क्या ताजमहल भारतीय संस्कृति का भाग नहीं है?

Written by राम पुनियानी | Published on: June 23, 2017
संस्कृति हमारे जीवन का एक अत्यंत चित्ताकर्षक हिस्सा होता है। संस्कृति को समझने के लिए हमें लोगों के जीवन जीने के तरीके और उनकी खानपान की आदतों, उनकी वेशभूषा, उनके संगीत, उनकी भाषा, उनके साहित्य, उनकी वास्तुकला और उनके धर्म को समझना होता है। हमारे जैसे बहुवादी और विविधवर्णी देश की संस्कृति, एक ‘मोज़ेक’ की तरह है और यह मोजे़क हमें हमारी संस्कृति की जटिलताओं को समझने में मदद कर सकता है। भारतीय संस्कृति के निर्माण में विभिन्न धर्मों के लोगों की भूमिका रही है।

Taj Mahal

भारतीय संस्कृति क्या है? हम यह कह सकते हैं कि भारत के लोगों की संस्कृति की सकल बहुवादी अभिव्यक्ति ही भारत की संस्कृति है। वह समावेशी और समन्वयवादी है। भारतीय राष्ट्रवादी भी भारतीय संस्कृति के इसी स्वरूप को मान्यता देते थे और अब तक भारत के सत्ताधारी भी भारत की सम्मिश्रित संस्कृति को ही देश की संस्कृति मानते आए थे।

पिछले कुछ दशकों में हिन्दू राष्ट्रवादियों के उदय के साथ, और विशेषकर पिछले तीन सालों में, संस्कृति की हमारी समझ को सांप्रदायिक रंग देने के प्रयास हो रहे हैं। संस्कृति के जो भी पक्ष गैर-ब्राह्मणवादी हैं, उन्हें दरकिनार किया जा रहा है। इसका एक उदाहरण है, उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का हालिया (जून 16, 2017) वक्तव्य जिसमें उन्होंने देश में आने वाले गणमान्य विदेशी अतिथियों को ताजमहल की प्रतिकृति भेंट करने की परंपरा की निंदा की। उनके अनुसार, ताजमहल, भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है। उन्होंने नरेन्द्र मोदी द्वारा विदेशी अतिथियों को भगवदगीता की प्रति भेंट करने की परंपरा प्रारंभ करने का स्वागत किया।

ताजमहल, यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व धरोहर स्थल है। उसे दुनिया के सात अजूबों में से एक माना जाता है। ताजमहल एक अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन आकर्षण तो है ही, वह वास्तुकला के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों का प्रतीक भी है। ताजमहल का निर्माण, मुगल बादशाह शाहजहां ने अपनी प्रिय पत्नी मुमताज़ महल की याद में करवाया था। इस इमारत के बारे में पिछले कुछ समय से एक नया विवाद शुरू कर दिया गया है। यह कहा जा रहा है कि ताजमहल, दरअसल, एक शिवमंदिर था जिसे मकबरे में बदल दिया गया। इस प्रचार में कोई दम नहीं है। ऐतिहासिक तथ्य और दस्तावेज इस दावे को झुठलाते हैं। शाहजहां के ‘बादशाहनामा’ से यह साफ है कि ताजमहल का निर्माण, शाहजहां ने ही करवाया था। तत्समय के एक यूरोपीय प्रवासी पीटर मुंडी ने लिखा है कि अपनी सबसे प्रिय पत्नी की मृत्यु के कारण बादशाह शाहजहां गहरे सदमे में हैं और उनकी याद में वे एक शानदार मकबरा बनवा रहे हैं। एक फ्रांसीसी जौहरी टेवरनियर जो उस समय भारत में थे, ने भी इसकी पुष्टि की है। शाहजहां के रोज़ाना के खर्चे की किताबों में भी यह विवरण है कि संगमरमर खरीदने और श्रमिकों के वेतन आदि पर क्या खर्च हुआ। इस प्रचार का एकमात्र आधार यह है कि जिस भूमि पर ताजमहल बनवाया गया, उसे शाहजहां ने राजा जयसिंह से खरीदा था। यहां यह महत्वपूर्ण है कि जिस राजा जयसिंह की भूमि पर शिवमंदिर होना बताया जाता है और यह कहा जाता है कि उसके स्थान पर ताजमहल बनवाया गया, वह एक वैष्णव था और उसके द्वारा शैव मंदिर बनाए जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।

यह हास्यास्पद है कि पहले तो ताजमहल को शिवमंदिर बताया जाता है और अब यह कहा जा रहा है कि वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है। एक प्रश्न यह भी है कि गीता को इतना महत्व क्यों दिया जा रहा है। कुछ दशकों पहले तक देश में यह परंपरा थी कि यात्रा पर आने वाले विदेशी गणमान्य अतिथियों को हमारे देश के प्रधानमंत्री आदि, गांधीजी की आत्मकथा ‘‘सत्य से मेरे प्रयोग’’ की प्रति भेंट किया करते थे। अब गीता को हमारे देश के विभिन्न धर्मग्रंथों का प्रतिनिधि और प्रतीक बताया जा रहा है। इन ग्रंथों में गुरूग्रंथसाहब, कबीरवाणी व नारायण गुरू और बसवन्ना द्वारा लिखे ग्रंथ शामिल हैं। गीता को महत्व देने का कारण समझने के लिए हमें अंबेडकर की ओर मुड़ना होगा। अंबेडकर का कहना था कि गीता, दरअसल, मनुस्मृति का संक्षिप्त रूपांतरण है और मनुस्मृति, ब्राह्मणवाद का मूल ग्रंथ है। अंबेडकर ने जीवनभर मनुस्मृति द्वारा प्रतिपादित मूल्यों के विरूद्ध काम किया। ब्राह्मणवादी संस्कृति के जिस अन्य प्रतीक को बहुत बढ़ावा दिया जा रहा है वह है पवित्र गाय। गीता और गाय, दोनों ब्राह्मणवाद के प्रतीक हैं और वर्तमान सत्ता, हिन्दुत्व और हिन्दू धर्म के नाम पर ब्राह्मणवाद को बढ़ावा दे रही है।

स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व, सभी धर्मों, क्षेत्रों और भाषाओं के प्रतीकों को भारतीय मानता था। बौद्धों, जैनियों, ईसाईयों, मुसलमानों और सिक्खों ने हमारी संस्कृति के निर्माण में जो कुछ योगदान दिया है, वह सब भारत की विरासत का हिस्सा है और यह सांझा विरासत हमारी रोज़ाना की ज़िंदगी में भी प्रतिबिंबित होती है। भारत एक ऐसा देश है जहां सभी धर्म फले-फूले। देश के लोग सदियों से अलग-अलग धर्मों का पालन करते हुए भी मिलजुल कर रहते आए हैं। इनमें से कुछ धर्म भारत में जन्मे तो कुछ बाहर से आए और अलग-अलग तरीकों, जिनमें सूफी और भक्ति संतों और मिशनरियों की शिक्षाएं शामिल हैं, से देश में फैले। इस्लाम के प्रसार में सूफी संतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई मिशनरियों द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में परोपकार के कार्यों से ईसाई धर्म फैला। भारतीय संस्कृति के सभी पक्षों ने विभिन्न धर्मों के लोगों की परंपराओं और आस्थाओं की झलक मिलती है।

खानपान की हमारी आदतों पर पश्चिम एशियाई प्रभाव स्पष्ट है। हमारी वेशभूषा और वास्तुकला पर भी विभिन्न धर्मों और दुनिया के विभिन्न हिस्सों की संस्कृतियों का प्रभाव देखा जा सकता है। भक्ति संतों के अनुयायियों में मुसलमान भी शामिल थे और आज भी बड़ी संख्या में हिन्दू, सूफी संतों की दरगाहों पर जाते हैं।

महात्मा गांधी ने भारतीय इतिहास और उसकी संस्कृति की सर्वोत्तम व्याख्या की। वे विभिन्न धर्मों के बीच कोई टकराव नहीं देखते थे। अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में वे लिखते हैं ‘‘मुस्लिम राजाओं के राज में हिन्दू फले-फूले और हिन्दू राजाओं के शासन में मुसलमान। दोनों पक्षों को यह अहसास था कि आपस में लड़ना आत्मघाती होगा और दोनों ही पक्ष बलप्रयोग या तलवार की नोक पर अपने धर्म को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए, दोनों पक्षों ने यह तय किया कि वे शांति से साथ-साथ रहेंगे। अंग्रेज़ों के आने के साथ विवाद शुरू हुए...क्या हमें यह याद नहीं रखना चाहिए कि कई हिन्दुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक हैं और उनकी नसों में एक ही खून बह रहा है?’’

विभिन्न धर्मों के लोगों की भागीदारी से भारतीय संस्कृति का निर्माण हुआ है। वर्तमान सत्ताधारियों के लिए केवल ब्राह्मणवादी प्रतीक इस देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। योगी आदित्यनाथ जो कह रहे हैं उसका यही अर्थ है।

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

 

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