वक़्त पतन की आहट सुनने का: संसदीय बहस का गिरता स्तर और स्पीकर की छलकती दलीय निष्ठा

Written by जयंत जिज्ञासु | Published on: January 3, 2019
आज की तारीख़ में राजनीति अपनी स्वाभाविक स्वायत्ता धीरे-धीरे खोती जा रही है। पिछले कुछ बरसों या यूं कहें कि तक़रीबन एक दशक से यह कहीं और से निर्देशित-नियंत्रित-संचालित हो रही है। और, जम्हूरियत की सेहत के लिए यह ठीक नहीं है। भारतीय लोकतंत्र का जिस्म तो बुलंद लगता है, मगर इसकी रूह बड़ी बीमार हो चली है। और, वक्त रहते गर इसकी तीमारदारी नहीं हुई, तो यह असमय कालकवलित हो सकता है। आर जी इगरसोल ने ठीक ही कहा था, "Eternal vigilance is the price of liberty". यह अपने बरतने वालों से सतत सतर्कता व सजगता की मांग करती है। जिसे हम लोकतंत्र कह रहे हैं, वह दरअसल लोकतंत्र का प्रबंधन है। 

मैंने लोकसभा के कुछ स्पीकर्स को हाउस चलाते हुए क़रीब से देखा है, अॉब्जर्व किया है। हंगामे, शोर-शराबे, व्यवधान, कार्यवाही-स्थगन, आदि के बहुत-से दृश्य आज भी मेरे सामने जीवंत हैं। पीए संगमा, जीएमसी बालयोगी, मनोहर जोशी, सोमनाथ चटर्जी और मीरा कुमार जिस शाइस्तगी से सदन चलाते थे, गरिमा टपकती थी।

जब संगमा स्पीकर थे और युनाइटेड फ्रंट की सरकार थी तो आइ के गुजराल महिला आरक्षण बिल को लेकर फिर से सदन में आ गए (उनसे पहले देवगौड़ा ने दिल्ली की सिविल सोसायटी की महिलाओं के एक कार्यक्रम में कमिट कर दिया था कि लाएंगे, मगर जब शरद जी ने उन्हें कायदे से समझाया तो पिछड़ी महिलाओं को बाहर रखने का सारा खेल उन्हें समझ में आ गया)। उस रोज़ शरद यादव ने इतना हंगामेदार व झन्नाटेदार भाषण किया कि प्रधानमंत्री श्री गुजराल को सदन छोड़ कर जाना पड़ा। अपने ही जनता दल, जिसके वो अध्यक्ष थे, से ताल्लुक़ रखने वाले प्रधानमन्त्री के ग़लत मूव पर हाउस के अंदर उन्हें घेरने की ऐसी मिसाल दुर्लभ ही है। तब पीए संगमा ने हाउस में कहा था, "आप लोग मेरे सब्र का इम्तिहान न लीजिए"। 

हां, लोहिया ने ज़रूर अपनी ही पार्टी की केरल सूबे की सरकार के अनपेक्षित क्रियाकलाप पर इस्तीफ़ा मांगा था और पार्टी टूट गई। मरहूम राज्यसभा सांसद सीताराम सिंह ने पिछले साल बताया कि गोलीकांड के बाद कैसे केरल की अपनी ही सरकार का त्यागपत्र लोहिया ने मांगा। खुली बहस हुई, पार्टी टूट गई, लोहिया का गुट हार गया, मधु लिमये को पार्टी से निकाल दिया गया। नई पार्टी बनी जिसमें एस एम जोशी अध्यक्ष और लोहिया महासचिव बने। लोहिया, लिमये, जोशी, राजनारायण, रामसेवक यादव, बीएन मंडल और ख़ुद वे पूरे देश में एक साथ काम करने लगे। बिहार में बीएन मंडल पार्टी के अध्यक्ष और कमलनाथ झा सचिव बनाए गए।

सदन में इन दिनों जय भीम, लाल सलाम का नारा लगाने वाले लोगों की संख्या भी कोई कम नहीं है। मगर मैं कहूं कि "जय भीम, लाल सलाम" एक क़िस्म का फर्जीवाड़ा है। जय भीम (दलित) का इस्तेमाल लाल सलाम (जो बहुधा सवर्ण सलाम है) वाले करते आए हैं। कांग्रेस से लेकर भाजपा तक को यह कंबिनेशन बेहद प्रिय है। मगर, जय लोहिया, जय मंडल को ये धूर्तई से गायब कर देते हैं। मतलब, पिछड़े (ओबीसी) इनकी डिक्शनरी में हैं ही नहीं या यूं कहें कि उनसे ये 'सवर्ण' सबसे ज्यादा खार खाते हैं, चाहे वो कितने भी प्रोग्रेसिव क्यूं न हों। अकेडमिया से लेके ब्यूरोक्रेसी तक, मीडिया से लेके जुडिशरी तक में इस पर बहुत मेहनत की है 'अगड़ों' ने।

इसीलिए, महिला आरक्षण बिल पर भाजपा, कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टीज़, सब एक हैं, क्यूंकि सबका नेतृत्व अगड़े लीडरों के हाथ में है।

पिछड़ी महिलाओं को कोटे के अंदर कोटे के तहत शामिल करने के ये सब खिलाफ़ हैं। बोलते हैं कि संविधान में संशोधन करना पड़ेगा, तो भाई संशोधन नहीं हुआ है क्या आज तक? जैसे पुरुषों में जातियां हैं, ह्युमिलिएशन है, वैसे ही महिलाओं में भी हैं। महिला कोई होमोजिनस कैटेगरी तो है नहीं। किसको उल्लू बनाते रहते हो यार?

रानी बनाम मेहतरानी का डिबेट लोहिया ने न सिर्फ़ खड़ा किया, बल्कि उसे जमीन पर उतारा भी। 60 के दशक में ग्वालियर लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी राजमाता विजयाराजे सिंधिया के खिलाफ़ सुक्खो रानी को खड़ा किया जाना एक बड़ी लड़ाई का आगाज़ था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) की उम्मीदवार सुक्खो रानी को उस दौर में 9807 वोट मिले। फूलन देवी से लेकर भगवती देवी तक, पूरी एक श्रृंखला है।

(बाद में प्रिवी पर्स ख़त्म किये जाने जैसे सवाल पर इंदिरा जी से गहरे मतांतर के चलते राजमाता ने कांग्रेस से राह अलग कर जनसंघ की ओर रुख किया, बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में रहीं। उनके बेटे माधवराव सिंधिया कुछ ही समय बाद जनसंघ छोड़ कांग्रेस में आ गए।)

बहरहाल, संगमा स्वीट थे, बालयोगी संजीदे, मनोहर जोशी मज़ाकिया भी और संयत भी, सोमनाथ दा प्रखर व दूरदृष्टिसंपन्न, जिन्होंने अपनी पार्टी के दबाव में न आकर लोकसभा अध्यक्ष पद की गरिमा को और बढ़ा दिया, और मीरा कुमार बेहद शीरीं ज़बां।

और, एक ये हैं मोहतरमा सुमित्रा महाजन, जिन्हें न रस का कुछ पता है, न सहृदयता छू भी पाई है उन्हें। किसी प्रवाहमय भाषण के बीच ही उनका कुछ बोलना कानों को इतना चुभता है कि पर्सियन का एक शेर याद आता है:

ऐ बुलबुले-ख़ुश इल्हां आहिस्ता लब्बजुम्बां
नाज़ुक मिज़ाजे-शाहां ताबे-सुखन न दारद। 

किसी सुंदर व मानस पर अंकित हो जाने वाले संबोधन के बीच जब श्रोता व वक्ता के बीच सहृदयता स्थापित हो रही होती है या हो चुकी होती है; महाजन की आवाज़ इतनी कर्कश मालूम पड़ती है कि ध्यानमग्नता की स्थिति पर चोट पड़ती लगती है। 

महाजन अब तक की सबसे वर्स्ट व पकाऊ स्पीकर लगीं मुझे। हाउस के अंदर लोकतंत्र के मसखरातंत्र में तब्दील हो जाने के पीरियड का जब ईमानदार अध्ययन होगा, तो महाजन बहुत अजीब व छिछली किरदार होंगी उसमें। उन्होंने अपनी प्रभुता को लघुता में बदल दिया। उर्वर संसदीय बहस की परम्परा अपने उरूज से जवाल पर आ चुकी है। तुलसी को महाजन जी बिसरा गईं जो कहते थे-

मुखिया मुख सों चाहिए खानपान को एक,
पालत-पोसत सकल अंग तुलसी सहित विवेक। 

सुमित्रा जी को संचार की कुछ बुनियादी बातों का ज़रूर ख़याल रखना चाहिए। चाहें तो भरत मुनि का नाट्यशास्त्र या आनंदवर्द्धन का ध्वन्यालोक फिर से उलट लें। अरस्तू का रेटोरिक पकड़ कर तो मोदी जी इस क़दर बैठे हैं कि उसका बस कुपाठ ही किये जा रहे हैं और रेटोरिक जैसे ख़ूबसूरत लफ्ज़ को सिर्फ़ मज़ाक का विषय बना दिया है।

गुज़िश्ता साल उत्तरप्रदेश के सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलित विरोधी हिंसा को लेकर बात रखने के दौरान बार-बार टोके जाने और सांसदों के हंगामे से नाराज बसपा प्रमुख मायावती जी ने राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। 

राज्यसभा में मायावती जी के बोलते वक़्त जिस तरह मंत्री हंगामा कर रहे थे, वो किसी लिहाज़ से ठीक नहीं था। उपसभापति सदन का संचालन कुशलतापूर्वक अगर करते तो वो सीमित समय में भी अपनी बात रख सकती थीं, मगर इतनी टोकाटाकी व शोरशराबा हो रहा था कि महज़ खानापूर्ति के लिए वो नहीं बोलना चाहतीं थीं, अपनी बात पूरी करना चाहती थीं। पर, उन्हें बात नहीं रखने दी गई।

वो बार-बार कह रही थीं कि मुझे अपनी बात पूरी कर लेने दो। अंत में उपसभापति के अपेक्षित हस्तक्षेप की थोड़ी कमी या अखड़ने वाली नरमी, मंत्री नक़वी की हुल्लड़बाज़ी और सत्ता पक्ष के सांसदों के उद्दंड रवैये से खिन्न होकर वो ये कहते हुए निकल गईं कि अगर मैं समाज के दु:ख-दर्द को यहाँ नहीं रख पा रही हूँ, उनके हितों की रक्षा नहीं कर पा रही, तो इस सदन में होने पर लानत है, इस राज्यसभा में रहने का मुझे कोई नैतिक अधिकार नहीं है, मैं इस्तीफ़ा देने जा रही हूँ।

उपसभापति के इस तरह के सदन-संचालन पर बीच में शरद यादव, सीताराम येचुरी, रामगोपाल यादव समेत कई सांसद उठकर कहते हुए दिखाई दिए कि भाई इतने गंभीर विषय पर बात रख रही हैं, आप टाइम दो इन्हें। मायावती जी ख़ुद सक्षम हैं, वो शरद जी को बैठने के लिए कहती हैं। जब वो निकल रही थीं, तो खड़े होकर उन्हें रुकने के लिए दिग्विजय सिंह भी इशारा कर रहे थे।

जो हुआ सदन में, वो ठीक नहीं हुआ। देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं वरिष्ठ नेत्री के साथ अभिजात्य वर्ग का यह अश्लीलतम राजनैतिक रवैया नाक़ाबिले-बर्दाश्त है। जो संकेत मिल रहे हैं, वैसे में आने वाले दिनों में सदन में जो लोग अलग राय प्रकट करेंगे, उन्हें चिढ़ाया जाएगा, उन पर हंसा जाएगा, उन्हें बोलने से रोका जाएगा, उनका मुंह दुसा जाएगा, अभी पतन की सीमा तय नहीं।

बीते बरस उच्च सदन में ऊना की घटना पर मायावती जी ने मुखर ढंग से बात रखने की कोशिश की, पर उनके आक्रोश पर जब फूहड़पन के साथ कुछ सांसद भावभंगिमा बनाते हैं, और उपसभापति रोक नहीं पाते, तो यह लोकतंत्र के निस्तेज होने की आहट है। यह कचोटने वाली घटना देखकर बी.एन. मंडल द्वारा राज्यसभा में 1969 में दिया गया भाषण बरबस याद आ गया –

“जनतंत्र में अगर कोई पार्टी या व्यक्ति यह समझे कि वह ही जबतक शासन में रहेगा, तब तक संसार में उजाला रहेगा, वह गया तो सारे संसार में अंधेरा हो जाएगा, इस ढंग की मनोवृत्ति रखने वाला, चाहे कोई व्यक्ति हो या पार्टी, वह देश को रसातल में पहुंचाएगा।

धारदार बहस की स्वस्थ परंपरा तो जैसे कहीं विलीन ही हो गई हो। क्या ये सच नहीं है कि लोहिया जब आंकड़ों के साथ बोलते थे, तो नेहरू तक असहज हो जाते थे और कई बार निरुत्तर भी। मधु लिमये सदन में जिसकी तरफ आंख उठा कर एक नज़र देख लेते थे, तो लोग सहम जाते थे कि पता नहीं किस पर कौन-सी गाज गिरेगी। इसी हिन्दुस्तान की संसद में एक-से-बढ़कर एक बहसबाज़ हुआ करते थे। आला दर्ज़े की बहसें दर्ज़ हैं इतिहास में। बी. एन. मंडल से लेकर भूपेश गुप्त, न जाने कितने सांसदों ने विमर्श की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ज़रिये इस मुल्क को गढ़ा। कभी उन नेताओं ने अपनी असहमति को तिक्तता या कटुता की शक्ल नहीं लेने दी।

मंडल कमीशन पर जो बहस अगस्त 1982 में हुई, उसमें रामविलास पासवान ने देश भर के सचिवों, अधिकारियों, आदि का जातिवार विवरण देते हुए बताया कि सकारात्मक कार्रवाई क्यों ज़रूरी है। इंदिरा गांधी की कैबिनेट में 18 में 9 ब्राह्मण थे। इस पर भी उन्होंने सभी सूबों के मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों की जातीय पृष्ठभूमि की चर्चा की। विषय की गंभीरता को समझते हुए लोग पूरी संज़ीदगी सुनते रहे। किसी ने कोई हंगामा नहीं बरपाया। जब कभी उनके भाषण के दौरान किसी ने हल्की बात कहने की कोशिश की, स्पीकर ने तुरंत कहा कि बहुत अहम मुद्दे पर चर्चा हो रही है, सभी सहयोग करें, मज़ाक न बनाएं। ऐसा नहीं कि उस वक़्त लोग व्यवधान नहीं पैदा करते थे, पर शर्मो-हया का पानी तब बचा हुआ था।

एक बार रामविलास पासवान बोलने के लिए खड़े हुए और बीच में ही संजय गांधी ने कुछ कहना शुरू कर दिया। बस, पासवान भड़क गए, और यहां तक कहा कि संजय गांधी जी, कहां फरियाना है, चांदनी चौक कि कनाट प्लेस, जगह तय कर लें, झंडा गाड़ के लड़ेंगे, किसी के रहमोकरम पर यहां नहीं हैं, जनता ने अपनी बात कहने के लिए चुनकर यहाँ भेजा है। रामविलास आपकी भभकी से नहीं डरता, गया वो ज़माना कि सभाओं में हम ज़लील होते थे और चूं तक नहीं कर पाते थे। बात इतनी बढ़ी कि ख़ुद इंदिरा जी ने आकर पासवान जी से कहा कि रामविलास जी आप अनुभवी सांसद हैं, संजय को संसदीय परंपरा सीखने में अभी वक़्त लगेगा। मैं खेद प्रकट करती हूँ। यह भी मूल्यों व मान्यताओं को लेकर प्रतिबद्ध उस नेत्री की सदाशयता ही थी। यह इंदिरा गांधी का बड़प्पन था। आज तो अनुराग ठाकुर बोलते हुए चिल्ला रहे होते हैं तो ठीक उनके पीछे प्रधानमंत्री मोदी हाउस में प्रवेश करते हुए खड़े हो जाते हैं इस देहभाषा के साथ मानो कोई डॉन अपने आदमी से बोलवा रहा हो। किसी बात के लिए खेद प्रकट करना मोदीजी के स्वभाव में नहीं है। 

एक बार चंद्रशेखर ने सदन में कहा था, जो आज सत्ता पक्ष के लोगों को भूलना नहीं चाहिए, “एक बात हम याद रखें कि हम इतिहास के आख़िरी आदमी नहीं हैं। हम असफल हो जायेंगे, यह देश असफल नहीं हो सकता। देश ज़िंदा रहेगा, इस देश को दुनिया की कोई ताक़त तबाह नहीं कर सकती। ये असीम शक्ति जनता की, हमारी शक्ति है, और उस शक्ति को हम जगा सकें, तो ये सदन अपने कर्त्तव्य का पालन करेगा।”

जब अधिकांश लोग सेना बुला कर लालू प्रसाद को गिरफ़्तार करने पर ‘भ्रष्टाचार’ की ढाल बनाकर चुप्पी ओढ़े हुए थे उस समय चंद्रशेखर ने लालू प्रसाद मामले में जो कहा था, उसे आज याद किये जाने की ज़रूरत है –

“लालू प्रसाद ने जब ख़ुद ही कहा कि आत्मसमर्पण कर देंगे, तो 24 घंटे में ऐसा कौन-सा पहाड़ टूटा जा रहा था कि सेना बुलाई गई? ऐसा वातावरण बनाया गया मानों राष्ट्र का सारा काम बस इसी एक मुद्दे पर ठप पड़ा हुआ हो। लालू कोई देश छोड़कर नहीं जा रहे थे। मुझ पर आरोप लगे कि लालू को मैं संरक्षण दे रहा हूँ।

मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मेरी दिलचस्पी किसी व्यक्ति विशेष में नहीं है, ऐसा करके मैं इस संसदीय संस्कृति की मर्यादा का संरक्षण कर रहा हूँ। जब तक कोई अपराधी सिद्ध नहीं हो जाता, उसे अपराधी कहकर मैं उसे अपमानित और ख़ुद को कलंकित नहीं कर सकता। यह संसदीय परंपरा के विपरीत है, मानव-मर्यादा के अनुकूल नहीं है।

किसी के चरित्र को गिरा देना आसान है, किसी के व्यक्तित्व को तोड़ देना आसान है। लालू को मिटा सकते हो, मुलायम सिंह को गिरा सकते हो, किसी को हटा सकते हो जनता की नज़र से, लेकिन हममें और आपमें सामर्थ्य नहीं है कि एक दूसरा लालू प्रसाद या दूसरा मुलायम बना दें। भ्रष्टाचार मिटना चाहिए, मगर भ्रष्टाचार केवल पैसे का लेन-देन नहीं है। एक शब्द है हिंदी में जिसे सत्यनिष्ठा कहा जाता है, अगर सत्यनिष्ठा (इंटेग्रिटी) नहीं है, तो सरकार नहीं चलायी जा सकती। और, सत्यनिष्ठा का पहला प्रमाण है कि जो जिस पद पर है, उस पद की ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए, उत्तरदायित्व को निभाने के लिए आत्मनियंत्रण रखे, कम-से-कम अपनी वाणी पर संयम रखें। ये नहीं हुआ अध्यक्ष महोदय।

सीबीआइ अपनी सीमा से बाहर गयी है, ये भी बात सही है कि उस समय सेना के लोगों ने, अधिकारियों ने उसकी माँग को मानना अस्वीकार कर दिया था। ये भी जो कहा गया है कि पटना हाइ कोर्ट ने उसको निर्देश दिया था कि सेना बुलायी जाये; वो बुला सकते हैं, इसको भी सेना के लोगों ने अस्वीकार किया था। ऐसी परिस्थिति में ये स्पष्ट था कि सीबीआइ के एक व्यक्ति, उन्होंने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया था। मैं नहीं जानता कि कलकत्ता हाइ कोर्ट का क्या निर्णय है। उस बारे में मैं कुछ नहीं कहना चाहता। लेकिन ये प्रश्न ज़्यादा मौलिक है जिसका ज़िक्र अभी सोमनाथ चटर्जी ने किया। अगर पुलिस के लोग सेना बुलाने का काम करने लगेंगे, तो इस देश का सारा ढाँचा ही टूट जायेगा।

सेना बुलाने के बहुत-से तरीके हैं। वहाँ पर अगर मान लीजिए मुख्यमंत्री नहीं बुला रहे थे, वहाँ पर राज्यपाल जी हैं, यहाँ पर रक्षा मंत्री जी हैं, होम मिनिस्ट्री थी, बहुत-से साधन थे, जिनके ज़रिये उस काम को किया जा सकता था। लेकिन किसी पुलिस अधिकारी का सीधे सेना के पास पहुँचना एक अक्षम्य अपराध है। मैं नहीं जानता किस आधार पर कलकत्ता हाइ कोर्ट ने कहा है कि उनको इस बात के लिए सजा नहीं मिलनी चाहिए। मैं अध्यक्ष महोदय आपसे निवेदन करूँगा और आपके ज़रिये इस सरकार से निवेदन करूँगा कि कुछ लोगों के प्रति हमारी जो भी भावना हो, उस भावना को देखते हुए हम संविधान पर कुठाराघात न होने दें, और सभी अधिकारियों को व सभी लोगों को, चाहे वो राजनीतिक नेता हों, चाहे वो अधिकारी हों; उन्हें संविधान के अंदर काम करने के लिए बाध्य करें।

और, अगर कोई विकृति आयी है, तो उसके लिए उच्चतम न्यायालय का निर्णय लेना आवश्यक है, और मुझे विश्वास है कि हमारे मंत्री, हमारे मित्र श्री खुराना साहेब इस संबंध में वो ज़रा छोटी बातों से ऊपर उठकर के एक मौलिक सवाल के ऊपर बात करेंगे।”

आज गिरते मूल्यों के बीच बहुत कम लोग नज़र आते हैं जिन्हें संसदीय मर्यादा का अनुपालन करने की फ़िक्र है। चंद्रशेखर से लाख असहमति हो, पर वो संसद में डिग्निटी के साथ बहस करना और उसका हिस्सा होना जानते थे। इतनी नम्रता और प्रखरता से वो बात रखते थे कि अटल जी भी बुरा नहीं मानते थे, “अपने अंदर में विभेद हो और सारे देश को एकता का संदेश दिया जाय, यह बात कुछ सही नहीं दिखाई पड़ती।

पहले ऐसा इसलिए भी संभव हो पाता था कि लोकसभा अध्यक्ष भी उसी निष्पक्षता से अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते थे। एक वाक़या याद आता है कि चंद्रशेखर सदन में पूरे प्रवाह में बोल रहे थे, इतने में एक सदस्य ने अनावश्यक टोकाटोकी की। बस क्या था, चंद्रशेखर अपने युवा-तुर्क वाले अंदाज़ में आ गये, मानीय सदस्य को एक नज़र देखा और डपटते हुए धीरे से बोले:

If you’re Speaker, then I shall address to you. Unfortunately, you aren’t, and I think country will not be that unfortunate that you’ll be a coming speaker. इतना कहकर चंद्रशेखर ने ठहाका लगा दिया, बस पूरे सदन में कहकहे… ये चंद्रशेखर की वाग्पटुता और स्वीकार्यता थी।

आज जैसा माहौल बना दिया गया है, उसमें कोई सोच भी भी सकता है, जो बात सहजता से चंद्रशेखर कह जाते थे, “अध्यक्ष जी, युद्ध बुरा खेल है, मैं प्रधानमंत्री जी से कहूंगा कि वो हमसे लड़ लें, मगर पाकिस्तान से लड़ने की जिद न करें। हम शांतिप्रिय लोग हैं, मगर हममें से जो बयानवीर लोग सीमा पर जाना चाहते हैं, उन्हें वहां भेज दें, मुझे कोई एतराज़ नहीं है। Nations are not run by ballot and bullet, but by the will power of the people. और, याद रखिए कि चापलूसों और समर्थकों में बहुत थोड़ा अंतर होता है। There’s very thin line between supporters and flatterers.

मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि पीएम ने अपने आचरण से हमारे जैसे लोगों को निराश किया है। अख़बारों के पन्ने से इतिहास नहीं लिखा जाता, लोगों के प्रशस्ति-गान से इतिहास नहीं बनता। बेअक़्ल लोगों की सलाह लेने से कभी-कभी हम ख़तरे में पड़ जाते हैं, प्रधानमंत्री जी। प्रलाप सामर्थ्य का द्योतक नहीं है । शायद इसीलिए मैं आपके विश्वास तोड़ने की इस कला का विरोध करता हूँ"।

आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो मौजूदा वज़ीरे-आज़म की ओर से लगातार ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाता है जो मर्यादा की सारी सीमाएं लांघती नज़र आती है। आज़ाद भारत के 71 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है किसी प्रधानमन्त्री के भाषण में से असंसदीय हिस्से को कार्यवाही से निकाला गया हो। मौक़ा था राज्यसभा के उपसभापति चुनाव का। जब हरिवंश जी चुनाव जीत गए और कांग्रेस के बीके हरि हार गए, तो नरेंद्र मोदी ने फूहड़ मज़ाक किया, बीके हरि जी, नहीं बिके... राजद सांसद प्रो. मनोज झा के प्वाइंट आफ आर्डर के बाद उस पोर्शन को एक्सपंज कर दिया गया। 

आज देश की आम-अवाम पीएम से मिन्नत कर रही है, "रहम कीजिए इस देश पर, बख़्श दीजिए इस समाज को। आप चले जाएंगे आग लगाकर, पर बुझाने वाले पानी कहां से लाएंगे? इंसानियत के कुएं में कूड़ा डलवाकर आपने ढंकवा दिया है। अफ़सोस कि आज आपको डांटने के लिए संसद में कोई चंद्रशेखर, कोई भूपेश गुप्त, कोई मधु लिमये नहीं है, जिनकी डपट आपके गुरुदेव द्वय भी सर झुका कर सुन लेते थे, और आंशिक ही सही, अमल में लाने का भरोसा तो दिलाते थे। आपने तो संसद को ही निलंबित अवस्था में डाल दिया है जिसके साथ जनहित के मुद्दे हवा में लटके हुए हैं। अपने 'मन की बात' को संसदसत्र का पर्याय या स्थानापन्न बना दिया है। यह ठीक नहीं कर रहे प्रधानमंत्री"।

एक तरफ वे मौनव्रत साधे रहते हैं, दूसरी तरफ 'मनोरोगी' हत्यारे 'राजकीय संरक्षण' के बल पर तांडव करते रहते हैं। हिंदुस्तान की सारी गायों को मोदीजी अपने प्रधानमंत्री आवास में क्यों नहीं रख लेते या गुजरात में अपने मित्र उद्योगपतियों को दे दें, प्रबंधन में माहिर अपने अध्यक्ष से कहें कि अडानी या अंबानी के घर बांध आएं, कुछ तो व्यवस्था करें। नहीं चाहिए हमें गाय-माल। इन गायों ने हमारे जानमाल की बहुत क्षति कर दी है। निरीह, निरपराध लोगों का जीना हराम कर रखा है।

पीएम को दस-दस गाय सरदाना-चौधरी-अंजना-श्वेता-चित्रा-रुबिया-चौरसिया-रजत-गोस्वामी-चौरसिया, आदि के यहाँ बंधवा देना चाहिए। यही लोग गोभक्त भी हैं और देशभक्त भी, मुल्क की समझ बस इन्हीं लोगों के पास है। वो जो गांव में इन चिल्लाने वाले एंकरों के एजेंडे से बेख़बर अमन-चैन से रहना चाहते हैं;  वो सब 'जाहिल' हैं और इनके 'नेशन फ़र्स्ट' के प्रोजेक्ट में बाधक हैं। मिटाना चाहें, तो मिटा दें इन्हें अपनी इमेजिनेशन से, पर इतनी बेरहमी से घुटा-घुटा कर इन्हें जीते जी क्यों मार रही है पीएम का कट्टर समर्थक होने का दावा करने वालों की टोली? क्या प्रधानमंत्री इतना सब देखने के बाद भी चैन की नींद सो लेते हैं? माफ़ कीजै कि बहुतों को इंसोमनिया हो गया है, पर दूर-दूर तक कोई राहत और हल नज़र नहीं आते।

वर्तमान प्रधानमंत्री के आने से जो सबसे बड़ा नुक़सान इस जनतंत्र को हुआ है, वो ये कि पहली बार लोगों ने प्रधानमंत्री को गंभीरता से लेना छोड़ दिया है। ऐसा तो देवगौड़ा जिन्हें झूठे ही कमज़ोर प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित किया गया; के साथ भी नहीं था। आज लोग चुनाव आयोग पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं, यह कोई अच्छी बात तो नहीं। लोगों ने न्यायपालिका तक की मंशा पर संदेह करना शुरू कर दिया है। सेक्युलरिज़म का मज़ाक उड़ाते-उड़ाते उन्होंने ख़ुद को ही नहीं, प्रधानमंत्री नामक संस्था को भी मज़ाक का विषय बना दिया है।

नशेमन ही के लुट जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था
यहां तो बेचने वालों ने गुलशन तक बेच डाला है।

नेशनल कांफ्रेंस के फारुख़ अब्दुल्ला का जब सदन के अंदर स्पीच होता है, तो जिस अंदाज़ में लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन उन्हें बार-बार टोकती हैं, उससे लगता है कि लालू-शरद-सुषमा के मेयार की स्पीचेज़ अब गुज़रे ज़माने की बात होगी जिनके लिए दूसरी पार्टी के लोग भी अपना टाइम दे दिया करते थे, मगर उनके फ्लो को तोड़ते नहीं थे। यही हमारे सदन की रिवायत भी रही है और गरिमा भी जहां लोकतंत्र में परस्पर विरोधी होते हुए भी कोई अदावत नहीं होती थी। अब तो संसद के कोरिडोर में ईडी-सीबीआई-इनकम टैक्स का डर दिखा कर विरोधी दल के नेताओं को धमका-हड़का तक दिया जाता है, और दल का मर्जर होते-होते रह जाता है। राजनीति में भ्रूणहत्या इसे ही तो कहते हैं। 

कल क़िस्सा राफ़ेल का कुछ ऐसा छाया रहा कि हिन्दुस्तान की लोकसभा में विचित्र दृश्य उपस्थित हो रहा था। स्पीकर की जगह बैठी सुमित्रा महाजन बीजेपी प्रवक्ता का रौद्र रूप धारण कर बैठीं, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने मौन धारण कर लिया और उनकी जगह वित्त मंत्री अरुण जेटली की जिह्वा पर साक्षात् सरस्वती विराजमान हो गई। लालू जी ने ठीक ही कहा था, “ऐसा कोई प्रधानमन्त्री देखा है?”

कुल मिलाकर, यह समय मसखरों के लगातार छाने और मंडराने की आहट के साथ हमारे सामने है। किसी रोज़ पूरा तंत्र ही कहीं मसखरा तंत्र में न तब्दील हो जाए, संकट इसी बात का है।

गोपाल दास नीरज ने ठीक ही कहा –
न तो पीने का सलीक़ा न पिलाने का शऊर
ऐसे ही लोग चले आए हैं मैख़ाने में।

(लेखक सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़, जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर हैं।)

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