प्रधान सेवक प्रज्ञा ठाकुर के बयान से इतने ही आहत हैं तो पार्टी से बर्खास्त क्यों नहीं करवा देते?

Written by Mithun Prajapati | Published on: May 18, 2019
साधो, आम चुनाव लगभग समाप्त होने वाला है। ऐसा लगता है छाती से बड़ा बोझ हट गया। अब तुम पूछोगे कि तुम्हारे छाती पर कौन सा बोझ था? दरअसल साधो, जब भी चुनाव होने वाला होता है एक अजीब सा डर बना रहता है। दंगे होने का डर, रैली में भगदड़ का डर, इसी प्रकार के अन्य डर जो मानवता के लिए तो खतरनाक हैं पर चुनाव हित में हैं। चुनाव के पहले पुलवामा हमले को छोड़ दें तो ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसलिए साधो मुझे लगता है कि छाती से बोझ उतर गया।

पर साधो, इन्हीं सब के बीच बहुत सी बातें ऐसी हुईं जो चर्चा का विषय रहीं और जिनपर चर्चा होनी चाहिए। मैं साहेब के प्रेस कॉन्फ्रेंस की बात नहीं कर रहा। उसपर दूसरे लोग सिर खपायें। मैं भी अंग्रेजी अखबार ' द टेलीग्राफ' की तरह कुछ पंक्तियां छोड़ देना चाहता हूं ताकि जब वे प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ बोलें तो उसमें भर दूं। मैं अन्य चर्चित और मजेदार घटनाओं पर बात करना चाहता हूं। मुझे बड़ा दुःख है कि बेगूसराय से चुनाव लड़ रहे गिरिराज सिंह अपनी सीट बचाने में इतना मशगूल हो गए कि उनका वीजा मंत्रालय बन्द हो गया। चुनाव आरंभ से लेकर अबतक उन्होंने किसी को पाकिस्तान नहीं भेजा। पांच सालों से उन्होंने यह कार्य बड़ी तन्मयता से किया था पर अफसोस कि एक युवक से हार का डर उन्हें अपने मूल कार्य से भटका ले गया। बेगूसराय में एक बड़ी बात यह भी हुई कि जिस तनवीर हसन को देश नहीं जानता था कन्हैया कुमार की वजह से वह भी प्रसिद्ध हो गए।

साधो, अगली घटना जिसका जिक्र होना चाहिए वह बनारस की सीट है। मुझे यहां सबसे ज्यादा आकर्षित कांग्रेस ने किया। अंत समय तक सस्पेंस बनाये रखा कि प्रियंका गांधी चुनाव लड़ेंगी की नहीं। साहेब जोश में थे। सूट बूट सिलवा लिया था कि अब प्रियंका से लड़ाई है। रोड शो के लिए लाखों फूंक दिए भाजपा ने कि अब प्रतिद्वंद्वी मिला है। पर कांग्रेस ने प्रियंका को न उतारकर सब ठंडा कर दिया। कुछ नहीं बचा। अब एक पहलवान अकेला अखाड़े में सिर पटक रहा था। सुनने में तो यह भी आ रहा था कि अरुण जेटली खिसिया गए थे कांग्रेस के निर्णय पर। पर उनके गुस्सा होने का क्या मतलब? 

साधो, मामला तब और मजेदार हो गया जब सपा ने तेज बहादुर यादव को समर्थन दे दिया। यहां लड़ाई टक्कर की थी पर चुनाव आयोग पहली बार सख्त हो गया। चुनाव आयोग को लगा कि बम ब्लास्ट की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर चुनाव लड़ने के काबिल हैं पर बर्खास्त फौजी तेज बहादुर यादव नहीं। यही तो लोकतंत्र की खूबी है। हर आयोग अपने हिसाब से स्वतंत्र चल रहा है। 

बात चुनाव आयोग की चली है तो साधो मैं बताता चलूं कि इस आयोग ने इस आम चुनाव में बैन लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सिर्फ बैन ही नहीं लगाए, क्लीन चिट देने में बहुत से रद्दी कागज भी व्यर्थ किए। सपा के आज़म खान से लेकर साध्वी प्रज्ञा तक पर बैन लगे। बैन तो 'नमो टीवी' पर भी लगा था पर उन्होंने चुनाव आयोग को उतना सीरियसली नहीं लिया। नमो टीवी को पता था चलने के लिए नाम ही काफी है। अपने प्रधान सेवक ने क्लीनचिट की इतनी प्रतियां इकट्ठी कर लीं थीं कि उसे रद्दी के भाव बेच दिया जाता तो एक गरीब माँ का चूल्हा दो दिन तक जल सकता था। 

साधो, वरुण गांधी की बात याद है तुम्हें, जब उन्होंने जूते साफ करने वाला बयान दिया था? छोड़ो जाने दो, भूल जाना ही अच्छा। साधो, वरुण सामने कह रहे थे पर ज्यादातर सवर्ण की यही मानसिकता है कि वे निचली जातियों से जूते साफ करवाएं। मेनका गांधी का अल्पसंख्यकों लेकर दिया गया बयान भी इस देश की जनता की मानसिकता को ही दर्शाता है। जब वह भाषण में अपनी बात कह रही थीं तो सामने जनता ताली पीट रही थी। यह शर्म करने की बात थी। 

साधो, मैं प्रज्ञा ठाकुर के गोडसे वाले बयान की भी ज्यादा चर्चा नहीं करूंगा। यहां सब क्लीयर है कि कौन किस साइड से बैटिंग कर रहा है। गोडसे को देशभक्त बताकर उन्होंने जरूरत भर का वोट बटोर लिया है। उन्होंने माफी मांग ली है पर माफी मांगने से मानसिकता थोड़ी बदलती है। एक मजेदार काम प्रधान सेवक ने प्रज्ञा को माफ न करने की बात करके किया है। साधो, तुम्हीं सोचो, यदि साहेब वाकई आहत हुए होते तो क्या साध्वी के भाजपा में बने रहने पर आपत्ति न दर्ज करा दी होती ! 

अब क्या कहें साधो, हम सब साधु हैं। आओ दूर खड़े हो 23 मई की राह देखें। यह तो साफ दिख रहा कि किसके दिल में गोडसे है बस मुख पर गांधी।

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