जम्मू-कश्मीर: नए भूमि क़ानून को लेकर राजनीतिक दलों, व्यापार संगठनों के विरोध के बाद बहस तेज़

Written by Anees Zargar | Published on: December 17, 2022
राजनीतिक दलों को "कश्मीरियों को बाहरी बताने का काला अध्याय खुलने" का डर है। उधर केसीसीआई का कहना है कि इससे आजीविका और रोज़गार पर असर पड़ सकता है।

श्रीनगर: जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक दलों और व्यापार संगठनों ने केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) प्रशासन के नए भूमि अनुदान नियम, 2022 पर गंभीर चिंता जताई है। इस नियम के बाद सभी निवर्तमान पट्टेदारों को पट्टे पर दी गई ज़मीन का क़ब्ज़ा अधिकारियों को सौंपना होगा।

प्रशासन ने दावा किया है कि भूमि क़ानूनों में बदलाव से आम लोगों को लाभ होगा और वे पूर्ववर्ती "क़ानून" को स्थानांतरित करेगा।

हालांकि, इन परिवर्तनों की क्षेत्रीय राजनीतिक दलों द्वारा बड़े पैमाने पर निंदा की गई है। इन दलों ने इस योजना को "मनमाना" और क्षेत्र के लोगों के हितों के ख़िलाफ़ क़रार दिया है।

नए क़ानून के अनुसार, आवासीय उद्देश्यों के लिए मौजूदा या समाप्त हो चुके पट्टों को छोड़कर, सभी निवर्तमान पट्टेदारों को तुरंत भूमि का क़ब्ज़ा सरकार को सौंपना होगा या बेदख़ली का सामना करना होगा। ये नियम कहते हैं कि मौजूदा या समाप्त हो चुके आवासीय पट्टों को छोड़कर सभी पट्टों को नवीनीकृत नहीं किया जाएगा और उसका निर्धारण होगा।

इस संघ शासित प्रदेश में व्यापारियों का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रमुख संस्था कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (केसीसीआई) ने गुरुवार को कहा कि उन्होंने सरकार के राजस्व विभाग द्वारा जारी आदेश के संबंध में विभिन्न व्यापारिक संघों, होटल व्यवसायियों, रेस्तरां मालिकों और अन्य हितधारकों के अनुरोध पर उनके साथ बैठक की।

केसीसीआई ने एक बयान में कहा, "प्रतिनिधिमंडल ने उपरोक्त आदेश के बारे में अपनी चिंता ज़ाहिर की और जम्मू-कश्मीर में लोगों की आजीविका और रोज़गार पर इसके प्रतिकूल प्रभाव के बारे में चर्चा की।"

केसीसीआई के अध्यक्ष शेख आशिक अहमद ने कहा कि सभी व्यावसायिक क्षेत्रों की चिंताओं को सरकार के सामने उठाया जाएगा और उपराज्यपाल के साथ साथ वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों से लोगों की आजीविका को ध्यान में रखते हुए इस मामले पर विचार करने का आग्रह किया।

आशिक अहमद ने न्यूज़क्लिक को बताया, “मौजूदा सरकार यह दावा करती रही है कि वह बेरोज़गारी को समाप्त करने के लिए काम कर रही है। उन्हें इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि क्या इस निर्णय से लोग अचानक बेरोज़गार हो सकते हैं।"

'बाहरी लोगों को बसाने की योजना'

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने इस निर्णय को "दुर्भाग्यपूर्ण" क़रार दिया और कहा कि यह "बाहरी लोगों को बसाने की योजना" जैसा लगता है।

उन्होंने एक समारोह से इतर संवाददाताओं से कहा, "लोगों को बेदख़ल करने या उनसे ज़मीन छीनने की क्या ज़रूरत है। पट्टेदारों को नवीनीकरण कराने या पट्टा छोड़ने का पहला अधिकार होना चाहिए। ऐसा लगता है कि आदेश स्पष्ट है कि सरकार स्थानीय लोगों से ज़मीन छीनकर बाहरी लोगों को सौंपना चाहती है।"

इस निर्णय की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती ने भी आलोचना की है। उन्होंने इसे "चिंताजनक" बताया है।

दो पूर्व मुख्यमंत्रियों द्वारा इस फ़ैसले की आलोचना करने के बाद भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रवक्ता अल्ताफ़ ठाकुर ने उन पर निशाना साधते हुए कहा कि भूमि के पट्टे से दोनों दलों द्वारा समर्थित विशेष लोगों के बजाय आम लोगों को लाभ होगा।

इस फ़ैसले का अन्य राजनीतिक दलों ने भी ज़ोरदार विरोध किया है। इन दलों में अपनी पार्टी, जम्मू एंड कश्मीर पीपल्स कॉन्फ्रेंस और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) शामिल हैं।

महाराजा सरकार के जम्मू-कश्मीर हस्तानांतरण भूमि अधिनियम, 1938 के कारण बाहरी लोगों को संपत्ति ख़रीदने पर रोक थी और कृषि भूमि को स्थानांतरित नहीं किया जा सकता था। इस क़ानून के तहत स्थानीय लोगों के लिए भूमि पर अधिकार रखते हुए पिछली सरकारों द्वारा जारी रखा गया था। इसे बीजेपी ने समाप्त कर दिया है।



जम्मू-कश्मीर में सरकार ने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 में किए गए परिवर्तनों के बाद पहली बार अक्टूबर 2020 में नया भूमि क़ानून पेश किया। हालांकि, इन क़ानूनों का विरोध किया गया और स्थानीय लोगों की शक्ति कम करने और "जनसांख्यिकीय परिवर्तन" लागू करने के निर्णय के रूप में देखा गया। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 और 35A के निरस्त होने के बाद से वे ऐसा बार-बार कह रहे हैं।

सीपीआई (एम) के वरिष्ठ नेता एम वाई तारिगामी ने भूमि क़ानूनों के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। पूर्व विधायक ने कहा कि अनुच्छेद 370 के फ़ैसले के कारण उद्योगों, व्यापार और अन्य व्यावसायिक गतिविधियों के लिए निवेश की प्रक्रिया में बाधा पैदा हुई। इस अनुच्छेद को लेकर भाजपा द्वारा यह प्रोपगैंडा फैलाया गया कि कोई भी कश्मीर में निवेश नहीं कर सकता है या पट्टे पर ज़मीन नहीं ले सकता है।

तारिगामी ने कहा, “यह पहले भी हो रहा था लेकिन कैबिनेट के फ़ैसले के ज़रिए इसे मंज़ूरी दे दी गई थी और जन प्रतिनिधि विधानसभा में अपनी चिंताओं को उठाया था। इस बार न कैबिनेट है न विधान सभा। दोनों संस्थान अब मौजूद नहीं हैं और न ही पंचायत सदस्य या डीडीसी (जिला विकास परिषद) भी शामिल हैं।”

तारिगामी ने कहा कि इन क़ानूनों के आधार को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की जा चुकी है, जिस पर जल्द ही आदेश मिलने की संभावना है। उन्होंने यह भी कहा कि संघ शासित प्रदेश की मांग पहले लद्दाख से उठी थी, लेकिन लेह और कारगिल दोनों के लोग अब छठी अनुसूची की मांग कर रहे हैं।

जेकेपीसी अध्यक्ष सज्जाद लोन ने ट्वीट किया, “नई भूमि नीति देश के बाक़ी हिस्सों के जैसा नहीं है। यह कश्मीरियों को खुले तौर पर बाहरी के तौर पर सलूक करने का एक काला अध्याय खोल सकता है। दुनिया भर में और भारत में लीज नियम काफ़ी सरल और एक जैसा है। लेकिन ये अलग हैं और बिना किसी मक़सद के नहीं हैं।”

अपनी पार्टी के अध्यक्ष अल्ताफ़ बुख़ारी ने नए भूमि क़ानूनों को "कठोर" और "अमानवीय" कहा। बुख़ारी ने श्रीनगर में मीडिया से कहा, "हमने दुनिया में कहीं भी ऐसे क़ानून नहीं देखे हैं। जिन लोगों के क़ब्ज़े में ज़मीन थी, उन्हें इस तरह बेदख़ल किया जा रहा है। यह क़ानून की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता है।”

Courtesy: Newsclick

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