FRA 2006 के तहत वनाश्रितों के निष्कासन का प्रावधान नहीं: छत्तीसगढ़ सरकार

Written by CJP Team | Published on: September 18, 2019
छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में शपथ पत्र दाखिल कर कहा है कि वनाधिकार कानून 2006 के तहत आदिवासियों को बेदखल करने का प्रावधान नहीं है।  



पिछले दिनों वाइल्ड लाइफ फर्स्ट नाम के एक एनजीओ ने वनाधिकार कानून 2006 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी. इसके बाद वनाधिकार कानून और जंगलों पर जनजातीय समुदायों के अधिकार को लेकर एक लंबी बहस छिड़ गई. इस बीच, छत्तीसगढ़ सरकार ने 2019 के जुलाई महीने में एक शपथ पत्र दाखिल कर न सिर्फ जंगलों पर अधिकार के लिए बने कानून में खामियों को चिन्हित किया बल्कि इसमें सुधारों की भी सिफारिश की.

जंगलों में रहने वाले समुदायों के वनाधिकार को राज्यों की ओर से खारिज करने की कवायद को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ओर से पूछे गए सवालों के जवाब में छत्तीगढ़ सरकार ने कई अहम बिंदुओं को सामने रखा है. 

छत्तीसढ़ सरकार ने कहा- जंगलों में रहने वाले समुदायों के दावों को निरस्त करने की प्रक्रिया वनाधिकार कानून के प्रावधानों के मुताबिक नहीं है. उसने यह भी कहा है कि दावे दाखिल करने और इस संबंध में जरूरी स्पष्टीकरण से पहले अधिकारियों ने सही ढंग से अधिसूचना जारी नहीं की. राज्य सरकार ने दो साल का समय मांगा है ताकि सभी ‘खारिज’ किए गए दावों की समीक्षा की जा सके. छत्तीसगढ़ सरकार का कहना है कि कानून के मुताबिक जनजातीय समुदाय के लोगों से जंगल की जमीन खाली करवाने का सवाल ही पैदा नहीं होता. 

6 अगस्त, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को निर्देश देकर कहा था कि जिन राज्यों ने वनाधिकार कानून,2006 को लागू करने का शपथ पत्र नहीं दाखिल किया है, वह 15 दिनों के अंदर ऐसा कर दें. सुप्रीम कोर्ट ने वाइल्डलाइफ फर्स्ट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस, 2008 की सुनवाई के दौरान यह निर्देश दिया था. वाइल्डलाइफ फर्स्ट की ओर से वनाधिकार कानून की संवैधानिक वैधता को चैलेंज किया गया था. फरवरी 2019 में इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अचानक राज्य सरकारों को निर्देश दिया किया कि वे‘’अतिक्रमणकारियों’’ और ‘’अवैध वनवासियों’’ से जंगल की जमीनें खाली कराएं. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सनसनी फैल गई. कोर्ट के इस आदेश का विरोध हुआ. केंद्र सरकार ने इसमें दखल नहीं दिया. हालांकि इस मामले में जनजातीय कार्य मंत्रालय ने सक्रिय तौर पर हस्तक्षेप किया और एक सप्ताह बाद इस आदेश को अस्थायी तौर पर स्टे कर दिया गया. दरअसल कोर्ट के जमीन खाली कराने के आदेश के बाद देश भर में तीखी प्रक्रिया और भारी विरोध के बाद केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के उसी बेंच के समक्ष फैसले की समीक्षा की दरख्वास्त डाली, जिसने जंगलों की जमीन को खाली करने का आदेश दिया था. 

छत्तीसगढ़ सरकार ने जो कदम उठाया, उसकी चार बुनियाद हैं. आदिवासियों और जंगलों में परंपरा से रहते आए वनवासियों की जमीन और जीविका का अधार इनमें से एक है. मानवाधिकार हनन के मामलों की पड़ताल में सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस यानी CJP अपनी विशेषज्ञता और ऑल इंडिया यूनियन फॉर फॉरेस्ट वर्किंग पीपुल्स- AIUFWP के साथ मिल कर 2017 से ही जंगल में रहने वालों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है. दोनों संगठन अदालत और इसके बाहर, हर जगह जंगल की जमीन पर जनजातीय लोगों और वनवासियों का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है. 

CJP जनजातीय नेताओं के खिलाफ दुर्भावनापूर्वक लादे गए मुकदमों के खिलाफ भी लड़ रहा है और वनाधिकार कानून, 2006 की रक्षा में लगा है. वह इस लड़ाई में करोड़ों वनवासियों और आदिवासियों के साथ हैं. आज उनकी जीविका और जिंदगी खतरे में है. कृपया आर्थिक सहयोग देकर इस प्रयास में हमारी मदद करें. 

दरअसल फरवरी, 2009 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से जंगल की जमीनें खाली कराने के आदेश ने यहां रहने वाले लोगों में भारी तनाव और चिंता पैदा कर दी. इससे जंगलों में रहने वाले इस देश की आठ फीसदी आबादी में खलबली मच गई. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का भारी विरोध हुआ और इसे असंवैधानिक करार दिया गया. जो लोग और संगठन दशकों से वनाधिकार के मुद्दे पर संघर्ष कर रहे थे उनके लिए तो यह निश्चित तौर पर असंवैधानिक कदम था. 

इस वजह से 24 जुलाई यानी अगली सुनवाई तक सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में 19 से ज्यादा हस्तक्षेप याचिकाएं दायर की जा चुकी थीं. तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने तुरंत भारत सरकार से अपील की कि वह तुरंत वनाधिकार कानून का बचाव करे और वनवासियों को उनकी जमीन से बेदखल होने से रोके.

इस मामले से जुड़े अलग-अलग लोगों और संगठनों की ओर से वनाधिकार कानून 2006 की संवैधानिक वैधता का बचाव करते हुए याचिकाएं दायर की गईं. दरअसल वनाधिकार कानून, 2006 (FRA, 2006) एक ऐतिहासिक कानून रहा है, जो अदालती दृष्टि से पांरपरिक तौर पर जंगलों में रहने वाले लोगों, आदिवासियों और दलितों के जीविका के अधिकार पर मुहर लगाता है. इस मामले में जो 19 हस्तक्षेप याचिकाएं दायर की गई हैं, उनमें ब्यूरोक्रेट शरद लेले, एकेमेडिशियन नंदिनी सुंदर की याचिका शामिल है. दो आदिवासी महिलाओं सोकालो गोंड, निविदा राना की याचिकाएं भी हैं, जिन्हें AIUFWP समर्थन दे रहा है. CJP ने भी हस्तक्षेप याचिका दायर की है. 

जिन 25 राज्यों में आदिवासियों की खासी आबादी है उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से उन 17 लाख दावों की समीक्षा के लिए और समय मांगा है, जिन्हें खारिज कर दिया है. इन दावों के जरिये वनवासियों ने जंगल पर अपनी जमीनों पर हक जताया था. इन जमीनों पर पीढ़ियों से रहते आए हैं. इन राज्यों ने इन जमीनों के पट्टों पर दावों को खारिज करने में अपने ही फैसलों में मौजूद प्रक्रियागत खामियों को स्वीकार किया. दरअसल यह पिछले 13 साल में लिए गए फैसलों का ढेर था. 

राज्यों की इस स्वीकारोक्ति के बाद अदालत ने राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश दिया कि इस मुद्दे के सभी पहलुओं को लेकर विस्तृत शपथ पत्र दाखिल करें. साथ में इन मुद्दों से जुड़े दस्तावेजों को रेकार्ड पर रखें.
1.    दावा रद्द करने का आदेश
2.    सेटलमेंट के लिए अपनाई गई प्रक्रिया का ब्योरा
3.    जिन मुख्य आधारों पर दावे खारिज किए गए उनका ब्योरा
4.    क्या जनजातीय लोगों को सबूत पेश करने का मौका दिया गया
5.    अगर हां तो किस हद तक
6.    क्या वाजिब आदेश पारित किए गए
7.    इस बारे में ब्योरेवार जानकारी कि वे कौन लोग हैं जिन्होंने जनजातीय लोगों और दूसरे वनवासियों की जमीन पर कब्जा किया हुआ है. ऐसे लोगों का ब्योरा भी देना होगा, जो जनजातीय समुदायों के नहीं हैं.
8.    जो आदेश पारित हुए हैं उन्हें रिकार्ड पर रखा जाए. 
9.    जो दावे सही नहीं पाए गए उनके बारे में की गई कार्यवाही की जानकारी. 
आदिवासियों की जीविका और जिंदगी से जुड़े इस बेहद अहम मामले में अदालत में सितंबर 2019 में फिर विस्तृत सुनवाई होगी.

दावे खारिज करने में सही प्रक्रिया नहीं अपनाई गई: छत्तीसगढ़ सरकार
छत्तीसगढ़ सरकार ने जुलाई 2019 के अपने शपथ पत्र में स्वीकार किया है कि दावों को लेकर जांच प्रक्रिया अपने आप में गलत है. पूरा शपथ पत्र यहां पढ़ा जा सकता है. 

इस शपथ पत्र में यह कहा गया है कि विस्तृत जांच के बाद यह पता चला कि कई मामलों में दावेदारों को उनके दावों के खारिज होने और इसे आगे न बढ़ाए जाने के बारे में बताया ही नहीं गया. इसमें लिखा गया है- ऐसे मामलों में नियम 2007 और फॉरेस्ट राइट (संशोधित) एक्ट, 2012 की धारा 12 A (3) के बारे में सही प्रक्रिया का पालन किया जाना था ताकि मौजूदा नियमों के तहत सभी योग्य दावेदार इसके दायरे में आ सकें. इसमें कहा गया है कि इस संबंध में प्रक्रिया वनाधिकार कानून, 2006 और इसके नियमों के तहत लागू की गई. लेकिन दावों को खारिज करने में वनाधिकार कानून 2006 के नियमों का पालन नहीं किया गया. लिहाजा कई दावे ग्राम सभा/ सब डिविजनल लेवल कमेटी (SDLC)/ जिला स्तरीय कमेटी (DLC) में सही प्रक्रिया न अपनाए जाने से खारिज हो गए. इस तरह इनकी मान्यता खत्म हो गई. यहां की प्रक्रियाओं में खामी की वजह से इन दावों को अस्वीकृत श्रेणी में नहीं रखा जा सकता था.

त्रिस्तरीय मॉनिटरिंग कमेटी के बारे में राज्य सरकार ने कहा कि ज्यादातर मामलों में जनजातीय समुदाय के लोगों को दावे खारिज होने की सूचना ही नहीं दी गई. यह भी स्पष्ट नहीं है कि अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासियों के लिए बने Schedule Tribes and Other Traditional Forest Dweller (Recognition of Forest Rights) Act, 2006 (..) और  Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dweller (Recognition of Forest Rights) Rules, 2007 के तहत बनी त्रिस्तरीय मॉनेटरिंग कमेटी ने इन पहलुओं पर निगरानी रखी थी कि नहीं.

नियम के मुताबिक गांव के स्तर पर जंगल की जमीन पर अपने दावे के लिए किसी भी दावेदार की दावेदारी के बाद फॉरेस्ट राइट्स कमेटी उस जमीन पर जांच (spot verification) के लिए आती है. उसे दावेदार की ओर से पेश दस्तावेजों और संबंधित कागजातों की जांच करनी होती है. फिर जमीन को लेकर सही या गलत के दावों की ग्राम सभा में चर्चा होती है. इसके बाद ग्राम सभा एक प्रस्ताव पारित कर वह इस दावेदारी की सिफारिश करती है या नहीं. अगर दावेदारी की सिफारिश नहीं की जाती तो लिखित में इसकी वजह बतानी होती है.

हालांकि छत्तीसगढ़ राज्य सरकार के शपथपत्र में इस बात पर जोर दिया गया कि जांच के दौरान यह पाया गया कि कई मामलों में दावेदारों के दावों के खारिज होने या उनकी सिफारिश न किए जाने की सूचना उन्हें दी ही नहीं गई. 

आखिरकार छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने शपथ पत्र में यह साफ किया कि राज्य ने उन मामलों की दोबारा समीक्षा और पुनर्विचार का फैसला किया गया है, जिनमें दावेदारी से जुड़ी प्रक्रिया का सही तरीके से पालन नहीं किया गया है.

दरअसल जमीन पर दावेदारी या इसे खारिज करने की प्रक्रिया शुरू होती है ग्राम सभा स्तर पर फील्ड वेरिफिकेशन से. दावेदारों की मौजूदगी में ग्राम सभा अपने प्रस्ताव के जरिये दावों को खारिज या मंजूर करके आगे सब-डिवीजन कमेटी को भेजती है. 

सब-डिवीजनल लेवल पर इसकी जांच की जाती है. अगर दावा अधूरा पाया गया तो वापस ग्राम सभा में भेज दिया जाता और सही पाया गया इसे यहां डिस्ट्रिकट लेवल कमेटी को भेज दिया जाता है. यही उस पर अंतिम फैसला लेती है.

शपथ पत्र में कहा गया है कि जंगल की जमीन पर दावेदारों के दावे मंजूर हुए या खारिज, इसकी जानकारी उन्हें ग्राम सभा ने लिखित में नहीं दी. इसके अलावा बड़ी तादाद में दावों को सब-डिवीजनल कमेटी को भी नहीं भेजा गया. जबकि 2007 के नियम नंबर 14 में इसका जिक्र है. 

इस शपथ पत्र की सबसे उत्साहजनक बात ये है कि राज्य सरकार ने स्वीकार किया है कि FRA 2006 को तहत लोगों को उनकी जमीन से बाहर नहीं किया जाएगा. जो दावे सही नहीं होंगे उस संबंध में संबंधित विभाग यानी वन विभाग मौजूदा कानून के तहत जगह खाली करने की कार्रवाई करेगा.

अपने शपथ पत्र में छत्तीसगढ़ सरकार ने निर्देश दिया है कि वनाधिकार कानून, 2006 के तहत ग्राम सभा स्तर पर प्राप्त सभी दावों को सब-डिवीजनल लेवल कमेटी को भेजे जाने के मामले में पुनर्विचार किया जाए. ताकि सभी दावों पर पूरी तरह वनाधिकार कानून 2006 और नियम 2007 के तहत विचार हो. 

इसमें कहा गया है कि इस सबंध में सभी डिस्ट्रिक्ट कलेक्टरों को 22.01.2019, 14.02.2019, 25.02.2019 और 06.06.2019 के जरिये निर्देश दिया गया और इसे सर्वोच्च प्राथमिकता में रखने के लिए कहा गया है. 

कौन है असली अतिक्रमणकारी?
जहां तक अतिक्रमण के मामलों का सवाल है तो इस बारे में विस्तृत प्रक्रिया है. छत्तीसगढ़ लैंड रेवेन्यू कोड, 1959 के मुताबिक ऐसे मामलों में हलका पटवारी जमीन पर काबिज व्यक्ति या अतिक्रमणकारी और गांव वालों की मौजूदगी में जगह का निरीक्षण करेगा. सरकार के जमीन रिकार्ड के आधार पर इसकी जांच होगी. और इस रिपोर्ट को तहसीलदार के पास जांच के लिए भेजा जाएगा. हलका पटवारी से रिपोर्ट मिलने के बाद तहसीलदार केस रजिस्टर करेगा और फिर अतिक्रमणकारी को नोटिस भेजगा. उसे सुनवाई के लिए पर्याप्त समय दिया जाएगा. गवाहों और सबूतों के आधार पर कोर्ट इसमें फैसला देगा. 

हालांकि शपथ पत्र में कहा गया है कि पहले खारिज किए सभी दावों की समीक्षा जारी है. इसलिए अभी दावों को खारिज करने का कोई सवाल ही नहीं उठता. 

क्या हो आगे का रास्ता? 
इस शपथ पत्र में उन अहम कदमों को भी रेखांकित किया गया है, जो वनधिकार कानून का पालन कराने के लिए राज्य सरकार की ओर से उठाए जाने हैं. इसमें कहा गया है कि वे भी सभी योग्य दावेदार, जिन्हें अभी तक जमीन नहीं मिली है, उन्हें संबंधित दस्तावेजों के साथ जमीन का पट्टा देना होगा. इससे जुड़े दस्तावेज पंचायत स्तर पर मुफ्त देना होगा. कानून के मुताबिक यह काम जल्द से जल्द करना होगा. जिन ग्राम सभाओं में अभी तक फॉरेस्ट राइट कमेटी नहीं बनी है वहां जल्द से जल्द ये कमेटियां गठित की जाएंगीं. वनाधिकार आयोग के मुताबिक ही दस्तावेज लागू होंगे. इसके अलावा किसी अन्य दस्तावेजों की मांग नहीं होगी. 

इस शपथ पत्र में एक और बात पर जोर है. वह यह कि OTFD दावों पर जमीन पर 13 दिसंबर 2005 से पहले के कब्जे के आधार परविचार किया जाए. इसमें यह देखा जाए कि व्यक्ति इस जमीन पर रह रहा है या नहीं और उसकी जीविका सही मायने में जंगल पर निर्भर करती है या नहीं. ( अभी इस जमीन पर तीन पीढ़ियों के हक के समर्थन में दस्तावेजों की मांग हो रही है) ( 2006 के कानून में इस जमीन के लिए 75 साल की लैंड होल्डिंग का कहीं जिक्र नहीं है).

शपथ पत्र में डिस्ट्रिक्ट लेवल कमेटी से कहा गया है कि पंचायत स्तर पर दावे करने और इस प्रक्रिया को शुरू करने की जिम्मेदारी तय की जाए. साथ ही, जहां एक भी वनाधिकार पट्टा नहीं दिया गया है वहां उसकी वजहों में रिकार्ड में लिया जाए. इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि वनाधिकार पर लोगों को संवेदनशील बनाया जाए. वर्कशॉप आयोजित हो. लोगों को प्रशिक्षित किया जाए. 

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