार’ का प्रावधान किया गया। समय-समय पर सरकारों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीतियां बनाईं और पाठ्यक्रमों में संशोधन किए। किसी समय वयस्क शिक्षा पर मिशन के रूप में जोर दिया गया। लगभग दो दशक पहले प्राथमिक शिक्षा को सब तक पहुंचाने के लिए ‘सर्व शिक्षा अभियान’ की शुरुआत की गई। विद्यालयों में उपस्थिति बढ़ाने और पोषण सुनिश्चित करने की दृष्टि से पच्चीस वर्ष पहले ‘मध्याह्न भोजन योजना’ की शुरुआत की गई। छात्रवृत्ति, पोशाक, बस्ता व साईकिल दिए जाने की योजनाएं शुरू हुईं।
लेकिन सच्चाई यह है कि इस सबसे शिक्षामात्र में कोई बड़ा गुणात्मक परिवर्तन देखने को नहीं मिल सका है। आज शिक्षक अपनी कार्यदशा का रोना रोते रहते हैं क्योंकि अब उन्हें न केवल जनगणना, चुनाव, पोलियो और मध्याह्न भोजन जैसी व्यवस्थाओं में लगाया जाता है, बल्कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत सुबह और शाम टॉर्च लेकर जंगल-झाड़ में घूमना पड़ता है ताकि वे खुले में शौच करने वालों को पकड़कर शर्मसार कर सकें। इन विद्यालयों में शिक्षा को समाज निर्माण के मिशन के रूप में न तो सरकारों ने देखा और न शिक्षा से जुड़े लोगों और माता-पिताओं ने। विद्यालयों के प्रति स्थानीय समुदायों में किसी प्रकार के अपनापे या ओनरशिप की भावना नहीं पैदा हो सकी और शिक्षा को यांत्रिक रूप से कागजी कार्रवाई की तरह अंजाम दिया जाने लगा। शिक्षकों की नियुक्ति भी इस प्रकार से की गई कि यह मजाक का विषय बन कर रह गई है। इसलिए आज स्थिति यह है कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चों को इन स्कूलों में नहीं भेजना चाहता। केवल मध्य प्रदेश और हरियाणा में ही हज़ारों सरकारी विद्यालयों को बंद किए जाने की नौबत आ चुकी है। सरकारें इस प्रवृत्ति को अपना खर्च कम करने का एक अवसर मानकर इससे अपना पल्ला झाड़ती रहती हैं।
दूसरी ओर आंकड़े देंखे, 95 प्रतिशत बच्चों की पहुंच प्राथमिक शिक्षा तक है, वहीं उनमें से केवल 40 प्रतिशत ही माध्यमिक कक्षाओं (कक्षा 9-12) तक पहुंच पाते हैं और 10 प्रतिशत से भी कम उच्च शिक्षा के स्तर तक पहुंच पाते हैं। इनमें भी वंचित तबकों का प्रतिशत बहुत कम है। फिर कइयों को बीच में ही शिक्षा छोड़नी पड़ती है। कॉलेज और विश्वविद्यालयी शिक्षा की स्थिति तो और भी विचित्र हो चुकी है। इनमें पठन-पाठन का पूरा वातावरण दशकों पहले ही चौपट हो चुका है। बड़ी संख्या में इनके प्राध्यापकों ने आर्थिक निश्चिंतता, मानसिक निराशा और राजनीतिक प्रपंच में उलझे रहने की वजह से नवीनतम ज्ञान-विज्ञान और शोध से स्वयं को काट लिया है। समय के साथ बेतहाशा वेतनवृद्धि की वजह से इनमें से कई इस व्यवस्था पर बोझ बने हुए हैं। सरकारी विश्वविद्यालयों को नए जमाने की शिक्षा के अनुरूप संसाधन और शिक्षक मुहैया कराने से सरकारें भी हाथ खींचती गई हैं। हमारी उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम, परीक्षा और परिणाम सब कुछ इतने हास्यास्पद हैं कि छात्रों का इन पर से कब का भरोसा उठ चुका है। लेकिन वे करें भी तो क्या, जाएं भी तो कहां, इसलिए सब कुछ जानते-बूझते किसी तरह खानापूर्ति और डिग्री हासिल करने की कवायद चलती रहती है।
यही हालत केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आईआईटी-आईआईएम जैसी संस्थाओं की भी है। इनकी संख्या इतनी कम है कि कुछ प्रतिशत छात्र ही इन तक पहुंच पाते हैं। यानी कि छात्रों का एक बहुत ही छोटा हिस्सा जो किसी तरह उच्च शिक्षा की दहलीज पर पहुंचता है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा इन संस्थानों की दौड़ से पहले ही बाहर हो जाता है। फिर भी फीस इत्यादि कम होने की वजह से कुछेक ग्रामीण और कस्बाई छात्र अपनी मेधा और संघर्ष के बल पर ऐसे संस्थानों में किसी न किसी तरह पहुंच ही जाते थे। लेकिन दिनोंदिन अब इसकी संभावना कम-से-कमतर होती जा रही है। इसके उलट, महंगे निजी विश्वविद्यालयों के चकाचौंध करने वाले इंफ्रास्ट्रक्चर और एजुकेशन लोन देने वाले बैंकों का भरपूर विज्ञापन कर लोगों के मन में यह बिठाया जा रहा है कि वहीं जाने पर उनका भविष्य सुरक्षित हो सकता है। तमाम सरकारी विश्विद्यालयों के शीर्ष पदों पर अकादमिक लोगों के स्थान पर नौकरशाहों की नियुक्ति की गई और उनकी ट्यूशन फी में जबर्दस्त इजाफा किया गया। साथ ही, यह भ्रमजाल पैदा किया जा रहा है कि सरकारी विश्वविद्यालयों में महंगी फीस के बावजूद एजुकेशन लोन लेकर पढ़ना बहुत आसान है।
भारत में भी निजी विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देने यानी शिक्षा को पूरी तरह बाजारोन्मुखी बनाने की कोशिश है। नतीजा आलम यह है कि रिजर्व बैंक के मुताबिक फरवरी 2017 में भारतीय छात्रों पर बकाया एजुकेशन लोन 720 अरब रुपये का था, फरवरी 2018 में दो प्रतिशत गिरावट के साथ यह 705 अरब रुपये हो गया। इनमें से 95 फीसदी लोन सरकारी बैंकों का था। प्राइवेट वित्तीय संस्थाएं गरीब छात्रों को लोन भी नहीं देते। वे केवल कुछ ही सीमित कोर्स और संस्थाओं तक अपने लोन को सीमित रखते हैं जहां केवल एक खास वर्ग के छात्र ही महंगी फीस देकर बाद में अच्छा आर्थिक रिटर्न देने वाली शिक्षा हासिल करते हैं।
महत्वपूर्ण यह भी है कि शिक्षा का मतलब बाज़ारी भेड़ पैदा करना नहीं, बल्कि चिंतनशील और निर्भीक शेर पैदा करना होता है। शिक्षा का व्यापक उद्देश्य ऐसे स्वतंत्र-चेत्ता व्यक्ति का निर्माण करना होता है जो सामाजिक और मानवीय समस्याओं को भी समझने, उनसे जुड़ने और उन्हें सुलझाने की क्षमता रखता हो।
महंगाई का सबसे अधिक खामियाजा भुगत रहीं लड़कियां
आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी शिक्षा का महत्व काफी तेजी से बढ़ रहा है। सरकार का जोर विशेषकर लड़कियों को शिक्षित करने पर है। इससे प्राइमरी व माध्यमिक विद्यालयों तक तो किशोरियां पढ़ लेती हैं, लेकिन आर्थिक विपन्नता के कारण वह उच्च माध्यमिक व उच्च शिक्षा से वंचित हो जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्र के वैसे बच्चों का उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना टूट जाता है, जो तकनीकी शिक्षा, इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट या फिर एमए, पीएचडी करना चाहते हैं। शिक्षा महंगी होने के कारण वे सिर्फ दसवीं-बारहवीं तक ही पढ़ पाते हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव लड़कियों की शिक्षा पर पड़ता है, जिन्हें घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए अपनी शिक्षा की कुर्बानी देनी पड़ती है।
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पप्पाथी स्थानीय कलेक्टर ऑफिस में अस्थाई सफाई मजदूर व सिंगल पैरेंट थीं। द प्रिंट के मुताबिक, उसे महीने के दस हजार मिल रहे थे, जिसमें दोनों बेटा-बेटी का पढ़ाई खर्च उठाने में बहुत मुश्किल हो रही थी। वह बेटे के कॉलेज की 45 हजार रुपए की फ़ीस के लिए पैसे नहीं जुटा पा रही थी। उसे लगा कि उसकी मौत के मुआवज़े से बेटे की फ़ीस के पैसे का जुगाड़ हो जाएगा। पप्पाथी ने बेटे को पढ़ाने के लिए अपनी जान दे दी। यह सिर्फ एक मां के त्याग की कारुणिक और दिल दहलाने वाली कहानी भर नहीं है। यह देश में लगातार महंगी होती शिक्षा के आम गरीबों और वर्किंग क्लास परिवारों की पहुंच से बाहर होते जाने की त्रासद और कड़वी कहानी भी है।
लेकिन यह उन करोड़ों गरीब, वर्किंग क्लास, निम्नवर्गीय और यहां तक कि मध्यमवर्गीय परिवारों की कहानी भी है जो अपने बच्चों की अच्छी और ऊंची शिक्षा के लिए पेट काटकर, जमीन गिरवी रखकर और कर्जे लेकर फ़ीस और दूसरे खर्चे चुकाने और यहां तक कि पप्पाथी की तरह जान देने को भी तैयार हैं। समाजशास्त्री इन परिवारों को “आकांक्षी वर्ग" (एस्पिरेशनल क्लास) कहते हैं जिसे पढ़ाई-लिखाई का महत्त्व पता चल गया है। यह वर्ग समझ चुका है कि उनकी और उनके बच्चों की मुक्ति अच्छी और ऊंची पढ़ाई-लिखाई में ही है। इसके कारण पिछले डेढ़-दो दशकों में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा में दाखिला बढ़ा है, उच्च शिक्षा में पंजीकरण प्रतिशत बढ़ा है, लैंगिक अंतर कम हुआ है। यह एक बड़ी कामयाबी है। लेकिन बढ़ती फीस, बच्चों के साथ उनके अभिभावकों के सपनों को भी कुचलने का काम कर रही है।
आलम यह है कि पिछले कुछ दशकों में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा खासकर इंजीनियरिंग-मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कोर्सेज की फ़ीस और दूसरे खर्चों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है जिसके कारण शिक्षा आम ग़रीब और वर्किंग क्लास परिवारों की पहुंच से बाहर होती जा रही है। यहां तक कि सरकारी आईआईटी और आईआईएम की फ़ीस भी आसमान छू रही है। इससे प्राइवेट यूनिवर्सिटी और संस्थानों की फ़ीस का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उद्यमी और प्रकाशक महेश्वर पेरी ने बीते फ़रवरी में एक ट्विटर थ्रेड में खुलासा किया था कि आईआईएम (अहमदाबाद) की फ़ीस वर्ष 2007 से 2022 के बीच 15 सालों में 4 लाख रूपये सालाना से बढ़कर 27 लाख रूपये सालाना पहुंच गई है जोकि 575 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी है। पेरी के मुताबिक, देश के प्रमुख चार IIM की सालाना औसत फ़ीस 25 लाख रूपये से ज्यादा है जबकि IIT के मैनेजमेंट स्कूल्स की सालाना औसत फ़ीस 12 लाख रूपये से ज्यादा है। यही नहीं अशोका, जिंदल या फिर मणिपाल जैसी प्राइवेट यूनिवर्सिटी, ग्रेजुएट कोर्स के लिये लाना 5 से 11 लाख रुपये तक की फीस लेते हैं।
लगातार महंगी होती जा रही शिक्षा
एक अनुमान के मुताबिक, हर वर्ष शिक्षा करीब 10 से 12 फीसदी की दर से महंगी होती जा रही है। हर शिक्षण संस्थान प्रत्येक वर्ष अपनी फीस बढ़ाते जा रहे हैं। घर के बाकी खर्चों पर महंगाई के बोझ के मुकाबले शिक्षा के क्षेत्र में महंगाई दोगुनी गति से बढ़ रही है। द प्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार, भविष्य में शिक्षा और महंगी ही होगी। उदाहरण के लिए 4 साल की इंजीनियरिंग कोर्स के लिये अभी 12 लाख रुपये चुकाने पड़ते हैं लेकिन दस साल बाद इसी कोर्स के लिये 25 से 30 लाख रुपये के बीच चुकाने पड़ सकते हैं। निजी मेडिकल कॉलेजों में 5 साल के MBBS कोर्स के लिये अभी 50 लाख से लेकर 1 करोड़ रुपये तक की फीस देनी होती है। दूसरा, यह कहने की जरूरत नहीं है कि जब सरकारी इंजीनियरिंग और प्रबंधन और दूसरे प्रोफेशनल डिग्री/पीजी डिप्लोमा संस्थानों की फ़ीस इतनी ज्यादा हो गई है तो प्राइवेट संस्थानों की फ़ीस का कहना ही क्या? उदाहरण के लिए, सरकारी नेशनल लॉ स्कूल यूनिवर्सिटी, बैंगलोर की सालाना फ़ीस 3.2 लाख रूपये (हॉस्टल/मेस सहित) है तो प्राइवेट क्षेत्र के जिंदल लॉ स्कूल की सालाना फ़ीस 8.92 लाख रूपये और सिम्बायोसिस लॉ स्कूल की सालाना फ़ीस 6.2 लाख है। सवाल है कि यह फ़ीस कितने गरीब, वर्किंग क्लास और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार चुका पाएंगे?
शिक्षा पर बढ़ता जा रहा खर्च
सरकारी आंकड़े यानी एनएसएसओ के 75वें चक्र के सर्वेक्षण “हाउसहोल्ड सोशल कंजम्पशन आफ एजुकेशन इन इंडिया” (2017-18) पर गौर करें तो साफ़ दिखता है कि माध्यमिक से आगे की पढ़ाई-लिखाई आम गरीब, वर्किंग क्लास और निम्न-मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुंच से बाहर होती जा रही है। उच्च शिक्षा पहले से ही पहुंच के बाहर हो चुकी है। यहां तक कि प्राथमिक शिक्षा का खर्च उठा पाना भी अधिकांश गरीब और वर्किंग क्लास परिवारों को भारी पड़ रहा है। इस रिपोर्ट को अगर 17-18 में एनएसएसओ की ओर से हुए आवधिक श्रमशक्ति सर्वेक्षण से सामने आये पप्पाथी जैसे अनियमित/अस्थाई (कैजुअल) और दूसरे नियमित श्रमिकों की औसत मासिक आय के साथ जोड़कर देखें तो एक कड़वी सच्चाई सामने आती है कि महंगी होती शिक्षा कैसे आम निम्न-मध्यमवर्गीय और वर्किंग क्लास परिवारों के पहुंच से बाहर होती जा रही है।
इन दोनों सर्वेक्षणों के मुताबिक, शहरी इलाकों में एक अस्थाई मजदूर की औसत मासिक आय का 38 फीसदी तक उसके दो बच्चों की शिक्षा पर खर्च हो जाता है। ग्रामीण इलाकों में अस्थाई मजदूर की कुल मासिक आय का लगभग 15.2 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च हो जाता है। इसी तरह से शहरी नियमित श्रमिक की औसत मासिक आय का 14 फीसदी और ग्रामीण इलाके के स्थाई श्रमिक की आय का 6.5 फीसदी दो बच्चों की शिक्षा पर खर्च हो जाता है। इन दोनों सर्वेक्षणों के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में एक अनियमित/अस्थाई मजदूर की मासिक आय का लगभग 26.5 प्रतिशत उसके दो बच्चों की उच्चतर माध्यमिक और 34.3 प्रतिशत तक स्नातक (ग्रेजुएशन) की पढ़ाई-लिखाई और शहरी इलाके के अनियमित मजदूर की मासिक आय का 56 फीसदी तक दो बच्चों की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पर और लगभग 43.5 फीसदी ग्रेजुएशन की शिक्षा पर खर्च हो जाता है।
ट्यूशन यानी कोचिंग का बढ़ता कारोबार
सरकारी, यहां तक कि प्राइवेट स्कूलों में भी शिक्षा की स्थिति यह है कि स्कूलों की फ़ीस चुकाने के साथ-साथ अभिभावकों को प्राइवेट ट्यूशन पर भी अच्छा-खासा पैसा खर्च करना पड़ता है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा मुफ़्त है लेकिन वहां पढ़ाई-लिखाई का हाल इतना बुरा है कि प्राइवेट ट्यूशन लोगों की मजबूरी हो गई है। एनजीओ- प्रथम की ओर से हर साल जारी होनेवाली स्कूलों की वार्षिक दशा रिपोर्ट (2022) के मुताबिक, कोरोना महामारी के बाद देश भर में प्राथमिक स्कूलों (पहली से आठवीं कक्षा) के उन छात्र-छात्राओं की संख्या में इजाफ़ा हुआ है जो प्राइवेट ट्यूशन ले रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 से 2022 के बीच अखिल भारतीय स्तर पर प्राइवेट ट्यूशन में जानेवाले स्कूली विद्यार्थियों की संख्या 26.4 फीसदी से बढ़कर 30.5 फीसदी तक पहुंच गई है।
दरअसल महामारी के दौरान स्कूलों के बंद होने से बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई के लिए भी लोग अपना पेट काटकर भी बच्चों के लिए प्राइवेट ट्यूशन कर रहे हैं। विडम्बना देखिये कि सबसे गरीब राज्य बिहार में सबसे अधिक 71.7 फीसदी, झारखंड में 45.3 फीसदी, उत्तरप्रदेश में 23.7 फीसदी और असम में 25.3 फीसदी बच्चे प्राइवेट ट्यूशन लेने के लिए मजबूर हैं। यह प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का एक और सुबूत है जिसकी सबसे बड़ी कीमत गरीब और वर्किंग क्लास चुका रहा है। इसी तरह उच्च माध्यमिक और उच्च शिक्षा की बदहाली की कब्र पर पूरे देश में कोचिंग उद्योग फल-फूल रहा है।
द प्रिंट के मुताबिक, देश में कोचिंग उद्योग का आकार बढ़कर 58,088 करोड़ रूपये पहुंच गया है जोकि वर्ष 2028 तक बढ़कर 1,33,995 करोड़ रूपये तक पहुंच जाएगा। कारण यह कि बच्चों को कोचिंग में भेजे बिना अच्छे इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, ला या दूसरे प्रोफेशनल कॉलेजों में दाखिला दिला पाना मुश्किल हो गया है। अब देखा जाए तो कोचिंग की फ़ीस और दूसरे खर्चे इतने अधिक हैं कि आम गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चों को वहां भेजने की सोच भी नहीं सकता है। यहां तक कि अधिकांश मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भी कोचिंग और प्रोफेशनल कोर्सेज की फ़ीस चुका पाना संभव नहीं रह गया है।
इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि अनियमित सफाई कर्मचारी और सिंगल पैरेंट पप्पाथी के लिए मासिक 10 हजार रूपये की तनख्वाह में अपने दोनों बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठाना कितना मुश्किल हो गया होगा कि उसने अपनी जान देने तक का त्रासद कदम उठा लिया। यह एक कड़वी सच्चाई है कि पप्पाथी जैसे लाखों परिवारों के बच्चों के लिए लगातार महंगी होती उच्च शिक्षा सपने जैसी होती जा रही है। उदाहरण के लिए, शिक्षा की महंगाई (मुद्रास्फीति) दर देख लीजिए। बीते जून महीने में जब खुदरा मुद्रास्फीति की दर (सीपीआई) 4.8 फीसदी दर्ज की गई, उसमें शिक्षा की मुद्रास्फीति दर 5.92 फीसदी थी लेकिन शहरी इलाकों में शिक्षा की मुद्रास्फीति दर 6.37 फीसदी थी।
बिजनेसलाइन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जून’2014 से जून’2018 के बीच प्राइमरी और उच्च प्राइमरी शिक्षा की फ़ीस आदि पर खर्चों में 30.7 फीसदी और 27.5 फीसदी की भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसी तरह माध्यमिक कक्षाओं की फ़ीस आदि खर्चों में 21 फीसदी की भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई। स्नातक (ग्रेजुएशन) की शिक्षा के खर्चों में 5.8 फीसदी और स्नातकोत्तर (पीजी) की शिक्षा के खर्चों में कोई 13 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई। लेकिन इंजीनियरिंग से लेकर मेडिकल और दूसरे प्रोफेशनल कोर्सेज की पढ़ाई का खर्च तो आम मध्यमवर्गीय परिवारों की हैसियत से भी बाहर चला गया है।
अभिभावकों और बच्चों की अच्छी और ऊंची शिक्षा हासिल करने के सपने टूट- बिखर रहे
लगातार महंगी होती शिक्षा के कारण पप्पाथी जैसे कितने अभिभावकों और उनके बच्चों की अच्छी और ऊंची शिक्षा हासिल करने के सपने टूट-कर बिखर रहे हैं। यह उस देश के लिए भी एक बड़ी त्रासदी है जहां दुनिया की सबसे युवा और आकांक्षी आबादी है। महंगी होती शिक्षा देश में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी को और गहरा कर रही है। यह देश को जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) की स्थिति से एक जनसांख्यिकीय दुर्घटना (डेमोग्राफिक डिजास्टर) की ओर धकेल रहा है।
कम फीस और ज्यादा गुणवत्ता वाले शिक्षा संस्थानों का होना बेहद जरूरी
भारत जैसे देश में सस्ती या निःशुल्क शिक्षा जैसे सर्वाधिक महत्व वाले मुद्दे पर जनसाधारण का रुख चौंकाने वाला है। पिछले कुछ समय से पूरे देश में कई विश्वविद्यालयों के छात्र फीस वृद्धि को लेकर उत्तेजित हैं। शासक वर्ग की ओर से इसके प्रति या तो उदासीनता दिखाई जा रही है या फिर इसे राजनीतिक रंग देकर खारिज करने की कोशिश की जा रही है। विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं कर रहे हैं और न ही देश के अन्य युवा और जन-साधारण इस प्रश्न पर बड़ी संख्या में लामबंद हो रहे हैं। बल्कि युवाओं का एक बड़ा हिस्सा दिग्भ्रम का शिकार होकर उल्टे ऐसे आंदोलनों का मजाक बना रहा है। भारत जैसे देश में सस्ती या निःशुल्क शिक्षा जैसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दे पर जनसाधारण की यह उदासीनता चौंकाने वाली हो सकती है।
शिक्षा के स्तर पर सर्वाधिक भेदभाव
आज किसी भी समाज के लिए इतना स्पष्ट और प्रकट भेद किसी और स्तर पर नहीं दिखाई देगा जितना कि शिक्षा के स्तर पर दिखता है। बच्चे के जन्म के साथ ही यह लगभग तय हो जाता है कि उसके माता-पिता की आय के आधार उसे किस तरह की स्कूली शिक्षा मिल पाएगी। किस तरह की शिक्षा से यहां तात्पर्य है कि उसकी पढ़ाई का माध्यम कौन सी भाषा होगी, स्कूल में शिक्षकों के ज्ञान के स्तर से लेकर खेल एवं अतिरिक्त कला-कौशल के प्रशिक्षण जैसी सुविधाएं कैसी होंगीं। उसके सर्वांगीण विकास और आत्मविश्वास के निर्माण के लिए दुनिया देखने-दिखाने का उसमें कितना अवसर होगा। अन्य संस्कृतियों के साथ घुलने-मिलने का कितना अवसर होगा। नवीनतम तकनीकों, अध्ययन-सामग्रियों और प्रयोगशालाओं की व्यवस्था कैसी और कितनी होगी। आधुनिक समय में बेहतर शिक्षा के ये ही मानदंड हैं। आज यही सुविधाएं तय करने लगी हैं कि आगे उच्च शिक्षा के मामले में किस छात्र के किस स्तर तक पहुंच पाने की संभावना है। यही सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी फिर आगे जाकर राजनीतिक और आर्थिक पूंजी बन जाती है यही खाई फिर समाज में शासक-वर्ग और शासित-वर्ग के बीच एक द्वैध को रचती है। इसमें कुछेक अपवाद अवश्य होते हैं, लेकिन ऐसे अपवादों की संख्या, जिन्हें कभी ‘गुदड़ी के लाल’ इत्यादि कहकर संबोधित किया जाता था, कम से कमतर होती जा रही हैं।
भारतीय संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में रखी गई है ताकि भारत की विविधता और संघीय ढांचे को देखते हुए राज्य और केंद्र, दोनों का दखल उसमें रहे। साथ ही, मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शिक्षा और संस्कृति का अधिकार दिया गया है ताकि विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों के लोग अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए शैक्षणिक संस्थान स्थापित कर सकें। इनके अलावा संविधान में अनुच्छेद 21-ए का सृजन कर ‘शिक्षा के अधिकार’ का प्रावधान किया गया। समय-समय पर सरकारों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीतियां बनाईं और पाठ्यक्रमों में संशोधन किए। किसी समय वयस्क शिक्षा पर मिशन के रूप में जोर दिया गया। लगभग दो दशक पहले प्राथमिक शिक्षा को सब तक पहुंचाने के लिए ‘सर्व शिक्षा अभियान’ की शुरुआत की गई। विद्यालयों में उपस्थिति बढ़ाने और पोषण सुनिश्चित करने की दृष्टि से पच्चीस वर्ष पहले ‘मध्याह्न भोजन योजना’ की शुरुआत की गई। छात्रवृत्ति, पोशाक, बस्ता व साईकिल दिए जाने की योजनाएं शुरू हुईं।
लेकिन सच्चाई यह है कि इस सबसे शिक्षामात्र में कोई बड़ा गुणात्मक परिवर्तन देखने को नहीं मिल सका है। आज शिक्षक अपनी कार्यदशा का रोना रोते रहते हैं क्योंकि अब उन्हें न केवल जनगणना, चुनाव, पोलियो और मध्याह्न भोजन जैसी व्यवस्थाओं में लगाया जाता है, बल्कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत सुबह और शाम टॉर्च लेकर जंगल-झाड़ में घूमना पड़ता है ताकि वे खुले में शौच करने वालों को पकड़कर शर्मसार कर सकें। इन विद्यालयों में शिक्षा को समाज निर्माण के मिशन के रूप में न तो सरकारों ने देखा और न शिक्षा से जुड़े लोगों और माता-पिताओं ने। विद्यालयों के प्रति स्थानीय समुदायों में किसी प्रकार के अपनापे या ओनरशिप की भावना नहीं पैदा हो सकी और शिक्षा को यांत्रिक रूप से कागजी कार्रवाई की तरह अंजाम दिया जाने लगा। शिक्षकों की नियुक्ति भी इस प्रकार से की गई कि यह मजाक का विषय बन कर रह गई है। इसलिए आज स्थिति यह है कि गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने बच्चों को इन स्कूलों में नहीं भेजना चाहता। केवल मध्य प्रदेश और हरियाणा में ही हज़ारों सरकारी विद्यालयों को बंद किए जाने की नौबत आ चुकी है। सरकारें इस प्रवृत्ति को अपना खर्च कम करने का एक अवसर मानकर इससे अपना पल्ला झाड़ती रहती हैं।
दूसरी ओर आंकड़े देंखे, 95 प्रतिशत बच्चों की पहुंच प्राथमिक शिक्षा तक है, वहीं उनमें से केवल 40 प्रतिशत ही माध्यमिक कक्षाओं (कक्षा 9-12) तक पहुंच पाते हैं और 10 प्रतिशत से भी कम उच्च शिक्षा के स्तर तक पहुंच पाते हैं। इनमें भी वंचित तबकों का प्रतिशत बहुत कम है। फिर कइयों को बीच में ही शिक्षा छोड़नी पड़ती है। कॉलेज और विश्वविद्यालयी शिक्षा की स्थिति तो और भी विचित्र हो चुकी है। इनमें पठन-पाठन का पूरा वातावरण दशकों पहले ही चौपट हो चुका है। बड़ी संख्या में इनके प्राध्यापकों ने आर्थिक निश्चिंतता, मानसिक निराशा और राजनीतिक प्रपंच में उलझे रहने की वजह से नवीनतम ज्ञान-विज्ञान और शोध से स्वयं को काट लिया है। समय के साथ बेतहाशा वेतनवृद्धि की वजह से इनमें से कई इस व्यवस्था पर बोझ बने हुए हैं। सरकारी विश्वविद्यालयों को नए जमाने की शिक्षा के अनुरूप संसाधन और शिक्षक मुहैया कराने से सरकारें भी हाथ खींचती गई हैं। हमारी उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम, परीक्षा और परिणाम सब कुछ इतने हास्यास्पद हैं कि छात्रों का इन पर से कब का भरोसा उठ चुका है। लेकिन वे करें भी तो क्या, जाएं भी तो कहां, इसलिए सब कुछ जानते-बूझते किसी तरह खानापूर्ति और डिग्री हासिल करने की कवायद चलती रहती है।
यही हालत केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आईआईटी-आईआईएम जैसी संस्थाओं की भी है। इनकी संख्या इतनी कम है कि कुछ प्रतिशत छात्र ही इन तक पहुंच पाते हैं। यानी कि छात्रों का एक बहुत ही छोटा हिस्सा जो किसी तरह उच्च शिक्षा की दहलीज पर पहुंचता है, उसका भी एक बड़ा हिस्सा इन संस्थानों की दौड़ से पहले ही बाहर हो जाता है। फिर भी फीस इत्यादि कम होने की वजह से कुछेक ग्रामीण और कस्बाई छात्र अपनी मेधा और संघर्ष के बल पर ऐसे संस्थानों में किसी न किसी तरह पहुंच ही जाते थे। लेकिन दिनोंदिन अब इसकी संभावना कम-से-कमतर होती जा रही है। इसके उलट, महंगे निजी विश्वविद्यालयों के चकाचौंध करने वाले इंफ्रास्ट्रक्चर और एजुकेशन लोन देने वाले बैंकों का भरपूर विज्ञापन कर लोगों के मन में यह बिठाया जा रहा है कि वहीं जाने पर उनका भविष्य सुरक्षित हो सकता है। तमाम सरकारी विश्विद्यालयों के शीर्ष पदों पर अकादमिक लोगों के स्थान पर नौकरशाहों की नियुक्ति की गई और उनकी ट्यूशन फी में जबर्दस्त इजाफा किया गया। साथ ही, यह भ्रमजाल पैदा किया जा रहा है कि सरकारी विश्वविद्यालयों में महंगी फीस के बावजूद एजुकेशन लोन लेकर पढ़ना बहुत आसान है।
भारत में भी निजी विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देने यानी शिक्षा को पूरी तरह बाजारोन्मुखी बनाने की कोशिश है। नतीजा आलम यह है कि रिजर्व बैंक के मुताबिक फरवरी 2017 में भारतीय छात्रों पर बकाया एजुकेशन लोन 720 अरब रुपये का था, फरवरी 2018 में दो प्रतिशत गिरावट के साथ यह 705 अरब रुपये हो गया। इनमें से 95 फीसदी लोन सरकारी बैंकों का था। प्राइवेट वित्तीय संस्थाएं गरीब छात्रों को लोन भी नहीं देते। वे केवल कुछ ही सीमित कोर्स और संस्थाओं तक अपने लोन को सीमित रखते हैं जहां केवल एक खास वर्ग के छात्र ही महंगी फीस देकर बाद में अच्छा आर्थिक रिटर्न देने वाली शिक्षा हासिल करते हैं।
महत्वपूर्ण यह भी है कि शिक्षा का मतलब बाज़ारी भेड़ पैदा करना नहीं, बल्कि चिंतनशील और निर्भीक शेर पैदा करना होता है। शिक्षा का व्यापक उद्देश्य ऐसे स्वतंत्र-चेत्ता व्यक्ति का निर्माण करना होता है जो सामाजिक और मानवीय समस्याओं को भी समझने, उनसे जुड़ने और उन्हें सुलझाने की क्षमता रखता हो।
महंगाई का सबसे अधिक खामियाजा भुगत रहीं लड़कियां
आज ग्रामीण क्षेत्रों में भी शिक्षा का महत्व काफी तेजी से बढ़ रहा है। सरकार का जोर विशेषकर लड़कियों को शिक्षित करने पर है। इससे प्राइमरी व माध्यमिक विद्यालयों तक तो किशोरियां पढ़ लेती हैं, लेकिन आर्थिक विपन्नता के कारण वह उच्च माध्यमिक व उच्च शिक्षा से वंचित हो जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्र के वैसे बच्चों का उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना टूट जाता है, जो तकनीकी शिक्षा, इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट या फिर एमए, पीएचडी करना चाहते हैं। शिक्षा महंगी होने के कारण वे सिर्फ दसवीं-बारहवीं तक ही पढ़ पाते हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव लड़कियों की शिक्षा पर पड़ता है, जिन्हें घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए अपनी शिक्षा की कुर्बानी देनी पड़ती है।
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