प्रभाष जोशी जी आज होते तो इंडियन एक्सप्रेस में छपे इस विज्ञापन के बारे में उनसे एक सवाल पूछा जा सकता था. सर, ये विज्ञापन है या पेड न्यूज? और यह भी पूछा जा सकता था कि क्या एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा (एक बेहद ही सुलझे, विद्वान, दिलेर पत्रकार) की पत्रकारीय बुद्धिमता और गरिमा इस बात की इजाजत देती थी कि इस तरह का विज्ञापन प्रकाशित किया जाए.
मुझ जैसे औसत पत्रकार को तो यही समझ आया कि दरअसल, नॉर्दन इंडिया टेक्स्टाइल मिल्स असोसिएशन का ये विज्ञापन अपने-आप में एक शानदार खबर है, जिस पर काम करने के लिए किसी भी पत्रकार/मीडिया संस्थान के पास असीम अवसर था. असोसिएशन की कुछ मजबूरी रही होगी, खबर को विज्ञापन के शक्ल में प्रकाशित करवाने की. क्योंकि, फटी तो आजकल सब की है, कोई बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा. लेकिन, एक्सप्रेस जैसे मीडिया संस्थान की क्या मजबूरी थी.
मुझे पक्का यकीन है कि अर्णब गोस्वामी या जागरण जैसे अखबार इस विज्ञापन को छापने से मना कर देते. खबर छपने या दिखाने का तो सवाल ही नहीं उठता. लेकिन, एक्सप्रेस....राजकमल झा....जिन्होंने सरकार से मिली गाली और आलोचना को कभी बैज ऑफ ऑनर कहा था...वो भी नरेंद्र मोदी के सामने.
तो जनाब, मसला सिर्फ इतना है कि भारतीय पत्रकारिता अपने रेंगने काल से निकल कर घिसटने के काल में पहुंच चुकी है. मुझे 2011 भी याद है. जब कई पत्रकार रॉबर्ट वाड्रा के धतकरमों की बात आपस में करते थे. लेकिन, किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि खबर छापे या प्रकाशित करे. लेकिन, ऐसी भी नौबत नहीं आई कि अरविंद केजरीवाल को जब रॉबर्ट वाड्रा पर आरोप लगाने थे तो विज्ञापन छपवाना पडा. केजरीवाल ने प्रेस कांफ्रेंस की और सारे मीडिया ने पीसी का हवाला देते हुए रॉबर्ट वाड्रा ऊर्फ भारतीय राजनीति के राष्ट्रीय दामाद की बैंड बजाई. लेकिन, आज क्या हो रहा है?
आज अर्थव्यवस्था का सच जनता को बताने के लिए खबर नहीं विज्ञापन का सहारा लेना पड रहा है. अब आप ही बताइए कि खौफ किसे कहते है? हालांकि, इस विज्ञापन को छपने की हिम्मत दिखाने के लिए राजकमल झा और एक्सप्रेस को बधाई क्योंकि जैसा मैंने पहले कहा, अर्णबों, गुप्ताओं, अग्रवालों की हिम्मत तक नहीं होती ये विज्ञापन छपने की.
अर्थव्यवस्था की हालत कैसी है, इसे देखने-समझने के लिए नोएडा अकेला काफी है, जहां तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया संस्थान है. 2 रिपोर्टर दिन भर सेक्टर 58 से 62 घूम ले तो असलियत का पता लग जाएगा. लेकिन, नहीं. मीडिया को अर्थव्यवस्था की बुरी खबर दिखाने के लिए विज्ञापन का सहारा लेना पडा. मैं बार-बार एक्सप्रेस या राजकमल झा का नाम इसलिए ले रहा हूं कि इस दौर में भी पत्रकारिता को वेंटीलेटर के सहारे ये लोग जिन्दा किए हुए थे.
370 एक्सपर्ट एंकर, ट्रिपल तलाक एक्सपर्ट एंकरानी, राम मन्दिर एक्सपर्ट पत्रकारों से इस तरह के खबरों की उम्मीद भी नहीं. लेकिन, जब एक्सप्रेस एक ऐसे सेक्टर की खबर को विज्ञापन के रूप में छपने लगे, जिसका एक तिमाही में नुकसान 35 फीसदी तक है, तो फिर पत्रकार और पत्रकारिता का शोक गान लिखना शुरु कर दीजिए...ये विज्ञापन वाकई भारतीय पत्रकारिता की तेरहवीं का निमंत्रण पत्र है...पता कीजिए....महाभोज कब और कहां तय पाया गया है....
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
मुझ जैसे औसत पत्रकार को तो यही समझ आया कि दरअसल, नॉर्दन इंडिया टेक्स्टाइल मिल्स असोसिएशन का ये विज्ञापन अपने-आप में एक शानदार खबर है, जिस पर काम करने के लिए किसी भी पत्रकार/मीडिया संस्थान के पास असीम अवसर था. असोसिएशन की कुछ मजबूरी रही होगी, खबर को विज्ञापन के शक्ल में प्रकाशित करवाने की. क्योंकि, फटी तो आजकल सब की है, कोई बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा. लेकिन, एक्सप्रेस जैसे मीडिया संस्थान की क्या मजबूरी थी.
मुझे पक्का यकीन है कि अर्णब गोस्वामी या जागरण जैसे अखबार इस विज्ञापन को छापने से मना कर देते. खबर छपने या दिखाने का तो सवाल ही नहीं उठता. लेकिन, एक्सप्रेस....राजकमल झा....जिन्होंने सरकार से मिली गाली और आलोचना को कभी बैज ऑफ ऑनर कहा था...वो भी नरेंद्र मोदी के सामने.
तो जनाब, मसला सिर्फ इतना है कि भारतीय पत्रकारिता अपने रेंगने काल से निकल कर घिसटने के काल में पहुंच चुकी है. मुझे 2011 भी याद है. जब कई पत्रकार रॉबर्ट वाड्रा के धतकरमों की बात आपस में करते थे. लेकिन, किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि खबर छापे या प्रकाशित करे. लेकिन, ऐसी भी नौबत नहीं आई कि अरविंद केजरीवाल को जब रॉबर्ट वाड्रा पर आरोप लगाने थे तो विज्ञापन छपवाना पडा. केजरीवाल ने प्रेस कांफ्रेंस की और सारे मीडिया ने पीसी का हवाला देते हुए रॉबर्ट वाड्रा ऊर्फ भारतीय राजनीति के राष्ट्रीय दामाद की बैंड बजाई. लेकिन, आज क्या हो रहा है?
आज अर्थव्यवस्था का सच जनता को बताने के लिए खबर नहीं विज्ञापन का सहारा लेना पड रहा है. अब आप ही बताइए कि खौफ किसे कहते है? हालांकि, इस विज्ञापन को छपने की हिम्मत दिखाने के लिए राजकमल झा और एक्सप्रेस को बधाई क्योंकि जैसा मैंने पहले कहा, अर्णबों, गुप्ताओं, अग्रवालों की हिम्मत तक नहीं होती ये विज्ञापन छपने की.
अर्थव्यवस्था की हालत कैसी है, इसे देखने-समझने के लिए नोएडा अकेला काफी है, जहां तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया संस्थान है. 2 रिपोर्टर दिन भर सेक्टर 58 से 62 घूम ले तो असलियत का पता लग जाएगा. लेकिन, नहीं. मीडिया को अर्थव्यवस्था की बुरी खबर दिखाने के लिए विज्ञापन का सहारा लेना पडा. मैं बार-बार एक्सप्रेस या राजकमल झा का नाम इसलिए ले रहा हूं कि इस दौर में भी पत्रकारिता को वेंटीलेटर के सहारे ये लोग जिन्दा किए हुए थे.
370 एक्सपर्ट एंकर, ट्रिपल तलाक एक्सपर्ट एंकरानी, राम मन्दिर एक्सपर्ट पत्रकारों से इस तरह के खबरों की उम्मीद भी नहीं. लेकिन, जब एक्सप्रेस एक ऐसे सेक्टर की खबर को विज्ञापन के रूप में छपने लगे, जिसका एक तिमाही में नुकसान 35 फीसदी तक है, तो फिर पत्रकार और पत्रकारिता का शोक गान लिखना शुरु कर दीजिए...ये विज्ञापन वाकई भारतीय पत्रकारिता की तेरहवीं का निमंत्रण पत्र है...पता कीजिए....महाभोज कब और कहां तय पाया गया है....
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)