दो साल से दालें नहीं बिकी हैं बिहार में, नेता दंगा- दंगा खेल रहा है

Written by Ravish Kumar | Published on: April 5, 2018
पब्लिक न्यूज़ रूम के लिए बिहार से दाल की खेती करने वाले एक किसान ने दाम को लेकर सूचना भेजी है। नौजवान रौशन के पिता दाल की खेती करते हैं और पेशे से इंजीनियर ये नौजवान सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। नौकरी भी कर रहा है। रौशन का कहना है कि बिहार के टाल क्षेत्र में जहां सिर्फ दाल की खेती होती है, वहां दो साल से किसानों की दालें नहीं बिकी हैं। रौशन ने लिखा है कि टाल क्षेत्र वह क्षेत्र है जहां नदियां अपना पानी व मिट्टी लाती है और मौनसून के लौटने के साथ नदी का पानी भी लौट जाती है। वहां एक ही फसल होती है। यह क्षेत्र बिहार के पटना, फतूहा, बख्तियारपुर, बाढ, मोकामा, बडहिया, हाथीदा, लक्खिसराय, शेखपुरा, बडबीघा, नवादा, नालंदा का क्षेत्र है। यहां चना, मसूर, खेसारी का उत्पादन होता है। राज्य सरकार के पास दाल खरीदने की कोई प्रक्रिया नहीं है। किसान चाहते हैं कि मैं इसे दिखा कर या लिख कर राज्य सरकार पर दबाव बनाऊं। पर जो सरकार दंगे को लेकर दबाव में नहीं है, वह दाल के दाम की चिन्ता क्यों करेगी। आगे किसान के पत्र का हिस्सा आप पढ़ सकते हैं।

“ मैं बिहार के टाल क्षेत्र से किसान परिवार से हूं।2016 की नोटबंदी के समय किसानों ने उच्च मूल्य पर चना व मसूर के बीज खरीदे(लगभग 12000रूपये प्रति क्विंटल) । उस समय सरकार ने मसूर का 4250 रूपये प्रति क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित किया। किसानो को लगा दाल उत्पादन का उचित लाभ व प्रतिफल मिलेगा। दाल की पैदावार भारत के दाल खपत व मांग के अनुरूप रही तथा फसल उत्पादन अच्छा रहा। इधर सरकार ने हाल के वर्षों में शून्य आयात शुल्क पर इतना दाल आयात कर लिया कि अब भारत के किसान (खासकर बिहार ) मे दाल कौडियों के भाव भी नहीं है। दाल की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर पूरे बिहार में कहीं भी नहीं रही।बिहार के अंदर दाल खरीद को लेकर राज्य सरकार या केंद्र सरकार के पास कोई मैकेनिज्म नहीं है। बिहार में संपूर्ण टाल क्षेत्र के किसानो के दाल दो साल से रखे हैं और कोई भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने को तैयार नहीं है। राज्य सरकार दाल खरीदने से साफ इन्कार कर रही है। मूल समस्या यह है कि कृषि मजदूरों ने जिनके अपने खेत नहीं होते ,दस हजार रूपये प्रति बिघा पट्टा पर किराये पर लेकर खेत बोया है। हालत यह है कि कृषि मजदूर अपना घर भी बेच दें तब भी पट्टे की रकम नहीं पूरा कर सकता। छोटे कृषक व कृषि मजदूर दाल के एम एस पी नहीं मिलने के कारण कर्ज के जाल में भयावह रूप से फंस गये है। कोई रास्ता नहीं है आत्महत्या के सिवाय या फिर पलायन करके दिल्ली, मुम्ब ई व सूरत चले जाएं। भारत सरकार द्वारा जारी न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र व पश्चिमी यूपी के गेहूं व धान तक सीमित है। जिस किसान के दो दो साल से फसल नहीं बिके हों, हालत कल्पना के परे है। सर जी बिहार के टाल क्षेत्र में साल में मात्र एक फसल होते हैं और दो साल से फसल नहीं बिके हैं। आप समस्या की गंभीरता समझ सकते हैं।“

फिर भी बिहार में दंगों के लिए लोग कहां से मिल जा रहे हैं। छात्रों की पढ़ाई और नौकरी नहीं है। किसान बिना दाम के भटक रहा है। तो दंगा कर कौन रहा है? क्या सिर्फ करवाने वाले की टोली बिहार को जला रही है? किसान ने बताया कि व्यापारी मसूर का 30 रूपये किलो से अधिक नहीं दे रहे जबकि बाजार में मसूर दाल 60 से 70 रूपये प्रति किलो है।

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नागपुर में पेट्रोल 81.92 रुपये प्रति लीटर हो गया है। दिल्ली में 73.73 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल मिल रहा है। डीज़ल भी 64.58 रुपये प्रति लीटर मिलने लगा है। पेट्रोल औऱ डीज़ल चार साल में सबसे ज़्यादा महंगा हुआ है। दिल्ली में 14 सितंबर 2014 को पेट्रोल का भाव 76.06 रुपये प्रति लीटर हो गया था। पिछले साल अक्तूबर में सरकार ने पेट्रोल पर एक्साइज़ ड्यूटी में 2 रुपये की कटौती की थी।

सितंबर 2014 में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल थी जो 2017 तक 30 डॉलर प्रति बैरल के आस पास रही। फिर भी भारत में पेट्रोल और डीज़ल के दामों में कोई कमी नहीं आई। 2015-16 में भारत ने 46.17 डॉलर प्रति बैरल के भाव से आयात किया और 2016-17 में 47.56 डॉलर प्रति बैरल के भाव से। बिजनेस स्टैंडर्ड में देवांग्शु दत्ता ने लिखा है। उनका कहना है कि 2017-18 में आयात बिल 22 प्रतिशत ज़्यादा रहेगा और अगर कच्चे तेल की कीमत मौजूदा स्तर पर रहे तो 2018-19 में 15 प्रतिशत ज़्यादा रहेगा। देवांग्शु ने एक और बात बताई है। रिलायंस इंडस्ट्री ने जीओ में 2 खरब रुपये का निवेश किया है। रिलायंस ने इतना पैसा इसलिए लगाया है क्योंकि उसकी रिफाइनरी बिजनेस का मार्जिन ज़्यादा है। लेकिन जब इस मार्जिन में कमी आएगी तो उसका असर जिओ पर पड़ेगा।

अमरीका जाने वाले भारतीय छात्रों में 30 प्रतिशत की कमी आई है। कारण वहां की राजनीतिक अस्थिरता और पढ़ाई का लगातार महंगा होते जाना। इस कारण भारतीय छात्र अब आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूज़ीलैंड की तरफ जा रहे हैं। 

बिजनेस स्टैंडर्ड ने इंटरनेशनल एजुकेशन एक्सचेंज पर ओपन डोर की रिपोर्ट के हवाले से लिखा है कि 2017-18 में 1 लाख 86 हज़ार भारतीय छात्र अमरीका गए और 1 लाख के करीब कनाडा।

भारत के कालेज कबाड़ हो गए हैं। उन्हीं के लिए हैं जिसके पास मजबूरी है। जिसके पास भी आर्थिक बोझ उठाने की ताकत है, वह भारत छोड़ रहा है। वहां जाने वाले सिर्फ अमीर ही नहीं है, बेहतर भविष्य बनाने के लिए दांव लगाने वाले छात्र भी हैं। कर्ज़ लेकर भी बाहर जा रहे हैं मगर यहां तो फ्री में भी पढ़ना रेत में डूब कर मरने जैसा हो गया है। कुछेक विश्व विद्यालयों को छोड़ दें तो बाकी कालेज या यूनिवर्सटी से सिर्फ धार्मिक जुलूस के लिए ही छात्रों की सप्लाई हो सकती है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आम आदमी की समस्याओं पर केंद्रित यह आर्टिकल रवीश कुमार की फेसबुक वॉल से साभार लिया गया है.

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