व्हाय-रस के असर: साद-प्रतिसाद

Written by medha patkar | Published on: March 24, 2020
पिछले दिनों से दुनिया में एक अनोखा रस फैल गया है। उसका ना स्वाद, न गंध किसी को समझ में आ रहा है नहि कहीं दर्शन भी मिल पा रहा है। रस का असर बाकी ऐसा है कि ‘बस एक चुपकी सी है... दिल में झपकी सी है’ इस गाने की याद आये और गुनगुनाये। इसके असर को प्रतिसाद ही कई सारे व्हायरल हो रहे है। इसके प्रचार-प्रसार के एक नही, अनेक व्हायरस ही तो छाए हुए है, मीडिया पर! उनका प्रभाव ही नहीं, दबाव ही काफी गंभीर हैं। पूरी मानव जाति या तो दैववादी बन जाएगी या तो डरपोक, यह संभावना नकार नहीं सकते! लेकिन संभव यह भी है, कि अंतर्मुख हो जाएगा इन्सान और धर्म, जाति या वर्ग के प्राणी, स्वयं को एक हतबल प्रणी की अवस्था में पाकर विनम्र हो जाएगा। खुद के साथ हितगुज करने का अवसर पाया है, इर्दगिर्द की धड़धड़ाहट बंद हो जाने से, आवाजी प्रदूषण रूकने से, कुछ अंदर की आवाज उसे सुनायी दे सकती है और सोच सकता है वह, नागरिकता की कोई पूर्वशर्त न होते हुए, कि क्या गलती हुई है इन्सान से कि आज प्रकृति के सामने उसे झुकना पड़ा, निराशा-आशा के खेल में जिन्दगी पर का विश्वास खोना पड़ा है।



इन्हीं विचारों के गर्ते में घूमते हुए लगा कि जो चक्र आज रूका है, उसके एकेक आरे पर जो काटे गये हाथों से छलके खून के निशान हैं, उनकी ओर जरा नजर डालें। जरूरी नहीं कि उस खून की तत्काल जांच करें। जरूरी है कि इन्सान के खून की अमूल्यता दिल समझ जाए। आज तक हमारे पडोस में भी हो रहे हमलों ने कईयों की जान ली है। हमारे दिन रात मेहनत करके देश और दुनिया को खिलाने वाले, हर जीवाणु के साथ संघर्ष के लिए शरीर को शक्ती देने वाले किसान ही नही, खेत मजदूर और हर प्रकार का उत्पादन, वितरण और सेवा में जुटे सभी श्रमिक कहां छुटकारा पा सकते हैं, कोरोना नहीं रोना लाने वाली किसी बीमारी से? न उनके पास निजी अस्पताल में जाने की हिम्मत है, नहि शासकीय दवाखाने में होता है उनका सम्मान और स्वागत या उपचार भी! ये ही तो भुगतते हैं डायरिया और टीबी से हर रोज 2000 की मौत! कुपोषण से हर दिन गुजर जाते हैं 3000 बालक! नशा में अपना दुखदर्द डूबोना चाहने वाले मात्र तंबाखू गुटखा से ही रोज गंवा देते है एक दिन में 2000 से अधिक जीव! तो शराब की एंट्री तो हर अवयव पर आक्रमण करते हुए शरीर को खोखलेपन से मृत कर देती है, और साल भर में 10 लाख लोग देश के इस कगार पर धकेले जाते हैं। इस तरह के सारे असर किसी अचानक उभरे या दूर देश से पधारे जीवाणू से नहीं, अपने ही घर की गंदगी कहों या बेरहमी, उसको पाले पोसे जा रहे कीटाणू से ही तो है। आज समाजवादी राममनोहर लोहिया ओैर शहीद-ए-आझम भगतसिंग की जयंती और शहादत दिवस एक साथ मनाने वाले ही नहीं, सभी सभी भारतीय जानते हैं कितनी भयावह रूपसे छायी है गैरबराबरी! इसी से तो जानें जा रही हैं, हमें छोड़कर! बच गये तो जान दे भी रहे हैं किसान, परिवार को कर्जहत्या से बचाने के लिए स्वयंस्फूर्त! एक कोरोना के बलि शवपेटीयों में सोते हुए, उन्हे श्रद्धांजली दी जा रही है, इटली में और वहां भी दफन के लिए पर्याप्त जगह नहीं बची है... तो क्या हमारा देश नही दे सकता अपनी कार्यांजाली ... नीतिया बदलकर, दूरियाँ पार कर, समता को अपनाकर? अगर हम देखें सत्ताचक्र की धुन में खोये सत्ताधीशों को ही नहीं, अपने आपको भी कि कितनी संवेदना जीवित है आज हमारे मन में, इन तमाम बलि जानेवालों के लिए? कौनसा कर्तव्य, कितना कर्तव्य हथेली पर लेकर इन ग्रस्तों के लिए खड़े हैं हम? कोरोना के आक्रमण की संभावना से जितने, उसके एक शतांश झकझोरना भी महसूस कर रहे हैं हम? या हमारे मुंह के साथ आंख और कान पर भी लगा बैठे है हम, एकेक रंगीले मास्क को?

कोरोना के भय की खबर हवाई मार्ग से पहुंचते ही हमारे अस्पताल खुल गये, नये बेडस लगे और शासकीय रेस्ट हाउसेस, जो कि नेताओं के लिए कम से कम उपयोग के साथ बहुतांश दिन आरक्षित रहते है, अब आरक्षित हो गये है, ‘संभाव्य’ मरीजों के लिए। बाकी कानून के बावजूद कहाँ, कितने होते हैं आरक्षित बेडस हमारे गरीबों के लिए, आज ही तडपते मरीजों के लिए? शासन से कितने लिये जा रहे हैं, निर्णय धड़ल्ले से और कितने हो रहे है ऐलान, सफाई के साथ साथ सुरक्षा के?  नई दिल्ली के पूर्व हिस्से में जाफराबाद हो या चांदबाग, जब जान क्या, पीढियों की जीविका पर भी, कोई छोटा अदृश्य जीवाणू नहींए, हट्टे कट्टे इन्सान हमला कर रहे थे, तब कहां थे हमारे शासनकर्ता? क्या किसी ने घंटी बजायी? हिंसा ज्वर के फैलने की ग्वाही दी या जिनके हाथ में सौप दी देश के भलेभले ने लगाम, कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए उन्होंने किया कोई ऐलान? लाँकडाउन कभी घोषित हुआ, उस उत्तरप्रदेश से प्रवेश करते हुए हमने देखे हिंसक युवाजत्थों के खिलाफ? नहीं!

हाए आज जब कि कार्यालय ही नहीं, कारखाने भी बंद हैं और बाजार भी, फिजूल खर्च शायद कम होंगे धनिक खरीददारों के लेकिन हमारे श्रमिकों के स्वयं रोजगार के तहत चल रहे कार्य नहीं केवल, कमाई भी रूक जाएगी, तो उन्हें हाउसअरेस्ट जैसी स्थिति में क्या कोई खिलाएगा खाना? निश्चिंती देगा कोई किसी फेरीवाले की, नाई या चमार की आगे चलेगी आजीविका और बनी रहेगी ग्राहकों की कतार, इसकी? मजदूरों को खेतों तक पहुंचने से रोकने वाले क्या हिसाब लगाएंगे, किसान और मजदूर, दोनों की आमदनी पर हुए असर का? भरपाई देंगे कोई? न नोटबंदी के दौरान हुए मौतों की भरपाई मिली है, नहि डिटेन्शन कॅपस में गई जानों की। लेकिन अतिवृष्टी सूखाए या बाढ़ से बरबाद हुई आजीविका या अ-मानवीय हिंसा की नुकसान भरपाई कभी मिल पायी है, पर्याप्त? ये तमाम मुश्किलें भुगतने वाले करोड़ों लोगों से अपेक्षा होती है कि वे भूल जाएं और लग जाएं अपने मकबरों की ईटें निकालकर सहारा खड़ा करने में।

आज कोरोना ने फिर भुला दिया है, हमारे इन सारे व्हायरसों को, जो जिंदगी काटते रहते आये है। उनमें से कई तो कोरोना से भी संबंधित है। कोरोना के प्रचार में आ रही नयी नयी कारण मीमांसा देखे तो पता चलेगा। जीवन प्रणाली और विकास प्रणाली के कई पहलू ही है इस नये (?) व्हायरस की नीव में। वैसे यह वायरस , इसी नाम से ‘आधुनिक जंतु विज्ञान’ की पुस्तिका में दर्ज है और इन जीवाणूं पर साधा सरल इलाज का भी वहा जिक्र है। साधारण जुकाम लाने वाला एक व्हायरस र्हिनोवायरस और दूसरा कोरोना व्हायरस... जिस पर दवा है आस्पिरिन, एन्टीहिस्टमिन और नोजल स्प्रे। इसमें भी 7 दिनों तक लक्षण बने रहने का, दरवाजे का हैंडल आदि पर जन्तु लगे तो उससे बचने का तथा हवा में खासने, छीकने से संक्रमित होने का, श्वसइन्द्रियों की तकलीफ का जिक्र है। अब क्या दुनिया में जलवायु में हुआ वैसा इस व्हायरस में कुछ परिवर्तन हुआ है? COVID – 19  परिवर्तित व्हायरस कैसे हुआ उत्पन्न?

दूसरी ओर प्रसिद्ध तत्वज्ञ स्टाइनर की प्रेरणादायी जीवन को मंजिल माननेवाले कोलमन का भाषण वीडियो द्वारा बता रहा है कि रेडियोएक्टिव यानि उत्सर्जक लहरी और व्हायरस का संबंध है। स्पेन में 1918 में आये व्हायरस से कोरोना तक। शरीर पर बढती मात्रा में धातु की चीजें धारण करने वाले इन बदलती नयी उत्सर्जक स्थितियों को सहन नही कर पाते हैं। इस बार वुहान का शहर 5जी की लहरों को सबसे पहले प्रसारित कर पाया था कि यह व्हायरस निकल आया। हमारे हाथ में, गले में, जेब में कई प्रकार की उत्सर्जन के स्त्रोत जबकि बने रहे हैं, उनके शरीर पर क्या, मनभर भी क्या क्या असर हो रहे है, इस बहुशास्त्रीय वृति से शोध उनसे हमारे की जरूरत मात्र कोरोना से या किसी अणु उर्जा पर बढती चर्चा से नही निपट सकती है। पहिले ही, पांच गुना बढते ‘जी’ का प्रभाव, हवा ही नही, शरीर की तैयारी और मर्यादा के मद्देनजर पूरी प्रकृति पर क्या है और क्या नहीं, इसे उर्जा प्रयोगों के स्त्रोतों के तुलनात्मक अभ्यास के साथ जोड़कर ही जानना होगा। वह तत्काल नहीं हो सकता। फिर भी... इलेक्ट्रोएक्टिव्हिटी की फ्रीक्वेन्सी याने गतिमानता, उसका शरीर की पेशी पर असर, अंतराल में आज 1 लाख उपग्रह छोड़कर बढाये गये संचार के बाजार की हम चुका रहे है, वह कीमत कितनी और किस प्रकार की इस पर अभ्यास तो जरूरी है ही। इस कोरोना के पहले आये ऐसे ही लागन की बीमारी का जो कभी स्पेन में आयी तो कभी अमरिका में... कभी कोई फ्लू- बुखार तो कभी व्हायरस कहलायी, कभी किसी पंछी से कभी  जानवर से रिश्ता दिखाकर समझायी गयी, उसका इस प्रकार की नयी रेडिओएक्टिव्हिटी से कितना संबंध था, यह भी जाचना जरूरी है। हमारे हाथ और जेब में रहे मोबाईल्स, कोरोना के कारण करो ना काम, ना धाम, ना कार्यक्रम, ना कार्यालय ना बाजार, ना सफर... के आदेश के चलते निश्चित ही अधिक से अधिक एक्टिव्ह हो रहे है... (उनका बाजार, चॅनेल्स का टीआरपी तो बढ रहा है, न केवल चल रहा है!) तो उस व्हायरस के व्हायरल हो रहे प्रचार प्रसार का असर भी तो नापना, तौलना होगा ही आज नही तो कल।

शरीरशास्त्र और पर्यावरण के बीच चलते रिश्ते नातों की बात भी कोरोना के परिप्रेक्ष्य में नया रूप लेकर सामने आयी है। मनुष्य अपनी उर्जा, अपनी सोच, अपने सपने और उन्हे साकार करने के सारे तंत्र, मंत्र धूमधाम से लगाते जा रहा है, प्राकृतिक संसाधनों की पूंजी पर। उसमें न केवल जमीन, पानी, पहाड़, नदी, रेत है, बल्कि जीवजंतुओं से भरा है यह अवकाशए जिसे खाद्य के अलावा, क्वाचित्त ही देखती है मनुष्य जाति। अपनी विशेषता वह मानती है, हावी हो जाने पर, उस प्रकृति को उपयोग ही नही उपभोग में लेने पर। एक जेसीबी मशीन से उत्खनन या एक बहती नदी पर बंधन, एक वेटलैंड या समुद्र में भराव या किसी खेती की जमीन पर इमारतों का जंगल... सारा कारोबारए जो विकास के नाम पर चलता है, वह रौंधता आया है, प्रकृति में शामिल हम जीवितों के ही उन परिवारजनों को जो चूपचाप अपने अपने कार्य करते रहे, जीवन को बरकरार और चलताफिरता रखते रहे। कौन थे ये लाखोंलाख धरती के ही पुत्र या मित्र... न केवल बांध या  शेर बल्कि बीज परिवहन, भूतत्व संरक्षण, हवा प्रदूषणमुक्ति आदि कइ सारे कार्य करने वाले जीव और पेड़, जंगल भी, आक्सिजन की पूर्ति और कार्बन डायोक्साइड से मुक्ति दिलाने वाले। इन सबका अवकाश छीनता या उजाड़ता रहा मनुष्य अब कोरोना के डर से रूक गया है, तो जरा सोचे कि कितना निर्माण और किसकाए किसके लिए निर्माण हो रहा है घ् कितना संचार चल रहा हैए कितना पर्यटन विस्थापन पर्यटन के नाम? हिन्द स्वराज में गांधीजी ने दिया संदेशए स्थानिकत्व काए कौन मान रहा है? जरूरत और उपभोग के बीच का फर्क जानकर गहराई से देखे... कितनी बदल गयी है दुनिया!

प्रसार माध्यमों पर दिखाई दे रहा है कि एयरपोर्ट के भरबीच जहाँ इन्सान को भी चलने नहीं देतेए वहाँ चल रहा है पंछी परिवार! डालफिन भी मनुष्य ने किनारा मुक्त करने पर, गर्दन उठाकर वहां पहुच गये है। कितने जीवए जो अंदर थे, हो गये है बाहर, अपना अस्तित्व जाहीर करने। पेड़ पौधे, जैव विविधता के विनाश से कराहतजी आवाज तो नही सुन सकेगे हम, लेकिन जानना, समझना कठीन है क्या? बच्चे और युवा ‘नेट’ से तो बुजुर्ग अपने अनुभव जाल से खेजे तो मिलेगा खजाना, इतिहास और भविष्य को जोडने वाला! अब समय है जब हम हो गये है अंदर, दीवारों के बीच, तब जेल में जाने पर हम शुरू करते रहे है, सोचना, लिखना वैसे ही हो जाए, विकास की अवधारणा पर। प्रकृति के, न केवल जलवायु के परिवर्तन पर और अर्थात बारबार उठता रहा व्हायरस, सुनामी या सूखा - बाढ पर भी! नदी की धारा का जल चक्र ही नही, जीवनधारा का जीवचक्र पूर्ण रूप से टूट जाने से पहले!!

कोरोना के प्रभाव में हम धुंध है और न्यायालय से शासकीय कार्यालयों तक बंद है तो कई सारे कार्य, कुछ न्याय दिलाने के तो कई अन्याय ढोने वाले भी रूके हुए है। गरीब बस्तियों को उजाड़ने से कुछ मुक्ति मिली होगी तो भी उन्ही को रोजगार से मिली है छुटटी। जो नौकरी नहीं करते ऐसे स्वयं रोजदारी पर निर्भर किसान, अपना सब्जी, अनाज बाजार तक नही ले जा सके और मजदूर खेतों तक नही पहुचे, कोने पर खड़े रहकर रोजगार ढूंढ नही पाये तो जीएंगे कैसे, बिना बैंक बॅलन्स, बिना एटीएम और पेटीएम वाले? क्या ‘कोरोना पर पूरी सुरक्षा’ के दावों में इनके लिए रोजगार सुरक्षा अन्न और आवास सुरक्षा भी शामिल है? नही!

कोरोना के प्रभाव में हम भूले तो नही कि पूरा देश रोजगार खत्म करने वाले निजीकरण, वैश्विकरण के निर्णयों को भुगतने की स्थिति में है? एक कानून के द्वारा नागरिकता के मुद्दे पर कटघरे में खड़ा किया जाना है, संविधान से समाजवाद और सर्वधर्म समभाव के मूल्य का संविधान से उच्चाटन चाहने वाले विधेयक संसद में भाजपा द्वारा पेश किये जाने पर चकित है? श्रम कानून हो या पर्यावरणीय, जनवादी कानूनों में जनविरोधी परिवर्तन भुगत रहे है और भुगतने जा रहे है हम? इनमें तभी कितने प्रकार के विदेशी व्हायरस हम खोज पाये है? किस प्रकार के परीक्षण से हम सफल हो सकते है इस कार्य में? इस आर्थिक दुरवस्था से जर्जर है हमारा देश और विदेशी अनुबंधो में, कही चीन, कही जापान, तो कही अमरिका... हर एक का हमसे जुड़ा बाजारए धोखे में डालेगा यह निश्चित? क्या कोरोना हमें घर में समय, दूसरो से स्वतंत्रता के साथ स्वदेशी का संदेश भी दे नही रहा है? किसी की झोमैटो,  स्विग्गी से छुटका तो किसी की चमक धमक की शादियों से छुटका हो सकती हैं? भले यह एक खेल भी क्यो न होए चीन और अमरीका के बीच का.. अब सबके बाजार हो रहे है ना प्रभावित? हम क्यों नही बचे, न केवल उनसे फैले आजार से बल्कि हमें ऐसे स्पर्धा में खीचने, मात करने वाले बाजार से भी?

अब यह सब करना है तो ताली या थाली बजाकर नही बनेगा विश्वास... हमारे जनसेवकों पर। जनता और जनसेवकों के बीच जरूरी है दूरी खत्म होना हमें चाहिए वैचारिक खाद्य, विज्ञान के साथ साथ विकास की भी मर्यादा का, तकनीक की चुनौती का, प्रकृति और मानव के बीच रिश्ते का! मात्र अगला कदम ही नही, मंजिल भी ढूढने के लिए। हमें चाहिये, हमारे आपसी रिश्तों में मानवीयता के बंधन को सुरक्षित रखने वाली हर क्रिया... हस्तांदोलन या आलिंगन भी। आंदोलन को भी दबा रही है यह कोरोना की बंदिश, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक से तो बिखर जाएगी, जनतंत्र की तस्वीर! जरूरी है कि बनी रहे यह दबी दबायी शक्तिए छुपे जीवनरस की तरह! सांप्रदायिकता, भेदभाव का, नया खतरनाक व्हायरस मिटाने के लिए। हमें चाहिये भयमुक्ती, हर व्हायरस से बचने के लिए... जिसके लिये जरूरी है, हमारी आवाज का फिर व्हायरल होना... ‘हमें चाहिये आजादी’। किसकिससे, कैसी प्रणाली से? सोचिये जरुर!

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