मिजाज-ए-बनारस: बुनकरों की संस्कृति, संघर्ष और हुनर की अनसुनी दास्तान…!

Written by विजय विनीत | Published on: November 6, 2024
"मिजाज-ए-बनारस" बनारस के उन बुनकरों की कहानी कहती है जिनका जीवन एक समय कला और संस्कृति की ऊंचाइयों को छूता था, लेकिन आज वे आर्थिक असुरक्षा और सामाजिक उपेक्षा के जाल में फंस चुके हैं।



बनारस, अपनी अनूठी जीवन शैली, गंगा किनारे की परंपराओं और बुनकर समुदाय के हस्तकला कौशल के लिए जाना जाता है। प्रोफेसर वसंती रामन की पुस्तक "मिजाज-ए-बनारस" इस ऐतिहासिक शहर की गहराइयों में उतरते हुए, यहां के बुनकरों की जिंदगी, संघर्ष और उनकी सांस्कृतिक पहचान की झलक प्रस्तुत करती है। यह किताब लगभग दो दशकों के गहन फील्ड वर्क पर आधारित है और बुनकर समाज की हकीकतों को उजागर करती है, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।

"मिजाज-ए-बनारस" बनारस के उन बुनकरों की कहानी कहती है जिनका जीवन एक समय कला और संस्कृति की ऊंचाइयों को छूता था, लेकिन आज वे आर्थिक असुरक्षा और सामाजिक उपेक्षा के जाल में फंस चुके हैं। यह किताब बुनकर समाज की दिन-प्रतिदिन की चुनौतियों, उनकी कला की सुंदरता, और उनके जीवन के संघर्ष को प्रस्तुत करती है। प्रोफेसर रामन का यह शोध बुनकरों के उस जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूता है जो बनारस की असल धरोहर में शामिल हैं।

बनारस की बुनकरी में बुनाई का ताना-बाना न सिर्फ कपड़े का है, बल्कि हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच का संबंध भी इससे गहराई से जुड़ा हुआ है। यह केवल कपड़ा नहीं बुनते, बल्कि बनारस की साझा संस्कृति और एकता का प्रतीक हैं। किताब में यह बात स्पष्ट की गई है कि कैसे बनारस के बुनकर हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द को अपनी कला में सजीव रखते हैं।

किताब में वसंती रामन ने उन सामाजिक और आर्थिक बदलावों को भी रेखांकित किया है जो उदारीकरण की नीतियों और वैश्वीकरण के प्रभाव से बुनकरों के जीवन में आए हैं। सरकार की नीतियों में आए बदलाव, पावरलूम के बढ़ते प्रचलन, और पारंपरिक कारीगरी को मिले सीमित समर्थन ने बनारस के बुनकरों के जीवन को गहरे रूप से प्रभावित किया है। ये नीतियां बुनकरों के लिए प्रतिस्पर्धा का माहौल तो बनाती हैं, लेकिन आवश्यक संसाधन और समर्थन की कमी के चलते वे इस मुकाबले में अक्सर पिछड़ जाते हैं।

हकीकत बयां करती है यह किताब

किताब में बुनकर समुदाय की आर्थिक चुनौतियों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। यह किताब उन बुनकरों की कहानी है जिनके पास कभी अपनी कला से आत्मनिर्भरता की स्थिति थी, लेकिन समय के साथ उनकी आमदनी कम होती चली गई। आज कई बुनकर अपनी आजीविका के लिए रोज़मर्रा की मेहनत-मजदूरी करने को मजबूर हैं, कुछ ने रिक्शा चलाना शुरू कर दिया है, और उनके बच्चे अक्सर पढ़ाई की जगह काम में लग जाते हैं।

"मिजाज-ए-बनारस" में यह भी बताया गया है कि बुनकरी के इस कार्य में महिलाओं का योगदान महत्वपूर्ण है। बनारस की बुनकर महिलाएँ इस पेशे का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो अपनी कुशलता और मेहनत से बुनाई में सहायता करती हैं, लेकिन इनके कार्य को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। महिलाओं का यह योगदान परिवार को संभालने, काम में सहायता देने, और आर्थिक रूप से सहयोग देने में होता है।

पुस्तक में बनारस के ताने-बाने के माध्यम से सांस्कृतिक धरोहर और परंपराओं को संजोने का संदेश है। प्रोफेसर रामन का मानना है कि बुनकरों का अस्तित्व केवल कपड़े बुनने तक सीमित नहीं है; वे एक सांस्कृतिक धरोहर का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारतीयता की मूल भावना को जीवित रखते हैं। बनारस की संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित रखने में बुनकर समाज का विशेष योगदान है।

"मिजाज-ए-बनारस" केवल एक किताब नहीं है, बल्कि यह बनारस के उन बुनकरों की आवाज है जिनका संघर्ष, उनकी कला, और उनकी पहचान समय के साथ कहीं खोती जा रही है। यह पुस्तक हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम इस धरोहर को कैसे बचा सकते हैं और इन कलाकारों के योगदान को कैसे सराह सकते हैं। यह किताब समाज के लिए एक संदेश है कि हमें इस तरह की कला और कारीगरी को सहेजने और संजोने की ज़रूरत है, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस सांस्कृतिक धरोहर का अनुभव कर सकें।

प्रोफेसर वसंती रामन की "मिजाज-ए-बनारस" बनारस के बुनकर समुदाय की आत्मा को शब्दों में बाँधती है और बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब की झलक प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक केवल बनारस के बुनकरों की नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति की कहानी है जो अपनी कला और मेहनत से समाज की धरोहर को सहेजता है। यह किताब एक प्रेरणा है कि कैसे सांस्कृतिक धरोहर को बचाने और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, ताकि बनारस की कला और संस्कृति सदियों तक जीवित रहे।

और क्या है "मिज़ाज-ए-बनारस" में

"मिज़ाज-ए-बनारस" प्रो.रामन लिखती हैं कि बनारसी साड़ी उद्योग का इतिहास भारतीय हस्तशिल्प की सुंदरता और बुनाई की बारीकी का प्रतीक रहा है। बनारस के बुनकरों का जीवन इसी उद्योग पर आधारित है, जो धीरे-धीरे सरकारी नीतियों, बाजार की प्रतिकूलताओं और बदलती तकनीकी प्रतिस्पर्धाओं के चलते अस्तित्व के संकट में घिरता गया। मिजाज-ए-बनारस में बनारस की बुनकरी की तमाम चुनौतियों को विस्तार से रेखांकित किया गया है, जिसे आप सिलसिलेवार पढ़ सकते हैं।

साल 1985 में लागू की गई नयी वस्त्र नीति (एनटीपी) ने बनारसी साड़ी उद्योग में संकट की शुरुआत की। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा लायी गयी यह नीति भारतीय वस्त्र उद्योग को आधुनिकीकरण, कुशलता और उत्पादकता पर केंद्रित करने के उद्देश्य से लागू की गई थी। इस नीति के अंतर्गत, बाजार की प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया। इससे पहले वस्त्र उद्योग को रोजगार सृजन और समानता की दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन एनटीपी ने पावरलूम और मिलों के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया, जिससे हैण्डलूम उद्योग के लिए गंभीर चुनौती उत्पन्न हो गई।

इस नीति में हैण्डलूम सेक्टर को कुछ वस्त्रों के उत्पादन में आरक्षण का आश्वासन दिया गया था, परंतु यह वादा केवल कागजों तक सीमित रह गया। पावरलूम और मिल मालिकों ने इस आरक्षण नीति को अदालत में चुनौती दी, और कई सालों की अदालती लड़ाई के बाद 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने हैण्डलूम सेक्टर के पक्ष में फैसला दिया। बावजूद इसके, आरक्षित वस्त्रों के निर्माण में पावरलूम के दखल और सरकारी तंत्र की ढिलाई ने आरक्षण नीति को विफल बना दिया।

एनटीपी के बाद, बनारसी साड़ी उद्योग में बुनकरों की मुश्किलें बढ़ने लगीं। 1990 के दशक में वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों के चलते कच्चे माल, विशेषकर धागे और रेशम की कीमतें बढ़ने लगीं। भारतीय धागे और कपास के निर्यात को प्रोत्साहन मिला, जिससे हैण्डलूम बुनकरों को कच्चे माल की कमी का सामना करना पड़ा। इस दौरान चीनी धागों और सस्ते रेशमी वस्त्रों की बाढ़ ने बनारसी साड़ी उद्योग को भारी नुकसान पहुंचाया।

बुनकर समुदाय का जीवन अत्यंत कठिन होता चला गया। जो युवा बुनकर पारंपरिक बुनाई में लगे हुए थे, वे अन्य कार्यों में जाने लगे। वृद्ध बुनकरों के सामने आजीविका का संकट खड़ा हो गया। अनेक बुनकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए और आत्महत्या जैसी घटनाएँ भी सामने आने लगीं।

पावरलूम और बाजार की प्रतियोगिता

बनारसी साड़ी उद्योग में पावरलूम की बढ़ती भूमिका ने पारंपरिक हैण्डलूम बुनकरों के लिए चुनौतियों को और बढ़ा दिया। पावरलूम द्वारा बड़े पैमाने पर सस्ती साड़ियों का निर्माण होने लगा। बनारस के बाजार में जहाँ पहले केवल पारंपरिक साड़ियां ही बिकती थीं, अब वहां पावरलूम द्वारा बनी साड़ियां भी आने लगीं। एक पावरलूम 14 हैण्डलूम के बराबर उत्पादन करता है, जिससे उत्पादकता में तो वृद्धि हुई, लेकिन इसके चलते हजारों हैण्डलूम बुनकर बेरोजगार हो गए।

अनुप गुजराती जैसे व्यापारियों के अनुसार, पावरलूम की सस्ती साड़ियों की वजह से बनारसी साड़ियों की माँग में गिरावट आई। हालात इतने बिगड़ गए कि कई हैण्डलूम बुनकरों ने अपने करघे बंद कर दिए और दूसरी आजीविकाओं की तलाश में निकल पड़े।

इस बदलते आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य का बुनकरों के जीवन पर गहरा असर पड़ा। बनारस और उसके आसपास के क्षेत्रों में करीब पाँच लाख बुनकरों की आजीविका खतरे में पड़ गई। नक्खीघाट, सरैयाँ, जलालीपुरा, बजरडीहा और लोहता जैसे इलाकों में बुनकर परिवार दिन में केवल एक बार भोजन करने को मजबूर हो गए। महिलाओं ने साड़ियों पर टिकली चिपकाने जैसे छोटे-छोटे काम करने शुरू कर दिए, जिससे उन्हें प्रति साड़ी केवल 35-40 रुपये मिलते थे।

नक्खीघाट के फारुख जैसे बुनकर, जो एक समय पर अच्छे आर्थिक स्थिति में थे, अब गरीबी के दलदल में फंस चुके हैं। फारुख ने बताया कि पहले उनके पास कई करघे हुआ करते थे और वे उनपर साड़ियां बनाते थे, जिससे हर माह 2,500 रुपये की बचत होती थी। लेकिन अब करघे बंद हो चुके हैं, और उनका परिवार आर्थिक तंगी में जीने को मजबूर है। नक्खीघाट के कई बुनकर रिक्शा चलाने या सब्जी बेचने जैसे कार्यों में लग गए हैं।

व्यापारियों का अनुभव और बाजार की मुश्किलें

गोलघर इलाके के अनूप गुजराती और उनके ससुर एम.डी. गुजराती के हवाले के कहा गया है कि बनारसी साड़ी उद्योग की समस्याओं का प्रमुख कारण धागे की ऊंची कीमत और चीनी रेशमी वस्त्रों का बाजार में बाढ़ आ जाना है। गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों ने अपने वस्त्र उद्योगों के लिए प्रोत्साहन योजनाएं बनाई हैं, जिनमें बिजली पर सब्सिडी भी शामिल है। बनारसी बुनकरों के पास तकनीकी कौशल होते हुए भी इस तरह की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है। बुनकरों को नयी तकनीक अपनाने की चुनौती का भी सामना करना पड़ता है। चीन और जापान से आयातित कंप्यूटर-आधारित कढ़ाई मशीनें, जो काफी महंगी होती हैं, बाजार पर हावी हो चुकी हैं। इसके कारण पारंपरिक बुनकरों के काम में कठिनाई और बढ़ गई है।


सांप्रदायिक हिंसा का असर

बनारस में हिन्दू और मुसलमान समुदायों के बीच का रिश्ता समय-समय पर तनाव और संघर्ष का साक्षी रहा है, जिसका एक प्रमुख कारण औपनिवेशिक शासन के दौरान उत्पन्न साम्प्रदायिक विभाजन था। औपनिवेशिक दौर में बनारस शहर की सामाजिक और धार्मिक संरचना को लेकर अंग्रेजी सरकार ने एक ऐसे विमर्श का निर्माण किया जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सदैव शत्रुता और प्रतिस्पर्धा का भाव दिखाया गया। यह लेख औपनिवेशिक काल से लेकर साल 1990 के दशक तक बनारस में साम्प्रदायिक दंगों के कारणों और प्रभावों का विश्लेषण करता है।

19वीं सदी के शुरुआत में ब्रिटिश अधिकारियों ने बनारस और इसके धार्मिक समुदायों के बीच लगातार टकराव का चित्रण किया। ब्रिटिश लेखक और अधिकारी, जैसे कि 'बनारस गजेटियर' (1909) के लेखक नेविल, ने अपनी पुस्तकों में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच शत्रुता को प्रबलता दी। नेविल ने 1809 में बनारस के दंगों का उल्लेख करते हुए दावा किया कि यह दंगे दोनों समुदायों के धार्मिक संघर्ष का परिणाम थे। इसके विपरीत, वास्तविकता यह थी कि 1810-11 के आवास-कर विरोधी हड़ताल में हिन्दू और मुसलमान, जाति और संप्रदाय से ऊपर उठकर एकजुट हुए थे। इस सामूहिक विरोध के बावजूद, औपनिवेशिक अधिकारियों ने इसे नजरअंदाज किया और हिन्दू-मुसलमान विभाजन को बढ़ावा देने वाले अपने दृष्टिकोण को स्थापित किया।

बनारस का समाज सिर्फ संघर्ष का प्रतीक नहीं है, बल्कि यहाँ हिन्दू और मुसलमानों के बीच सांस्कृतिक एकता के उदाहरण भी मिलते हैं। मुहर्रम के अवसर पर जहाँ मुसलमान मुख्य रूप से शामिल होते हैं, वहीं बनारस के हिन्दू समुदाय के कई सदस्य भी इस अवसर पर भाग लेते हैं। 1895 में ‘भारत जीवन’ पत्रिका में उल्लेख है कि मुहर्रम का त्यौहार शांति और सौहार्द्र के साथ बीता, जिसमें हिन्दुओं की भी बड़ी संख्या शामिल हुई। यह सामंजस्य बनारस की साझा सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा था।

इस सांस्कृतिक साझेदारी के कारण बनारस के हिन्दू-मुसलमान धार्मिक पर्व और समारोह में एक-दूसरे के साथ मिलकर हिस्सा लेते थे। यह साझेदारी 1809 के बनारस दंगों के बाद भी मजबूत रही, जहाँ बनारस के कार्यवाहक मजिस्ट्रेट ने उल्लेख किया कि धार्मिक समारोह इतने घुले-मिले हैं कि उन्हें अलग करना प्रशासन के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है।

20वीं सदी की शुरुआत में, खासकर 1920 और 1930 के दशक में, उत्तर भारत के समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। इस कालखंड में हिन्दू और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिकता के बीज और गहरे होते गए। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने यह सुनिश्चित किया कि धार्मिक अस्मिता को राजनीतिक पहचान के रूप में स्थापित किया जाए।

इन दशकों में हिन्दू धार्मिक पहचान को मजबूत करने के लिए हिन्दू संगठनों ने निचली जातियों को अपने प्रभाव में लाने की कोशिश की, जिससे एक एकीकृत हिन्दू पहचान का निर्माण हो सके। इसके समानांतर मुसलमान समुदाय में भी ऐसे संगठन और धाराएँ सक्रिय हो रही थीं, जो उन्हें अपनी धार्मिक पहचान के प्रति और अधिक प्रतिबद्ध बना रही थीं। 

सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास

स्वतंत्रता के बाद, बनारस में हिन्दू-मुसलमान के बीच साम्प्रदायिक दंगों की घटनाएँ विरले ही घटित हुईं। 1947 से 1966 तक का काल अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण था। इस अवधि के बाद बनारस में साम्प्रदायिक दंगों की घटनाएं पुनः सामने आईं। पहली बार साम्प्रदायिक हिंसा 1967 में दर्ज की गई, उसके बाद साल 1969, 1972, 1977, 1978, 1985, 1986, 1989 और 1991 में दंगों की घटनाएं हुईं। इनमें से अधिकतर हिंसक घटनाएँ धार्मिक मुद्दों से जुड़ी थीं। उदाहरण के लिए, दुर्गा पूजा, काली पूजा और मुहर्रम के जुलूसों के मार्ग को लेकर अक्सर तनाव उत्पन्न हुआ। इसके अलावा, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय विधेयक जैसे मामलों पर भी साम्प्रदायिकता भड़क उठी, जो एकमात्र गैर-धार्मिक और राजनीतिक मुद्दा था।

साल 1990 का दशक बनारस में साम्प्रदायिकता की राजनीति और हिंसा के एक नए दौर का प्रतीक था। इस दशक में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मुद्दा और मंडल आयोग की सिफारिशों का लागू होना, दो प्रमुख राजनीतिक मुद्दे बने। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से देशभर में, खासकर उच्च जातियों के बीच आक्रोश की लहर दौड़ गई। इसी बीच भाजपा ने हिन्दू एकता को बढ़ावा देने के लिए 1989 के चुनावों में बड़े पैमाने पर सफलता प्राप्त की। इस सफलता को मजबूत करने के लिए लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा की शुरुआत की। इस यात्रा के दौरान कई साम्प्रदायिक घटनाएं घटीं, जिनमें हिन्दू-मुस्लिम टकराव की कई घटनाएँ हुईं। 1990 के दशक में बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके बाद हुए दंगों ने बनारस के समाज को साम्प्रदायिकता की विभाजन रेखा में और गहरा कर दिया। 

राजनीतिक दलों का चरित्र

1950 और 1960 के दशक में भारतीय जनसंघ (बीजेएस) जैसे दक्षिणपंथी हिन्दू दलों का कोई विशेष आधार नहीं था। इस दल का मुख्य समर्थक व्यापारी वर्ग और कुछ ब्राह्मण समुदाय ही था। 1970 के दशक के बाद, विशेष रूप से पाकिस्तानी शरणार्थी व्यापारियों और पंजाबी समुदाय के समर्थन से जनसंघ और फिर भाजपा का आधार बढ़ा। इसके साथ ही साम्प्रदायिक दंगे भड़काने की प्रवृत्ति भी इस दल के समर्थकों में देखी गई।

1980 के दशक में भाजपा ने हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता को अपने राजनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया, जिससे उनके प्रभाव में वृद्धि हुई। 1990 के दशक में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मुद्दे पर आधारित रथयात्रा ने साम्प्रदायिकता को और अधिक भड़का दिया।

वाराणसी और इसके आसपास के क्षेत्रों में बुनकर समाज मुख्यतः मोमिन अंसारी समुदाय से आता है। 1990 के दशक में पावरलूम के आगमन के बावजूद हैण्डलूम और पावरलूम के बीच पूरक संबंध बना रहा था। के.पी. वर्मा, अपर निदेशक, हैण्डलूम, के अनुसार, 2004-05 तक वाराणसी और चंदौली जिलों में 75,313 हैण्डलूम और 1,758 पावरलूम थे। इनमें से ज्यादातर पावरलूम विकेन्द्रीकृत घरों में ही थे, जहाँ परिवार के सभी सदस्य, विशेष रूप से महिलाएँ और बच्चे, श्रम में सहयोग देते थे। यह परिवार-आधारित श्रम व्यवस्था बनारसी साड़ी उद्योग की रीढ़ है।

बुनकर समुदाय में अधिकांश अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं, जिनमें मोमिन अंसारी का प्रमुखता से प्रतिनिधित्व है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2004 के जेसीएचपी रिपोर्ट में यह बताया गया कि इस क्षेत्र में बुनकरी के कार्य में 57,946 करघे शामिल थे, जिसमें से 41,937 ग्रामीण क्षेत्रों में और 16,009 शहरी क्षेत्रों में थे। बुनाई कार्य में लगे कुल 55,952 व्यक्ति थे, जिनमें से 93% पुरुष थे, जबकि 4% बच्चे और 3% महिलाएं थीं। पूर्णकालिक काम करने वाले पुरुषों की संख्या अधिक थी, जबकि महिलाएँ और बच्चे अंशकालिक कार्यों में अधिक संलग्न थे।

साल 1970 के दशक के बाद से पावरलूम की संख्या में वृद्धि हुई, जिसने हैण्डलूम उद्योग पर गहरा प्रभाव डाला। पावरलूम तकनीक के कारण उत्पादकता और दक्षता में वृद्धि हुई, जिससे बाजार में सस्ती साड़ियों की माँग बढ़ी। यह भी देखा गया कि जैसे-जैसे हैण्डलूम से जुड़े प्रतिबंध हटा दिए गए, वैसे-वैसे पावरलूम और हैण्डलूम के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती गई। इसके साथ ही, पावरलूम तकनीक ने बुनकर परिवारों को भी विकेन्द्रीकृत घरेलू उद्योग की ओर प्रेरित किया, जहाँ हर परिवार अपने 2-4 पावरलूम से काम करता है।

औरतों और बच्चों की भागीदारी

जेसीएचपी के आंकड़ों के अनुसार, बुनाई और इससे सम्बंधित तैयारी कार्यों में महिलाओं और बच्चों का योगदान महत्त्वपूर्ण है। आँकड़े बताते हैं कि 6,912 लोग बुनाई की तैयारियों में लगे थे, जिनमें 63% महिलाएँ थीं, 29% पुरुष और 7% बच्चे थे। बुनाई कार्य में परिवार के सभी सदस्यों का योगदान रहता है, विशेष रूप से महिलाएँ घरेलू काम के साथ-साथ बुनाई की तैयारियों में सहयोग देती हैं।

बुनकर परिवारों की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि उनकी आमदनी बेहद सीमित है। लगभग 60% परिवार प्रति माह 750-1500 रुपये कमाते हैं। वहीं, शहरी क्षेत्रों में 1500 रुपये से अधिक कमाने वालों की संख्या बढ़कर 35% हो जाती है। हालांकि, यह आय भी 3000 रुपये प्रति माह से आगे नहीं जा पाती। इसके अतिरिक्त, जेसीएचपी के आँकड़े दर्शाते हैं कि अधिकतर बुनकर परिवार अपनी आय का 80% से अधिक हिस्सा बुनाई से ही अर्जित करते हैं।

पावरलूम क्षेत्र में महिलाओं का योगदान अधिक है, खासकर शहरी क्षेत्रों में। आंकड़े बताते हैं कि कुल 1,01,082 पावरलूम श्रमिकों में से 36,456 महिलाएँ हैं, जिनमें से 64% महिलाएँ कुशल श्रमिकों के रूप में कार्यरत हैं। इसके विपरीत, हैण्डलूम क्षेत्र में महिलाएँ मुख्यतः बुनाई की तैयारी में संलग्न होती हैं। पावरलूम पर काम करने से महिलाओं को लंबे समय तक खड़े रहना पड़ता है, जिससे उन्हें शारीरिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे कि पीठ दर्द।

बुनकर परिवारों में श्रम का लैंगिक विभाजन देखने को मिलता है। बुनाई की तैयारी में महिलाएँ और बच्चे अधिकतर संलग्न रहते हैं, जबकि पुरुष बुनाई का मुख्य कार्य करते हैं। बुनाई का कार्य आमतौर पर घर के बाहरी हिस्से में किया जाता है, जिसे ‘मर्दाना’ क्षेत्र माना जाता है, जबकि महिलाएँ और बच्चे घर के भीतरी हिस्से में तैयारी के कार्य करते हैं।

इस प्रकार के श्रम विभाजन का एक अन्य पहलू पीढ़ियों के बीच का सहयोग है, जहाँ परिवार के बुजुर्ग धागे के प्रबंधन में सहयोग देते हैं और नई पीढ़ी ताने-बाने की तैयारी करती है। यह पारम्परिक व्यवस्था धीरे-धीरे कमजोर पड़ रही है, खासकर आर्थिक संकट और प्रतिस्पर्धा के चलते।

आर्थिक, तकनीकी और सामाजिक चुनौतियां

बनारस, अपनी अनूठी बनारसी साड़ियों और बुनाई कला के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ का बुनाई उद्योग, खासकर हैण्डलूम से जुड़ा हुआ, कभी कुटीर उद्योग का रूप था और बुनकर समुदाय, विशेषकर मुसलमान बुनकरों का मुख्य आजीविका स्रोत था। परंतु बदलती आर्थिक नीतियों, पावरलूम के आगमन, और तेजी से बदलते तकनीकी परिदृश्य ने इस उद्योग को गहरी चुनौतियों के सामने खड़ा कर दिया है। इस लेख में हम बुनाई उद्योग के विभिन्न पहलुओं, खासकर तकनीकी बदलाव, आर्थिक अस्थिरता, और सामाजिक संरचना पर पड़ रहे प्रभावों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

1970 के दशक के दौरान, बनारस में पावरलूम का प्रवेश हुआ, जिससे उत्पादकता और दक्षता में वृद्धि हुई। जलालीपुरा के रियाजुल हक अंसारी जैसे कुछ बुनकरों ने इस बदलाव का स्वागत किया और पावरलूम अपनाया। 2003 में जब उनसे बातचीत हुई, तब वे एक सुदृढ़ आर्थिक स्थिति में थे और उनका परिवार शिक्षित था। वहीं, बनारस के कई इलाकों में जैसे अशफाक नगर, लल्लापुरा, और जलालीपुरा में बुनकरों ने पावरलूम अपनाकर हैण्डलूम की जगह लेना शुरू कर दिया।

बुनाई उद्योग के विशेषज्ञों के अनुसार, 2018 तक बनारस में हैण्डलूम की संख्या घटकर 10,000 से 20,000 के बीच रह गई, जबकि पावरलूम की संख्या लगभग 100,000 तक पहुँच चुकी थी। अनूप गुजराती जैसे अनुभवी व्यापारी बताते हैं कि सूरत के मुकाबले बनारस में पावरलूम इकाइयों का विकेंद्रीकरण अधिक है, जहाँ आमतौर पर 4 से 5 पावरलूम एक जगह होते हैं, जबकि सूरत में औसतन 200 पावरलूम होते हैं।

बनारस में पावरलूम अधिकतर सूरत के सेकंड हैंड और पुरानी तकनीक के होते हैं, जिन्हें यहाँ के बुनकर जुगाड़ तकनीक से बनारसी बुनाई के अनुकूल बनाते हैं। पावरलूम पर बनी साड़ियाँ हैण्डलूम के समान दिखाने की कोशिश की जाती है ताकि बाजार में उनकी माँग बनी रहे। बनारसी बुनाई का कौशल और यहाँ के बुनकरों की रचनात्मकता इन्हें विशिष्ट बनाती है। बनारसी व्यापारियों के अनुसार, यह कला ऊपरवाले की देन है और बनारसी साड़ियों को हैण्डलूम की तरह दिखाने के पीछे यह हुनर ही मुख्य कारण है। 

हैण्डलूम का संकट

वर्तमान बाजार में सस्ती पावरलूम साड़ियों की अधिक माँग के कारण हैण्डलूम उद्योग को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। अशफाक नगर के इरशाद अंसारी के अनुसार, पहले जो क्षेत्र बुनाई का केन्द्र था, वहाँ अब अधिकतर व्यापारिक गतिविधियाँ हो रही हैं। 2000 के बाद बाजार में आई मंदी के चलते मझोले और छोटे व्यापारियों को भारी नुकसान हुआ और अधिकांश बुनकरों ने पावरलूम की ओर रुख कर लिया।

बनारस में शुद्ध रेशम की साड़ियों की घटती माँग के कारण हैण्डलूम से बनायी गयी साड़ियों का उत्पादन भी प्रभावित हुआ है। रेशम की कीमत जहाँ 4000 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुँच चुकी है, वहीं कृत्रिम धागा केवल 400 रुपये प्रति किलोग्राम है। इस वजह से अब पावरलूम का उपयोग कर सस्ती साड़ियाँ तैयार की जा रही हैं। ग्राहक भी अब अधिकतर पावरलूम साड़ियों को ही खरीदना पसंद करते हैं, क्योंकि उन्हें शुद्ध रेशम और नकली धागे में अंतर पहचानना कठिन होता है।

हैण्डलूम बुनकरों में मुस्लिम समुदाय का वर्चस्व था, परंतु पावरलूम के आगमन से अब हिन्दू समुदाय, विशेषकर पटेल, मौर्य और राजभर जैसे ओबीसी वर्गों का भी इस उद्योग में प्रवेश बढ़ा है। लोहता, जो पहले एक छोटा क़स्बा था, अब पावरलूम का प्रमुख केन्द्र बन गया है। यहाँ पर अधिकतर मुसलमानों ने अपने घरों में 2 से 4 पावरलूम स्थापित किए हैं और परिवार के सभी सदस्य इस कार्य में संलग्न हैं।

पावरलूम के बाद अब रैपियर मशीन ने भी बनारस के बुनाई उद्योग में दस्तक दी है। ये मशीनें अधिक उत्पादन क्षमता वाली होती हैं और एक व्यक्ति चार रैपियर मशीनें तक चला सकता है। हालाँकि रैपियर मशीनों के लिए महिलाओं की आवश्यकता नहीं होती है, जिसके कारण उनके रोजगार के अवसर और घट रहे हैं। साल 2014 के बाद से बुनाई उद्योग में एक नयी चुनौती देखने को मिली है। नोटबंदी और GST के कारण बुनकरों को आर्थिक झटका लगा और वे अभी तक इस संकट से उबर नहीं पाए हैं। इसके अलावा, बिजली सब्सिडी के समाप्त होने की संभावना भी बुनकरों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है।



बनारसी साड़ी उद्योग पर संकट

बनारस के बुनकरों और उनके जीवन की कहानी देश की आर्थिक नीतियों और सामाजिक बदलावों से गहरे जुड़े हुए हैं। इस किताब में हम बनारस के बुनकरों पर केन्द्रित एक विस्तृत शोध को सामने ला रहे हैं। इसमें मुख्य रूप से साम्प्रदायिकता, साम्प्रदायिक हिंसा, और हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों पर ध्यान दिया गया है, साथ ही बुनाई उद्योग पर मंडराते आर्थिक संकट और इसके कारण बुनकरों के जीवन में आने वाले बदलावों पर भी गहराई से चर्चा की गई है।

साल 1990 के दशक से आर्थिक नीतियों में आए बदलावों ने बुनकरों के लिए अस्थिरता पैदा की। हैण्डलूम उद्योग, जो बुनकरों की पहचान और आजीविका का मुख्य आधार था, धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर पहुंच चुका है। पिछले कुछ दशकों में हैण्डलूम की संख्या में तेज गिरावट आई है। आँकड़ों के अनुसार, बनारस में हैण्डलूम की संख्या 1995-96 में 16,343 थी, जो अब कुछ हजारों में सीमित हो चुकी है। पावरलूम का उदय, हैण्डलूम के लिए विनाशकारी साबित हुआ है, जिससे हजारों बुनकर बेरोजगारी की स्थिति में पहुँच गए हैं।

बनारस के बुनकरों के जीवन में बदलाव की कहानी, आत्मनिर्भर कारीगर से एक साधारण श्रमिक बनने की यात्रा है। 1995-96 के आंकड़े बताते हैं कि बनारस में लगभग 57,748 हैण्डलूम इकाइयाँ थीं, जबकि 2009-10 तक यह संख्या घटकर 31,378 रह गई। हैण्डलूम बुनाई से जुड़े परिवारों की संख्या में गिरावट, आर्थिक अस्थिरता और परिवारों के शहर की ओर पलायन को दर्शाती है। पहले जिन बुनकरों की अपनी स्वतंत्र पहचान थी, वे अब मास्टर बुनकरों पर निर्भर श्रमिक बनकर रह गए हैं।

महिलाओं की भागीदारी में भी कमी आई है। 1995-96 में महिलाओं का प्रतिशत 23.3 था जो 2009-10 में घटकर 21.7 हो गया। बुनाई से पहले और बाद के कई काम पहले महिलाओं द्वारा किए जाते थे, पर अब वे भी सीमित रह गए हैं। घरेलू उत्पादन खत्म होने की कगार पर है और महिलाएं अब बिचौलियों के जरिए मजदूरी पर निर्भर हो गई हैं।

बुनाई उद्योग के खत्म होते जाने के साथ ही बुनकरों की आजीविका पर मंडराते संकट ने न केवल उनके सामाजिक ढाँचे को प्रभावित किया है बल्कि हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों पर भी असर डाला है। बनारस, जो अपनी साम्प्रदायिक एकता के लिए जाना जाता था, इस बदलाव के दौर में उस पहचान को खोता नजर आ रहा है।

साड़ी उद्योग का भविष्य

प्रोफेसर वसंती रामन की पुस्तक मिजाज-ए-बनारस ने पारंपरिक हैंडलूम उद्योग के संकट और बदलते बाजार पर गहरी चिंता जताते हुए उसका समाधान भी ढूंढ़ने की कोशिश की गई है। पुस्तक में कहा गया है कि बनारस का पारंपरिक हैण्डलूम उद्योग आज तकनीकी प्रगति और बदलते बाजार के कारण एक गंभीर संकट का सामना कर रहा है। बढ़ती महंगाई, शुद्ध रेशम की घटती माँग और पावरलूम का बढ़ता उपयोग बुनाई के इस कला-रूप को समाप्ति की ओर ले जा रहे हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि भविष्य में यह उद्योग पूरी तरह मशीनों पर निर्भर हो सकता है, जिससे न केवल बुनकरों की स्वतंत्रता और सृजनशीलता प्रभावित होगी, बल्कि बनारस की सांस्कृतिक धरोहर पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ेगा।

बनारसी साड़ी उद्योग की यह दुर्दशा केवल सरकारी नीतियों और वैश्वीकरण का परिणाम नहीं है, बल्कि इसके पीछे बाजार की नई चुनौतियाँ और उपभोक्ता प्राथमिकताओं में बदलाव भी अहम कारण हैं। बनारसी साड़ी बनारस की पहचान का हिस्सा रही है, लेकिन आज यह उद्योग अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। सरकारी नीतियों में बदलाव और सही प्रोत्साहन के अभाव में इसके पुनर्जीवन की संभावना धूमिल दिखाई देती है।

बनारसी साड़ी उद्योग को पुनः जीवित करने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे। सबसे पहले, बुनकरों के लिए कच्चे माल की उपलब्धता सुनिश्चित करना, धागे और रेशमी वस्त्रों पर सब्सिडी देना और पावरलूम से प्रतिस्पर्धा में हैण्डलूम उद्योग को सुरक्षा प्रदान करना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, बुनकरों के तकनीकी कौशल को विकसित करने के लिए उन्हें नई तकनीकों का प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता प्रदान की जानी चाहिए।

यदि इन समस्याओं का समाधान नहीं हुआ, तो बनारस के बुनकर समुदाय की दुनिया भविष्य में केवल एक सांस्कृतिक धरोहर के रूप में रह जाएगी, जिसे नई पीढ़ियाँ कहानियों के माध्यम से ही जान पाएंगी। "बनारस के बुनकर: सामुदायिकता, संघर्ष और बदलते दौर का अध्ययन" केवल एक शोध नहीं है, बल्कि इस समुदाय की पीड़ा और उनके जीवन के अनछुए पहलुओं का एक दस्तावेज़ है। यह किताब उस सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को समझने में मदद करती है जो बनारस की पहचान के लिए महत्वपूर्ण है। जब तक इन बुनकरों की समस्याओं का समाधान नहीं होता, तब तक बनारसी साड़ी और बनारस की सांस्कृतिक पहचान दोनों संकट में रहेंगी।

पावरलूम के बढ़ते प्रभाव के सामने बुनकर समुदाय की परंपरागत हैण्डलूम कारीगरी कठिनाइयों का सामना कर रही है। सरकार और बाजार की माँग में बदलावों ने उनके काम में अस्थिरता उत्पन्न कर दी है। बढ़ती महंगाई, सस्ती पावरलूम साड़ियों की बढ़ती माँग और पारंपरिक बुनाई का संकट बुनकर समुदाय को आर्थिक और सामाजिक संकट में डाल रहा है। इस उद्योग के संरक्षण के लिए जरूरी है कि सरकार और सामाजिक संस्थाएँ मिलकर बुनकरों की आर्थिक सुरक्षा के लिए विशेष प्रयास करें ताकि उनका अनमोल कौशल और उद्योग समय के साथ विलीन न हो जाए।

बनारस का समाज हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक भी है, लेकिन औपनिवेशिक शासन और उसके बाद के वर्षों में साम्प्रदायिकता ने यहाँ गहरे सामाजिक विभाजन पैदा किए। 1990 के दशक में बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद और मंडल आयोग के प्रभाव ने साम्प्रदायिकता को और बढ़ा दिया, जिससे बुनकर समाज पर भी असर पड़ा। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझना इसलिए आवश्यक है ताकि भविष्य में साम्प्रदायिक हिंसा से बचा जा सके और दोनों समुदायों के बीच सौहार्द्र और भाईचारे को पुनः स्थापित किया जा सके। यदि सरकार और समाज ने इसे संरक्षित करने के लिए आवश्यक प्रयास नहीं किए, तो बनारसी साड़ी केवल एक ऐतिहासिक धरोहर बनकर रह जाएगी।

"मिज़ाज-ए-बनारस" का लोकार्पण

बनारस के कैंट स्थित विश्व ज्योति जनसंचार समिति के सभागार में मिजाज-ए-बनारस के लोकार्पण समारोह में प्रो.वसंती रमन ने कहा कि यह किताब बनारस के बुनकर समुदाय के जीवन, उनकी संस्कृति और चुनौतियों पर आधारित है। बुनकर समुदाय का संघर्ष केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक भी है। बनारसी साड़ी के धागे में न केवल कला, बल्कि उनकी पीड़ा और मेहनत भी बुनी जाती है। उनके इस सफर में कई लोग शामिल रहे, जो उनके हर कदम पर साथ थे, चाहे मौसम कैसा भी हो। यह यात्रा उनके लिए केवल शोध नहीं, बल्कि बनारस और यहां के लोगों की संस्कृति, संघर्ष और सहयोग की एक अमूल्य कहानी थी।

प्रो.रामन ने अपने अनुभव साझा करते हुए प्रियंका और शिवपाल जैसे व्यक्तियों का नाम लिया, जिन्होंने शुरू से लेकर अंत तक उनका साथ दिया। "मिज़ाज-ए-बनारस" बनारस के लोगों की कहानी है। बनारस में रहकर उन्होंने बुनकरों के संघर्ष को न केवल समझा, बल्कि उसे अपनाया भी। उन्होंने बनारस के मुस्लिम समुदाय के इतिहास पर भी चर्चा की, खासकर ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस के उस आंदोलन का जिक्र किया जो 'दो-राष्ट्र सिद्धांत' के खिलाफ था। यह उस समय की बात है जब जिन्ना और मुस्लिम लीग इस सिद्धांत को आगे बढ़ा रहे थे। उस समय बनारस के मुसलमानों ने इसके विरोध में आवाज उठाई थी।

प्रो.वसंती ने कहा, "यह आंदोलन इस बात का प्रतीक था कि बनारस के मुसलमानों का झुकाव हमेशा देश के एकता और अखंडता के पक्ष में रहा है। लेकिन साम्प्रदायिकता और नवउदारवादी नीतियों ने इस उद्योग को गहरे संकट में डाल दिया है। एक तरफ साम्प्रदायिक तनाव और दूसरी तरफ ग्लोबलाइजेशन की मार, दोनों ही ने बुनकरों के भविष्य को अंधकारमय बना दिया है।"

प्रो.रामन ने बनारस की लंबी विरासत का भी उल्लेख किया, "बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब इस शहर की आत्मा है। यही विविधता इसे एक छोटा-सा हिंदुस्तान बनाती है। होली के समय यहाँ की गलियों में हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदाय मिलकर गाते-बजाते थे। बनारस की यह विरासत हमारी असली पहचान है, और इसे सहेजने के लिए हमें सामूहिक प्रयास करना होगा। यह साझेदारी अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है, लेकिन इसे जीवित रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस विरासत को बनाये रखने के संघर्ष के साथ ग्लोबल कैपिटल जैसी बड़ी ताकतों से भी मुकाबला करने की आवश्यकता पर जोर दिया।"

"यह केवल मेरी नहीं, बनारस के लोगों की ओर से उनके संघर्ष और उनकी संस्कृति का एक छोटा सा योगदान है। इस यात्रा में कई सहयोगी रहे, जिनके बिना यह किताब संभव नहीं हो पाती। मैंने इसे हिंदी में प्रस्तुत करने का निर्णय लिया ताकि यह बनारस के लोगों तक अपनी मूल भाषा में पहुंच सके।"

लेखिका वसंती रमन कहती हैं, "हमें खुद भी यह अंदाज़ा नहीं था कि हमारा शोध किस दिशा में जाएगा। साल 1990-91 के समय की रिपोर्टिंग पढ़ते हुए हमने पाया कि उस समय लोगों में यह धारणा थी कि मदनपुरा के लोग पाकिस्तान से जुड़े हैं, जैसे कि कोई गुप्त संबंध हो। आज भले हम इस बात पर हंस लें, लेकिन उस समय एक पूरे समुदाय को दुश्मन के रूप में पेश किया जा रहा था। यह कोई नई बात नहीं है; हमारे देश में इस तरह के आरोपों का इतिहास पुराना है।"

आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के अध्ययन के संदर्भ में वसंती कहती हैं, "हमने कई इलाकों का दौरा किया, जैसे बजरडीहा, मदनपुरा, लल्लापुरा, और लोहता। इन इलाकों में जाकर हमने बुनकरों की आर्थिक स्थिति और उनके जीवन संघर्ष को करीब से देखा।"

आखिर में वसंती कहती हैं, "सच कहूं तो यह किताब आप सभी की कहानी है। इस पूरी यात्रा में आपकी कहानियां ही हैं जो हर पन्ने पर बसी हैं। यह आपके संघर्ष, आपकी सोच, और आपके जीवन की तस्वीर को पेश करती है। यह किताब उन सभी के संघर्ष और साहस की गवाही है जिन्होंने बनारस को अपनी संस्कृति और मेहनत से संजोया है। यह केवल एक किताब नहीं, बल्कि बनारस की जीवंत कहानी है।"

इस मौके पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर ध्रुप सिंह ने कहा, "बुनकर समाज को यदि नजदीक से देखा जाए तो यह एक बहुत ही मार्मिक और जमीनी सचाई को उजागर करता है। भागलपुर में भी, जहां मेरा बचपन बीता, वहां भी बुनकर रहते थे और वहां भी कपड़े बनाए जाते थे। बनारस के बुनकरों के बारे में "मिज़ाज-ए-बनारस" का अंग्रेजी संस्करण मैंने पढ़ा है, और यह किताब पूरे हिन्दुस्तान के बुनकरों की कहानियों को हमारी समझ में लाती है।

बुनकरों का काम उनके पसीने, खून, और उनकी मेहनत से तैयार होता है। हर बुनाई के पीछे उनकी उंगलियों का हुनर और आत्मा जुड़ी होती है। जब भारत की नई तस्वीर देखी जा रही थी, तब शायद हमारे पास न्यूक्लियर फिजिक्स जैसा विज्ञान नहीं था, लेकिन मोमबत्ती बनाने, अगरबत्ती बनाने, कागज बनाने, कलम बनाने, कपड़ा बुनने और फटे कपड़ों को रफू करने का अद्वितीय हुनर हमारे पास था। ये विरासतें हैं जो हमें एक अलग पहचान देती थीं। जैसे हम स्कूल में लिखते थे कि 'किस्मत की फटी चादर का कोई रफूगर नहीं होता,' वैसे ही आज भारत की किस्मत और उसकी मेहनतकश जनता की समस्याएं हमारी सियासतदानी हल नहीं कर पा रहे हैं।

"मिज़ाज-ए-बनारस" ने मुझे बुनकरों के कठिन जीवन और उनकी मजबूरियों को समझने का एक जरिया दिया है। अगरबत्ती, मोमबत्ती, और अन्य दैनिक जीवन में काम आने वाले छोटे-मोटे उद्योगों के लिए दुनिया भर में आज भी मांग है। यह बुनकर समाज का ही योगदान है जिसने इन उद्योगों को जिंदा रखा है। यह किताब बनारस के बुनकरों की कहानी भर नहीं है, यह उनके पूरे जीवन का ताना-बाना है।

बीएचयू के इतिहास विभाग के प्रोफेसर महेंद्र विक्रम सिंह ने पुस्तक "मिजाज-ए-बनारस" पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा, "पहले आर्मी के फ्लैप और उनके एंबल बनारस से एक्सपोर्ट होते थे, लेकिन यह विडंबना है कि जो इन्हें बनाता था, वो बुनकर अपनी आंखों की रोशनी खोता चला गया, जबकि मुनाफा कमाने वाले अपना मुनाफा बढ़ाते रहे। मैं बिना किसी संकोच के कहूंगा कि बनारस की साड़ियों और सूरत की साड़ियों की तुलना में बुनकर की हालत पर उतनी बात नहीं होती। बुनकर समाज पहले से ही अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है और उनकी सच्चाई कहीं छुपी सी रह जाती है।

प्रोफेसर सिंह ने कहा, "मुझे कई ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला जिनका नजरिया अलग है, जिनकी जरूरतें, ख्वाहिशें और फायदे अलग हैं। बुनकर अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीने के लिए बस अपने हक की उम्मीद रखता है। मैं लेखिका वसंती रमन को धन्यवाद देना चाहता हूं, जिन्होंने इस विषय पर गहन शोध किया और इसके पीछे की सच्चाई को उजागर करने की कोशिश की है। मुझे विश्वास है कि यह किताब न केवल ईमानदार होगी, बल्कि हमारे समाज को एक नई दृष्टि देने में सहायक होगी। यह किताब हमें सोचने और समझने का एक नया आयाम देगी।"

कार्यक्रम का संचालन करते हुए एक्टिविस्ट डा.मुनीजा खान कहती हैं, "मिज़ाज-ए-बनारस" बुनकरों के जीवन और उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थितियों का गहन एथनोग्राफिक अध्ययन है। इसमें बनारस के बुनकरों के जीवन पर साम्प्रदायिकता और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रभावों का विश्लेषण किया गया है, जिससे न केवल उनके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर बल्कि उनके व्यवसाय और सांस्कृतिक पहचान पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा है।"

"बुनकर समुदाय बनारस की गंगा-जमुनी तहजीब और बनारसी मिज़ाज को बनाए रखने में हमेशा से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। उनकी कला और कार्यशैली, जिसमें गंगा-जमुनी संस्कृति की झलक मिलती है, सदियों से इस शहर की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा रही है। लेकिन आज, नवउदारवादी आर्थिक नीतियों और बढ़ती साम्प्रदायिकता ने इस कला को संकट में डाल दिया है। यह अध्ययन बताता है कि कैसे बदलती आर्थिक नीतियों ने बुनकरों के पारंपरिक व्यवसाय को चुनौती दी है, जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिरता पर असर पड़ा है।"

डा.मुनीजा कहती हैं, "किताब में फील्डवर्क और ऑफिसियल आंकड़ों के माध्यम से बुनकरों के दैनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया गया है, जिसमें उनके व्यवसायिक संकट, पारिवारिक जीवन, समुदाय में स्थान, और सांस्कृतिक पहचान को बरकरार रखने की उनकी कोशिशें शामिल हैं। यह शोध बुनकरों की समस्याओं को समझने में एक नयी दृष्टि प्रस्तुत करता है और बताता है कि कैसे उनकी आजीविका पर मंडराते संकट के साथ-साथ बनारस का मिज़ाज भी अपनी विशिष्टता खोता जा रहा है।"

"बनारस के सरैयाँ, बजरडीहा, नक्खीघाट जैसे क्षेत्रों में बुनकर समुदाय के लोग एक वक्त का भोजन ही कर पा रहे हैं। यह स्थिति केवल आर्थिक संकट ही नहीं, बल्कि बुनकरों के सामाजिक और मानसिक जीवन को भी प्रभावित करती है। वे लोग जो कभी बनारस की संस्कृति और कला के संरक्षक माने जाते थे, आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।"

डा.खान यह भी कहती हैं, "मुझे उम्मीद है कि यह किताब हमें इन कहानियों को विस्तार से समझने और इनकी रोशनी में कुछ नया करने का रास्ता दिखाएगी। मैं यहां अपनी बात रखने नहीं आया था, परंतु आपने बुला लिया तो अपने दिल की बात कह गया। यह कहानी एक संजीदा कोशिश है कि हम अपने समाज के इन धागों को समझें, जो हमारी किस्मत और विरासत की बुनियाद रखते हैं।"

मुख्य वक्ताओं में से मुफ्ती-ए-बनारस मौलाना अब्दुल बातिन ने कहा कि, "बनारस की परंपरा और गंगा-जमुनी तहजीब को संजोने का सबसे बड़ा योगदान बुनकर समुदाय का है, जो वर्षों से न सिर्फ कढ़ाई-बुनाई का काम कर रहे हैं, बल्कि बनारस की पहचान को भी संजोए हुए हैं।"

इस मौके पर प्रो. दीपक मालिक कहा कि, "मिजाज-ए-बनारस यह शोध नब्बे के दशक में बढ़ती साम्प्रदायिकता के संदर्भ में किया गया था। किताब में शामिल लेखक की बातचीतें और अनुभव न केवल इस अध्ययन को विश्वसनीय बनाते हैं, बल्कि इसे पठनीय और रुचिकर भी बनाते हैं। लेखिका ने बुनकरी और उससे जुड़े लोगों के जीवन के उन पहलुओं को उजागर किया है, जिन्हें सामान्यतः अनदेखा कर दिया जाता है।"

"वसंती रामन का यह अध्ययन बनारस के बुनकर समुदाय और बनारसी साड़ी उद्योग की जमीनी हकीकत को सामने लाता है। यह किताब केवल बुनकरी उद्योग की स्थिति का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि यह सामुदायिकता, कला और संस्कृति के संरक्षण की गाथा भी है। यह किताब न केवल बनारस और उसके बुनकरों की संघर्षशील दुनिया को समझने में सहायक है, बल्कि यह एक सामाजिक अध्ययन का उत्कृष्ट उदाहरण भी है।"

बनारसी बुनकरों के संघर्ष और उनके अनूठे कला कौशल की सराहना करते हुए प्रो. कमरजहां ने भी कहा, "वसंती रामन  का अध्ययन विशेष रूप से दो मुख्य मुद्दों को रेखांकित करता है। पहला, बनारसी बुनकरी उद्योग जो साम्प्रदायिक सद्भावना का प्रतीक रहा है, वह साम्प्रदायिकता की बढ़ती आंच में प्रभावित हुआ है। नब्बे के दशक में साम्प्रदायिक तनाव और दंगों के बढ़ने से बुनकर समुदाय के लोग भी इससे अछूते नहीं रहे। उनके जीवन और आजीविका पर इसका गहरा असर पड़ा।"

"नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का प्रभाव, जिसने इस परंपरागत उद्योग को अस्तित्व के संकट में डाल दिया। जैसे-जैसे बाजार खुला, पावरलूम और मशीनों का प्रयोग बढ़ा, वैसे-वैसे हाथ से बुनाई का महत्व घटने लगा। बनारस के हैण्डलूम बुनकर, जो अपनी कारीगरी और धैर्य से बारीक कपड़े बनाते थे, अब मशीनों की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने लगे। सस्ते और कम समय में बनने वाले मशीन-निर्मित कपड़ों ने पारंपरिक बुनकरी के उद्योग को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया। इन नीतियों के परिणामस्वरूप हजारों बुनकर बेरोजगार हो गए और उनकी आजीविका संकट में आ गई।"

बुनकरों की बदहाल जिंदगी 

कमरजहां कहती हैं, "बनारसी बुनकर समुदाय, जो कभी अपनी कला से अपने परिवार का भरण-पोषण करता था, आज आर्थिक तंगी से जूझ रहा है। आधुनिक मशीनों और पावरलूम के बढ़ते उपयोग के चलते हाथ की बुनाई का काम घटता गया, जिससे बुनकरों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती चली गई। कई बुनकर अब दूसरे रोजगार की तलाश में हैं। कुछ ने सब्जी बेचने, रिक्शा चलाने जैसे कार्यों को अपनाया है, जबकि महिलाएं घरों में साड़ी पर टिकली चिपकाने जैसे छोटे-मोटे काम करने को मजबूर हैं।"

"मिज़ाज-ए-बनारस" के लोकार्पण समारोह में यूपिका चेयरमैन अमरेश कुशवाहा ने कहा कि बनारस, जिसे काशी और वाराणसी के नाम से भी जाना जाता है, भारत का एक प्राचीन शहर है जिसकी सांस्कृतिक धरोहर और आध्यात्मिक महत्ता का अपना अनूठा स्थान है। यह शहर साहित्य, धर्म, कला और हस्तशिल्प के क्षेत्र में अपनी गहरी जड़ों और प्रभाव के लिए पहचाना जाता है। बनारस की एक प्रमुख पहचान "बनारसी साड़ी" है, जो न केवल स्थानीय बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी विशिष्टता को दर्शाती है।

अमरेश कहते हैं, "बनारसी साड़ी का इतिहास यहां के बुनकरों की मेहनत, उनकी कलात्मकता और उनकी परंपराओं से जुड़ा है। बुनकर न केवल इस कला को जीवित रखे हुए हैं बल्कि बनारस की अस्मिता का भी अभिन्न अंग हैं। इन बुनकरों का जीवन और उनका संघर्ष बनारस के समृद्ध इतिहास और उसकी जटिल सामाजिक संरचना को समझने में सहायक हैं। "मिज़ाज-ए-बनारस" की लेखिका वसंती रामन की यह किताब, जो बुनकरी उद्योग और बनारस के बुनकर समुदाय के गहन अध्ययन पर आधारित है, इस क्षेत्र की वास्तविकताओं को उजागर करती है।"

"इस किताब में यह बात बार-बार उभरकर सामने आती है कि बनारसी साड़ी उद्योग हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों के साधारण लोगों के पारंपरिक और पारिवारिक उद्यम से चलता है। इस उद्योग में काम करने वाली महिलाओं का योगदान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, हालांकि उनके श्रम को अक्सर अनदेखा किया जाता है। बनारसी बुनकरी की इस सामुदायिकता में गंगा-जमुनी तहजीब की झलक मिलती है, जो हिन्दू-मुस्लिम एकता और सह-अस्तित्व का प्रतीक है। यह तहजीब न केवल बुनकरों की कला में, बल्कि उनके आपसी संबंधों में भी देखने को मिलती है।"

बुनकरों के बीच में एक विशेष आकर्षण का केंद्र लेखिका प्रो. वसंती रामन से मुलाकात और पुस्तक पर हस्ताक्षर का अवसर था। लोग कतारबद्ध होकर इस अनोखी कृति की सराहना करते हुए अपनी प्रति पर लेखिका से हस्ताक्षर करवा रहे थे। भक्तों ने इस पुस्तक को केवल एक किताब नहीं, बल्कि एक अमूल्य धरोहर के रूप में माना। इस मौके पर बुनकर नेता अरविंद मूर्ति, फादर फिलिप डेनिस, डा.ऋचा मिनोचा, नसीम खान, जमजम रामनगरी, जुबेर आदिल आदि प्रमुख लोग मौजूद थे। संचालन फजलुर रहमान अंसारी और धन्यवाद प्रस्ताव डा.मुनीजा खान ने दिया।

"मिज़ाज-ए-बनारस" की लेखिका प्रो. वसंती रामन का व्यक्तिगत अनुभव और उनकी लगन से लिखा गया यह अध्ययन भक्तों के बीच विशेष चर्चा का विषय बना रहा। उन्होंने दो दशकों के फील्डवर्क के दौरान बुनकरों के जीवन में आए बदलावों, उनके संघर्षों और उनके अनोखे ताने-बाने को किस तरह समेटा है, यह जानकर लोग भावुक हो उठे। इस अवसर पर बनारस के लोक जीवन से जुड़े भक्तों, शोधकर्ताओं, छात्रों, और सांस्कृतिक प्रेमियों का उत्साह देखने लायक था।

इस कार्यक्रम में बड़ी तादाद में बुनकर भी मौजूद थे, जो दूर-दूर से आए थे और वो बनारस की उस विरासत का हिस्सा बनने का गर्व महसूस कर रहे थे, जो बुनकरों की अनमोल धरोहर में संजोई गई है। हर किसी के चेहरे पर बनारस के प्रति अपार प्रेम और अपने सांस्कृतिक समाज के संरक्षण के प्रति उत्सुकता साफ झलक रही थी।

पुस्तक के लोकार्पण में मौजूद वक्ताओं प्रो. वसंती रमन के प्रयासों की सराहना की और इस बात पर जोर दिया कि "मिजाज-ए-बनारस" जैसे शोध हमें उन समुदायों को समझने और उनका समर्थन करने का मार्ग प्रदान करते हैं, जो सांस्कृतिक धरोहर के अभिन्न अंग हैं। इस आयोजन ने बनारस के सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास को न सिर्फ बुनकरों के बीच जिंदा रखा, बल्कि उन्हें इस धरोहर को संजोने की प्रेरणा भी दी।

(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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