किसान आत्महत्या का पर्याय बन चुके महाराष्ट्र से उठी किसानों के लिए मजबूत आवाज़

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: March 1, 2021
देश भर के किसान राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर चक्का जाम आंदोलन कर रहे हैं. एक तरफ़ किसानों का मजबूत हौसला है तो दूसरी तरफ़ सरकार की जनविरोधी उदासीन रवैया है. 20 सितंबर 2020 को केंद्र सरकार द्वारा कोरोना लॉकडाउन अवधि का फ़ायदा उठाते हुए तीन कृषि कानूनों को संसद में पारित किया गया था. सितम्बर 2020 से ही किसानों को केंद्र सरकार की साजिश का एहसास हुआ और तब से देश भर के हर जिले में किसान आंदोलन कर रहे हैं. इस आंदोलन का सबसे बड़ा चरण किसानों ने दिल्ली की सीमाओं को अवरुद्ध करके शुरू किया है जो अभी तक बदस्तूर जारी है. 



किसानों की भूमिका उनकी इस लड़ाई में सकारात्मक दिशा में बढ़ रही है क्योंकि इससे पहले भी किसानों ने अन्याय के सामने समर्पण किया था और देश के खासकर, महाराष्ट्र के हजारों किसानों ने आत्महत्या की. आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं है. महाराष्ट्र पिछले कुछ वर्षों में किसान आत्महत्याओं में नंबर एक पर रहा है. इसके कई कारण हैं. किसानों के इस राष्ट्रीय आंदोलन ने भी महाराष्ट्र के किसानों को ताकत दी है और उन्हें लड़ने का भरोसा दिया है. नतीजतन, महाराष्ट्र में किसानों ने विभिन्न वाहनों में दो या तीन राज्यों की सीमाओं को पार किया और दिल्ली में शाहजहाँपुर सीमा पर पहुंच गए. इसमें किसानों के बच्चों, छात्रों और युवाओं के साथ-साथ आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवाएँ भी शामिल रहीं. हालांकि इस विशेष आंदोलन की मांग अन्य कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए है, लेकिन इस आंदोलन ने कृषि और किसानों की समस्याओं को वैश्विक स्तर पर ला दिया है.

यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सुखदेव थोराट ने इसे विस्तार से बताया है. 2011 की जनगणना के अनुसार, महाराष्ट्र की लगभग 55% आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है. इस ग्रामीण आबादी के लिए आजीविका के चार स्रोत हैं - कृषि, गैर-कृषि उद्योग/व्यवसाय, मजदूरी और नियमित मजदूरी रोजगार. 2012 के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 44% घरों में कृषि मुख्य व्यवसाय है. हालांकि, खेती करने वालों का अनुपात जातिगत रूप से भिन्न होता है. यह अनुपात उच्च जातियों में 46 प्रतिशत, अन्य पिछड़ी जातियों में 41 प्रतिशत, आदिवासियों में 31 प्रतिशत और दलितों में केवल 21 प्रतिशत है. मुस्लिम और बौद्ध क्रमशः ग्रामीण आबादी का 23 प्रतिशत और 18 प्रतिशत तक हैं. 

ऐसा प्रतीत होता है कि 'कृषि' से जुड़े लोगों का अनुपात ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च जातियों के पास अन्य पिछड़े वर्गों की तुलना में अधिक है. दलितों और बौद्धों में किसानों का अनुपात सबसे कम है. राज्य में कृषि क्षेत्र के ख़राब स्थिति के कारण 2012 में कम से कम 20 प्रतिशत परिवार ग़रीबी के दुष्चक्र मंत फंस गए. हालाँकि ये परिवार किसान थे. इससे महाराष्ट्र में कृषि की ख़राब स्थिति का अहसास किया जा सकता है. गरीब किसान मुख्य रूप से छोटे हिस्सेदार (पांच एकड़ से कम जमीन वाले) होते हैं. 

महाराष्ट्र में कुल किसानों में से 95% किसान गरीब हैं शेष पांच फीसदी भूस्वामियों को गरीबी के दायरे से बाहर निकाला गया है. ये आंकड़े बताते हैं कि कुल दस एकड़ से कम ज़मीन वाले किसानों की आमदनी उनकी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसका मतलब यह है कि यदि औसतन 10 एकड़ या छह एकड़ से अधिक भूमि पर सिंचाई होती है, तो गरीबी को कम किया जा सकता है. 95 प्रतिशत अल्पसंख्यक किसानों के लिए नीति के बावजूद, गरीबी को कम करने के लिए आय बढ़ाना अभी भी महाराष्ट्र सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है.

दूसरी चुनौती दलित और आदिवासी किसानों की दुर्दशा है. आदिवासी और दलित किसान दूसरों की तुलना में अधिक गरीब हैं और उनकी स्थिति अधिक विकट है. अविश्वसनीय रूप से, 58% आदिवासी किसान गरीब हैं. इसके बाद 28% नव-बौद्ध (सभी दलित हैं), 18% सभी दलित और 18% मुसलमान गरीब हैं. इसके बाद 15 प्रतिशत ओबीसी और सबसे कम (13 प्रतिशत) गरीबी उच्च जातियों में है. यह सच है कि आदिवासी किसानों में गरीबी उच्च जाति के किसानों की तुलना में चार गुना अधिक है, जबकि दलित किसानों में गरीबी दोगुनी है.

सर्वविदित है कि कोरोना लॉकडाउन के समय महाराष्ट्र राज्य में 1,198 किसानों ने मार्च से मई 2020 के बीच सूखे, बंजर भूमि, फ़सल के दाम की गारंटियों की कमी, प्राकृतिक आपदाओं से नुकसान का भुगतान न करने, कर्ज माफी के लाभों की प्रतीक्षा करने, निजी ऋणदाताओं के कारण बैंकों के कर्ज के बोझ में वृद्धि के कारण आत्महत्या कर ली. यह राहत और पुनर्वास विभाग द्वारा सूचित किया गया था.

महाराष्ट्र में देश की सबसे ज्यादा किसान आत्महत्याएं होती रही हैं और विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य और केंद्र सरकारें किसानों की उम्मीदों और लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रही हैं. राहत और पुनर्वास विभाग के अनुसार, 2001 से मई 2020 तक, राज्य में 34,200 किसानों ने विभिन्न कारणों से अपना जीवन समाप्त कर लिया है. तालाबंदी के दौरान आत्महत्या करने वाले 1,200 किसानों में से केवल 450 को ही सरकारी सहायता मिली है और शेष प्रस्तावों की जांच अभी बाकी है. पिछले 20 वर्षों में, सबसे अधिक 15,221 किसानों ने अमरावती डिवीजन में आत्महत्या की है, उसके बाद औरंगाबाद डिवीजन में 7,791 हैं. विभिन्न संकटों का सामना करते हुए भी किसान, जो दुनिया का अन्नदाता हैं, को इस वर्ष कोरोना लॉकडाउन में एक नया अनुभव मिला. 

एजेंसी फोरम ऑफ इंटेलेक्चुअल्स के अध्ययन समूह के अनुसार, "उनकी सबसे महत्वपूर्ण मांगों में से एक यह है कि निजी खरीदारों को कानूनी रूप से फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य की देयता के लिए बाध्य होना चाहिए और यदि वे कम कीमत पर खरीदते हैं, तो उसे अपराधिक क्रियाकलाप घोषित किया जाना चाहिए.

किसानों ने शोषण के ख़िलाफ़ जून 2017 में महाराष्ट्र में एक ऐतिहासिक किसान हड़ताल के माध्यम से पूर्ण ऋण राहत की मांग की. हड़ताल की तीव्रता के कारण, सरकार को किसानों के लिए पूर्ण कर्ज माफी की घोषणा करनी पड़ी. बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री ने दावा किया कि राज्य के 1 करोड़ 36 लाख किसानों में से 89 लाख 87 हजार किसान बैंक खातों से लाभान्वित होंगे, हालांकि, कार्यान्वयन में, सरकार ने किसानों को धोखा दिया. कर्जमाफी के लिए बेहद जटिल शर्तें लगाई गई थीं. परिणामस्वरूप, लाखों किसानों को कर्ज माफी से बाहर रखा गया.

लाखों नए किसानों को ब्याज में रियायत का लाभ उठाने के लिए केवल प्रोत्साहन अनुदान ही दिया गया, जब कृषि क्षेत्र घाटे में थी. 2008 में फसली ऋण माफी के अलावा, कृषि औजार, सिंचाई, आदि के लिए कृषि ऋण माफ किए गए थे. मौजूदा कर्ज माफी में ऐसे कृषि ऋण शामिल नहीं हैं. ऋणदाताओं, क्रेडिट यूनियनों, माइक्रोफाइनेंस, गोल्ड डिपॉजिट और कॉरपोरेशन से ऋण भी छूट में शामिल नहीं थे. वैकल्पिक रूप से, ऐसे लाखों किसान कर्जमाफी के लाभ से वंचित रह गए हैं.

इसके अलावा, आठ अन्य मुद्दों के तहत 16 प्रकार की शर्तें लगाई गई हैं. आवेदन करने वाले 56 लाख 59 हजार 187 किसानों में से लाखों किसान इन 16 स्थितियों के कारण अयोग्य हो गए. दावा किया गया था कि इससे 89 लाख 87 हजार किसानों को फायदा होगा. वास्तव में, आज कर्ज माफी से केवल 46 लाख किसान लाभान्वित हुए हैं. 34,000 करोड़ रुपये की किसानों की कर्ज माफी की जानी थी लेकिन इसके लिए केवल 16,700 करोड़ रुपये का ही उपयोग सरकार द्वारा किया गया है. सरकार की तथाकथित 'ऐतिहासिक कर्ज माफी ’किसानों के लिए ऐतिहासिक कर्ज धोखाधड़ी’ बन गई है.

वर्तमान में महाराष्ट्र राज्य समेत कई राज्यों के किसान, मजदूर, युवा, स्टूडेंट, समेत महिलाओं का जत्था किसान आन्दोलन के समर्थन में बारी बारी से दिल्ली आ रहे है. किसान आन्दोलन सड़क से संसद होते हुए अब ग्लोबल रूप ले चुका है. इस आन्दोलन की सफलता के साथ देश के अन्य राज्यों के किसान जो न्याय की आश लगाए बैठे हैं उनके न्याय मिलने की उम्मीदों को भी बल मिलेगा. 

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