कावड़ियों की भीड़ ने बस पर कब पथराव करना शुरू कर दिया पता ही न चला!

Written by Mithun Prajapati | Published on: August 27, 2019
"अम्मा, कल पापा को दवा के लिए लेकर चली ही जाना, इतने दिन से दवाई छूटी है, डॉक्टर गुस्सा करेंगे। और तबियत भी तो और बिगड़ती जा रही है।" यह बात छुटकी ने दुआर  से सटे खेत में गोबर के उपले बनाते हुए कही।



छोटकी को गोबर के उपले बनाते देख कोई शहरी या प्रिविलेज वाला व्यक्ति यही कहता- क्या इसे उज्जवला योजना का लाभ नहीं मिला !

पर यदि वह इंक्वायरी करता तो पाता कि गैस तो मिली थी पर सिलेंडर दोबारा भराने के लिए पैसे किसी के पास न थे।

अम्मा ने दुआर पर झाड़ू लगाते हुए छोटकी की बात सुनी। उसने कहा- बिटिया, क्या तुझे लगता है कि मुझे चिंता नहीं है ? मैं तुझसे ज्यादा परेशान हूँ पर सड़क पर कावड़ियों की भीड़ देख डर सा लगता है। और आने जाने के साधन भी तो नहीं मिल रहे इन दिनों। अभी कल ही रामअवध का लड़का इलाहाबाद से लौटा है, वह बता रहा था कि बसों में इतनी भीड़ हो रही है कि कमजोर आदमी पिसकर चटनी बन जाये।

उपले बनाते हुए ही छुटकी ने कहा - अम्मा मैं तो इसलिए कह रही थी कि कल पंडी जी की जीप मुख्य सड़क तक जा रही है। अगर कल चली जाती तो इतना दूर पैदल चलने की तकलीफ कम हो जाती।

छुटकी की बात सुन अम्मा खुश हुई। वह कहने लगी- तू सच कह रही न ? मैं पैसे का जुगाड़ करूँ कहीं से ?

छुटकी ने कहा- अम्मा सही कह रही हूं। पंडी जी की बेटी आज स्कूल जाते हुए मुझे बता रही थी।

छुटकी के पापा कई सालों से बीमार थे। छुटकी नहीं जानती थी पापा को क्या हुआ है। गांव के लोग उसके पापा को पगला पगला कहकर बुलाते थे। छुटकी इतना जानती थी कि जो लोग उसके पापा की तरह होते हैं उसे पगला कहती है दुनिया। स्कूल में एक लड़का भी तो ऐसा ही था जो उसके पापा की तरह हरकतें करता था। वह भी तो कभी नाली का कीचड़ इधर उधर फेंकने लगता, कभी अपने ही बालों में मिट्टी डालने लगता। कोई उसे पग्गल कहता तो वह उसके ऊपर थूकने लगता जो प्रायः उसके ऊपर ही गिरता। 

छुटकी जानती थी कि उसके पापा ने गांव के बरगद पर पेशाब कर दिया था तब से वे ऐसे हो गए हैं। ऐसा गांव के कुछ लोग कहते थे तब वह जान पाई थी। वह सोचती, क्या स्कूल का वह लड़का जिसे लोग पग्गल कहते हैं, उसने भी उसी बरगद पर पेशाब किया था ? फिर वह सोचती, स्कूल में सर जी तो बता रहे थे कि वह पैदा होने से ही ऐसा है। वह सोचती शायद उसके पापा ने बरगद पर पेशाब किया होगा। 

छुटकी के पापा का इलाज कुछ साल से चार व्यक्ति कर रहे थे जिन्हें लोग ओझा और सोखा कहते थे। उनके इलाज से छुटकी की अम्मा के सारे गहने बिक गए थे और आजतक राहत कुछ न हुई। वह तो भला हो उस डॉक्टर का जिसने उसके पापा को इलाहाबाद के किसी मानसिक विशेषज्ञ के पास जाने को कहा और बार बार जोर देकर वहां भेजा। पिछले कई महीनों के ईलाज से उसके पापा अब कुछ ठीक रहने लगे थे। पर उनकी बीमारी ने चार सालों में घर की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर कर दी थी। 
घर से मुख्य सड़क तक पैदल चलना पड़ता था जो करीब 7 किलोमीटर की दूरी थी। गांव में कुछ बड़े लोगों के पास गाड़ियां थी जी कभी कभी बाहर निकलती थीं। मुख्य सड़क से बस लेकर इलाहाबाद पहुँचा जा सकता था।

पैसे का कहीं से जुगाड़ कर अम्मा सुबह पंडी जी के घर पहुँच गयी। उसने पता किया था कि पंडी जी की गाड़ी सुबह 8 बजे निकलेगी। वे गाड़ी में सवार हो आगे चले जा रहे थे। गाड़ी का ड्राइवर कोई लंगड़ा था। उसका नाम कोई नहीं जानता था। सब लंगड़ कहकर बुला लेते थे। किसी ने उसका नाम कभी न जानना चाहा। जब आधार कार्ड बनाने वाले ने उसका नाम पूछा था तब शायद वह पहली बार हुआ था कि कोई उसका नाम पूछ रहा था। उसने दिमाग पर जोर डालकर कहा था- सुरेश। 

उसका नाम सुनकर कई लोग हंसे थे। उसके जानने वाले ने हंसते हुए कहा था- लंगड़ सारे, तोर नाम लंगड़ ही बढ़िया लगेला।
लंगड़ दलित जाति का था। ड्राइवर बढ़िया था। पंडी जी दिन का 200 रुपये देते थे। एक बार उसने ढाई सौ देने को कहा था तो पंडी जी ने गरियाते हुए कहा था " लंगड़, तोहरे जइसन आदमी के लिए 200 बहुत है। हम किसी और को रख लेंगे तो कहीं के न रहोगे।"

पंडी जी ने सही कहा था। कई ड्राइवर लोग बेरोजगार थे उस गांव में। कई तो ताक मे बैठे थे कि यह काम छोड़े तो हम पकड़ लें। उस दिन के बाद लंगड़ ने कभी पैसे बढ़ाने की बात न की। सुबह जब वह गाड़ी निकलता उसके पहले उसे आधा भेली गुड़ मिल जाता खाने को। पानी उसे अपने किसी कोल्डड्रिंक की बोतल मे ही पीना पड़ता। पंडी जी उसके हाथ की कमाई के पैसे ले लेते। पर उन्हें कतई मंजूर न था कि कोई छोटी जाति का उनके बर्तन मे पानी पिये। पैसा जाति धर्म से ऊपर होता है। लंगड़ को इस बात का फर्क भी न पड़ता। पंडी जी गुड़ देते थे ये क्या कम था !

गाड़ी मुख्य सड़क पर आ चुकी थी। छुटकी की अम्मा उसके पापा को लेकर उतर गई थी। बस अब भी न आई थी। सड़क बस गेरूवे रंग मे रंगी थी। जिधर नजर घुमाओ बस कावड़िये दिखते। करीब एक घन्टे की प्रतीक्षा के बाद बस आई। बस की भीड़ देखकर अम्मा को यकीन हो गया कि रामअवध का लड़का बिलकुल सही कह रहा था। किसी तरह अम्मा ने अपने आप को और छुटकी के पापा को बस मे धकेला। बस मे इतनी जगह न थी कि कोई सिर घुमाकर अपने अगल बगल देख ले। छुटकी के पापा के पैर पर कोई पैर रखकर खड़ा था। उन्हें इसका फर्क नहीं पड़ रहा था। वह बहुत दुबली पतली शरीर के थे। उन्हें देख बस मे सबको दया आ रही थी। जो सीट पर बैठे थे दया उन्हें भी आ रही थी पर उतनी भी नहीं कि अपनी सीट छोड़ उन्हें बैठा दें। 

जैसे तैसे उन दोनों ने यात्रा पूरी की और हॉस्पिटल पहुंचे। लंबी लाइन और वेटिंग के बाद उनका नम्बर आया। वह सरकारी हॉस्पिटल था। डॉक्टर ने कुछ पूछताछ के बाद दवाएं लिख दी और एक महीने बाद आने को कहा। अम्मा हॉस्पिटल के मेडिकल पर गयी जहां दवाएं मुफ्त मिलती हैं। कुछ देर प्रतीक्षा करने पर मेडिकल पर भी नंबर आ जाता। यहाँ आकर अम्मा और मरीजों को देखती तो उसे अहसास होता। ज़िन्दगी संघर्षों से भरी है। अक्सर मेडिकल पर दवाएं न मिलती। जो मिलती भी थीं तो उनकी कीमत कम होती। अक्सर महंगी दवाएं बाहर से लेनी पड़ती। कई लोग कहते कि यहां दवाएं ब्लैक की जाती हैं। पर अम्मा को यही खुशी होती कि कुछ तो फ्री मे मिल गयीं। उसने कई सभ्य से दिखने वाले लोगों को मेडिकल वालों से दवा के लिए लड़ते देखा था। पिछली बार तो एक व्यक्ति अम्मा को समझा रहा था कि सरकारी अस्पताल से मुफ्त दवा हर नागरिक का अधिकार है। अधिकार वधिकार अम्मा को न समझ आता। 

दवा ले अम्मा बस अड्डे पर पहुँची। शाम होने को थी। छुटकी का पापा कभी कुछ ज्यादा बोलता न था। यदि अम्मा ने दस रुपये के कुरमुरे उसे लेकर न दिए होते तो वह भी न मांगता वह। बस आई तो लाइन मे पहले होने के कारण अम्मा और छुटकी के पापा को सीट मिल गयी थी। बस शहर छोड़ बाहर आ चुकी थी पर कावड़ियों की भीड़ जो जल लेकर लौट रही थी उनकी संख्या अधिक होने के कारण धीरे धीरे चल रही थी। चारों तरह बस बोल बम सुनाई दे रहा था। कहीं कहीं जय श्री राम जोर जोर से सुनाई दे जाता। 

 छुटकी के पापा के हाथ में कुरमुरे अब भी पड़े थे। वह उसे खाये जा रहे थे। क्या गड़बड़ हुई कुछ पता न चला। उन्होंने कुरमुरे बाहर थूक दिये। कुछ दाने बाहर चल रहे कावड़िये पर पड़ी। बचे हुए कुरमुरे भी उन्होने बाहर फेंक दिया। बाहर कुछ हलचल हुई। जय श्रीराम का नारा लगातार सुनाई देने लगा। 

बस के आगे सिर्फ कावड़िये दिख रहे थे। ड्राइवर ने बस आगे बढ़ानी चाही पर कुछ लोगों ने उसे बाहर निकालकर पीटना शुरू कर दिया। बस पर पथराव होने लगा। कुछ यात्रियों के सिर फटे और लहूलुहान वे तड़पने लगे। कुछ ने अपने आप को बचाने के लिए सीट के नींचे छुप गए।  एक पत्थर छुटकी की अम्मा के सिर पर लगा। वह बेहोश हो सीट पर फैल गयी। आधे घन्टे में मामला ठंडा हुआ तो घायलों को हॉस्पिटल ले जाने की प्रक्रिया शुरू हुई। 

अम्मा को होश आया तो उसने देखा छुटकी के पापा से कुछ लोग कुछ पूछ रहे हैं। छुटकी का पापा कभी बाल खुजा रहा होता तो कभी दाढ़ी। वहां मौजूद लोगों मे से किसी ने कहा- अरे ये तो पागल लगता है।

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