दो आदिवासी युवकों की पुलिस कस्टडी में मौत की CBI जांच की मांग, हिरासत में मौत के मामले में अव्वल 'गुजरात'

Written by Navnish Kumar | Published on: August 3, 2021
नवसारी, गुजरात के चिखली पुलिस थाने में डांग क्षेत्र के दो आदिवासी युवकों की मौत से आदिवासी समुदाय में रोष बढ़ रहा है और समुदाय की ओर से सीबीआई जांच की मांग की गई है। आदिवासी समुदाय ने मांग की है कि दोषियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार किया जाए और न्यायिक प्रक्रिया के साथ सीबीआई जांच कराई जाए। कहा, 24 घंटे के अंदर आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं हुई तो आंदोलन होगा। दरअसल एट्रोसिटीज एक्ट के तहत अपराध दर्ज होने के 72 घंटे बाद भी एक भी आरोपी का नाम नहीं लिया गया है। जबकि पुलिस बिना एफआईआर के भी गिरफ्तारी करती है। ऑल ट्राइबल सोसाइटी अध्यक्ष प्रदीप गार्सिया के अनुसार, इस मामले में सिस्टम लापरवाही दिखा रहा है। कानून लागू करने वाले ही कानून की रक्षा करने में विफल रहे हैं। 24 घंटे में गिरफ्तारी न होने पर आदिवासी आंदोलन करेंगे।


 
खास है कि बीती 20 जुलाई को डांग क्षेत्र के दो आदिवासी युवकों सुनील पवार (19) और रवि जादव (19) को 20 जुलाई को चिखली थाने में वाहन चोरी के संदेह में हिरासत में लिया गया था। अगले दिन 21 जुलाई को दोनों युवकों के शव कंप्यूटर रूम में कंप्यूटर सिस्टम से जुड़ी बिजली की केबल से लटके मिले थे। चिखली थाना परिसर में मृत पाए गए दोनों आदिवासी युवकों की कथित हिरासत में मौत को लेकर चार पुलिसकर्मियों पर मामला दर्ज किया गया है। पुलिसकर्मियों अजीत सिंह जाला (पुलिस इंस्पेक्टर), एमबी कोकनी (पुलिस सबइंस्पेक्टर), शांति सिंह जाला (हेड कांस्टेबल), रामजी यादव (पुलिस कांस्टेबल) जिन्हें पहले इस मामले में निलंबित किया गया था, बाद में आईपीसी के तहत धारा 302 (हत्या) और अत्याचार अधिनियम की संबंधित धारा के तहत मामला दर्ज किया गया है। 

नवसारी डीएसपी रुषिकेश उपाध्याय ने कहा, “हमने मृतक के परिवार के सदस्यों से मिलने के बाद घटना में अपराध दर्ज किया है। जांच नवसारी एससी-एसटी सेल के पुलिस उपाधीक्षक आरडी फालदू द्वारा की जाएगी।''

द इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए सुनील पवार के बड़े भाई महेश पवार (25) ने कहा कि हमें संदेह है कि सुनील को पुलिस ने मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया था। उसके खिलाफ कोई आपराधिक मामला नहीं था और पुलिस उसे वाहन चोरी के मामले में फंसाने की कोशिश कर रही थी। हमारी मांग है कि पुलिसकर्मियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। भाजपा और कांग्रेस नेताओं ने भी संबंधित अधिकारियों को ज्ञापन सौंपकर चारों पुलिसकर्मियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग की थी। दोनों मृतकों की पहचान डांग के वाघई तालुका के डोडीपाड़ा गांव के निवासी सुनील पवार (19) और डांग के वाघई तालुका के रवि जादव (19) के रूप में हुई है। पुलिस के अनुसार, दोनों को नवसारी पुलिस ने उनके डांग स्थित आवास से हिरासत में लिया और कथित तौर पर एक मोटर साइकिल चोरी के मामले की जांच के लिए चिखली पुलिस स्टेशन लाया गया था। 

नवसारी के डिप्टी एसपी एसजी राणा ने कहा कि दोनों युवक मोटरसाइकिल चोरी के मामले में संदिग्ध थे, इसलिए दोनों को आधिकारिक तौर पर गिरफ्तार नहीं किया गया था। पूछताछ के लिए उन्हें पुलिस स्टेशन लाया गया था। दोनों को रात में थाने के कंप्यूटर कक्ष में रखा गया था और सुबह करीब साढ़े आठ बजे जब कमरा खोला गया तो कंप्यूटर केबल से उनके शव लटके मिले। न्यायिक मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में पूछताछ की प्रक्रिया जारी है। इस बीच, सुनील के चाचा कमलेश ने कहा कि सुनील को मंगलवार शाम उसके घर से उठाया गया था और रवि पिछले दो दिनों से ही पुलिस हिरासत में था। हम मांग करते हैं कि डॉक्टरों के एक पैनल द्वारा पोस्टमॉर्टम किया जाए और फिर मामले में फोरेंसिक जांच भी की जाए। दोनों पीड़ितों के शव कंप्यूटर कक्ष में पाए जाने के तुरंत बाद, वरिष्ठ पुलिस अधिकारी मौके पर पहुंचे थे तो परिवार के सदस्यों ने प्रदर्शन भी किया था। इस मामले में नवसारी कांग्रेस विधायक अनंत पटेल ने भी पुलिस के बीच बैठक कर कार्रवाई की मांग की थी। 

द इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक पटेल ने कहा, “परिवार के सदस्यों ने दोनों युवकों के शवों को लेने से इनकार कर दिया था और प्रदर्शन किया था। हमने वरिष्ठ अधिकारियों से बात की और वे इस बात पर सहमत हुए कि मामले की निष्पक्ष जांच के लिए डॉक्टरों के एक पैनल द्वारा शव का पोस्टमॉर्टम किया जाएगा।”

27 जुलाई को डांग के भाजपा विधायक विजय पटेल ने मृतक दो युवकों के परिजनों के साथ नवसारी जिले के पुलिस अधीक्षक रुशिकेश उपाध्याय से मुलाकात कर चारों पुलिसकर्मियों के खिलाफ मामला दर्ज करने की मांग की थी। डांग के विधायक विजय पटेल ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “हम इस तरह की घटनाओं की निंदा करते हैं… मैं दोनों युवकों के परिवार के सदस्यों को डीएसपी कार्यालय ले गया और अभ्यावेदन प्रस्तुत किया। पुलिस अधिकारियों ने चिखली पुलिस को चार निलंबित पुलिसकर्मियों के खिलाफ मामला दर्ज करने का आदेश दिया है। वहीं, कांग्रेस विधायक आनंद चौधरी, पुनाजी गामित और अनंत पटेल ने पार्टी के पूर्व सांसद अमरसिंह जेड चौधरी के साथ धर्मपुर के मामलातदार प्रियंका पटेल को भी ज्ञापन सौंपा हैं जिसमें चार पुलिस अधिकारियों को आईपीसी के तहत हत्या के तहत गैर इरादतन हत्या के आरोप और एट्रोसिटी एक्ट की संबंधित धाराओं में बुक करने की मांग की गई थी। 

पुलिस हिरासत में मौत मामलों में 'गुजरात' देश में अव्वल
खास यह है कि पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों के मामलों में 2020-21 में गुजरात राज्य, देश में भी अव्वल रहा है जबकि न्यायिक हिरासत में मौत मामलों में यूपी अव्वल है। देश में पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में मौत के मामले में बजट सत्र में सरकार ने जवाब दिया था जिसके अनुसार, न्यायिक हिरासत में सबसे ज्यादा मौतें उत्तर प्रदेश में होती हैं। वहीं पुलिस कस्टडी में मौत के मामले में गुजरात के साथ मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र आगे हैं। पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में साल दर साल कितनी मौतें होती हैं। बजट सत्र के दौरान लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बीते 4 सालों के चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। 

पुलिस कस्टडी में मौत के वर्षवार आंकड़े
साल 2017-18 में पुलिस कस्टडी में मौत के सबसे ज्यादा 19 मामले महाराष्ट्र से सामने आए थे। इसके बाद गुजरात में 14, असम और तमिलनाडु में 11-11, पंजाब और उत्तर प्रदेश में 10-10 मामले सामने आए।

2018-19 में पुलिस कस्टडी में मौत के सर्वाधिक 13 मामले गुजरात से सामने आए। वहीं, मध्य प्रदेश और यूपी में 12-12, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में 11-11 मामले सामने आए।

2019-20 के आंकडों के मुताबिक, मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा पुलिस हिरासत में मौत के मामले सामने आए। मध्य प्रदेश में 14, तमिलनाडु और गुजरात में 12-12, पश्चिम बंगाल में 7, ओडिशा और पंजाब में 6-6 मामले सामने आए।

मौजूदा वर्ष 2020-21 में 28 फरवरी तक के आंकड़े बताते हैं कि गुजरात में पुलिस कस्टडी में मौत के सबसे ज्यादा 15 मामले सामने आए हैं। महाराष्ट्र में पुलिस कस्टडी में मौत के 11 मामले तथा बंगाल और मध्य प्रदेश में 8-8 के अलावा कर्नाटक और ओडिशा में 4-4 मामले सामने आए। हालांकि मार्च माह तक गुजरात में पुलिस हिरासत में मौत का यह आंकड़ा 15 से बढ़कर 17 पर पहुंच गया है जो एक साल में देश में सर्वाधिक हैं।

न्यायिक हिरासत में मौत के वर्षवार आंकड़े
साल 2017-18 में न्यायिक हिरासत में मौत के सबसे ज्यादा 390 मामले यूपी से सामने आए थे। पश्चिम बंगाल से 138, पंजाब से 127, महाराष्ट्र से 125, बिहार से 109 मामले सामने आए।

2018-19 में यूपी 452 मामलों के साथ पहले स्थान पर रहा, जबकि दूसरे नंबर पर 149 मामलों के साथ महाराष्ट्र रहा. 2018-19 में मध्य प्रदेश से 143 मामले न्यायिक हिरासत में मौत के आए, जबकि चौथे नंबर पर पंजाब (117) और पांचवें नंबर पर पश्चिम बंगाल (115) रहे।

2019-20 में भी यूपी 400 मामलों के साथ पहले नंबर पर रहा, वहीं इस साल 143 मामलों के साथ मध्य प्रदेश दूसरे, 115 मामलों के साथ पश्चिम बंगाल तीसरे नंबर पर रहा। इसी साल न्यायिक हिरासत में मौत के 105 मामले बिहार और 93 मामले पंजाब से सामने आए।

मौजूदा वर्ष 2020-21 में 28 फरवरी 2021 तक के आंकड़े बताते हैं कि इस साल भी न्यायिक हिरासत में मौत के मामलों में यूपी (395) पहले, पश्चिम बंगाल (158) दूसरे, मध्य प्रदेश (144) तीसरे, बिहार (139) चौथे और महाराष्ट्र (117) पांचवें नंबर पर रहे। गुजरात में 28 फरवरी तक 78 व मार्च तक 82 मामले दर्ज किए गए है। 

देश में 3 साल में हिरासत में मौत
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वर्ष                  पुलिस             न्यायिक
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2018-19      136        1797
2019-20      112        1584
2020-21      100        1840


गुजरात में 3 साल में हिरासत में मौत
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वर्ष                    पुलिस         न्यायिक
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2018-19       13         67
2019-20       12         53
2020-21       17         82

कुल मिलाकर संसद में पेश आंकड़ों के मुताबिक, न्यायिक हिरासत में मौत के मामले में देश का सबसे बड़ा राज्य यूपी अव्वल रहा जबकि पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार जैसे बड़े राज्य भी शामिल हैं। पुलिस हिरासत में मौत के मामलों में गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, पंजाब, असम और ओडिशा शामिल है। ‘मॉडल राज्य’ गुजरात पुलिस हिरासत में मौतों के मामले में देश में सबसे ऊपर है। वित्तीय वर्ष 2020-2021 में 17 आरोपियों की यहां लॉकअप में मौत हो गई। देश के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने पुलिस हिरासत में करीब 100 मौतों की सूचना हैं। जिसका अर्थ है कि पुलिस लॉकअप में करीब 6% मौतें गुजरात में होती हैं।
इसी अवधि में, 1 अप्रैल, 2020 से 31 मार्च 2021 तक, गुजरात ने पिछले चार वर्षों में सबसे अधिक 99 कस्टोडियल मौतें दर्ज कीं। ये पुलिस लॉकअप में 17 और न्यायिक हिरासत या जेलों में 82 मौतें थीं। ये 17 आरोपी पुलिस हिरासत में या तो गिरफ्तारी के पहले 24 घंटों में या तो अदालत में पेश होने से पहले या अपनी हिरासत की पूछताछ अवधि के दौरान मारे गए। उत्तर प्रदेश में 2020-2021 में न्यायिक हिरासत में सबसे अधिक 395 से ज्यादा मौतें हुईं है।

प्रमुख भारतीय राज्यों में पुलिस और न्यायिक हिरासत में कैदियों की मौत बढ़ रही है। देश में पिछले एक साल में न्यायिक हिरासत में 1840 कैदियों की मौत हो चुकी है। इसी तरह गुजरात में ऐसे मामलों की संख्या पिछले साल के 53 से बढ़कर 82 हो गई है। राज्यों में सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में हैं। राज्य में प्रति वर्ष औसतन 400 हिरासत में मौतें हुई हैं। इसके बाद बिहार और मध्य प्रदेश का स्थान है। पिछले एक साल में देश के राज्यों में पुलिस और न्यायिक हिरासत में मरने वालों की संख्या 1940 है, जबकि गुजरात में इन दोनों हिरासत में 99 कैदियों की मौत हुई है। देश में लद्दाख, लक्षद्वीप और दादरा-नगर हवेली जैसे क्षेत्र हैं जहां पिछले तीन वर्षों में हिरासत में मौत का एक भी मामला सामने नहीं आया है, जबकि अंडमान-निकोबार और पांडिचेरी में पिछले तीन वर्षों में केवल दो मामले सामने आए हैं। न्यायिक हिरासत में पुलिस हिरासत से ज्यादा मौतें हुई हैं। तीन साल में हिरासत में मौत के कुल 5221 मामले सामने आए हैं।

मानवाधिकार आयोग के आंकड़े बताते हैं कि कोरोना महामारी के कारण देश की अधिकांश जेलों की स्थिति खराब हो गई है। पिछले एक दशक में पुलिस और न्यायिक हिरासत में 17,000 से अधिक कैदियों की मौत हो चुकी है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि न्यायिक हिरासत में मौत न केवल जेल कर्मचारियों की यातना, मारपीट या कठोर व्यवहार के कारण हुई, बल्कि कैदियों की बीमारियों, इलाज में देरी, खराब रहने की स्थिति, मनोवैज्ञानिक समस्याओं और बुढ़ापे के कारण भी हुई। रिपोर्ट में कहा गया है कि हिरासत में हुई मौतों के मामलों में पुलिस की आंतरिक व्यवस्था में भी सुधार की जरूरत है। 

दलित आदिवासी पर सामान्य अपराधों में भी बढोत्तरी
दूसरी ओर देंखे तो दलित-आदिवासी के खिलाफ सामान्य अपराधों में भी बढोत्तरी हुई है। हालिया आंकड़े देखें तो 2019 में दलित व आदिवासियों के खिलाफ़ अपराध में 11.46% की बढ़ोत्तरी हुई है। केंद्र सरकार द्वारा संसद में दिए आंकड़ों के अनुसार, 2018 में 2017 की तुलना में ऐसे मामलों में लगभग 11.15 प्रतिशत की कमी आई थी, लेकिन 2019 में ऐसे मामले 11.46 प्रतिशत बढ़ गए। 2019 में उससे पिछले साल के मुक़ाबले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों पर अत्याचार से संबंधित मामलों में लगभग 12 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। केंद्र सरकार द्वारा संसद में दिए आंकड़ों के अनुसार, 2018 में 2017 की तुलना में ऐसे मामलों में लगभग 11.15 प्रतिशत की कमी आई थी, लेकिन 2019 में ऐसे मामले 11.46 प्रतिशत बढ़ गए।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, राज्य सभा में दिए एक लिखित जवाब में, सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रामदास अठावले ने कहा कि इस बारे में केंद्र सरकार, राज्य सरकारों की कानून कार्यान्वयन एजेंसियों के साथ समीक्षा कर रही है। इस समीक्षा का मकसद अपराधों का त्वरित पंजीकरण, त्वरित जांच और अदालतों द्वारा मामलों का समय पर निपटान सुनिश्चित किया जा सके। अठावले ने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आंकड़ों को अपने लिखित जवाब में साझा किया। NCRB के इन आंकड़ों के अनुसार, 2019 में कुल 49,608 मामले आईपीसी और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दर्ज किए गए। 2018 में 44,505 मामले दर्ज किए गए और 50,094 मामले 2017 में दर्ज किए गए थे। इसके अलावा, सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 और नियमों के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए समय-समय पर राज्य सरकारों व केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन को सलाह भी जारी की है।

यही नहीं, बीबीसी की एक खबर के अनुसार, देश की जेलों में बंद कुल कैदियों में से भी करीब 66 फीसदी लोग अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के ही हैं। यह जानकारी राज्यसभा में गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्डी ने एक सवाल के लिखित जवाब में दी है। गृह राज्यमंत्री रेड्डी के मुताबिक, देश की जेलों में 4,78,600 कैदी हैं जिनमें 3,15,409 कैदी एससी, एसटी और ओबीसी के हैं। ये आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों पर आधारित हैं। रेड्डी ने बताया कि करीब 34 फीसद कैदी ओबीसी वर्ग के हैं जबकि करीब 21 फीसद अनुसूचित जाति से और 11 फीसद अनुसूचित जनजाति से हैं। ये आंकड़े इन वर्गों की जनसंख्या के मुकाबले काफी ज्यादा है।

लैंगिक आधार पर देखें तो पुरुष कैदियों की संख्या करीब 96 फीसद व महिला कैदियों की संख्या 4 फीसद है। सरकार की ओर से पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक, एससी और ओबीसी श्रेणियों के कैदियों की अधिकतम संख्या उत्तर प्रदेश की जेलों में है, जबकि मध्य प्रदेश की जेलों में अनुसूचित जनजाति समुदाय के सबसे ज्यादा कैदी हैं। एनसीआरबी ने पिछले साल अगस्त में साल 2019 के आंकड़े जारी किए थे जिनके मुताबिक, देश भर की जेलों में बंद दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या देश में उनकी आबादी के अनुपात से कहीं ज्यादा है। यही नहीं, एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, देश की जेलों में बंद विचाराधीन मुस्लिम कैदियों की संख्या, दोषी ठहराए गए मुस्लिम कैदियों से ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 के आखिर तक देश भर की जेलों में 21.7 फीसद दलित बंद थे जबकि जेलों में अंडरट्रायल कैदियों में 21 फीसदी लोग अनुसूचित जातियों से थे। हालांकि जनगणना में उनकी कुल आबादी 16.6 फीसदी है। 

आदिवासियों यानी अनुसूचित जनजाति के मामले में भी जनसंख्या और जेल में बंद कैदियों का अंतर ऐसा ही है। देश के कुल दोषी ठहराए गए कैदियों में एसटी समुदाय की हिस्सेदारी 13.6 फीसद है, जबकि जेलों में बंद 10.5 फीसद विचाराधीन कैदी इस समुदाय से आते हैं। राष्ट्रीय जनगणना में देश की कुल आबादी में एसटी समुदाय की हिस्सेदारी 8.6 फीसदी है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, मुस्लिम समुदाय का देश की आबादी में 14.2 फीसद हिस्सा है, जबकि जेलों में बंद कुल कैदियों में 16.6 फीसदी मुस्लिम समुदाय के हैं। विचाराधीन कैदियों की सूची में मुस्लिम समुदाय के 18.7 फीसद लोग हैं। आंकड़ों के मुताबिक, विचाराधीन कैदियों के मामले में मुस्लिम समुदाय के लोगों की संख्या और अनुपात दलितों और आदिवासियों से भी ज्यादा है। एनसीआरबी के 2015 के आंकड़ों से तुलना करने पर पता चलता है कि विचाराधीन मुस्लिम कैदियों का अनुपात साल 2019 तक कम हुआ है लेकिन दोषियों का प्रतिशत बढ़ गया है। साल 2015 में जहां देश भर की जेलों में करीब 21 फीसद मुस्लिम कैदी विचाराधीन थे जबकि करीब 16 फीसद कैदी ही दोषी पाए गए थे।

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