प्रेम और नफरत एक साथ नहीं चल सकते...

Written by Mithun Prajapati | Published on: February 18, 2020
वह 14 फरवरी का दिन था। कुछ लोग
प्रेम दिवस मना रहे थे तो कुछ शहीद दिवस।
कुछ ने आसाराम से प्रेरणा ले रखी थी और वे मातृ पितृ पूजन दिवस मना रहे थे।  




ठीक उसी 14 फैब को एक टेम्पो थी जो गंदे से बदबूदार चौराहे पर खड़ी अपने ऊपर सवारियों के लदने का इंतजार कर रही थी। उस टेम्पो को कुछ लोग गणेश कहते कुछ फट-फटहिया कहते थे। उसकी हालत को देखकर यह आसानी से कहा जा सकता था कि यह किसी महानगर में होती तो अबतक सड़क से उठाकर किसी कबाड़खाने में फेंक दी गई होती। पर जहां वह खड़ी थी उसका अपना महत्व था। जहाँ से जहां तक वह चलती थी वहां तक आने जाने के लिए कोई दूसरा साधन न था। लोग उसपर बैठे थे। वह जब नई थी तब उसकी क्षमता 10 लोगों की थी। पर दाद उसे इस बात के लिए दे दी जानी चाहिए कि वह अब भी 18 से 20 लोगों को उनके गंतव्य तक पहुँचाने का काम करती आ रही थी। उसकी हालत देख बैठने वाले उसे गालियां भी दे देते। सीट पर कोई जोर से हाथ रख देता तो वातावरण धूल से भर जाता। कोई उसपर बैठता तो चर्र की आवाज जरूर निकलती।

वह टेम्पो जिस चौराहे पर खड़ी थी उसके ठीक बगल में एक मिठाई की दुकान थी। मिठाई के नाम पर दुकान में लड्डू पड़े थे जो शायद प्रेम का सप्ताह शुरू होने की पूर्व संध्या पर इस उद्देश्य से अधिक बना दिये गए थे कि प्रेमी लोग लड्डू अधिक खाएंगे। उन लड्डुओं पर मंडराने वाली मक्खियों, मधुमक्खियों और अन्य उड़ने वाले जीवों की संख्या का अनुपात लगभग समान था। कोई सूक्ष्म जीव विज्ञान का शोधार्थी यदि सेम्पल के लिए मटेरियल लेना चाहता तो वह लड्डू उसके लिए उपयुक्त था। ऐसा नहीं है कि यह जगह 'शूक्ष्म जलीय जीवों' का अध्ययन करने वालों को मटेरियल उपलब्ध कराने के मामले में  निराश करती। दुकान के ठीक सामने बह रही नाली में बहुत स्कोप था। नाली से निकले कीड़े कभी कभी दुकान तक चले जाया करते थे जो दुकान मालिक के किसी कांडी से झटक देने के कारण फिर से नाली के करीब पहुंच जाते। दुकान वाला जब कीड़े को झटक दिया करता तो एक आत्मीय सुकून उसके थोबड़े पर दौड़ जाता। ऐसा सुकून जो छक्के लगाने के बाद किसी प्रसिद्ध खिलाड़ी पर कभी दिख जाता। वह कीड़ों को मसल सकता था। उसके अंदर पावर थी पर उसे झटकने में आंनद मिलता। 

वहीं मिठाई के बगल की दुकान जो हमेशा बन्द रहती थी, उसकी दीवार पर कोई मोटे अच्छरों में लिख गया था  #NO_CAA  #NO_NRC  #NO_NPR. यह इस बात को दर्शाता था कि वह जगह भले छोटी थी पर अपनी बात कहने, सरकार से असहमत होने और अपनी बात रखने वाले वहां उपलब्ध थे। 

वह टेम्पो लगभग भर चुकी थी। आगे की सीट पर वह लड़की आकर बैठ गई थी जो रोज वहीं बैठती थी। वह लड़का भी पीछे की सीट पर आकर बैठ गया था जो वहीं बैठता था। कुछ चेहरों के अलावा ज्यादातर आज नए चेहरे थे टेम्पो में। एक बड़ा सा चंदन लगाए पंडी जी बैठे थे जो लगातार गुटके को दांतों तले मसले जा रहे थे। ठीक उनके सामने की सीट पर एक मुस्लिम महिला बैठी थी। दो दलित महिलाएं जो बाजार से कुछ खरीदकर ले आई थी उसे अपनी गोद मे रखे एकदम कोने पर दबी पड़ी थीं। इस दलित, पंडित, मुस्लिम ओबीसी मिश्रित सवारी को देखकर कोई भी लिबरल कह देता- वाह, यही है मेरा भारत।

पर मैं जानता हूँ। यह भारत नहीं मजबूरी थी। कोई और साधन न था गंतव्य तक ले जाने का। अंदर ही अंदर सब दम्भ से भरे थे। किसी में जाति का दम्भ तो किसी में धर्म का।  

वह लड़की जो थी, जो आगे बैठी थी,किसी स्कूल में टीचर थी। वह सेकुलर थी। सेकुलर होने का अपना अलग संघर्ष है। अपने लोगों द्वारा प्रायः सेकुलर होने की वजह से फटकारी जाती। उसे रत्ती भर फर्क न पड़ता। वह लड़का जो पीछे बैठा था वह किसी बैंक में कार्यरत था। पीछे बैठे लड़के और आगे बैठी लड़की लगभग रोज वर्किंग डेज पर इसी टेम्पो से अपने गंतव्य तक जाते। यह सिलसिला पिछले कुछ महीनों से चला आ रहा था। उनमें कभी अधिक बात न हुई थी। पर पहचान हो चली थी। बस पहचान। साथ आने जाने के कुछ समय साथ बीतने के कारण। दोनों के बीच प्रेम पनपने लगा था। कहने की देरी थी। 

आज लड़का कुछ ज्यादा ही उत्साहित था। टेम्पो चलने में अभी भी वक्त था। उसने अखबार निकाल लिया। अगल बगल के लोगों को प्रभावित करने के इधर उधर की बातें करने लगा। लोग उसे सुन रहे थे। वह अखबार खोल के अब लोगों को खबर सुनाने लगा। खबर पढ़ते पढ़ते वह रुका। थोड़ी लंबी सांस ली और कहने लगा- अब वक्त आ गया है कि इन शाहीन बाग वालों को सबक सिखा दे सरकार। इन हरामियों ने देश में ही बगावत कर दी है। 

इतना कहकर वह लोगों के प्रतिक्रिया को समझने में लग गया। खासकर उस लड़की की प्रतिक्रिया को जिससे वह शायद प्रेम करने लगा था। कहीं से कोई प्रतिक्रिया न आई। कुछ देर तक वह इधर उधर की कहता रहा फिर शांत हो गया। कुछ देर में टेम्पो आगे बढ़ गई और जहां जाना था उधर की तरह गड्ढे में संघर्ष करती आगे बढ़ गयी।

अगले दिन टेम्पो तो थी पर वह लड़की आगे न थी। लड़का पीछे हमेशा की तरह आकर बैठ गया। टाइम पर टेम्पो आगे बढ़ी। पर वह लड़की न आई। लड़का बेचैन हो उठा। कई दिन तक यह चलता रहा। लड़का आता पर लड़की न आती। वह टेम्पो वाले से पूछता, दुकान वालों से पूछता पर कोई उस लड़की के बारे में न बता पता। 

एक दिन उस टेम्पो वाले ने एक लेटर टाइप पेपर लड़के के हाथ में थमा दिया और बताया कि वह लड़की दे गई है। लड़के ने लेटर पढ़ा- 
"नफरत और प्रेम एक साथ नहीं चल सकते। चाहे वह किसी व्यक्ति से नफरत हो या फिर जाति, समुदाय, धर्म से नफरत हो।"

लड़के के चेहरे की मायूसी सिर्फ टेम्पो वाला देख रहा था। दुकान वाला कीड़े झटकने में लगा था। चाहता तो वह मार भी सकता था। कीड़े उसके रहम पर जीवित थे। जैसे कभी कभी लगता है सरकार के रहमों पर जनता जीवित है।

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