बसपा की राजनैतिक चुनौतिया

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: July 19, 2017
आज श्री राम कोविंद भारत के नए रास्त्रपति घोषित हो जायेंगे . हिंदुत्व के प्रहरी उनकी ताजपोशी को भारतीय लोकतंत्र के विजय उत्सव बताएँगे जहाँ दलितों को सारे अधिकार मिल चुके हैं और उनसे ज्यादा दलितों की चिंता कोई नहीं करता और आने वाले समय में यही सबसे बड़ा प्रश्न होगा के दलितों के सबसे बड़ा हितैषी होने का दावा करने के बाद ये लोग दूसरो को बोलने भी नहीं देंगे . मैं राम कोविंद जी की क्षमताओं और योग्यताओं पर नहीं बात कर रहा क्योंकि उनका भी एक राजनैतिक करियर रहा है लेकिन हकीकत बात यह है अगर माननीय कांशीराम जी का आन्दोलन नहीं होता तो आज मीरा कुमार और राम कोविंद जी राष्ट्रपति पद की होड़ में नहीं होते . इसलिए कई बार आन्दोलनों के सीधे असर नहीं होते लेकिन वे पूरे राजनीती की दिशा तय करते हैं .

Mayawati PTI
Image: PTI

कांशीराम जी की राजनीती को बदलने के बाद अब कोशिश हो रही है के उनकी सहयोगी सुश्री मायावती को पूर्णतः नाकारा और भ्रस्ट साबित कर दिया जाए . कल राज्यसभा में जो हुआ वो यही इंगित करता है के किस तरह भाजपा का नेतृत्व इस समय किसी भी व्यक्ति को पार्लियामेंट में बोलने नहीं देना चाहता . मैंने बहुत पहले लिखा था के ये संजय गाँधी के गुंडों की फौज दिखती है जिसका काम विपक्षियो का मजाक उडाना और उनको ये बताना के जनता हमारे साथ है और आपका तो सफाया हो चूका है . क्या चुनाव में हारने और जीतने से हमारे अधिकार ख़त्म हो जाते हैं ? क्या चुनाव की जीत से आपके भ्रस्ताचार या दंगो, बलात्कार के आरोप ख़त्म हो  जाते हैं क्योंकि जनता ने आपको चुना है ? बेहद शर्मनाक बात है के जब संसद को सब काम छोड़कर देश में दलित, अकलियतो, मजलूमों के उपर लगातार अत्याचार हो रहे हैं उस पर सांसदों को बोलने नहीं दिया जाता . सुश्री मायावती केवल के राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्षा नहीं अपितु चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और आश्चर्य की बात है के उन्हें तीन मिनट में अपनी बात रखने को कहा जाता है . ये हमारी संसद की प्राथमिकताओ को भी दर्शाता है . क्या हमारे संसद देश में मच रहे कोहराम पर बोलेंगे जब देश के किसान जंतर मंतर पर आकर अपनी व्यथा सुनाना चाहते हैं तो कोई सुनने को तैयार नहीं है . जाति और धर्म के नाम पर देश इतना अधिक कभी नहीं बंटा जितना आज दिखाई दे रहा है . लोग कहते हैं के भारत के एक रहने की एकमात्र गारंटी है के संविधान का ईमानदारी से बिना रागद्वेष के पालन करवाना और उसके लिए कार्य पालिका होती है लेकिन क्या आज के हालत में हम प्रशासन की व्यस्थाओ पर भरोषा कर सकते हैं ?

अभी खबर आ रही है के सरकार केंद्रीय प्रशासनिक सेवाओं में प्राइवेट सेक्टर के लोगो और ‘सामाजिक कार्यकरताओ’ को भी रखना चाहती है  और इसके लिए कानून में संशोधन की बात कही है . इसके क्या मतलब है ? सरकार का अजेंडा साफ़ है वह दलितों को जुमलो में फंसाना चाहती है लेकिन जब उनके अधिकार्रो की बात आएगी तो वो उनको ब्राह्मणवादी क्रियाकलापो में फंसाना चाहेगी . ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ के नाम पर संघ परिवार के लोग प्रशाशन में खुले रूप से घुसेंगे तथा प्राइवेट के नाम पर अम्बानी और अदानी देश में सीधे राज करेंगे . क्या ये देश के संप्रभुता पर सीधे हमला नहीं है ?

बाबा रामदेव ने कहा है के वह अब सुरक्षा एजेंसी भी बनायेंगे और उसमे भूतपूर्व सैनिको को लेंगे . उनका कहना है के देश में बहुत कुछ हो रहा है और हमें अपनी माँ बहिनों की इज्जत बचानी है. मतलब साफ़ है के मोदी सरकार पुरे देश के तंत्र को निजी हाथो में सौंपना चाहती है और उसके जरिये अपना मनुवादी अजेंडा लाना चाहती है जिसमे दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यको के लिए कोई अधिकार न रहे और वे सब अपनी सुरक्षा के लिए पूर्णतया ब्राह्मणवादी लठैतो पर निर्भर रहे . ये बात एक हकीकत है के दलित अस्मिता और अम्बेडकरवाद के मजबूती से उभरने के कारण ही ब्राह्मणवादी शक्तिया भयभीत है और इस समय प्रशाशन और मीडिया की मदद से वे इनके बीच में द्वन्द पैदा करना चाहती है . मुसलमान सीधे निशाने पर इसलिए है क्योंकि वो दलितों को एक सन्देश भी है के वह कभी इस्लाम कबूल करने की कोशिश न करे . अब मोदी जी और योगी जी में आपस में ही प्रतियोगिता चल रही है के कौन ज्यादा हिंद्त्ववादी है . केंद्र ने गाय की उपयोगिता की जाँच परख करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन भी कर दिया है . मोदी जी बाबा साहेब आंबेडकर और बुद्ध का गुण गान तो कर ही रहे है ताकि वह दलितों के सर्वोच्च हितैषी नज़र आयें.

लेकिन अगर सरकार वाकई इन वर्गों के हितैषी होती तो उसे शिक्षा के सभी रूपों, उच्च शिक्षा से लेकर प्राथमिक शिक्षा में व्यापक बदलाव करने चाहिए थे लेकिन ऐसा नहीं हुआ . केंद्र में तो हमने सरकार की शिक्षा के प्रति उदासीनता को देखा और किस प्रकार से उसने भारत के प्रमुख संस्थानों को पूर्णतः ख़त्म करने की कोशिश की है . दलित पिछड़े आदिवासी वर्ग के छात्रो के लिए स्कालरशिप लगभग बंद ही होगयी हैं और बड़े बड़े संस्थानों को प्राइवेट हाथो में सौंपा जा रहा है . उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार तो बहुत आगे बढ़ गयी क्योंकि उसने तो शिक्षा का बजट ही ख़त्म कर डाला .सरकार ने शिक्षा बजट में भयंकर कटौती की है जिसका असर गरीब जनता पर पड़ेगा. अखिलेश यादव के कार्यकाल में उच्च शिक्षा में २७४२ करोड़ के बजट को मात्र २७२.७७ करोड़ में लाना बेहद चिंताजनक है और हमारे नेताओं की घटिया सोच का परिणाम है जो दलितों, पिछडो के इस क्षेत्र में लगातार बढ़ने के कारण से उनके असर को कम करने की साजिश है हालाँकि प्राथमिक शिक्षा का बजट १५६३२ करोड़ से बढाकर २१४९९ करोड़ कर दिया गया है .माध्यमिक शिक्षा का बजट ९९९० करोड़ से घटाकर ५७६ करोड़ पर लटका दिया है . आखिर ऐसा क्यों ? कौन बच्चे हैं जो सरकारी स्कूलों में अध्ययन कर रहे हैं ? जिस समय इन सरकारी स्कूलों को और अधिक मदद कर अपना ध्यान मूलभूत बुनियादी व्यस्व्स्थाओ को माबूत करने में होना चाहिए था उस वक्त सरकार ने उसकी जड़ो को ही खोद डाला. और उनकी प्रथमिकताये क्या हैं ये भी देख लीजिये.  २०० करोड़ वाराणसी में सांस्कृतिक केंद्र के लिए, ८०० करोड़ प्रसाद योजना जो अयोध्या-मथुरा-काशी के शुद्ध ब्राह्मणवादी कर्मकाण्डो के लिए है . ४० करोड़ ‘बेसहारा’ पशुओ की सेवा के लिए भी साफ़ तौर पर उन संघी संस्थानों के लिए खाने पीने की व्यस्था जो गौशाला चला रहे होंगे और उन्हें कुछ दान दक्षिणा आवारा सांडो, बछड़ो आदि की सेवा के लिए . १० करोड़ विन्ध्याचल के के ‘विकास’ के लिए. यदि आप जानना चाहते हैं के किसानो के लिए कितना लोन माफ़ किया तो वो ३६ करोड़ की सुचना है टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार के मुताबिक .

संस्कारी सरकार यही नहीं रुकी . उसका मानना है के ताज महल हमारे देश के संस्कृति नहीं है और इसलिए शर्मनाक रूप से उसने ताज महल के रख रखाव के लिए कोई बजट प्रावधान नहीं किया है . जिस ताजमहल को सारी दुनिया में भारत की शान माना जाता है और जिसके जरिये प्रदेश और केंद्र सरकार करोडो रुपैये साल भर में देशी विदेशी पर्यटकों से वसूलती है , उसको मनुवादी सरकार ने अपनी सांस्कृतिक विरासत मनाने से इंकार कर दिया है और ये बेहद शर्मनाक बात है लेकिन जिस जातीय और धार्मिक दंभ में यह सरकार काम कर रही है उसमे ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है . कुच्छ दिनों पूर्व तक योगी आदित्यनाथ पर ब्राह्मण विरोधी होने के आरोप लग रहे थे और ब्राह्मणों की पार्टी लाइन से हटकर हुई गुटबंदी ने योगी को उत्तरप्रदेश में सरकारी वकीलों की जिला स्तरीय नियुत्कियो में ब्राह्मण वकीलों को थोक के भाव मौका मिला है . सरकार के कार्यकलापो से ऐसा लगता है के  उत्तर प्रदेश के ब्रह्मनिकरण के लिए, जो इसका  मूल अजेंडा है , यह सरकार कृत संकल्प है .

मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने अस्पतालों में पंडितो-ज्योतिषो की नियुक्ति की है ताकि लोगो को ‘पहले’ से पता चल सके के उनका मरीज कितने दिन जियेगा या मरेगा. क्या कोई सरकार इतना घिनौना काम कर सकती है लेकिन ये भारत देश है जहाँ पर सरकारे बेशर्मी से ब्राह्मणवादी कर्मकाण्डो को जबरन लोगो के ऊपर थोप रही हैं . जिन पाखंडो ने इस देश को गर्त में पहुंचाया उन्हें दोबारा से सरकारी तौर तरीको से लोगो के गले में डाला जा रहा है लेकिन हमारे डाक्टर या मेडिकल ऑफिसर्स चुप रहेंगे क्योंकि वे भी तो जातीय और धार्मिक पूर्वाग्रहों में फंसे हैं और सवर्ण प्रभुत्वाद के दौर में मज़ा ले रहे हैं .

अभी एक हफ्ता भी नहीं हुआ है दिल्ली में गटर की सफाई करते हुए ४ सफाईमजदूर मारे गए हैं . देश भर में हर वर्ष सैंकड़ो लोग मौत के इन कूवो में मारे जाते हैं लेकिन हमारी संस्कृति और इसकी चमड़ी पर कोई असर नहीं पड़ता . टीवी पर चीख चीख कर, छाती फाड़ कर देशभक्ति के सर्टिफिकेट और तगमे बांटने वाले चुप रहते हैं . कोई बहस नहीं होती क्योंकि हमने गाँधी के नाम पर २ अक्टूबर को एक साफ़ सड़क पर झाड़ू लगाकर, और फोटो अपने ऑफिस में चिपकाकर, अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली . क्या सीवर में मारने वाले लोगो की मौत पर कभी हम एक मिनट का मौन रखेंगे ? क्या इसे मौत कहा जाए या सीधे सीधे हत्या ? क्यों ? जो लोग भारत में पूरी व्यवस्था को केवल आर्थिक नज़रिए से देखते हैं उनकी आँखे खोलने के लिए ये काफी है के सभी लोग एक ही समाज से आते हैं जिसे हम वाल्मीकि, हेला, हलालखोर, मेहतर, डॉम, आदि जातियों से जानते हैं .आखिर क्यों एक ही समाज के लिए है ये आरक्षण व्यवस्था ? स्वच्छ भारत की बात करने वाले क्या कभी ये सोचे के जो समाज भारत को स्वच्छ बनाने हेतु खुद अछूत बन गया हो या बना दिया गया हो, उसके लिए हमारे पास क्या है . सीवर लाइन में होने वाली ये मौते भारत के सामाजिक और प्रशासनिक ढांचे की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं और ये साबित करते हैं के यदि ये मौते तथाकथित बड़ी जातियों की होती तो संसद हिल जाति. दुखद ये है  के दलित सांसदों को भी इस मसले से बहुत लेना देना नहीं है और कोई भी इन समाजो की बात भी नहीं करना चाहता क्योंकि ये जातीय दलित आन्दोलन के भी हाशिये पे खडी है. हम मानते हैं के किसान का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है और दलित उत्पीडन का भी, आदिवासियों का भी तो पिछड़ी जातियों और मुसलमानों का भी लेकिन क्या जाति धर्म से अलग हटकर हम इन हत्याओं पर चर्चा नहीं कर सकते .

दिल्ली के घटनाक्रम की बात तो सबको याद है लेकिन अभी कुछ दिनों पहले ही बिहार के सिवान में दो सफाई कर्मचारी मारे गए जो सेप्टिक टैंक साफ करने गए थे और ये मुस्लिम समाज से आते हैं . दुर्भाग्य यह है के मुसलमान सफाई मजदुर को तो तकनीक तौर पर दलित ही नहीं माना जाता . हलालखोर, हेला, आदि जातीय इस पेशे में हैं लेकिन उनका ख्याल करने वाला कोई नहीं . मुसलमानों के सवर्ण नेतृत्व को तो इसका शायद पता भी नहीं होगा क्योंकि वो तो ऐसा मानते हैं के हमारे यहाँ सब कुछ ठीक थक है कोई समस्या नहीं है . हलालखोर और हेला अपनी लड़ाई में बिलकुल अलगथलग हैं . कुछ वर्ष पूर्व मैंने कश्मीर में भी मैला प्रथा के ऊपर लिखा था . जब मैंने एक दो कश्मीरी मित्रो से जो बहुत बुद्धिजीवी समझे जाते हैं इस प्रश्न पर पुछा तो उन्होंने साफ़ इंकार किया. हमारे मित्र आशक अली वट्टल कश्मीर में मैला ढोने वाले समाज से आते हैं और अपनी लड़ाई अकेले लड़ रहे हैं क्योंकि कश्मीर की तमाम सरकारों ने उनके लिए कुछ नहीं किया. इस्लाम के नाम पर क्रांति करने वालो ने भी कोई सवाल नहीं उठाया और जो हिंदूवादी हैं उनके लिए तो बाल्मीकि समाज अछूत था ही .

ये सारे सवाल बहुत महत्वपूर्ण है . अक्सर वाल्मीकियो पर यहे आरोप लगा दिया जाता है के वे भाजपा या सांप्रदायिक ताकतों के खेमे में चले जाते हैं जो उतना ही झूठ है जितना भाजपा को प्रगितशील कहना. राजनीती में नेताओं का इस पार्टी से उस पार्टी में जाना हमेशा लगा रहेगा . भाजपा ने दलितों और पिछडो के आपसी अंतर्द्वंद का लाभ लिया . आज बहिन मायावती के पास मौका है . उन्होंने संसद से इस्तीफा देकर सही निर्णय किया. मैं नहीं मानता उनको कोई रोक सकता है लेकिन हां आजकल भाजपाई ज्यादा उग्र हो गए हैं और हर एक विपक्षी के बोलने पर शोर करने लगते हैं . मायावती जी को चाहिए के वह पूरे देश में दलित-पिछड़े-आदिवासी-पसमांदा आन्दोलनों को मजबूत करे. अपनी पार्टी में अति दलित, अति पिछड़े, आदिवासियों और पसमांदा समाज के लोगो को नेतृत्व में जगह प्रदान करे . मायावती जी का त्यागपत्र पार्टी को केवल तभी मज़बूत करेगा जब वह इसको एक बड़े आन्दोलन में तब्दील कर दे. हालाँकि इस सरकार के पास अभी भी तीन वर्ष हैं लेकिन अगर बहिन मायावती उत्तर प्रदेश या किसी अन्य स्थान से लोक सभा में आती हैं तो वो बहुत महत्वपूर्ण होगा क्योंकि आज लोकसभा में दिग्गज नेताओं की कमी खलती है . लालू यादव को संसद से बाहर कर सत्ता पक्ष ने एक बड़ी जीत हासिल की है . शरद यादव राज्य सभा में हैं इसलिए बोलने वाले नेताओं की लोक सभा में कमी है और सभी दलों को सोचना पड़ेगा के कुछ ताकतवर नेता लोकसभा में आने जरुरी है . मायावती जी अगर लोकसभा में आती हैं तो वह दलित बहुजन आन्दोलन के लिए बहुत सकारात्मक संकेत होगा लेकिन महत्वपूर्ण ये होगा के वह जमीन पर आन्दोलन को मज़बूत करें, पार्टी को लोकतान्त्रिक बनाये और इसकी आउटरीच दूसरे समाजो में भी करे . मान्यवर कांशीराम जी के उस निति को लागू करे जिसमे इन तबको के झुझारू लोगो को मौका दिया गया था . बाल्मीकि, पासी, खटिक, डॉम, कोल, थारू बोक्सा, हलालखोर, हेला आदि कई ऐसी कई जातियां हैं जिनके युवा नेतृत्व में आने के लिए तैयार हैं. बसपा को चाहिए के वो अपना युवा संघठन खड़ा करे और उभरती हुई युवा प्रतिभाओं को मौका दे . विश्विद्यालयो में छात्र असंतोष के चलते युवाओं के गुस्से को समझे. शिक्षा, स्वस्थ्य, कृषि और आर्थिक विकास पर पार्टी को अपनी एक विशेष निति बनानी पड़ेगी. बसपा दलित आन्दोलन के लिए एक महत्वपूर्ण राजनैतिक हस्तक्षेप है और इसको मजबूत करना जरुरी है  नहीं तो आने वाले समय में स्थितिया और भी गंभीर हो सकती हैं . बसपा भारत के करोडो दलित बहुजनो के लिए एक आशा की किरण देनी वाली पार्टी है और मैं ये बात इस बात को जानते हुए भी लिख रहा हूँ के किसी भी अन्य राजनितिक दल की तरह उसमे भी बहुत गलतिया हुई हैं और हर एक पार्टी उन गलतियों से सीखते हुए आगे निकलती है और हमें उम्मीद है के पार्टी अध्यक्ष को इस विषय में जानकारी होगी .

आज भाजपा या संघ की रणनीति दलित बहुजन नेताओं को अपने में समाहित कर देने की है . बृहत्तर हिंदुत्व में सभी नेताओं का गुणगान होगा लेकिन उनकी विचार धाराओ के विरुद्ध काम होगा . गटर में जिन्दगिया शहीद होती रहेंगी लेकिन उन पर एक आंसू नहीं बहेगा , न कोई चर्चा होगी. गाय और संस्कृति के नाम पर दलित-पिछडो के आर्थिक हितो पर सीधे हमला होगा. स्वास्थ्य और शिक्षा से धन हटाकर बाबाओ और ज्योतिष में सौंपकर समाज को और पंगु करने की राजनीती होगी. विश्विद्यालयो में द्रोणाचार्य होंगे जो ‘एकलव्यो’ से अंगूठा मांगेगे. गटर की पूरी संस्कृति पैदा की जा रही है ताकि ब्राह्मणवादी बर्चस्व बरकरार रहे . ऐसे वक्त बसपा से ये उम्मीद की जाती है के वो इस निराशा के दौर में दोबारा सक्रिय हो सभी को साथ लेकर बदलाव की एक नयी राजनीती को तैयार करे . लोगो की बहुत उम्मीदे और आकंशाये अभी भी सुश्री मायावती के साथ है और इस समय पूरे देश में ब्राह्मणवादी गटर संस्कृति ने जो हमला बोला है उसे दलित-पिछड़े-आदिवासी ही मिलकर ठीक कर सकते हैं. आज़ादी के बाद का ये सबसे चुनौतीपूर्ण समय है और ये समय ही बताएगा के क्या सुश्री मायावती इस चुनौती को कैसे लेती हैं ताकि भारत में संविधानिक लोकतंत्र की रक्षा हो सके और सब अपने समान अधिकारों के साथ जी सके .

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