नई दिल्ली। भारत समेत पूरी दुनिया आज एक बहुत बड़े संकट से गुजर रही है.जन-स्वास्थ्य (Public health)से जुड़े इस भयावह संकट का नाम है COVID-19. दुनिया भर में आज लोग इस वैश्विक महामारी से अपना अस्तित्व बचाए रखने जद्दोजहद में लगे हैं. लेकिन इस दौर में भारत के लोग कहीं ज्यादा बड़े संकट का सामना कर रहे हैं. संकट के इस भयावह दौर में देश की बहुत बड़ी आबादी भूख, भोजन के अभाव और पोषण की समस्या से जूझ रही है. इसने लोगों की बचत, आमदनी और कमाने की क्षमताओं पर करारी चोट की है. लॉकडाउन के इस दौर में आज हमारे साथ हैं बेल्जियम में पैदा हुए भारतीय अर्थशास्त्री ज्याँ द्रेज़. ज्याँ द्रेज़ न सिर्फ भारतीय गांवों में पसरी गरीबी और रोजमर्रा की जिंदगी का बुनियादी विश्लेषण करते हैं, बल्कि अपने इस काम को वे जमीनी फील्डवर्क और आंकड़ों के विश्लेषण से और पुख्ता कर देते हैं. द्रेज़ आपका इस बातचीत में स्वागत है.
सवाल- ज्याँ द्रेज़, वर्षों से आप जो लिख रहे हैं उसे लोग बेहद संजीदगी से लेते रहे हैं. लोगों की इस पर बारीक नजर है. पिछले कुछ हफ्तों में तो लोगों ने आपके लेखन पर और भी ज्यादा ध्यान देना शुरू किया है. ज्याँ, इस देश की एक बहुत बड़ी आबादी पर अचानक थोपे गए इस लॉकडाउन क्या असर होगा, या ये कहें कि क्या असर हो रहा है?
जवाब- इस लॉकडाउन का भारत की बड़ी आबादी पर पड़ा भयावह असर हुआ है. आपको पता है कि भारत में श्रमिकों में सबसे बड़ा हिस्सा असंगठित (अनौपचारिक) क्षेत्र के कामगारों का है. असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के एक बड़े हिस्से का रोजगार छिन गया है. बहुतों को उनके किए गए काम का पैसा भी नहीं मिला है. प्रवासी मजदूरों का बहुत बड़ा हिस्सा कई जगह फंसा हुआ है. ये लोग कैंपों में बहुत खराब स्थिति में रह रहे हैं. लोग अपने घरों तक नहीं पहुंच पाए हैं. और लगता नहीं है कि हालात जल्दी ठीक होंगे. अगर लॉकडाउन में छूट भी दी जाती है, तो भी खत्म हो चुके रोजगार इतनी जल्दी दोबारा पैदा होने से तो रहे. देश में फिलहाल जो हालात हैं उनमें इतनी जल्दी लॉकडाउन में छूट की गुंजाइश भी नहीं दिख रही है. अगले कुछ महीनों में देश के करोड़ों लोग और परिवार नजर आने वाले हैं जिनके पास रोजी-रोटी का कोई साधन नहीं होगा. दोबारा जिंदगी शुरू करने के लिए उनके पास बेहद थोड़े संसाधन होंगे. ऐसे में उनकी जिंदगी काफी कुछ सरकार की ओर से चलाई जाने वाली योजनाओं की मोहताज बन कर रह जाएगी.
सवाल- ऐसे में क्या किया जाए? कुछ स्कीमें लाई गई हैं. कैश ट्रांसफर शुरू किया गया है. लेकिन जहां मैं रहती हूँ, जैसे मुंबई, वहां बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर हैं. कंस्ट्रक्शन मजदूर हैं. लेकिन सबको राशन नहीं मिल रहा है. क्योंकि सबके पास राशन कार्ड नहीं हैं. मजदूर भी यहां-वहां बिखरे हुए हैं. एक जगह तो रहते भी नहीं हैं. कोई शेड में रह रहा है. कोई कहीं किसी झुग्गी में, तो कोई किसी बस्ती में. कितने लोग और कौन कहां रह रहे हैं, इस बारे में कोई डेटा नहीं है. कोई मैपिंग नहीं हुई है. ऐसे में उनके लिए कौन सी स्कीम लाई जाए?
जवाब- देखिये, तीस्ता जी, सबसे पहले तो पब्लिक पॉलिसी तय करते वक्त इन गरीबों की भलाई को काफी ज्यादा अहमियत देनी होगी. इनकी जरूरत, मांग और अधिकारों को ध्यान में रखना होगा. इस वक्त एक वर्ग पर लॉकडाउन का बहुत ज्यादा बोझ है. दूसरे वर्ग पर काफी कम है. फिलहाल जो नीतियां बन रही हैं, वे उस वर्ग या उसके लोगों के प्रभाव में बन रही हैं, जो गरीबों का ध्यान रखने के बजाय खुद को संक्रमण से बचाने में लगे हैं. लिहाजा इस वक्त ये जरूरी है कि संक्रमण से बचने के लिए लॉकडाउन लागू करने अलावा लोगों की जीविका सुरक्षित करने के लिए भी कदम उठे. ताकि देश में और भी अधिक गरीबी और भूख न बढ़े. देश में काफी अनाज बगैर इस्तेमाल के पड़ा है, सरकार को इसकी व्यवस्था करनी होगी कि कैसे इसे जरूरतमंदों तक पहुँचाया जा सके.
दरअसल, चंद दिनों पहले वित्त मंत्री ने लॉकडाउन में लोगों को राहत देने लिए जो पैकेज घोषित किया है, वह जरूरत के हिसाब से काफी कम है. इससे कहीं ज्यादा बड़े पैकेज के ऐलान की जरूरत है. इस वक्त कम से कम इस बात की बेहद जरूरत है कि सरकार के गोदामों में जो अतिरिक्त अनाज है उसका एक बड़ा हिस्सा लोगों में बांटा जाए. पीडीएस को और मजबूत करना चाहिए. गरीब और आर्थिक-सामाजिक तौर पर कमजोर लोगों में तुरंत अनाज बांटना होगा, जिनके पास राशन कार्ड है उन्हें भी और जिनके पास नहीं है उन्हें भी. गांवों और शहरों केस्लम में रहने वालों को हर कीमत पर न्यूनतम खाद्य सुरक्षा मुहैया करानी ही होगी.
24 मार्च को जैसे ही अचानक लॉकडाउन ऐलान हुआ, उसके तुरंत बाद ही 'कॉमर्शियल मीडिया’ के एक बड़े हिस्से ने प्रवासी मजदूरों का पलायन दिखाना शुरू किया. इस मीडिया के मुताबिक देश भर में 5 से 6 लाख प्रवासी मजदूर अपना सबकुछ कंधे में भरे एक बैग में लेकर पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों को चल पड़े थे. साफ दिख रहा था कि लोगों को राज्य (सरकार) पर भरोसा नहीं रह गया था और सुरक्षा के लिए वे अपने घरों की ओर निकल पड़े था. रास्ते में कुछ मौतें भी हुई हैं. लेकिन ऐसे हालात के बावजूद भारी मुसीबत झेल इस वर्ग के क्षोभ की कोई आक्रामक अभिव्यक्ति नहीं दिखी है. ऐसे में तो हमारे सामने इस विशाल आबादी की बेहद आक्रामक अभिव्यक्ति दिखनी चाहिए थी. ऐसा क्यों हुआ? क्या यह राजनीति का संकट है या सामाजिक आंदोलन का संकट? ऐसे में तो दिक्कत झेल रही इतनी बड़ी आबादी को खुल कर सामने आना चाहिए था?
देखिये भारत में प्रवासी मजदूर शहरी आबादी का एक बड़ा और कमजोर और अदृश्य वर्ग है. न सिर्फ प्रवासी मजदूर बल्कि बुजुर्ग और दूसरे कमजोर वर्ग के लोग, मसलन विधवाएं भी इसका हिस्सा हैं. ये लोग काम करने में सक्षम नहीं हैं. हमें उनका भी ध्यान रखना होगा. दिहाड़ी मजदूर भी एक कमजोर वर्ग है चाहे वे प्रवासी मजदूर हों या न हों.
अब आपके सवाल पर आते हैं, सामाजिक तौर पर प्रवासी मजदूरों का यह बेहद कमजोर वर्ग आपको दिखता नहीं है. ये मध्य वर्ग की तरह ट्रेन के रिजर्व डिब्बों में यात्रा नहीं करते. मीडिया इनकी स्टोरी नहीं छापता. ठेकेदार इनका काफी शोषण करते हैं. जिन हालातों में वे रहते हैं उनके बारे में कोई ज्यादा छापने को तैयार नहीं रहता.
पिछले कुछ दिनों में उनकी ओर मीडिया का खासा ध्यान गया है. इसके बावजूद यहां-वहां बेहद बुरे हालात में फंसे प्रवासी मजदूरों को वापस घर भेजने की कोशिश लगभग ना के बराबर हो रही है. हालांकि यह बहुत आसान नहीं होगा लेकिन मेरा मानना है कि ऐसे हालात बनाए जाने चाहिए, जिनसे धीरे-धीरे, व्यवस्थित तरीके से ये मजदूर अपने घर पहुंच सकें. लॉकडाउन खोल कर एक ही झटके में उन्हें घर जाने की इजाजत देना ठीक नहीं होगा. आपको पता है कि अभी हाल में कोटा से कुछ स्टूडेंट्स को यूपी लाया गया. जब स्टूडेंट्स को स्पेशल बसों से वहां से लाया जा सकता है, तो प्रवासी मजदूरों को घर भेजने की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती? आखिर प्रवासी मजदूर घर क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं? मुझे तो शक है कि मजदूरों को नौकरी देने वाले प्रभावशाली उद्योगपति और कारोबारी नहीं चाहते कि मजदूर घर जाएं, क्योंकि उनके लिए यह सस्ता श्रम बल है. उन्हें डर है कि अगर एक बार ये चले गए तो वापस आने में वे डरेंगे. और जाहिर है ऐसे में उन्हें सस्ता मजदूर कहां मिलेगा. महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कुछ दूसरे राज्यों में ऐसी स्थिति आ सकती है. यही वजह है कि मजदूरों को वापस भेजने में हिचकिचाहट दिखाई जा रही है.
सवाल- आखिर इस लॉकडाउन का बोझ किसे उठाना चाहिए. क्योंकि आपको पता है कि भारतीय समाज एक ढांचे में बंटा है. यह बंटा हुआ समाज है. सामाजिक और आर्थिक तौर पर काफी असमानता है?
जवाब- पहली बात तो यह है कि सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों की ज्यादा मदद दी जाए. उनके लिए पी़डीएस सिस्टम का दायरा बढ़ाया जाए ताकि उन्हें अनाज मिल सके. फंड ट्रांसफर योजना को और विस्तृत किया जाए. प्रवासी मजदूरों के लिए शेल्टर की व्यवस्था हो. कम्यूनिटी किचन बड़े पैमाने पर शुरू किए जाएं. यह तो राहत पहुंचाने या बोझ उठाने का एक हिस्सा है.
दूसरा हिस्सा है, अमीरों, यानी रिच और सुपर रिच की भागीदारी का, जो लोग अच्छी स्थिति में हैं, और इस वैश्विक महामारी के असर से दूर हैं. दरअसल इस देश में 1000 अमीर परिवारों की कुल आय 50 लाख करोड़ रुपये के बराबर है. अगर आप इस पर 2 से 4 फीसदी टैक्स भी लगाते हैं तो इससे देश की जीडीपी के 1 फीसदी से भी ज्यादा रकम इकट्ठा हो जाएगी. यह रकम हाल में दिए गए राहत पैकेज से भी ज्यादा होगी. आप रिच और सुपर रिच पर टैक्स लगा कर संसाधन जुटा सकते हैं. लेकिन यह आसान नहीं होगा. अमीर इसका पुरजोर विरोध करेंगे.
सवाल- 2001 में पीयूसीएल की एक याचिका से देश में फूड सिक्योरिटी एक्ट लागू करने का रास्ता साफ हुआ. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अहम फैसला दिया था. लेकिन मौजूदा दौर में भारतीय लोकतंत्र के दो अहम अंग, पार्लियामेंट और ज्यूडीशियरी अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम नजर आ रहे हैं. क्या पार्लियामेंट को इमरेंसी बैठक कर हालात पर विचार नहीं करना चाहिए था. और कोर्ट ने तो लगता है कि सरकार के आगे समर्पण कर दिया है, जबकि उसे सरकार से लोगों के लिए अपनाई जा रही नीतियों पर सवाल करना चाहिए था?
आपने बहुत बढ़िया सवाल किया है. उस दौर में सुप्रीम कोर्ट के रवैये की वजह से फूड सिक्योरिटी एक्ट का रास्ता साफ हुआ था. लेकिन आज स्थिति दूसरी है, देश में अनाज का स्टॉक ज्यादा होने के बावजूद आज ज्यादा खाद्य असुरक्षा है. उस समय सुप्रीम कोर्ट की पहल की वजह से 12 करोड़ बच्चों के लिए मिड डे मील का रास्ता साफ हुआ था. यह सिर्फ एक्टिविज्म से संभव नहीं हुआ. सुप्रीम कोर्ट की भी इसमें भूमिका रही है. लेकिन सरकार ने आज खाद्य सुरक्षा जैसे मुद्दों पर उदासीनता अपना ली है. और कोर्ट ने इस तरह के मुद्दों को छोड़ कर आर्टिकल 370, राम जन्मभूमि, एनपीआर और एनआरसी जैसे मुद्दों को तवज्जो देना जरूरी समझा. तो कहने का मतलब यह है, कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले जैसा कमजोर आबादी को समर्थन देने वाला कदम नहीं उठाया. आज जरूरत है कि लोग ऐसे मुद्दों के समर्थन में खड़े हों. अदालतों को सरकार से उनकी नीतियों पर सवाल करने होंगे.
आप इस वक्त रांची में हैं. आपने हाल में रिवर्स माइग्रेशन से पैदा होने वाले हालात पर चिंता व्यक्त की थी. क्या राज्य सरकारें इसके लिए तैयार हैं? लौटने वालों पर कई जगह हमले भी हो रहे हैं, उनका सामाजिक बहिष्कार हो रहा है, इसके बड़े सामाजिक और आर्थिक असर होगा?क्या सरकारें इसके लिए तैयार हैं? हम तैयार हैं?
ये बेहद चिंता की बात है, आज नहीं तो कल यह होना ही है. वे लौटेंगे ही. इससे झारखंड, बिहार, ओडिशा छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल जैसे गरीब राज्यों में सस्ते श्रमिकों की बाढ़ आ जाएगी. यहां पहले से ही लोगों के पास पर्याप्त रोजगार नहीं है. बड़ी आबादी के पास बाहर जाकर काम करना ही एकमात्र रास्ता है. जब ये आबादी लौटेगी तो जल्दी बाहर जाना नहीं चाहेगी. उन्हें फिर इस तरह के हालात पैदा होने का डर होगा. इन राज्यों में रोजगार के साधनों की पहले से कमी है. इससे संसाधनों पर और बोझ बढ़ेगा. जो आबादी वहां पहुंचेगी वहथोड़ा-बहुत रोजगार जुटा सकती है, लेकिन साफ है कि इतनी बड़ी आबादी के लिए वहां समुचित रोजगार नहीं होगा. यह बड़ी गंभीर स्थिति होगी. खास कर बिहार जैसे राज्यों में जहां के श्रम बल का बहुत बड़ा हिस्सा बाहर जाकर काम करता है. इसलिए आने वाले दिनों में वे सरकार की ओर से चलाई जाने वाली कल्याणकारी और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर निर्भर होंगे. यही वजह है कि केंद्र और राज्य सरकारों को अब ज्यादा संसाधन झोंकने होंगे.
सवाल- फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के गोदामों में अनाज भरा हुआ है और सरकार ने कैश ट्रांसफर जैसा कदम उठाया है?
जवाब- दरअसल, सरकार के लोगों से यह पूछा जाना चाहिए कि आपके गोदाम भरे हुए हैं, आप स्टॉक रखने पर खासा पैसा भी खर्च कर रहे हैं, बारिश का मौसम आ रहा है. आखिर आप अनाज सड़ाने पर पैसा क्यों खर्च करना चाहते हैं? दरअसल मामला अनाज रिलीज करने का है. केंद्र सरकार इस पर राज्य सरकारों से पैसा मांगती है. जबकि इसकी कोई लागत नही आती. दरअसल इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारें ‘चिकन गेम इकनॉमिक्स’ में फंसी हुई हैं, जहां दोनों अपनी-अपनी शर्तों की वजह से सौदा नही कर पाती है. फिर भी मेरा यह कहना है कि केंद्र सरकार की इसमें गलती है. केंद्र को अनाज नि:शुल्क रिलीज करना चाहिए क्योंकि इसमें कोई लागत नहीं होती. उसे पहले से कैश की कमी से जूझ रही राज्य सरकारों से इसके लिए कोई कीमत नहीं वसूलनी चाहिए. साफ है कि केंद्र सरकार फ्री में अनाज रिलीज नहीं करना चाहती. दूसरी बात ये है कि, सरकार 2011 की आबादी के हिसाब से पीडीएस कवरेज चाहती है, जबकि 2020 में हालात बदल चुके हैं. साफ है कि सरकार अतार्किक ढंग से अनाज रिलीज रोकना चाहती है. वह नहीं चाहती कि पीडीएस कवरेज बढ़े.
सवाल- 2011 और 2020 के बीच हालात कैसे बदले हैं? इसका फूड सिक्योरिटी पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
जवाब- दअरसल नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट के तहत पीडीएस में दो तिहाई आबादी कवर होती है. केंद्र सरकार 2011 की जनगणना के आधार पर इसकी गणना करती है. उस दौरान 120 करोड़ की आबादी के हिसाब से 80 करोड़ की आबादी इसके तहत कवर होती थी. लेकिन बेस आबादी के हिसाब से दस करोड़ लोग छूट जाते हैं. इस आबादी के पास कोई राशन कार्ड नहीं है. इसलिए इन्हें अनाज नहीं मिलता. आने वाले कुछ सप्ताह में इसी आबादी के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा होगी. इसलिए हमारा कहना है कि राशन कार्ड न होने पर भी अनाज दिया जाए. पीडीएस का यूनिवर्सलाइजेशन होना चाहिए. यानी गरीबी में रह रहे हर शख्स को पीडीएस के तहत कवर किया जाए. उसके पास राशन कार्ड हो या न हो, उसे राशन मिले.
सवाल- एफसीआई में अनाज स्टॉक की क्या स्थिति है?
इस वक्त एफसीआई (फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया- FCI)के गोदामों में 7 करोड़ टन अनाज का भंडार है, और रबी की फसल आने के साथ ही यह बढ़ कर 8 से 9 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इतनी ज्यादा मात्रा में अनाज का भंडार हमारे यहां जमा नहीं हुआ था. जबकि हकीकत यह है कि FCI के पास स्टोरेज की क्षमता नहीं है. इसलिए सरकार को चाहिए कि इस अनाज को सड़ाने के बजाय इसे बांटे.
जवाब- कैश ट्रांसफर पर आपकी क्या राय है?
देखिये कैश ट्रांसफर महत्वपूर्ण है. लेकिन फर्स्ट लाइन ऑफ डिफेंस के तौर पर खाद्यान्न बांटना जरूरी है. हां, कैश ट्रांसफर जरूरी है खास कर दवा आदि खरीदने में इस्तेमाल होने के लिए. सरकार ने महिलाओं के जन-धन खाते के जरिये 500 रुपये बांटने का ऐलान किया और बांट भी रही है. लेकिन 500 रुपये की राशि बहुत कम है. दूसरे, सभी महिलाओं के पास जनधन खाता नहीं है, गरीब महिलाओं की आधी आबादी इससे महरूम है. अब जब ये महिलाएं लॉकडाउन के बाद बैंकों मे 500 रुपये के लिए कतार लगाएंगी तो बैंकिंग ऑपरेशन चरमरा जाएगा. इसके अलावा दूर-दराज के गांवों में बैंक की शाखाएं दूर-दूर हैं. हर जगह बैंकों की पहुंच नहीं है. ऐसे में यहां बिजनेस कॉरेस्पोंडेंट (बैंक विहीन इलाकों में बैंकिंग प्रतिनिधि के तौर पर काम करने वाले) के जरिये पैसा पहुंचाया जाना चाहिए. लेकिन यहां भी समस्या है. ये लोग बायोमैट्रिक का इस्तेमाल करते हैं. जबकि 6 मार्च को सरकार ने अपने दफ्तरों में बायोमैट्रिक का इस्तेमाल बंद कर दिया था. जब सरकार संक्रमण फैलने के डर से बायोमैट्रिक का इस्तेमाल बंद कर सकती है, तो बिजनेस कॉरेस्पोंडेंट को इसका इस्तेमाल कैसे करने दे सकती है.
ध्यान रहे कि आधे से ज़्यादा लोगों को यह नहीं मालूम है कि उनका बैंक खाता जन धन योजना के अंतर्गत आता भी है की नहीं। यानि उनमे से सैंकड़ो लोग घंटो तक कतार में खड़े रहेंगे सिर्फ यह जानने के लिए कि उनको ये राशि मिलेगी या नहीं। और कई लोगों को इसी तकनीकी कारणों से यह राशि नहीं मिलेगी। तो ऐसी चीज़ों का भी ध्यान रखना चाहिए।
धन्यवाद ज्याँ द्रेज़, इस शानदार बातचीत के लिए. आने वाले दिनों में इस संबंध में आपकी आवाज काफी महत्वपूर्ण होगी. एक बार फिर बहुत शुक्रिया.
सवाल- ज्याँ द्रेज़, वर्षों से आप जो लिख रहे हैं उसे लोग बेहद संजीदगी से लेते रहे हैं. लोगों की इस पर बारीक नजर है. पिछले कुछ हफ्तों में तो लोगों ने आपके लेखन पर और भी ज्यादा ध्यान देना शुरू किया है. ज्याँ, इस देश की एक बहुत बड़ी आबादी पर अचानक थोपे गए इस लॉकडाउन क्या असर होगा, या ये कहें कि क्या असर हो रहा है?
जवाब- इस लॉकडाउन का भारत की बड़ी आबादी पर पड़ा भयावह असर हुआ है. आपको पता है कि भारत में श्रमिकों में सबसे बड़ा हिस्सा असंगठित (अनौपचारिक) क्षेत्र के कामगारों का है. असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के एक बड़े हिस्से का रोजगार छिन गया है. बहुतों को उनके किए गए काम का पैसा भी नहीं मिला है. प्रवासी मजदूरों का बहुत बड़ा हिस्सा कई जगह फंसा हुआ है. ये लोग कैंपों में बहुत खराब स्थिति में रह रहे हैं. लोग अपने घरों तक नहीं पहुंच पाए हैं. और लगता नहीं है कि हालात जल्दी ठीक होंगे. अगर लॉकडाउन में छूट भी दी जाती है, तो भी खत्म हो चुके रोजगार इतनी जल्दी दोबारा पैदा होने से तो रहे. देश में फिलहाल जो हालात हैं उनमें इतनी जल्दी लॉकडाउन में छूट की गुंजाइश भी नहीं दिख रही है. अगले कुछ महीनों में देश के करोड़ों लोग और परिवार नजर आने वाले हैं जिनके पास रोजी-रोटी का कोई साधन नहीं होगा. दोबारा जिंदगी शुरू करने के लिए उनके पास बेहद थोड़े संसाधन होंगे. ऐसे में उनकी जिंदगी काफी कुछ सरकार की ओर से चलाई जाने वाली योजनाओं की मोहताज बन कर रह जाएगी.
सवाल- ऐसे में क्या किया जाए? कुछ स्कीमें लाई गई हैं. कैश ट्रांसफर शुरू किया गया है. लेकिन जहां मैं रहती हूँ, जैसे मुंबई, वहां बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर हैं. कंस्ट्रक्शन मजदूर हैं. लेकिन सबको राशन नहीं मिल रहा है. क्योंकि सबके पास राशन कार्ड नहीं हैं. मजदूर भी यहां-वहां बिखरे हुए हैं. एक जगह तो रहते भी नहीं हैं. कोई शेड में रह रहा है. कोई कहीं किसी झुग्गी में, तो कोई किसी बस्ती में. कितने लोग और कौन कहां रह रहे हैं, इस बारे में कोई डेटा नहीं है. कोई मैपिंग नहीं हुई है. ऐसे में उनके लिए कौन सी स्कीम लाई जाए?
जवाब- देखिये, तीस्ता जी, सबसे पहले तो पब्लिक पॉलिसी तय करते वक्त इन गरीबों की भलाई को काफी ज्यादा अहमियत देनी होगी. इनकी जरूरत, मांग और अधिकारों को ध्यान में रखना होगा. इस वक्त एक वर्ग पर लॉकडाउन का बहुत ज्यादा बोझ है. दूसरे वर्ग पर काफी कम है. फिलहाल जो नीतियां बन रही हैं, वे उस वर्ग या उसके लोगों के प्रभाव में बन रही हैं, जो गरीबों का ध्यान रखने के बजाय खुद को संक्रमण से बचाने में लगे हैं. लिहाजा इस वक्त ये जरूरी है कि संक्रमण से बचने के लिए लॉकडाउन लागू करने अलावा लोगों की जीविका सुरक्षित करने के लिए भी कदम उठे. ताकि देश में और भी अधिक गरीबी और भूख न बढ़े. देश में काफी अनाज बगैर इस्तेमाल के पड़ा है, सरकार को इसकी व्यवस्था करनी होगी कि कैसे इसे जरूरतमंदों तक पहुँचाया जा सके.
दरअसल, चंद दिनों पहले वित्त मंत्री ने लॉकडाउन में लोगों को राहत देने लिए जो पैकेज घोषित किया है, वह जरूरत के हिसाब से काफी कम है. इससे कहीं ज्यादा बड़े पैकेज के ऐलान की जरूरत है. इस वक्त कम से कम इस बात की बेहद जरूरत है कि सरकार के गोदामों में जो अतिरिक्त अनाज है उसका एक बड़ा हिस्सा लोगों में बांटा जाए. पीडीएस को और मजबूत करना चाहिए. गरीब और आर्थिक-सामाजिक तौर पर कमजोर लोगों में तुरंत अनाज बांटना होगा, जिनके पास राशन कार्ड है उन्हें भी और जिनके पास नहीं है उन्हें भी. गांवों और शहरों केस्लम में रहने वालों को हर कीमत पर न्यूनतम खाद्य सुरक्षा मुहैया करानी ही होगी.
24 मार्च को जैसे ही अचानक लॉकडाउन ऐलान हुआ, उसके तुरंत बाद ही 'कॉमर्शियल मीडिया’ के एक बड़े हिस्से ने प्रवासी मजदूरों का पलायन दिखाना शुरू किया. इस मीडिया के मुताबिक देश भर में 5 से 6 लाख प्रवासी मजदूर अपना सबकुछ कंधे में भरे एक बैग में लेकर पैदल ही हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों को चल पड़े थे. साफ दिख रहा था कि लोगों को राज्य (सरकार) पर भरोसा नहीं रह गया था और सुरक्षा के लिए वे अपने घरों की ओर निकल पड़े था. रास्ते में कुछ मौतें भी हुई हैं. लेकिन ऐसे हालात के बावजूद भारी मुसीबत झेल इस वर्ग के क्षोभ की कोई आक्रामक अभिव्यक्ति नहीं दिखी है. ऐसे में तो हमारे सामने इस विशाल आबादी की बेहद आक्रामक अभिव्यक्ति दिखनी चाहिए थी. ऐसा क्यों हुआ? क्या यह राजनीति का संकट है या सामाजिक आंदोलन का संकट? ऐसे में तो दिक्कत झेल रही इतनी बड़ी आबादी को खुल कर सामने आना चाहिए था?
देखिये भारत में प्रवासी मजदूर शहरी आबादी का एक बड़ा और कमजोर और अदृश्य वर्ग है. न सिर्फ प्रवासी मजदूर बल्कि बुजुर्ग और दूसरे कमजोर वर्ग के लोग, मसलन विधवाएं भी इसका हिस्सा हैं. ये लोग काम करने में सक्षम नहीं हैं. हमें उनका भी ध्यान रखना होगा. दिहाड़ी मजदूर भी एक कमजोर वर्ग है चाहे वे प्रवासी मजदूर हों या न हों.
अब आपके सवाल पर आते हैं, सामाजिक तौर पर प्रवासी मजदूरों का यह बेहद कमजोर वर्ग आपको दिखता नहीं है. ये मध्य वर्ग की तरह ट्रेन के रिजर्व डिब्बों में यात्रा नहीं करते. मीडिया इनकी स्टोरी नहीं छापता. ठेकेदार इनका काफी शोषण करते हैं. जिन हालातों में वे रहते हैं उनके बारे में कोई ज्यादा छापने को तैयार नहीं रहता.
पिछले कुछ दिनों में उनकी ओर मीडिया का खासा ध्यान गया है. इसके बावजूद यहां-वहां बेहद बुरे हालात में फंसे प्रवासी मजदूरों को वापस घर भेजने की कोशिश लगभग ना के बराबर हो रही है. हालांकि यह बहुत आसान नहीं होगा लेकिन मेरा मानना है कि ऐसे हालात बनाए जाने चाहिए, जिनसे धीरे-धीरे, व्यवस्थित तरीके से ये मजदूर अपने घर पहुंच सकें. लॉकडाउन खोल कर एक ही झटके में उन्हें घर जाने की इजाजत देना ठीक नहीं होगा. आपको पता है कि अभी हाल में कोटा से कुछ स्टूडेंट्स को यूपी लाया गया. जब स्टूडेंट्स को स्पेशल बसों से वहां से लाया जा सकता है, तो प्रवासी मजदूरों को घर भेजने की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती? आखिर प्रवासी मजदूर घर क्यों नहीं पहुंच पा रहे हैं? मुझे तो शक है कि मजदूरों को नौकरी देने वाले प्रभावशाली उद्योगपति और कारोबारी नहीं चाहते कि मजदूर घर जाएं, क्योंकि उनके लिए यह सस्ता श्रम बल है. उन्हें डर है कि अगर एक बार ये चले गए तो वापस आने में वे डरेंगे. और जाहिर है ऐसे में उन्हें सस्ता मजदूर कहां मिलेगा. महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कुछ दूसरे राज्यों में ऐसी स्थिति आ सकती है. यही वजह है कि मजदूरों को वापस भेजने में हिचकिचाहट दिखाई जा रही है.
सवाल- आखिर इस लॉकडाउन का बोझ किसे उठाना चाहिए. क्योंकि आपको पता है कि भारतीय समाज एक ढांचे में बंटा है. यह बंटा हुआ समाज है. सामाजिक और आर्थिक तौर पर काफी असमानता है?
जवाब- पहली बात तो यह है कि सामाजिक और आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों की ज्यादा मदद दी जाए. उनके लिए पी़डीएस सिस्टम का दायरा बढ़ाया जाए ताकि उन्हें अनाज मिल सके. फंड ट्रांसफर योजना को और विस्तृत किया जाए. प्रवासी मजदूरों के लिए शेल्टर की व्यवस्था हो. कम्यूनिटी किचन बड़े पैमाने पर शुरू किए जाएं. यह तो राहत पहुंचाने या बोझ उठाने का एक हिस्सा है.
दूसरा हिस्सा है, अमीरों, यानी रिच और सुपर रिच की भागीदारी का, जो लोग अच्छी स्थिति में हैं, और इस वैश्विक महामारी के असर से दूर हैं. दरअसल इस देश में 1000 अमीर परिवारों की कुल आय 50 लाख करोड़ रुपये के बराबर है. अगर आप इस पर 2 से 4 फीसदी टैक्स भी लगाते हैं तो इससे देश की जीडीपी के 1 फीसदी से भी ज्यादा रकम इकट्ठा हो जाएगी. यह रकम हाल में दिए गए राहत पैकेज से भी ज्यादा होगी. आप रिच और सुपर रिच पर टैक्स लगा कर संसाधन जुटा सकते हैं. लेकिन यह आसान नहीं होगा. अमीर इसका पुरजोर विरोध करेंगे.
सवाल- 2001 में पीयूसीएल की एक याचिका से देश में फूड सिक्योरिटी एक्ट लागू करने का रास्ता साफ हुआ. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अहम फैसला दिया था. लेकिन मौजूदा दौर में भारतीय लोकतंत्र के दो अहम अंग, पार्लियामेंट और ज्यूडीशियरी अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम नजर आ रहे हैं. क्या पार्लियामेंट को इमरेंसी बैठक कर हालात पर विचार नहीं करना चाहिए था. और कोर्ट ने तो लगता है कि सरकार के आगे समर्पण कर दिया है, जबकि उसे सरकार से लोगों के लिए अपनाई जा रही नीतियों पर सवाल करना चाहिए था?
आपने बहुत बढ़िया सवाल किया है. उस दौर में सुप्रीम कोर्ट के रवैये की वजह से फूड सिक्योरिटी एक्ट का रास्ता साफ हुआ था. लेकिन आज स्थिति दूसरी है, देश में अनाज का स्टॉक ज्यादा होने के बावजूद आज ज्यादा खाद्य असुरक्षा है. उस समय सुप्रीम कोर्ट की पहल की वजह से 12 करोड़ बच्चों के लिए मिड डे मील का रास्ता साफ हुआ था. यह सिर्फ एक्टिविज्म से संभव नहीं हुआ. सुप्रीम कोर्ट की भी इसमें भूमिका रही है. लेकिन सरकार ने आज खाद्य सुरक्षा जैसे मुद्दों पर उदासीनता अपना ली है. और कोर्ट ने इस तरह के मुद्दों को छोड़ कर आर्टिकल 370, राम जन्मभूमि, एनपीआर और एनआरसी जैसे मुद्दों को तवज्जो देना जरूरी समझा. तो कहने का मतलब यह है, कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले जैसा कमजोर आबादी को समर्थन देने वाला कदम नहीं उठाया. आज जरूरत है कि लोग ऐसे मुद्दों के समर्थन में खड़े हों. अदालतों को सरकार से उनकी नीतियों पर सवाल करने होंगे.
आप इस वक्त रांची में हैं. आपने हाल में रिवर्स माइग्रेशन से पैदा होने वाले हालात पर चिंता व्यक्त की थी. क्या राज्य सरकारें इसके लिए तैयार हैं? लौटने वालों पर कई जगह हमले भी हो रहे हैं, उनका सामाजिक बहिष्कार हो रहा है, इसके बड़े सामाजिक और आर्थिक असर होगा?क्या सरकारें इसके लिए तैयार हैं? हम तैयार हैं?
ये बेहद चिंता की बात है, आज नहीं तो कल यह होना ही है. वे लौटेंगे ही. इससे झारखंड, बिहार, ओडिशा छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल जैसे गरीब राज्यों में सस्ते श्रमिकों की बाढ़ आ जाएगी. यहां पहले से ही लोगों के पास पर्याप्त रोजगार नहीं है. बड़ी आबादी के पास बाहर जाकर काम करना ही एकमात्र रास्ता है. जब ये आबादी लौटेगी तो जल्दी बाहर जाना नहीं चाहेगी. उन्हें फिर इस तरह के हालात पैदा होने का डर होगा. इन राज्यों में रोजगार के साधनों की पहले से कमी है. इससे संसाधनों पर और बोझ बढ़ेगा. जो आबादी वहां पहुंचेगी वहथोड़ा-बहुत रोजगार जुटा सकती है, लेकिन साफ है कि इतनी बड़ी आबादी के लिए वहां समुचित रोजगार नहीं होगा. यह बड़ी गंभीर स्थिति होगी. खास कर बिहार जैसे राज्यों में जहां के श्रम बल का बहुत बड़ा हिस्सा बाहर जाकर काम करता है. इसलिए आने वाले दिनों में वे सरकार की ओर से चलाई जाने वाली कल्याणकारी और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर निर्भर होंगे. यही वजह है कि केंद्र और राज्य सरकारों को अब ज्यादा संसाधन झोंकने होंगे.
सवाल- फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के गोदामों में अनाज भरा हुआ है और सरकार ने कैश ट्रांसफर जैसा कदम उठाया है?
जवाब- दरअसल, सरकार के लोगों से यह पूछा जाना चाहिए कि आपके गोदाम भरे हुए हैं, आप स्टॉक रखने पर खासा पैसा भी खर्च कर रहे हैं, बारिश का मौसम आ रहा है. आखिर आप अनाज सड़ाने पर पैसा क्यों खर्च करना चाहते हैं? दरअसल मामला अनाज रिलीज करने का है. केंद्र सरकार इस पर राज्य सरकारों से पैसा मांगती है. जबकि इसकी कोई लागत नही आती. दरअसल इस मामले में केंद्र और राज्य सरकारें ‘चिकन गेम इकनॉमिक्स’ में फंसी हुई हैं, जहां दोनों अपनी-अपनी शर्तों की वजह से सौदा नही कर पाती है. फिर भी मेरा यह कहना है कि केंद्र सरकार की इसमें गलती है. केंद्र को अनाज नि:शुल्क रिलीज करना चाहिए क्योंकि इसमें कोई लागत नहीं होती. उसे पहले से कैश की कमी से जूझ रही राज्य सरकारों से इसके लिए कोई कीमत नहीं वसूलनी चाहिए. साफ है कि केंद्र सरकार फ्री में अनाज रिलीज नहीं करना चाहती. दूसरी बात ये है कि, सरकार 2011 की आबादी के हिसाब से पीडीएस कवरेज चाहती है, जबकि 2020 में हालात बदल चुके हैं. साफ है कि सरकार अतार्किक ढंग से अनाज रिलीज रोकना चाहती है. वह नहीं चाहती कि पीडीएस कवरेज बढ़े.
सवाल- 2011 और 2020 के बीच हालात कैसे बदले हैं? इसका फूड सिक्योरिटी पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
जवाब- दअरसल नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट के तहत पीडीएस में दो तिहाई आबादी कवर होती है. केंद्र सरकार 2011 की जनगणना के आधार पर इसकी गणना करती है. उस दौरान 120 करोड़ की आबादी के हिसाब से 80 करोड़ की आबादी इसके तहत कवर होती थी. लेकिन बेस आबादी के हिसाब से दस करोड़ लोग छूट जाते हैं. इस आबादी के पास कोई राशन कार्ड नहीं है. इसलिए इन्हें अनाज नहीं मिलता. आने वाले कुछ सप्ताह में इसी आबादी के सामने भुखमरी की स्थिति पैदा होगी. इसलिए हमारा कहना है कि राशन कार्ड न होने पर भी अनाज दिया जाए. पीडीएस का यूनिवर्सलाइजेशन होना चाहिए. यानी गरीबी में रह रहे हर शख्स को पीडीएस के तहत कवर किया जाए. उसके पास राशन कार्ड हो या न हो, उसे राशन मिले.
सवाल- एफसीआई में अनाज स्टॉक की क्या स्थिति है?
इस वक्त एफसीआई (फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया- FCI)के गोदामों में 7 करोड़ टन अनाज का भंडार है, और रबी की फसल आने के साथ ही यह बढ़ कर 8 से 9 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. इतनी ज्यादा मात्रा में अनाज का भंडार हमारे यहां जमा नहीं हुआ था. जबकि हकीकत यह है कि FCI के पास स्टोरेज की क्षमता नहीं है. इसलिए सरकार को चाहिए कि इस अनाज को सड़ाने के बजाय इसे बांटे.
जवाब- कैश ट्रांसफर पर आपकी क्या राय है?
देखिये कैश ट्रांसफर महत्वपूर्ण है. लेकिन फर्स्ट लाइन ऑफ डिफेंस के तौर पर खाद्यान्न बांटना जरूरी है. हां, कैश ट्रांसफर जरूरी है खास कर दवा आदि खरीदने में इस्तेमाल होने के लिए. सरकार ने महिलाओं के जन-धन खाते के जरिये 500 रुपये बांटने का ऐलान किया और बांट भी रही है. लेकिन 500 रुपये की राशि बहुत कम है. दूसरे, सभी महिलाओं के पास जनधन खाता नहीं है, गरीब महिलाओं की आधी आबादी इससे महरूम है. अब जब ये महिलाएं लॉकडाउन के बाद बैंकों मे 500 रुपये के लिए कतार लगाएंगी तो बैंकिंग ऑपरेशन चरमरा जाएगा. इसके अलावा दूर-दराज के गांवों में बैंक की शाखाएं दूर-दूर हैं. हर जगह बैंकों की पहुंच नहीं है. ऐसे में यहां बिजनेस कॉरेस्पोंडेंट (बैंक विहीन इलाकों में बैंकिंग प्रतिनिधि के तौर पर काम करने वाले) के जरिये पैसा पहुंचाया जाना चाहिए. लेकिन यहां भी समस्या है. ये लोग बायोमैट्रिक का इस्तेमाल करते हैं. जबकि 6 मार्च को सरकार ने अपने दफ्तरों में बायोमैट्रिक का इस्तेमाल बंद कर दिया था. जब सरकार संक्रमण फैलने के डर से बायोमैट्रिक का इस्तेमाल बंद कर सकती है, तो बिजनेस कॉरेस्पोंडेंट को इसका इस्तेमाल कैसे करने दे सकती है.
ध्यान रहे कि आधे से ज़्यादा लोगों को यह नहीं मालूम है कि उनका बैंक खाता जन धन योजना के अंतर्गत आता भी है की नहीं। यानि उनमे से सैंकड़ो लोग घंटो तक कतार में खड़े रहेंगे सिर्फ यह जानने के लिए कि उनको ये राशि मिलेगी या नहीं। और कई लोगों को इसी तकनीकी कारणों से यह राशि नहीं मिलेगी। तो ऐसी चीज़ों का भी ध्यान रखना चाहिए।
धन्यवाद ज्याँ द्रेज़, इस शानदार बातचीत के लिए. आने वाले दिनों में इस संबंध में आपकी आवाज काफी महत्वपूर्ण होगी. एक बार फिर बहुत शुक्रिया.