आहार और भारत का धर्म

Written by Sanjay Shraman Jothe | Published on: September 13, 2019
1. स्वामी विवेकानन्द अरबिंदो घोष और ओशो रजनीश ने धर्म और भोजन के बारे एक काम की बात कही है. इनका मत है कि आध्यात्मिक होने का दावा करने वाले भारतीय धर्म दर असल बहुत भौतिकवादी हैं. (हालाँकि भौतिकवादी होना निंदा का नहीं सम्मान का विषय है, लेकिन इस चर्चा में इन तीनों ने इसे निंदा के अर्थ में ही लिया है). इन तीनों के अनुसार भारतीय धर्मों में अध्यात्म शुरू होने से पहले ही चूल्हे और भोजन की थाली में लडखडा के मर जाता है. जो धर्म जितने ऊँचे रहस्यवाद के दावे करता है भोजन की थाली से उसे उतना ही भय लगता है. उन्हें लगता है कि उनका परमात्मा कोई फ़ूड इंस्पेक्टर है.



वैसे धर्मों की अन्य बातों को सुनिए, दुसरे मुद्दों पर वे बहुत ही लंबी लंबी छोड़ते हैं. आत्मा परमात्मा के बारे में तो इतनी लंबी छोड़ते हैं कि हबल का टेलिस्कोप भी उसकी लंबाई प्रकाश वर्ष में भी नहीं नाप सकता. लेकिन भोजन में शाकाहार मांसाहार का प्रश्न आते ही सारा रहस्यवाद और चमत्कार थरथराने लगता है.

अब इन्ही धार्मिकों से पूछा जा सकता है कि आपकी महाकाली, शिव, भैरव, पूरा तंत्र और उसमे भी खासकर औघड़, कापालिक कालमुख और रक्तबीज संप्रदायों का दर्शन क्या है? पञ्च मकार क्या हैं? क्या ये किसी भी अर्थ में आपके मुख्यधारा के दर्शन से कम दार्शनिक हैं? इन्हें कैसे नकारियेगा?

अब मजा ये है कि ये ही शाकाहारी जब व्यापर करते हैं. योजना या नीतियां बनाते हैं या राजनीति करते हैं, तब इनके जेहन में बैठे बर्बर जानवर ठीक से नजर आते हैं. इनके असली दांत और नाखून आपको इनके व्यापार और राजनीति करने के ढंग में नजर आयेंगे.

मैं कुछ समय तक मध्यप्रदेश के अशोकनगर चंदेरी इलाके में था. वहां एक ख़ास समुदाय के व्यापारियों का आतंक है. चंदेरी साडी के कारीगर बहुत ही गरीब होते हैं उनके साथ मेरी मित्रता थी. उनका जैसा शोषण और दलन इन शाकाहारियों ने किया है वैसा कोई और नहीं कर सकता. वे मजदूर अक्सर एक कहावत दोहराते थे. वे कहते थे हमारे मालिक पानी छानकर पीते हैं लेकिन मजदूरों का खून बिना छाने ही पी जाते हैं.

शाकाहार मांसाहार का न तो आपके नैतिक अनैतिक होने से कोई संबंध है न धार्मिक अधार्मिक होने से कोई संबंध है. ये व्यर्थ की बहस है.

2. मांसाहार की बात आते ही भारतीय लोग अचानक आध्यात्मिक हो उठते हैं। हमें भोजन की थाली से स्वर्ग या मोक्ष तक जाती हुई एक लंबी सी सीढ़ी नजर आने लगती है। जैसे कि सारे स्वर्ग और समाधि सहित देवी देवता और मोक्ष इत्यादि चूल्हे में ही घुसे हुए हैं। इसीलिये भारत की पूरी चेतना और कॉमन सेन्स चूल्हे से बाहर नहीं निकल सकी है। हम मजाक में कहते हैं "भाड़ में जाओ" लेकिन गौर से देखिये, हमारा समाज भाड़ में ही पैदा होता है और वहीं जीता है। हमारा समाज चूल्हे, भाड़ या भतूड़ से कभी बाहर नहीं निकलता।

भोजन के चुनाव के संबन्ध में हम बुद्ध कृष्ण महावीर मुहम्मद या जीसस के आचरण को भी बार बार चर्चा में लाना चाहते हैं।

लेकिन यहां एक समस्या है। हम हमेशा एक प्रेस्क्रिप्शन सब पर लागू करना चाहते हैं। बुद्ध या महावीर या मुहम्मद की अपनी परिस्थितियां और अपने रुझान हैं। अगर वे संवेदनशीलता और जागरण की ऊंचाई पर अपने लिए कोई चुनाव करते हैं तो ये उनका अपना और अपने शरीर या मन के लिए चुनाव है। उसका दुनिया भर के लिए सामान्यीकरण नहीं करना चाहिए। समान्यीकरण ही करना है तो चिकित्सकों की राय का और पोषण विशेषज्ञों की राय का कीजिये। अगर डॉक्टर आपको शाकाहारी या मांसाहारी बनने को कहे तो ये आपके निदान और इलाज का विषय है। एक कुपोषित और एक डाइबिटिक को दी गयी प्रेस्क्रिप्शन का समान्यीकरण करना सिर्फ मूर्खता है।

वैसे बुद्ध स्वयं आरंभ में मांसाहारी थे। बाद में उन्होंने न केवल मांसाहार बल्कि अन्य सभी तरह के राजसी भोजन सहित, आरामदायक बिस्तर, घोड़ागाड़ी, सेक्स, परिवार, क्रोध, घृणा, भेदभाव इत्यादि सब छोड दिया कपड़े भी छोड़ दिए... लेकिन हम ये सब नहीं छोड़ेंगे.... हम सिर्फ मांसाहारियों को नीच साबित करने के लिए बस भोजन भर की बकवास करेंगे। बुद्ध को भी एक टुकड़े में काटकर उनकी बात करेंगे। ये गलत है मित्रों।

इस चर्चा में वचन वीर ओशो का कोई उद्धरण देना बेवकूफी है, वे पक्ष विपक्ष में हजारों मत एकसाथ देते हैं, वे सिर्फ उलझाते हैं। मुहम्मद और सूफियों पर बोलते हुए वे मांसाहार के पक्ष में हैं और महावीर पर बोलते हुए न केवल शाकाहारी बल्कि कुपोषणवादि हो जाते हैं। हां विवेकानंद और रामकृष्ण की बात की जा सकती है। वे जीवन भर मांसाहारी रहे और सबके लिए मांसाहार की वकालत करते रहे। जीसस इस विषय में सबसे समझदार हैं वे गरीब और दमित समाज को न केवल मांस बल्कि हल्की सी वाइन पीने की भी सीख दे रहे हैं। हालाँकि ये सामान्यीकरण भी गलत है। उनके दौर की देशकाल और परिस्थिति भी अनुमान में लेनी चाहिए।

भोजन के बारे में किसी महापुरुष की राय की इतनी ही जरूरत है तो जीसस की राय लीजिये। वे भोजन की टेबल को प्रेमपूर्ण चर्चा संवाद और एकीकरण का मंच बना डालते हैं। ये है असली धर्म और अध्यात्म अगर समझ में आ सके तो इसे अपनाइये।

भोजन पोषण का विषय है। इसमें चलताऊ अध्यात्म और पाप पूण्य को मत घुसेडिये। वैसे भी भारतीय ढंग का अध्यात्म एक पाखण्ड के सिवाय कुछ नहीं है। कभी कहेंगे अष्टावक्र की तरह स्वयं को नित्य शुध्द बुद्ध मानकर मुक्त हो जाओ, कभी कहेंगे जन्म जन्मों की साधना जरूरी है। कभी कहेंगे बन्धन और मुक्ति दोनों माया है। कभी कहेंगे साक्षी होकर हत्या करने पर भी कोई दोष नहीं, शरणागत और निमित्त भाव से सबको काटते जाओ कोई पाप नहीं लगेगा-ये बकवास अनन्त है।

भारतीय अध्यात्म अवसरवाद की सबसे बड़ी और जहरीली जलेबी का नाम है। भारतीयों को अध्यात्म के नाम पर मल मूत्र तक खिलाया जा सकता है लेकिन कुछ भी खिला पिला दो उनकी पैशाचिक सोच में कोई बदलाव नहीं आता उनके सॉफ्टवेयर में कोई दूसरा प्रोग्राम घुसता ही नहीं। एक ही धुन बजती रहती है।

अपने ही घर के भीतर इन शाकाहारियों की अपनी ही स्त्री, बेटी या बहन पाप योनि है, लड़की की भ्रूण हत्या करेंगे लेकिन बकरी मुर्गी मछली इत्यादी पर बड़ा प्रेम उंमडता है। आस पड़ोस के गरीब इंसानों को जीते जी मार डालेंगे उनसे, शिक्षा, रोजगार, जमीन, सम्पत्ति सम्मान सब छीन लेंगे और उन्हें जानवर से बदतर जिंदगी में धकेल देंगे। लेकिन मजा देखिये ये ही पिशाच फिर कीड़े मकोड़ों की रक्षा के लिए पानी छानकर पिएंगे या चींटियों मछलियों को दाना चुगायेंगे। इनका ये पाखण्ड लाइलाज है।

वैसे भी आप गौर कीजिये शाकाहारियों ने जैसे सूक्ष्मता से पूरे भारतीय समाज के करोड़ों लोगों की हजारों साल तक धर्मसम्मत ढंग से रोजाना हत्या की है वो किसी मांसाहारी ने कभी कहीं नहीं की। हिटलर मुसोलिनी और सलाहुद्दीन अभी बच्चे हैं इनके सामने।

मित्रों! भोजन को भोजन ही रहने दीजिये। छोड़ना है तो क्रोध, घृणा, वैमनस्य, उंच नीच, इत्यादि छोड़िये। बाद में जब आपका सौंदर्यबोध बढ़ जाए तो आप व्यक्तिगत रूप से ज़िंदा पेड़ फूल फल दूध शहद इत्यादि खाना भी अस्वीकार कर सकते हैं वो आपकी मर्जी है। लेकिन इसे दूसरों पर मत थोपिये। ये हिंसा है। ये अमानवीय है

3. शाकाहार और मांसाहार में तुलनात्मक मेरिट की ही बात है तो ध्यान रखियेगा कि दुनिया में सारा ज्ञान विज्ञान तकनीक मेडिसिन चिकित्सा यूनिवर्सिटी शासन प्रशासन संसदीय व्यवस्था व्यापार उद्योग इत्यादि यूरोप के मांसाहारियों ने ही दिया है। भारत सहित अन्य मुल्कों को भी लोकतन्त्र, शिक्षा, विज्ञान और मानव अधिकार सिखाने वाले यूरोपीय ही थे। आज भी वे ही सिखा रहे हैं। मुल्क जिन भी व्यवस्थाओं से चल रहा हा वो सब उन्ही की देन है।

अपने वेदों और पुराणों को भी ठीक से देखिये, देवताओ सहित ऋषि मुनि पुरोहित राजा और सभी देवियाँ मांसाहारी हैं। शाकाहारी खुद हजारो साल तक गुलाम रहे हैं और गुलामियों और भेदभाव को पैदा करने में विश्व रिकॉर्ड बनाते रहे हैं।

शाकाहार की बहस असल में मुल्क को कमजोर कुपोषित और मानसिक रूप से दिवालिया बनाती है। शाकाहार में अव्वल तो आवश्यक पोषण होता ही नहीं या फिर इतना महंगा होता है कि भारत जैसे गरीब मुल्क में इसकी मांग करना गरीबों का मजाक है। पूरी दुनिया में भारत डाइबिटीज केपिटल बना हुआ है। कारण एक ही है, भारतीय थाली से प्रोटीन छीन लिया गया है। सबसे कमजोर और बोगस भोजन भारत का ही है। रोटी, चावल, घी, तेल, मक्खन, दूध दही शक्कर नमक सहित सभी अनाज सिर्फ फेट स्टार्च और कारबोहाइड्रेट देते हैं। बस चुल्लू भर दाल में ही थोडा सा प्रोटीन है वो भी अब आम आदमी की औकात के बाहर चली गयी है।

इसीलिये हिंदुस्तान लंबे समय से कमजोर, ठिगने, मन्दबुद्धि और डरपोक लोगों का मुल्क रहा है। भारत की 15 प्रतिशत से ज्यादा आबादी पुलिस या सेना की नौकरी के लायक ही नहीं होती। मुल्क की जनसंख्या में इतने बड़े अनफिट प्रतिशत का उदाहरण पूरी दुनिया में और कहीं नहीं है। याद कीजिये मुट्ठी भर मुगलों और अंग्रेजों ने इस मुल्क पर हजारों साल राज किया था। ये शाकाहार की महिमा है।

हालाँकि इसमें जाति और वर्ण व्यवस्था का भी हाथ है जिसने फ्री नॅचुरल सिलेक्शन को असंभव बनाकर पूरे मुल्क के जेनेटिक पूल को जहां का तहाँ कैद कर दिया है और समाज को हजारों टुकड़ों में तोड़ डाला है। इस देश में कोई जेनेटिक मिक्सिंग और सुधार नहीं हो सका है।

बाकी सौंदर्यबोध के नाते आप शाकाहारी हैं तो ठीक है, आपकी मर्जी... लेकिन उससे आप महान नहीं बन जाते, न ही मांसाहारी नीच हो जाते हैं। अपनी महानता दूसरों पर थोपकर उनसे बदलने का आग्रह करना भी हिंसा है। मांसाहारियों ने शाकाहारियों की थाली को लेकर कभी बवाल नहीं किया। लेकिन शाकाहारियों को जाने क्या दिक्कत होती है उनकी नजर हमेशा भटकती रहती है। आपका स्वर्ग तो पक्का है, अकेले वहां जाकर खुश रहो न भाई, दूसरों की हांडी में झाँकने की क्या जरूरत है?

(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में रिसर्च फेलो हैं।)

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