UN में भारत: देश में 30 करोड़ लोग आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर, सरकार उनके अधिकारों की रक्षा को प्रतिबद्ध

Written by Navnish Kumar | Published on: May 23, 2022
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत ने दावा किया है कि देश में 10 करोड़ से ज्यादा आदिवासी और दूसरे समुदायों के मिलाकर कुल क़रीब 30 करोड़ लोग किसी ना किसी तरह से भोजन, जीविका और आय के लिए जंगलों पर आश्रित हैं। और वह जंगलों के साथ साथ आदिवासियों आदि आश्रितों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह बात भारत की तरफ़ से संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच (United Nations Forum on Forests) पर कही गई है। खास है कि यूनाईटेड नेशन्स फोरम ऑन फ़ॉरेस्ट का 17वां अधिवेशन 9 मई से 13 मई के बीच न्यूयार्क में आयोजित किया गया था।



युनाईटेड नेशन्स फोरम ऑन फ़ॉरेस्ट के 17वें अधिवेशन में बोलते हुए भारत के फॉरेस्ट महानिदेशक और स्पेशल सेक्रेट्री चंद्रप्रकाश गोयल ने कहा, “भारत की परंपरा और संस्कृति, बराबरी और ईमानदारी में बसती है। इससे हमें अपने संसाधनों को सस्टेनेबल तरीक़े मेनेज करने में मदद मिली है।” मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उन्होंने आगे कहा, “जंगल और जंगली जीव जंतुओं को बचाने और उनके प्रबंधन के लिए देश में मज़बूत संस्थागत ढाँचा और नीतियाँ हैं।”

कहा कि भारत जंगल और पेड़ों के मामले में दुनिया के 10 टॉप के देशों में शुमार है। उन्होंने बताया कि भारत में 8 करोड़ हेक्टेयर से ज़्यादा ज़मीन पर जंगल खड़ा है और भारत दुनिया की जैव विविधता में 8% का योगदान करता है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच से बताया कि भारत में कम से कम 173000 वर्ग किलोमीटर में 987 संरक्षित जंगल हैं। 

भारत की तरफ़ से संयुक्त राष्ट्र संघ के इस मंच के 17वें अधिवेशन में दावा किया कि देश में जंगल बढ़ा है। उन्होंने कहा कि दुनिया की कुल भूमि का भारत के पास सिर्फ़ 2.4 प्रतिशत है जबकि दुनिया की कुल आबादी का 17% और जानवरों की कुल संख्या का 18% भारत में है। उन्होंने कहा कि भारत ग्लोबल फ़ॉरेस्ट गोल के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है।

यही नहीं, यहां राजस्थान के बांसवाड़ा में एक कार्यक्रम में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा ‘कांग्रेस आदिवासियों के इतिहास की रक्षक है’। उन्होंने देश को एकजुट करने और जोड़े रखने की बात कही, और कहा कि भाजपा की विचारधारा विभाजन करने की है। कहा देश में आज दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई है। उन्होंने लोगों को याद दिलाया कि यूपीए सरकार आदिवासी समुदायों के लिए वनाधिकार अधिनियम लाई थी। उन्होंने कहा, “हम आपके इतिहास की रक्षा करते हैं। हम आपके इतिहास को दबाना या मिटाना नहीं चाहते। 

राहुल ने अपनी पार्टी के समावेशी स्वभाव और भाजपा के अमीरों के प्रति लगाव के बीच अंतर की भी बात कही। उन्होंने कहा कि भाजपा दो हिंदुस्तान बनाना चाहती है एक अमीर उद्योगपतियों का, और दूसरा दलितों, आदिवासियों, किसानों, गरीबों और वंचितों का। लेकिन कांग्रेस एक भारत के पक्ष में हैं। राहुल गांधी की इस रैली में राजस्थान के आदिवासियों के अलावा पड़ोसी गुजरात, मध्य प्रदेश के आदिवासी भी आए थे, जिसका राजनीतिक महत्व साफ़ है।

अब भले दुनिया के सबसे बड़े फोरम पर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपानीत भारत सरकार कुछ दावा करें या फिर देश पर सबसे लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष कुछ कहे लेकिन जमीनी हकीकत एकदम उलट है। वन अधिकार अधिनियम 2006 के आने के 16 साल बाद भी वनाश्रितों के अधिकारों को मान्यता सपना सरीखा साबित हो रहा है। उलटे यदा कदा तथाकथित विकास के नाम पर उन्हें जंगलों से बेदखल करने की खबरें ही सुर्खियां बटोरती दिखती है। व्यक्तिगत अधिकारों के मामलों में जरूर कुछ राज्यों ने कदम उठाए हैं लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव में आधा अधूरा ही काम हो सका है। 

दूसरा, वन उपज के प्रबंधन आदि से जुड़े सामुदायिक अधिकारों पर अमल किया जाना अभी भी दूर की कौड़ी ही बना है। यही नहीं यूपी उत्तराखंड के साथ छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, तेलांगना, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, बिहार, महाराष्ट्र सभी जगह कमोबेश एक सी ही स्थिति है। लगभग सभी राज्यों में आदिवासी लगातार आंदोलन भी कर रहे हैं। लेकिन शायद सरकारों के भी खाने और दिखाने के दांत अलग अलग होते हैं। यानी कथनी करनी का अंतर साफ है।

हिमालयी राज्यों में ही जहां 40-65% वनभूमि है, वहां भी वन निवासी की परिभाषा झमेले में पड़ी है। उत्तराखंड में वनभूमि का आंकड़ा 65 फीसदी है जिस पर बड़ी संख्या में लोगों की पुश्तैनी खेती, जंगल, निवास आदि हैं। लेकिन वन विभाग की नजर में यहां शून्य वनाश्रित हैं, जबकि यहां की तहसीलों में हजारों वनवासियों ने वनाधिकार के अनुसार व्यक्तिगत और सामूहिक दावे फॉर्म जमा कर रखे हैं। उत्तराखंड में हजारों वन ग्राम हैं लेकिन लोगों को अधिकार तो दूर, अभी तक एक भी वन गांव को राजस्व का दर्जा तक नहीं मिल सका है। सर्वे तक नहीं हुआ है। 

उत्तर प्रदेश में कई टोंगिया गांवों को राजस्व का दर्जा जरूर मिला है लेकिन सिर्फ कागजों में ही मिला दिखता है। ज्यादातर ग्रामीणों के ग्राम सभा से पास दावों को, कानून की मनमानी व्याख्या गढ़ते हुए, निरस्त कर दिया जा रहा है। जिन करीब एक चौथाई लोगों को व्यक्तिगत अधिकार पत्र दिए गए हैं, उनके तहसील के राजस्व रिकॉर्ड में समुचित इंद्राज तक नहीं हो सके हैं।

कुल मिलाकर दोनों राज्यों में आलम यह है कि (वन) गांव हैं लेकिन गांव में रहने वालों का अपना कोई वजूद नहीं दिखता है। सामुदायिक अधिकारों पर तो लगभग चुप्पी ही साध ली गई है। कुछ चंद लोगों को काबिज काश्त के आधे अधूरे अधिकार, ऐतिहासिक अन्याय खत्म करने की (वनाधिकार) कानून की मंशा पर भी बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। यही नहीं, मध्यप्रदेश हो या छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र व असम हो या फिर गुजरात, हर कहीं  (हसदेव अरण्य, डोलू चाय बागान, सिवनी, बस्तर व नवसारी आदि) में आदिवासी लगातार आंदोलनरत है जो उनके दमन की स्थिति को भी बखूबी बयां करती है।

अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन की राष्ट्रीय महासचिव रोमा कहती हैं कि टोंगिया ग्रामीण हों, वन गुर्जर हों या फिर वनों में रहने वाले अन्य वनाश्रित समुदाय हों, सभी लोग आज़ादी से बहुत पहले से वन भूमि पर बसे हैं और इनकी आजीविका भी पूरी तरह से वनों पर ही आश्रित है। वनाधिकार कानून, लोगों के वन भूमि पर अधिकारों को मान्यता देने की बात करता है लेकिन कहीं दावे नकार कर तो कहीं अभ्यारण्य व पुनर्वास आदि के नाम पर वन विभाग, उल्टे लोगों की जंगल से बेदखली की कोशिशों में ही ज्यादा लगा है। रोज अलग-अलग तरकीबें व साजिश रच रहा है। जंगलों में आग की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी है।

खास है कि वनों के बीच निवास करने वाले समुदायों के पास पीढ़ियों से अपनी आजीविका चलाने को खेती, मकान, गौशाला और चरागाह आदि हैं। इन्होंने मवेशियों को पालने और पेयजल के लिए तालाब भी बनाए हैं। बाद में अंग्रेजों के बने वन कानून ने इन वनवासियों की भूमि को वनभूमि के रूप में पेश करके इन्हें अतिक्रमणकारी करार दे दिया गया। इसके कारण अरसे तक इनकी आजीविका से छेड़छाड़ होती रही है। कई तरह के अन्याय और शोषण के कारण इन्हें एक जंगल से दूसरे जंगल में शरण लेनी पड़ी है।

आजादी के बाद भी इन वनवासियों की पहचान करने में अरसा (59साल) गुजर गया। जब देश में कई स्थानों पर सामाजिक संगठनों ने वन समुदायों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, तो अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 बना। वनाधिकार कानून के नाम से पहचान वाला यह कानून, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्यों में 16 साल बाद भी पूरी तरह जमीन पर नहीं उतर पाया है। ऐसे में सरकारों/नेताओं के सार्वजनिक मंचों पर किए दावों का सच जाना समझा जा सकता है।

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