मायावती ने NDA VS INDIA से क्यों बनाई दूरी?

Written by रवि शंकर दुबे | Published on: July 19, 2023
देश में एनडीए और ‘इंडिया’ के बीच राजनीतिक लड़ाई तय होने के बाद मायावती अकेली मैदान में उतर आई हैं।



18 जुलाई 2023... लोकसभा चुनाव 2024 के लिए इस तारीख़ ने सियासी गलियारों में अपनी ऐतिहासिक मौजूदगी दर्ज करवा दी। इस दिन 2004 में बना 19 साल पुराना यूपीए यानी ‘यूनाइटेड डेमोक्रेटिक अलायंस’ ख़त्म कर 26 पार्टियों की मदद से ‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस ) बना दिया गया। तो दूसरी ओर अकेले मोदी के नाम का दम भरने वाली भाजपा ने अपने खेमें में 36 दलों को शामिल कर लिया।

यानी यूं कह सकते हैं कि 36 दलों वाला एनडीए और 26 दलों वाला ‘इंडिया’ आने वाले लोकसभा चुनाव में आमने सामने होगा। इस पूरे मसले में एक सवाल ये था कि दोनों गठबंधनों ने मिलकर 62 दल इकट्ठा तो कर लिए लेकिन यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर अपनी अच्छी-खासी दख़ल रखने वाली मायावती किसके साथ हैं? तो इसका जवाब उन्होंने 19 जुलाई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के ज़रिए दे दिया।

मायावती ने साफ कर दिया कि उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) न तो भाजपा के एनडीए के साथ है और न ही कांग्रेस के ‘इंडिया’ के साथ। यहां तक उन्होंने आने वाले राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और तेलंगाना के विधानसभा चुनावों में अकेले लड़ने का दम भी भरा।

साथ ही साथ कांग्रेस और भाजपा दोनों ही मायावती के निशाने पर रहीं। सबसे पहले उन्होंने कांग्रेस को आड़े हाथों लिया और कहा कि कांग्रेस गठबंधन की राजनीति करती है, उनका जातिवादी दलों के साथ गठबंधन है। तो बीजेपी के दावों और वादों को खोखला बता डाला। इसके अलावा मायावती ने कहा कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने केंद्र में रहते हुए कभी कोई ठोस काम नहीं किया है। महज़ बसपा अकेली है जो दलितों और वंचितों के लिए काम कर रही है, अगर बसपा केंद्र की सत्ता में आती है तब भी और नहीं आती है तब भी वंचितों और दलितों के लिए काम करती रहेगी।

ख़ैर.. लोकसभा में मायावती का अकेले मैदान में उतरने वाले तर्कों को समझना ज़्यादा मुश्किल नहीं है, क्योंकि साल 2019 में बसपा ने सपा के साथ गठबंधन किया था और 10 सीटों पर जीत हासिल की थी, तब ख़ुद मुलायम सिंह यादव ने उनके लिए प्रचार किया था। जबकि इस बार सपा ‘इंडिया’ का हिस्सा हो चुकी है, यानी मायावती पड़ गई हैं अकेली। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि मायावती अभी तक इंतज़ार कर रही थीं, कि सपा या कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी उन्हें सामने से ऑफर करें। कहने का मतलब ये कि मायावती किसी एक पार्टी के साथ तो लोकसभा के लिए गठबंधन कर सकती हैं, लेकिन कई पार्टियों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से उनकी सीटों में कमी आने का डर होगा। क्योंकि उत्तर प्रदेश के अंदर कांग्रेस और सपा कम सीटों पर मानने वाली नहीं है, और मायावती को अपने पिछली 10 सीटों को बचाए रखने की चुनौती तो होगी ही। शायद यही कारण है कि उन्होंने चुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया है।

हालांकि मायावती के इस फैसले के पीछे कारण जानने के लिए हमने उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान से बात की, उन्होंने बताया कि अब मायावती के पास कोई च्वाइस नहीं बची है, वो भाजपा की ईडी और सीबीआई वाली तथाकथित कार्रवाई से इतना ज़्यादा डर चुकी हैं, कि उनके सामने नतमस्तक हो चुकी हैं। अगर पिछले दो साल को उठा कर देखें तो मायावती वही काम करती हैं जो भाजपा को फायदा करे।

हमने सवाल किया पिछली बार तो मायावती अखिलेश के साथ गई थीं, और उन्हें अच्छी सीटें भी आई थीं, फिर इस बार क्यों सपा का साथ नहीं मांगा? इस पर उन्होंने जवाब दिया कि मायावती ने पिछली बार अखिलेश के साथ धोखा किया था, उन्होंने सिर्फ गेस्टहाउस कांड का बदला लिया था। यही कारण है कि सपा को कम और ख़ुद ज़्यादा सीटें रखी थीं।   

शरत प्रधान ने मायावती के अकेले चुनाव लड़ने और चुनाव से पहले अचानक बाहर आ जाने के पीछे एक फैक्टर और बताया। उन्होंने कहा कि यह खुला आरोप है कि बसपा में खुलेआम टिकट बिकते हैं, शायद एक या दो करोड़ रेट चलता है, जो इन्हें आसानी से मिल जाता है। बाकी इन्हें पता ही है कि वोटबैंक भाजपा में खिसक चुका है।  

मायावती के साथ पिछले चुनाव की साथी सपा के पूर्व राज्यसभा सासंद रवि वर्मा से हमने इस बारे में बात की, उनका कहना था कि मायावती जनाधार से पूरी तरह कट चुकी हैं, उन्हें ये भी नहीं पता कि उनके कार्यकर्ता क्या चाहते हैं, जनता मायावती को किस रूप में देखना चाहती है? वो सिर्फ चुनाव से पहले बाहर निकल कर आती हैं और बोलकर चली जाती हैं। ताकि लोगों को पता रहे कि बसपा भी कुछ है।

वैसे तो मायावती ने लोकसभा चुनाव और छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान में विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने की बात कही है, लेकिन उन्होंने पंजाब और हरियाणा के क्षेत्रीय दलों के साथ जाने का विकल्प अभी खुला रखा है, हालांकि उन्होंने एक शर्त ये रखी है कि उसी पार्टी के साथ जाएंगी जो एनडीए या ‘इंडिया’ का हिस्सा नहीं होंगी।

मायावती ने ऐसा क्यों कहा? क्योंकि मायावती को पंजाब में एक विकल्प शिरोमणि अकाली दल के रूप में दिखाई पड़ रहा है, और इन दोनों पार्टियों का गठबंधन भी पहले से ही रहा है। ऐसे में बहुत हैरत वाली बात नहीं होगी कि पंजाब में शिरोमणि अकाली दल और बसपा एक साथ आ जाएं।

हालांकि पंजाब में मायावती गठबंधन कर अपने पैर पसारने की कोशिश इसलिए भी करना चाहती होंगी, क्योंकि 25 साल बाद यानी 2022 के विधानसभा चुनाव में उन्हें यहां एक आस मिल गई थी, नवां शहर के रूप में, बसपा ने यहां से डॉ. नक्षत्र पाल को प्रत्याशी बनाया था और वो जीते भी थे। दरअसल हम 25 साल की बात इसलिए कह रहे हैं क्योंकि पंजाब में बसपा का खाता आखिरी बार साल 1997 में खुला था, तब भी पार्टी ने 67 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, लेकिन महज़ एक पर जीत मिली थी, इसी तरह साल 1992 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 105 प्रत्याशी उतारे थे और उन्हें 9 सीटों पर जीत हासिल हुई थी।

पंजाब के अलावा बसपा ने हरियाणा में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन का रास्ता खुला रखा है, तो ये जानना भी ज़रूरी है यहां उनका प्लान क्या है और भूतकाल में उनकी पार्टी का प्रदर्शन कब और कैसा रहा है। बसपा ने 1991 के विधानसभा चुनाव में यहां पहली बार अपने प्रत्याशी उतारे थे। इस चुनाव में बसपा 26 सीटों पर लड़ी थी और एक जीत भी गई थी। उसके बाद से अब तक पार्टी लगातार चुनाव लड़ती है। 1996 के चुनाव में ही ऐसा मौका आया जब बसपा का कोई विधायक नहीं जीता, इस चुनाव में उतरे तो बसपा के 67 प्रत्याशी थे, लेकिन 61 की ज़मानत भी नहीं बची थी। हालांकि 1996 को छोड़ दें तो हर चुनाव में बसपा का एक विधायक बनता आ रहा है।

हरियाणा में पार्टी का अच्छा खासा कैडर है, बावजूद इसके मायावती कुछ ज्यादा करिश्मा नहीं दिखा सकीं। पार्टी एक ही विधायक तक सीमित है। 2014 विधानसभा चुनाव में पृथला से टेकचंद शर्मा बसपा विधायक बने थे। वो ज्यादा दिन तक केंद्र की सत्ता के मोह से दूर नहीं रह सके और भाजपा के साथ उनकी नजदीकियां बढ़ गईं। नतीजा ये हुआ कि बसपा ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया, और उन्होंने विधानसभा के मानसून सत्र के दौरान भाजपा का दामन थाम लिया। 2009 में जगाधरी से अकरम खान बसपा विधायक चुने गए थे। उन्होंने विधानसभा में कांग्रेस को समर्थन दिया और डिप्टी स्पीकर बने। अब वो कांग्रेस में हैं। कुल मिलाकर 1996 के विधानसभा चुनाव छोड़ दिए जाएं तो बसपा ने हर चुनाव में अपना एक विधायक ज़रूर बनाया है। वहीं इनके गठबंधन की बात करें तो 1998 में इंडियन नेशनल लोकदल के साथ गठबंधन किया, बाद में तोड़ा दिया। फिर 2009 में कुलदीप बिश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, बाद में इनकी राहें भी जुदा हो गईं। वहीं मई 2018 में फिर इंडियन नेशनल लोकदल के साथ गठबंधन किया, लेकिन ये एक साल भी नहीं चला। क्योंकि जींद उपचुनाव में करारी हार के बाद बसपा को इनेलो का अस्तित्व खतरे में नजर आने लगा था। वहीं इनेलो के साथ गठबंधन तोड़कर फरवरी 2019 में राजकुमार सैनी की लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी का साथ पकड़ा, लेकिन कुछ महीने बाद गठबंधन खत्म हो गया। लोसुपा के बाद बसपा ने 11 अगस्त 2019 को जजपा के साथ गठबंधन किया, लेकिन पार्टी यहां भी किसी का साथ निभा नहीं पाई और 6 सितंबर 2019 को जजपा से भी नाता तोड़ दिया। फिलहाल पार्टी अकेली है, लेकिन आगामी चुनावों के लिए साथी ढूंढ रही है।

अब अगर इस बात पर ग़ौर करें कि ऐसे बयानों के ज़रिए मायावती की राजनीतिक हसरत कितनी ज़्यादा समझ में आती है, तो इसका थोड़ा बहुत जवाब राजनीतिक विश्लेषकों और अन्य पार्टी के लोगों ने दे ही दिया। लेकिन इस बात से भी नकार नहीं सकते कि मायावती और उनकी पार्टी जनाधार लगातर फर्श पर आ रहा है, जिन वोटरों की राजनीति वो किया करती थीं, वो बड़ी संख्या में भाजपा या अन्य दलों की ओर सिमट गए हैं, इनके राजनीतिक प्रेरणास्रोत बाबा साहब अंबेडकर पर भी सपा और भाजपा दावा ठोकने में लगे हैं। सबसे अहम यह कि अपने कार्यकर्ताओं से मायावती का संवाद बहुत कम हो चुका है। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि बसपा के लिए मौजूदा वक्त में सबसे अहम अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करना है, और अपने कोर वोटरों को फिर से ये समझाना है कि वो अस्तित्व में है, और शायद यही मायावती की सबसे बड़ी ज़रूरत हो सकती है।

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