74 वें गणतंत्र की दहलीज पर खतरे में लोकतंत्र के तीसरे खंभे की आज़ादी!

Written by Subhash Gatade | Published on: January 27, 2023
फिलवक्त लोकतंत्र का तीसरा खंभा कही गयी न्यायपालिका उसके निशाने पर दिख रही है।



26 जनवरी का आज का दिन जब भारत का गणतंत्र अब अपने तिहत्तर साल की यात्रा पूरी कर चौहत्तरवें में प्रवेश कर रहा है, उस वक्त़ इस बात की चर्चा करना भले मौजूं ना जान पड़े लेकिन जरूरी अवश्य है।

."सामाजिक, आर्थिक औैर राजनीतिक न्याय ; अवसरों और ओहदे की समानता और कानून के सामने बराबरी ; और बुनियादी आज़ादियों - अभिव्यक्ति की, आस्था की, पूजा की, व्यवसाय, संगठन की और कार्रवाई की - को सुनिश्चित करना, जो कानून के दायरे के अन्तर्गत हों और सार्वजनिक नैतिकता के मापदण्डों के अनुकूल हों। ...
‘अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और आदिवासी अंचलों के लिए और वंचित तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए उचित सुरक्षा प्रावधान बनाए जाएंगे।..

(संविधान सभा के सामने 13 दिसम्बर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा पेश ‘आब्जेक्टिव रिसोल्यूशन’  से जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने सर्वमत से स्वीकारा था। )

‘हम संविधान बदलने के लिए आए हैं’

 कुछ साल पहले भाजपा के अग्रणी केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार /अब दिवंगत/ ने यह कह कर काफी हलचल मचाई थी। भले ही इस मसले पर हंगामा हुआ, मगर कर्नाटक के इस नेता पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। तब से न केवल गंगा जमुना कावेरी बल्कि तमाम अन्य नदियों से ढेर सारा पानी बह गया है। और इशारों इशारों पर अनंत कुमार द्वारा कही गयी बात को साकार करने की दिशा में मौजूदा सरकार तेजी से कदम उठाते दिख रही है।

फिलवक्त लोकतंत्र का तीसरा खंभा कही गयी न्यायपालिका उसके निशाने पर दिख रही है।

26 जनवरी का आज का दिन जब भारत का गणतंत्र अब अपने तिहत्तर साल की यात्रा पूरी कर चैहत्तरवें में प्रवेश कर रहा है, उस वक्त़ इस बात की चर्चा करना भले मौजूं ना जान पड़े लेकिन जरूरी अवश्य है।
यह कहने का पर्याप्त आधार है कि लोकतंत्र के दो अहम खंभों पर - विधायिका और कार्यपालिका पर अपना नियंत्रण कायम  करने के बाद और लोकतंत्र का चैथा खंभा मीडिया को भी प्रभाव में लेने के बाद बचा तीसरा खंभा न्यायपालिका का, अब शायद उनके आंख में चुभ रहा है।

भारत सरकार की फिलवक्त़ कोशिश जजों की नियुक्ति के मामले में अपना औपचारिक दखल कायम करना चाहती है, तथा उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर किस तरह का यह आघात होगा।

कानून मंत्री किरण रिजजू ने तो बाकायदा सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख न्यायाधीश को पत्र लिखा कि न्यायाधीशों के चयन की सिलेक्शन कमेटी में सरकारी प्रतिनिधि भी रहना चाहिए इतना ही नहीं उपराष्टपति जगदीप धनकड़ ने जयपुर में एक व्याख्यान में न केवल संविधान के बुनियादी ढांचे पर सवाल उठाए बल्कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर सवाल उठाए। ;

अभी ताज़ा बयान में दिल्ली बार एसोसिएशन के कार्यक्रम में बोलते हुए किरण रिजिजू ने ‘न्यायाधीशों’ को चुनाव नहीं लड़ने पड़ते, इस बात पर जोर देते हुए उनके चयन में सरकार की दखलंदाजी की अलग ढंग से हिमायत की।

अभी तक न्यायपालिका में जजों के चयन का जिम्मा सिर्फ कॉलेजियम के हाथों होता है, जो न्यायाधीशों का ही एक पैनल होता है। इस कॉलेजियम में ही निचली अदालतों के न्यायाधीशों को प्रमोट करने या अग्रणी कानूनविदों को न्यायाधीश बनाने का प्रस्ताव तैयार होता है, जो केन्द्र सरकार को भेजा जाता है। अगर केन्द्र सरकार किसी पूर्वाग्रह के चलते इस चयन पर सवाल उठाती है तो ऐसा नहीं कि वह नियुक्ति रूक जाती है, कॉलेजियम चाहे तो उसे फिर लौटा सकती है और फिर केन्द्र सरकार को नियुक्ति करनी ही होती है।

 वैसे न्यायपालिका पर अपना वर्चस्व पूरी तरह कायम करने के पीछे की सरकार की बदहवासी समझ में आती है। 2019  के चुनावों के पहले सर्वोच्च न्यायालय में - जब रंजन गोगोई प्रमुख थे, जो सेवानिवृति के तत्काल बाद राज्यसभा के सांसद भी बनाए गए, जिन्होंने सरकार के लिए असुविधाजनक लगनेवाले तमाम मुददों को कभी छुआ नहीं - केन्द्र सरकार के लिए यह स्पष्ट था कि लोकतंत्र के इस तीसरे खंभे से उसके लिए किसी भी किस्म की असुविधा का सामना नहीं करना पड़ेगा, अब स्थितियां बदली हैं। 2024 में लोकसभा के चुनाव होने हैं, 2023 में कई राज्यों के भी चुनाव हैं, तथा भारत जोड़ो यात्रा आदि मुहिमों से तथा सरकार की अपनी नाकामियों से उसे अपनी जीत सुनिश्चित नहीं दिखती; इसलिए वह न्यायपालिका को पूरी तरह अपने पक्ष में करना चाहती है।

सरकार जानती है कि संविधान को पूरी तरह कमजोर करने और हिन्दू राष्ट्र बनाने के उसके इरादे में न्यायपालिका कभी भी बाधा बन सकती है। उस पर अपना वर्चस्व कायम किए बिना इसे अंजाम नहीं दिया जा सकता।  

जस्टिस ए.पी. शाह ने पिछले साल एक लेख में सर्वोच्च न्यायालय की अहमियत पर रौशनी डालते हुए कुछ बातें स्पष्ट की थीं। उनका कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय ही संविधान का असली संरक्षक है, जिसका प्रमुख काम संविधान के कानूनों के तहत नागरिकों को प्रदत्त बुनियादी अधिकारों पर हमले न हो, उनमें कटौती न हो।

उनके मुताबिक यह ‘श्रेष्ठतर स्थिति कम से कम तीन ढंग से प्रकट होती है। सबसे पहले केशवानंद भारती केस में उसके निर्णय के जरिए, जिसके तहत अदालत ने संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा करने के अधिकार हासिल किए। दूसरे, विभिन्न निर्णयों के जरिए, न्यायिक नियुक्तियों का अधिकार - वह चाहे सर्वोच्च न्यायालय में हो या उच्च अदालतों में हो उसने हासिल किया और तीसरे, संविधान की धारा 21 में प्रदत्त जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को विस्तारित करके उसने नागरिकों को अनोखे और व्यापक संरक्षण प्रदान किए तथा जनहित याचिकाओं के जरिए अदालत तक पहुंचने का रास्ता सुगम किया।’  

और केन्द्र में सत्तासीन सरकार जो खुद नागरिकों को धर्म के आधार पर बांटने की जुगत भिड़ा रही है, उसके लिए यह तमाम बातें प्रतिकूल हैं। वैसे स्वाधीन भारत का संविधान उनके आदर्श हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना के लिए खतरा साबित होगा, इस बात से वह पहले से ही आतंकित थे।

यह अकारण नहीं कि किस तरह भाजपा के पूर्ववर्ती लोगों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा जैसी तंजीमों ने न केवल संविधान बनाने का विरोध किया था बल्कि भारत के इतिहास में पहली दफा स्त्रियों को - खासकर हिन्दू स्त्रियों को - सीमित अधिकार देने की कोशिश में प्रस्तुत हिन्दू कोड बिल का भी विरोध किया था।

क्या न्यायपालिका को अपने अधीन करने की भाजपा की कोशिशें परवान चढ़ती दिख रही हैं?
बात बिल्कुल उलटी है।

अपने ताज़ा कदम के जरिए जिसका तााल्लुक घोषित रूप में समलैंगिक सौरभ किरपाल जैसे व्यक्ति को उच्च न्यायालय में नियुक्त करने के प्रस्ताव पर अंतिम मुहर लगा कर - जिसे लेकर केन्द्र सरकार ने लंबे समय से अडंगा लगाया था - सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से यह स्पष्ट किया है कि सरकार द्वारा न्यायपालिका पर अंकुश लगाने की कोशिशों पर वह भी चुप नहीं बैठेगी। इतना ही नहीं पिछले दिनो मुंबई में अपने नानी पालखीवाला व्याख्यान में मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड ने संविधान का बुनियादी ढांचा - जिस पर उपराष्ट्रपति धनकड़ ने हमला किया था - किस तरह हमारे लिए ध्रुव तारा है, यह बात करते हुए अपने रूख को साफ किया है।

वैसे यह दिलचस्प इत्तेफाक है कि भारत में न्यायपालिका को अपने वश में लेने की सरकारी कोशिशें गोया कुछ हजार मील दूर इजरायल में दोहरायी जा रही हैं। वहां नेतनयाहू सरकार ने - जो इजरायल के अब तक के इतिहास की सबसे दक्षिणपंथी सरकार कही जाती है - पिछले ही माह पदासीन होने के बाद अदालत के अधिकार को सीमित करने ऐलान किया है।

 अगर नेतनयाहू के न्यायमंत्री लेविन के प्रस्तावों पर संसद की सहमति मिल जाती है-- जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी निर्णय को संसद के अंदर महज बहुमत से खारिज किया जा सकता था - तो वहां का सुप्रीम कोर्ट सारतः कार्यपालिका की एक शाखा में तब्दील हो जाएगा। अर्थात 120 सदस्यों वाली वहां की संसद /नेसेट में नेतनयाहू के गठबंधन के 64 सदस्य अदालत के किसी भी फैसले को उलट देंगे, जो उन्हें असुविधाजनक जान पड़े। तय बात है इसका सबसे अधिक फायदा तुरंत खुद नेतनयाहू या उनके अन्य मंत्रियों को भी होगा - जो खुद भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी जैसे मसलों पर अदालती मुकदमो का सामना कर रहे है।  

यह जानना महत्वपूर्ण है कि इस्त्राएली इतिहास की ‘सबसे अधिक दक्षिणपंथी सरकार’ द्वारा न्यायालय के अधिकारों को सीमित करने की जो कोशिशें चल रही हैं, उसके खिलाफ तेल अवीव और इस्त्राएल के अन्य प्रमुख शहरों में इस्त्राएल की विपक्षी पार्टियों और नागरिक समाज की पहल पर जबरदस्त विरोध प्रदर्शन लगातार जारी हैं। बीते शनिवार को तेलअवीव में हुए प्रदर्शनों में एक लाख से अधिक लोगों ने हिस्सा लिया, जिन्होंने कहा कि हम ‘‘इस्त्राएल के भविष्य’ के लिए लड़ रहे हैं। इन प्रस्तावों को लेकर इस्त्राएल के विपक्षी नेता ने कहा कि यह सुधार ‘इस्त्राएल की समूची कानूनी व्यवस्था को खतरे में डाल देगा। इसके पहले भी विरोधों की आवाज़ लगातार बुलंद हो रही है।

न्यायपालिका की स्वायत्तता बनाए रखने और कार्यपालिका के मनमानी दखल से उसे दूर रखने का यह सघर्ष एक लंबा संघर्ष है और फिलवक्त इस बात का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता कि दोनों मुल्कों में इसका क्या नतीजा निकलेगा।

 वैसे नतीजा चाहे जो भी निकले लेकिन इसने दोनों मुल्कों की जनता के बीच के फर्क को अचानक रेखांकित किया है। एक तरफ जहां इस्त्राएल के नागरिक लोकतंत्र को बचाने के लिए, न्यायपालिका के तीसरे खंभे की हिमायत के लिए लाखों की तादाद में सड़कों परउतर रहे हैं, वहीं भारत की जनता मोदी सरकार की इन नापाक कोशिशों के बारे में खतरे को जानते हुए भी अभी भी इस मसले पर सड़कों पर नहीं उतरी है। 

 (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Courtesy: Newsclick

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