अमन और मुहोब्बत का पैगाम देता 'मिया बीवी और वाघा'

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: January 29, 2018
आज बहुत दिनों बाद लाइव परफॉरमेंस देखी. इंडिया हैबिटैट सेण्टर में दुबई से आई गूँज की प्रस्तुति मिया बीवी और वाघा ने हम सभी को एक आइना भी दिखाया जो आज की मशीनी दुनिया में रिश्तों को मात्र पैसो से जोड़कर देखती है, जहाँ 'सफलता' के लिए हम सब जगह जाते हैं, सब प्राप्त करते है लेकिन प्यार से बातचीत के लिए समय नहीं है. आमना खैशगी और एहतेशाम शाहिद के प्यार में सरहदों की नकली दीवार टूट गयी लेकिन दोनों को सरहद के दोनों और जो दिखाई दिया उसका साधारण मतलब यही के अगर वाघा की लाइन न हो तो भारत और पाकिस्तान के लोगो की आदतों से लेकर रहन सहन खान पान के तौर तरीके एक जैसे है, लेकिन आज दोनों देशो में जो जंग का माहौल है वो ये ही दिखाने की कोशिश करता है के जैसे बॉर्डर के उस पार सभी आतंकवादी है, दुश्मन है और जंग चाहते हैं. मतलब ये कि तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा कूट कूट कर पैदा की गयी नहीं दीवारों को ढहाना असंभव तो नहीं है लेकिन मुश्किल तो जरुर है हालाँकि दो मुल्क जिनका एक इतिहास रहा हो, उनके हुक्मरानों की लाखो कोशिशो के बावजूद भी ऐसा शायद नहीं हो पायेगा और लोगो को आखिरकार समझ आएगी लेकिन कब ?



मैं भी उन लोगो में शामिल हूँ जिन्होंने बहुत चिट्ठिया लिखी और उनका इंतज़ार भी किया. मैंने भी प्रेम किया और शायद उस दौर में हर दिन एक पत्र भी लिखा होगा और फिर इंतज़ार भी किया होगा. उनकी संख्या बहुत है. पत्रों में एक गर्माहट होती थी जो शायद रुखी सुखी इ मेल में नहीं होती. शायद ईमेल अब आपके अन्दर की भावनाओं को उतना नहीं निकाल पाती जितना खतो के लिखने में होता था. कारण साफ़ था, एक चिट्ठी में व्यक्ति अपना दिल उड़ेल देता था क्योंकि सूचनाओं के साधन कम थे , और इसमे डाकिये भी ख़ास रोल अदा करते थे. गाँवों में जहाँ पढने वाला न हो तो वो चिट्ठी पढ़कर सुनाते भी और गाँव में अन्य खबरों की भी खबर रखते थे. आज सूचना तंत्र के दौर में बड़ी क्रांति ने सूचनाओं के आदान प्रदान को तो मजबूती प्रदान कर दी लेकिन दिलो के रिश्ते शायद कही न कही सूख रहे है, भावनाए शायद व्यक्त नहीं हो पा रही है या हो सकता है के उनके लिए सबके पास समय न हो. इसकी खूबसूरत अभिव्यक्ति भी इस नाटक में हुई है.

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में सरकारी तौर पर चाहे जो कुछ हो लेकिन आम लोगो के रिश्ते बने हुए है हालाँकि पिछले कुछ वर्षो में ये दूरिया बढ़ चुकी है और अमन के लिए काम करने वाले लोगो को 'देशभक्त' लोग देश के दुश्मन बता रहे है. आमना और एहतेशाम जिस दौर में अपने प्यार को एक मुकाम तक पहुचाने की कोशिश कर रहे थे उस वक़्त भी हालत बहुत अच्छे नहीं थे परन्तु ये कह सकते है के आज से बेहतर थे. ये वो दौर था जब हम पांच या छः साथियो ने जो कभी एक दुसरे को शायद ही मिले हों दक्षिण एशिया में शांति और भाई चारगी के लिए कुछ साथ करने का प्रयास किया जो हमारी सीमाओं में रहकर था क्योंकि सभी युवा थे और बिना किसी 'खानदानी' बैकग्राउंड के और वो इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि भारत पाकिस्तान के रिश्तो में इन खानदानी बैकग्राउंड के बहुत मायने हैं. वो ही सेकुलरिज्म की बात कर सकते है जो खानदानी है और सरहद के दोनों और मीडिया में जिन्हें खानदानी वारिश बैठे हो. मतलब ये नहीं के दोस्ती के हिमायती वे ही लोग नहीं है जिन्हें आप टीवी या अखबारों में पढ़ते है या देखते हैं, उनके अलावा भी बहुत लोग हैं जो मुहब्बत का पैगाम देना जानते हैं और चाहते भी हैं.

आमना और एहतेशाम ने अपने खतों के जरिये व्यवस्था, संकीर्णताओं पर कटाक्ष किया है और दिखाया के कैसे हमारे समाज में दूसरो के बारे में स्टीरियोटाइप किया जाता है. जब शादी के बाद वो भारत आये और बिहार गयी तो ऐसा लगा के पूरा गाँव उसको देखने आया के 'पाकिस्तानी' बहु कैसी है. और सब उसको ये कहते कि बहू तो तुम्हारे जैसी ही चाहिए लेकिन पाकिस्तानी नहीं. कराची में उनके यहाँ पे भी ऐसे ही हालात थे जो उसको कहते कि पाकिस्तान में लडकों की कमी हो गयी थी जो हिन्दुस्तानी से शादी कर रही हो. अपने ससुराल में आमना ने अपनी मम्मी को लिखे ख़त में कहा के 'यहाँ तो सुबह शाम सब्जियां ही बनती रही है और मैं तो 'बोटी' खाने को तरस गयी हूँ.'

आमना की दादी लखनऊ से थी और शायद विभाजन के बाद भी, वर्षो कराची में रहते हुए भी उनकी जुबान से लखनऊ शब्द कभी नहीं गया और घर के अपने ड्राईवर को भी वह चन्दन नाम से पुकारती और उसे कभी भूल नहीं पायी. एहतेशाम का अपनी मम्मी को लिखा पत्र बहुत मर्म था क्योंकि ये हम सबकी कहानी है. कैसे हम तरक्की के वास्ते घरों से दूर चले जाते है, हमारे माँ, हमारे लिए सब कुछ छोड़ देती हैं और जब हम इस लायक होते हैं के उन्हें कुछ ख़ुशी दे पायें तो वो हमें छोड़ कर चले जाते हैं.

इस नाटक के अंत में वाघा का सांकेतिक इस्तेमाल किया गया है जो बहुत बेहतरीन है. वाघा भारत और पाकिस्तान को जोड़ने वाला भी है लेकिन दूर करने वाला भी है. वाघा की परेड अब असल में भारत पाकिस्तान का वन डे मैच बन चुका है. पाकिस्तान पैन्दाबाद और हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे अपने अपने और लगते रहते हैं. दोनों ओर के फौजी जोर जोर से बूट बजाते हैं. ये समझ नहीं आया कि ये नाटक क्यों? इस नाटक में क्या आनंद है? क्या ये एक दुसरे को नीचा दिखाने के लिए है या एक दुसरे का मनोरंजन करने के लिए है? मुझे तो नहीं लगता कि वाघा से किसी का मनोरजन होता है ओर सरहद के दोनों और हम किस प्रकार के नागरिक पैदा करेंगे वो तो अब दिखाई दे रहा है. 

आज माँ बाप बच्चों को भी ये 'मैच' दिखाने ले जाते है. दरअसल, आज वाघा हर गाँव और कस्बे में बन गया है. देशभक्ति के जरिये हम अब वाघा पैदा कर रहे हैं. कासगंज से लेकर और कोई जगह, ये देशभक्ति का नया संस्करण है जब देशभक्ति के नारे किसी को चिढाने के लिए बनेंगे. शान्ति और सौहार्द की बात करने वाले दोनों देशो में 'देशभक्तों' के निशाने पे होंगे.

अभी दो दिन पहले ही पाकिस्तान के एक साथी ने बताया के उनके यहाँ भारत पाकिस्तान की शांति और सौहार्द की बात करने वालों को उठवा लिया जाने की सम्भावना रहती है. भारत में भी हम अब 'तरक्की' कर रहे हैं', हमारे पास अब केवल पुलिस ही नहीं है, अब तो थर्ड डिग्री के लिए हमें एक लोकतान्त्रिक माहौल मिल चूका है. अर्नब गोस्वामी केवल एक व्यक्ति नहीं है, एक विचार बन चुका है जिसके थर्ड डिग्री ट्रीटमेंट ने पुलिस का काम आसान कर दिया है.

इस नाटक की खूबसूरती इस बात में है के ये एक तिलिस्ल्मी कहानी नहीं है हकीकत है. इसके पात्रों ने इन बातो को देखा और झेला. उनकी संजीदगी है के ये ख़त हम सबके लिए सोचने समझने के लिए बहुत कुछ छोड़ते हैं. अपने देश से दूर रहकर जुबान को जिन्दा रखने की इस कोशिश का स्वागत होना चाहिए. मेरे लिए ये देखकर बहुत से यादे ताज़ा हो गयी क्योंकि वही दौर था जब हम लोग बहुत बातें करते और भारत पाकिस्तान के मौजूदा हालत पर कुछ नया करने की सोचते और यहीं से आमना मेरी छोटी बहिन बनी जिसके साथ मैंने शायद अपनी हर बात शेयर की हो. ये रिश्ता इतना मज़बूत हो गया के महसूस हो गया के दिल के रिश्ते खून के रिश्तो और सरहदों से बड़े होते हैं. पहली बात ये शो दुबई से बाहर आया और उर्दू के शहर दिल्ली में. हालाँकि आज के दौर में जब उर्दू को विभाजन की और मुसलमानों की जुबान कहकर आग बबूला होने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है लेकिन हकीकत ये है के उर्दू अदब ने हिन्द को बेहद मिठास थी. कल्चर का कोई मज़हब नहीं अपितु ये हमारी जुबान, खान पान, रहन सहन होता है और अगर वाघा की लाइन को हटा दें तो क्या फर्क है दोनों मुल्को में.

मैं जानता हूँ कि शादी के वक्त दोनों को बहुत दिक्कत हुई लेकिन ये दिक्कत केवल इस बात से नहीं थी कि भारत और पाकिस्तान का मसला था. शायद, इस हिस्से को उन्होंने छोड़ दिया कि एक पठान लड़की बिहारी लड़के से कैसे शादी करेगी का जाति और वर्ग इस सवाल भी उनके परिवारों में था. इसलिए मैंने कहाँ, जहां दोनों जगह पर उर्दू की मिठास है वही सामंतशाही दोनों जगहों पर ज़िंदा हैं, शायद पाकिस्तान में हम से ज्यादा .मैंने कल लिखा था कि हमारे मुल्को में साथ चलने और काम करने के बहुत उदाहरण है लेकिन हामारे एब भी एक जैसे ही हैं और उन सब को हम तभी ख़त्म कर पाएंगे जब इन सवालों पर लगातार गुफ्तुगू करें और बातचीत जारी रखें. बातों को दिल के अन्दर रख देने से केवल शक बढ़ता है जो दूरिया बढ़ता है. तरकी के वास्ते दिलो की सरहद को तोडना पड़ेगा और हर गली मुहल्ले में बन रहे वाघाओ को भी हटाना पड़ेगा, वो वाघा नहीं बाधा बन रहे हैं.

मिया, बीवी और वाघा का यह शो जगह जगह होना चाहिए. दिल से की गयी एक बेहद खूबसूरत प्रस्तुति और इसके लिए पूरी टीम को बहुत बहुत शुभकामनायें. ये कह सकता हूँ कि जहाँ मिया और बीवी के रोल में एहतेशाम और आमना ने अपनी भूमिकाओं के साथ पूरा न्याय किया वही वाघा के रोल में माजिद मुहोम्मद ने बहुत बेहतरीन भूमिका निभायी और सबको अंत तक कहानी से जोड़े रखा. पोस्टमैन के छोटे से रोल में फ़राज़ वकार ने बहुत प्रभावी भूमिका निभाई. एक बार फिर सभी को एक अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई और उम्मीद करते है के ये टीम नए नए आइडियाज लेकर आज के खुश्क माहौल में उम्मीद का परचम लहराएगी ताकि तैयार हो रहे वाघाओ को कम किया जा सके.

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