मंगलवार को वनाधिकार कानून का मुद्दा लोकसभा में गूंजा। सहारनपुर सांसद हाजी फजलुर्रहमान ने मामला उठाते हुए कहा कि वनाधिकार कानून 2006 बनने के 16 साल बाद भी वन गुर्जरों और टोंगिया ग्रामीणों को उनके हक-हकूक नहीं मिल सके हैं। यह सब भी तब, जब वनों पर निर्भर दलित आदिवासियों और घुमंतू समुदायों (वन गुर्जरों) को ऐतिहासिक अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए भारतीय संसद ने 15 दिसंबर 2006 को सर्वसम्मति से यह (वनाधिकार) कानून पारित किया था। यह कानून वन भूमि पर निर्भरशील समुदाय के लोगों के (व्यक्तिगत और सामुदायिक) अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। सांसद हाजी फजलुर्रहमान ने अपनी बात ऐतिहासिक अन्नाय से मुक्ति की याद दिलाने से ही की।
उन्होंने कहा कि टोंगिया व वन गुर्जर समुदायों को आजादी के पहले से ऐतिहासिक अन्नाय झेलने को मजबूर होना पड़ रहा है। इसी अन्नाय को लेकर 16 साल पहले 15 दिसम्बर 2006 को ऐतिहासिक कानून ’’अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी‘‘ बनाया गया था। यह पहला कानून है जिसकी प्रस्तावना में ही इन जंगलों पर निर्भर समुदायों को ऐतिहासिक अन्नाय से निजात दिलाने की बात कही गई है। उसके बावजूद 16 साल बाद भी कानून के अनुपालन का यह हाल है कि लोगों को उनकी रिहायश की जमीन पर व्यक्तिगत अधिकार भी आधे अधूरे ही मिल सके हैं। सामुदायिक अधिकार अभी किसी गांव को नहीं मिल सके हैं तो वहीं, वन गुर्जरों को ये आधे अधूरे (व्यक्तिगत) अधिकार भी नहीं मिल सके हैं।
हाजी फजलुर्रहमान ने लोकसभा में कहा कि उत्तर प्रदेश के जनपद सहारनपुर के शिवालिक की तलहटी वाले वनक्षेत्र में तीन हजार की टोंगिया आबादी और करीब 4 हजार वन गुर्जर समुदाय, आजादी से पूर्व से निवास करता आ रहा है। टोंगिया गांव और वन-गुर्जर समुदाय को वनाधिकार कानून 2006 के तहत पहली बार मान्यता तो मिली लेकिन 16 साल बाद भी वन गुर्जरों को अभी तक कोई अधिकार नहीं मिल सके हैं। बल्कि उन्हें लगातार विस्थापित करने की धमकी दी जा रही है। कहा कि ’’अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी‘‘ कानून 2006 के तहत उनको जबरदस्ती से विस्थापित नही किया जा सकता है।
‘‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी‘‘ (वनाधिकार कानून 2006) के तहत उनको सामुदायिक अधिकार पत्र दिया जाना चाहिए था ताकि ये समुदाय भी देश के विकास की प्रक्रिया में शरीक हो सके। बहरहाल वनविभाग द्वारा उनको दी जा रही धमकी को तुरन्त बन्द करना चाहिए और प्रशासन को ‘‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी‘‘ (वनाधिकार कानून 2006) के बारे में जागरूक किया जाए ताकि वनाधिकार के तहत लोगों को उनके कानूनी हक-हकूक मिल सके। यही नहीं, जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश की भांति उत्तर प्रदेश में वन गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलना चाहिए जो भी नहीं मिल सका है।
हाजी फजलुर्रहमान ने कहा कि उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में 4 टोंगिया गांवों को वनाधिकार कानून के तहत मान्यता दी गई है लेकिन अभी तक समस्त टोंगिया व वनाश्रित समुदायों को वन भूमि पर अधिकार प्राप्त नहीं हो सके हैं। और तो और, टोंगिया गांव के लोगों को अभी लघु वनोपज पर मालिकाना अधिकार भी नहीं दिया गया है जबकि वनाधिकार कानून 2006 के तहत उनको लघु वनोपज पर मालिकाना अधिकार है। जबकि वन विभाग गैर कानूनी तरीके से लघुवनोपज का व्यापार कर रहा है।
खास है कि वन अधिकार कानून के नाम से प्रचलित ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2006’ आदिवासियों को अतिक्रमणकारी होने के कलंक से मुक्त करता है और वनों पर आश्रित समुदायों के ‘इज्ज़त से जीने के अधिकार’ की रक्षा करता है। इस कानून से पहले तक सदियों से जंगल और वन्य जीवों के साथ सहचर्य के साथ रहते आए आदिवासियों और अन्य आबादी को ‘अतिक्रमणकारियों’ के रूप में देखा जाने लगा था। यह कानून, उनके वन भूमि पर अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी, सांसद का धन्यवाद करते हुए कहते हैं कि संसद में इस बात को उठाना बहुत जरूरी था क्योंकि मौजूदा सरकार इस कानून के क्रियान्वयन की लगातार अवहेलना करती आ रही है। ऊपर से वन विभाग का इन वनाश्रित समुदायों पर हमला भी लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में संसद में सवाल उठना जरूरी है। सांसद हाजी फजलुर्रहमान ने अपने क्षेत्र के इन वंचित समुदायों के हकों की आवाज उठाकर अपनी ज़िम्मेदारी का बखूबी निर्वहन किया है।
उन्होंने कहा कि टोंगिया व वन गुर्जर समुदायों को आजादी के पहले से ऐतिहासिक अन्नाय झेलने को मजबूर होना पड़ रहा है। इसी अन्नाय को लेकर 16 साल पहले 15 दिसम्बर 2006 को ऐतिहासिक कानून ’’अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी‘‘ बनाया गया था। यह पहला कानून है जिसकी प्रस्तावना में ही इन जंगलों पर निर्भर समुदायों को ऐतिहासिक अन्नाय से निजात दिलाने की बात कही गई है। उसके बावजूद 16 साल बाद भी कानून के अनुपालन का यह हाल है कि लोगों को उनकी रिहायश की जमीन पर व्यक्तिगत अधिकार भी आधे अधूरे ही मिल सके हैं। सामुदायिक अधिकार अभी किसी गांव को नहीं मिल सके हैं तो वहीं, वन गुर्जरों को ये आधे अधूरे (व्यक्तिगत) अधिकार भी नहीं मिल सके हैं।
हाजी फजलुर्रहमान ने लोकसभा में कहा कि उत्तर प्रदेश के जनपद सहारनपुर के शिवालिक की तलहटी वाले वनक्षेत्र में तीन हजार की टोंगिया आबादी और करीब 4 हजार वन गुर्जर समुदाय, आजादी से पूर्व से निवास करता आ रहा है। टोंगिया गांव और वन-गुर्जर समुदाय को वनाधिकार कानून 2006 के तहत पहली बार मान्यता तो मिली लेकिन 16 साल बाद भी वन गुर्जरों को अभी तक कोई अधिकार नहीं मिल सके हैं। बल्कि उन्हें लगातार विस्थापित करने की धमकी दी जा रही है। कहा कि ’’अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी‘‘ कानून 2006 के तहत उनको जबरदस्ती से विस्थापित नही किया जा सकता है।
‘‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी‘‘ (वनाधिकार कानून 2006) के तहत उनको सामुदायिक अधिकार पत्र दिया जाना चाहिए था ताकि ये समुदाय भी देश के विकास की प्रक्रिया में शरीक हो सके। बहरहाल वनविभाग द्वारा उनको दी जा रही धमकी को तुरन्त बन्द करना चाहिए और प्रशासन को ‘‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी‘‘ (वनाधिकार कानून 2006) के बारे में जागरूक किया जाए ताकि वनाधिकार के तहत लोगों को उनके कानूनी हक-हकूक मिल सके। यही नहीं, जम्मू कश्मीर और हिमाचल प्रदेश की भांति उत्तर प्रदेश में वन गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलना चाहिए जो भी नहीं मिल सका है।
हाजी फजलुर्रहमान ने कहा कि उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में 4 टोंगिया गांवों को वनाधिकार कानून के तहत मान्यता दी गई है लेकिन अभी तक समस्त टोंगिया व वनाश्रित समुदायों को वन भूमि पर अधिकार प्राप्त नहीं हो सके हैं। और तो और, टोंगिया गांव के लोगों को अभी लघु वनोपज पर मालिकाना अधिकार भी नहीं दिया गया है जबकि वनाधिकार कानून 2006 के तहत उनको लघु वनोपज पर मालिकाना अधिकार है। जबकि वन विभाग गैर कानूनी तरीके से लघुवनोपज का व्यापार कर रहा है।
खास है कि वन अधिकार कानून के नाम से प्रचलित ‘अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2006’ आदिवासियों को अतिक्रमणकारी होने के कलंक से मुक्त करता है और वनों पर आश्रित समुदायों के ‘इज्ज़त से जीने के अधिकार’ की रक्षा करता है। इस कानून से पहले तक सदियों से जंगल और वन्य जीवों के साथ सहचर्य के साथ रहते आए आदिवासियों और अन्य आबादी को ‘अतिक्रमणकारियों’ के रूप में देखा जाने लगा था। यह कानून, उनके वन भूमि पर अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है।
अखिल भारतीय वन जन श्रमजीवी यूनियन के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक चौधरी, सांसद का धन्यवाद करते हुए कहते हैं कि संसद में इस बात को उठाना बहुत जरूरी था क्योंकि मौजूदा सरकार इस कानून के क्रियान्वयन की लगातार अवहेलना करती आ रही है। ऊपर से वन विभाग का इन वनाश्रित समुदायों पर हमला भी लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में संसद में सवाल उठना जरूरी है। सांसद हाजी फजलुर्रहमान ने अपने क्षेत्र के इन वंचित समुदायों के हकों की आवाज उठाकर अपनी ज़िम्मेदारी का बखूबी निर्वहन किया है।