दुर्गा दुर्मतिनाशिनी

Written by Apoorvanand | Published on: October 12, 2016
षष्ठी की सुबह यह लिख रहा हूँ .  आज माँ भगवती के भक्तों की वर्ष भर की प्रतीक्षा पूरी होती है. माँ की प्रतिमा में आज प्राण-प्रतिष्ठा होगी. वे जीवंत हो उठेंगी. आज से चार दिन उनकी आराधना के दिन हैं. मैं रोज़ अपनी बहन को देखता हूँ, चंडी पाठ सुनते हुए. बचपन की माँ याद आ जाती है: दशहरा आते ही घर में धूप की एक सुगंध उठने लगती थी. तुरत नहाई माँ को दुर्गा की छवि के आगे आँख मूँदे हुए पाठ करते देखता था. उस छवि के आगे रक्त जवा या उड़हूल फूल के अर्पण को नहीं भूलता. शरद की वह गंध-छवि अब तक मन में बसी है.इस बार मालूम हुआ, अम्मी पाठ नहीं कर पा रही हैं .यह सुनकर मुझ जैसे ईश्वरसंदेही को भी कुछ लगेगा, सोचा नहीं था.



आरम्भ लेकिन षष्ठी से हो, ऐसा नहीं. बचपन से ही महालया की प्रतीक्षा व्यग्रता से होती थी. इस बार भूल ही गया. पिता ने, जो फेसबुक-संसार के सहज नागरिक हैं, महालया के दिन आगाह किया:
“देवी पक्ष के प्रारम्भ होने की सूचना हो गई है। देवघर में हमारी चेतना में यह बात रही है कि दुर्गापूजा के अवसर पर उमा एक साल बाद कैलास से अपने मायके चार दिनों के लिए आती हैँ। सप्तमी को उनका आगमन और दशमी को विदाई होती है। आगमनी गीत बेटी के लिए माँ की व्यथा की मार्मिक प्रस्तुति हैं।

प्रान्तर में सफेद कास एवम् शिउली फूलों एवम् आसमान में सफेद मेघ से शरत काल के आगमन की सूचना होते ही कैलास में गिरिराज की पत्नी मयना का मन अपनी पुत्री उमा के लिए व्याकुल हो उठता है। वे गिरिराज से निवेदन करती हैं, “एक साल बीत गया। उमा का कोई समाचार नहीं है। श्मशान में भूत-प्रेत के बीच भिखमंगे महादेव के साथ मेरी बेटी किस तरह रह रही है, मन व्याकुल रहता है। अब उसे वापस नहीं जाने दूँगी। भोलानाथ को घरजमाई बनाकर स्थापित कर लूँगी। तुम कैसे पिता हो? अभी कैलास जाकर उमा को लिवा लाओ।“ 

गिरिराज के कैलास के लिए रवाना होने के बाद मयना की प्रतीक्षा प्रारम्भ होती है। वे नगरवासियों का आह्वान करती हैं, “नगरवासियो, उमा आ रही है। तोरणद्वार सजाओ, मंगलघट स्थापित करो। उमा आ रही है.”

फिर सप्तमी तिथि को उमा आती है, माँ बेटी को देखकर विह्वल हो जाती हैं। उमा को ओमा, ओमाकहते कहते आनन्द विभोर होती रहती हैं। नगरवासी मिलकर मंगलगीत गाते हैं। पूरा नगर उत्सव में डूब जाता है। 

अष्टमी तिथि उल्लास से भरी होती है. कहीं कोई अभाव नहीं है, कोई विषाद नहीं है।। मां आई है, सारा परिवेश उत्सव मुखरित है। गीत-संगीत वातावरण में गूँज रहे हैं। 

अष्टमी की रात के बीतने की सूचना होते ही नवमी की दस्तक सुनाई पड़ती है। मयना आशंका से आतंकित हो जाती है, “ कल उमा चली जाएगी! काल देवता से प्रार्थना करती हैं, नवमी की रात तुम नहीं बीतना।” 

फिर दशमी की ध्वनि सुनाई पड़ती है। मयना को दूर से आती हुई डमरु की आवाज सुनाई पड़ती है। प्रहरियों को पुकार कर कहने लगती हैं. गौरी को लिवा जाने के लिए भोलानाथ आ रहे हैं, डमरू  की आवाज निकट से निकटतर होती जा रही है। जाओ, तुम लोग उन्हें रोक दो, मैं उमा को नहीं जाने दूँगी। तीन दिन तो रुकी है मेरे पास । अब वह मेरे ही पास रहेगी।

गौरी माँ को सँभालती है। कहती हैं, “बेटी को तो पतिगृह में ही रहना होता है। तुम अपनी ओर भी देखो। तुम भी तो किसीकी बेटी हो। मैं तो फिर भी साल में एक बार आती हूँ , तीन दिन तुमलोगों के साथ रहती भी हूँ.”
बेटी की बातें सुनकर माँ और नगरवासी अभिमान से भर उठते हैं, “ उसकी भर्त्सना करते हुए दुर ग्गा, दुर् ग्गा कहते हैं।

अन्ततोगत्वा मान अभिमान का दौर थमता है, बेटी फिर से उमा हो जाती है, “ओ मा ,उमासे वातावरण मुखरित हो जाता है। नगरवासी मयना के साथ अश्रुपूरित नेत्रों से विदा करते हैं. … आबार एशो”अगले साल फिर आना, माँ!

बाबूजी ने कथा संक्षेप में ही कही है. जितना बंगाल के लोग इससे परिचित हैं, उतना ही नचारी के देश मिथिलावाले भी. प्रत्येक वर्ष ही दुहराई जाती है. उतनी ही तन्मयता से इसे सुना भी जाता है. कथा आखिरकार बेटी के आने की उत्सुकता और उसके फिर से पति-गृह चले जाने के निश्चित होने के बावजूद किसी तरह उसे रोके रखने की माँ की इच्छा की है. मेना बोलती हैं, पिता हिमालय खामोश ही रहते हैं लेकिन आखिर वे क्या सोचते हैं, जानने का कोई उपाय नहीं .

महालया को सुबह-सुबह रेडियो पर कलकत्ता स्टेशन लगाया जाता था. रेडियो की सुई को ठीक ठीक जमा देना कि वह सही फ्रीक्वेंसी पर जा टिके. बांग्ला देश के निर्माण के बाद बांगला देश रेडियो से भी आगमनी का प्रसारण शुरू हो गया था. लेकिन कलकत्ता से आने वाली बीरेंद्र कृष्ण भद्र की मंद्र-गभीर   स्वर-ध्वनि से शारदीय अन्धकार का झंकृत होना रोमांचकारी लगा करता था.

पूजा के समय देवघर जाता था. अपने दादा को नियमित घर के पूजा गृह में पाठ करते देखता था. शहर भर में पंडाल सज जाते थे. प्रत्येक की अपनी ख्याति थी. कहाँ की दुर्गा कैसी होंगी, क्या इस वर्ष भी वे पिछले वर्ष जैसी ही हैं या इस बार कारीगर ने कुछ और कमाल किया है! पंडालों का अभिमान उनके कारीगरों की ख्याति के साथ जुड़ा था.इस कुतूहल के साथ हम बच्चे एक पंडाल से दूसरे पंडाल  का चक्कर लगाते रहते थे. पूजा की व्यस्तता का कहना ही क्या था! एक-एक दुर्गा को देख कर उसके रूप की विवेचना करना भी तो एक बड़ा काम था!

हर दुर्गा दूसरे से भिन्न होंगी ही, इसमें कोई शक न था. कोई सौम्यरूपा थीं तो कोई रौद्ररूपा. उदात्त और कोमल का संयोग निराला और बाद में मुक्तिबोध में देखा, लेकिन उसके पहले इस मेल की संवेदना का बीजारोपण इन पंडालों में हुआ होगा. पंडाल में उठता और गहराता हुई धूप का धुआँ, जिससे आँखें कड़ुआती थीं अवश्य लेकिन वहां से टलने का मन न होता था. वह धुआँ आहिस्ता आहिस्ता शरीर में जज्ब हो जाता था. एक रहस्यमय भाव का उदय होता था. धीरे-धीरे जैसे  ढाक-ध्वनि और उस ध्वनि के साथ देवी की प्रतिमा के आगे दोनों हाथों में धूपाधार लेकर नृत्य करते भक्त एक कलात्मक वातावरण रच देते थे. भक्ति सुंदर ही होती है और अनिवार्यतः कलात्मक, यह बात पूजा में साल-दर साल भद्र महाशय को सुनते हुए और देवघर के पंडालों में घूमते हुए मन में बैठ गई.

भीतरपड़ा और बंगलापर की दुर्गा पुरानी थीं.प्रतिष्ठा उनकी थी. लेकिन वे देवघर के बाशिंदा पंडा-घरों का आयोजन था. वैद्यनाथ मंदिर में भीतरखंड की दुर्गा का रहस्य और रुआब कुछ और था. ये मंदिर के अंदर प्रतिष्ठित थीं . नवमी के दिन हर जगह बलि पड़ती थी. भीतरखंड  में भैंसे की बलि होती है, सुना था. देख कभी नहीं नहीं पाया. लेकिन नवमी को बलि के रक्त के देवघर की अधिकांश भूमि लाल हो उठती थी. प्रत्येक घर की अपनी बलि होती थी. उस बलि के प्रसाद की प्रतीक्षा क्या सिर्फ बच्चे ही करते थे? वैसे, देवघर में मांस को आमतौर पर प्रसाद ही कहते हैं. शायद ही कोई पंडा घर हो, जो मांसाहारी न हो. आखिर माँ के प्रसाद को ठुकराया कैसे जा सकता है!

पंडालों में कुछ ऐसे होते थे जो कोने में बैठे हुए पाठ करते रहते थे. किंचित विस्मय के साथ हम स्वर में पाठ करते सुनते थे जो अष्टमी और नवमी को अश्रु से कम्पित हो उठता था. लेकिन हममें से भी किसी को संदेह न था कि षष्ठी और सप्तमी की देवी का मुख प्रसन्न रहता है, अष्टमी से वह मुरझाना शुरू होता है और नवमी को वह मायके से वापसी का समय आ गया, जानकर विषण्ण हो उठता है. अपने भाव को ही प्रतिमा पर आरोपित करके भक्त हृदय संतोष लाभ करता है, समझने की उम्र बाद में आई.

दशमी को लेकिन माँ की विदाई के आयोजन में अपने दुःख को भुलाकर नाचते गाते नगरवासी उसे पति-गृह को रवाना करते हैं. इस समय कोई रुलाई नहीं. विविधरूपा दुर्गा को उसके मायकेवाले अलग अलग नाम से पुकारते हुए उसके साथ चलते हैं. एक टुकड़ा मन में अटका रह गया है और दशमी को कहीं भी रहूँ, बज उठता है:”ओ,माँ दिगंबरी नाचो,गो!

दुर्गा को क्या महिषमर्दिनी के रूप में आराध्य माना जाए या उसे सार्वभौम पुत्री के रूप में पुनःप्रतिष्ठित किया जा सकता है? बेटी भी वह बेटी नहीं है, मायके की मायने भी बदल गए हैं,पति गृह अब उतना ही स्त्री का घर है: तो क्या यह स्मृति अब अर्थहीन हो गई है?
मैं जो भक्ति की इस सम्वेदना से वंचित रह गया, यह सब सोचता हूँ. दुर्गा से जुड़े भावों की तीव्रता और सांद्रता के सच को मैं जानता हूँ .लेकिन आज जो वह क्षुद्र होता दीख रहा है, उस समय इसे कैसे याद करूँ?

यह भक्ति और स्मृति टकराती है एक और याद से: जो स्वयं को महिषासुर के वंशज मानते हैं, उनके इन दस दिनों के शोक की याद से. वे दुर्गा का मुख भी नहीं देखते. इस बार सुना, सुषमा असुर उद्घाटन करेंगी कोलकाता की फूलबागान सार्बजनीन दुर्गा पूजा समिति के पंडाल का. उसके दस दिन पहले नंदिनी सुन्दर ने बताया, छत्तीसगढ़ के नेता मनीष गुंजाम पर किसी ने मुकदमा कर दिया है क्योंकि उन्होंने महिषासुर को मारे जाने की कथा का दूसरी व्याख्या प्रसारित कर दी थी. फिर दुर्गा सार्वजनीन तो नहीं ही रह गईं .

“शक्ति की करो मौलिक कल्पना”: यह चुनौती निराला के राम को मिली थी. आज हम सबके सामने यह चुनौती है. पुरखों ने जो कल्पना की उसकी स्मृति को रखते हुए, उन्हें इसका श्रेय देते हुए हम अपने बाद की सोचें: हमारे बाद आनेवाली पीढ़ियाँ क्या हमारी किसी भक्ति और शक्ति की कल्पना की याद करके हमारे प्रति कृतज्ञता का अनुभव करेंगी? या हम मात्र माध्यम रह जाएँगे: जो मिला उसे वैसे ही आगे पहुँचा दिया? हमने कौन सी छवि गढ़ी?

( First published by SATYAGRAH on 8 October, 2016)
 

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